प्रचार की आकाश गंगा में स्वयंभू सितारे / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 01 अप्रैल 2014
मुंबई के एक प्रतिष्ठित अखबार ने ऋषि कपूर से क्षमा याचना की क्योंकि उन्होंने एक बयान को तोड़-मरोड़कर कुछ इस तरह प्रचारित किया मानो ऋषि ने नवाजुद्दीन को प्रतिभाहीन कहा हो जबकि ऋषि ने मात्र इतना कहा था कि व्यावसायिक सिनेमा में वर्षों तक बेहिसाब फिल्मों में दरख्तों के गिर्द नायिका के लिए नाचना-गाना आसान काम नहीं है, बुरे ढंग से लिखी गई बेजान भूमिकाओं में अभिनय द्वारा जान फूंकने का काम दशकों तक करना आसान नहीं होता। कल्पना करें कि कलाकार मन ही मन दु:खी है कि वही हमेशा का रुटीन करना है, फिर भी वह भूमिका में अपने रमे होने का आभास पैदा करे, यह सचमुच कठिन काम है।
विगत कुछ समय में इरफान खान और नवाजुद्दीन जैसे कलाकारों को लीक से हटकर भूमिकाएं की और उनकी प्रशंसा भी हुई है परंतु सुपरिभाषित भूमिकाओं को करने में अपेक्षाकृत आसानी तो होती ही है जिसका यह अभिप्राय: नहीं कि ये लोग प्रतिभाशाली नहीं है परंतु फिल्म समालोचकों का यह रवैया रहा है कि पारम्परिक रूप से सितारा नहीं होने वाले इन कलाकारों के काम के कसीदे ऐसे पढ़े जाते हैं मानो पारम्परिक सितारों को अभिनय आता ही नहीं। इसी तरह का हव्वा बनाया गया था नसीरुद्दीन शाह और ओमपुरी के आगमन के समय। नसीर से लेकर नवाजुद्दीन तक सब प्रतिभाशाली हैं परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि ऋषि, जैसे व्यावसायिक सिनेमा में चार दशक तक जमे रहने वाले मिट्टी पकड़ पहलवान प्रतिभाशाली नहीं है। उन्हें जब भी लीक से हटकर भूमिका मिली, उन्होंने उसे भी बखूबी निभाया जैसा ऋषि ने 'दो दूनी चार' में किया और 'अग्निपथ' में कसाई खलनायक की भूमिका भी विश्वसनीय ढंग से निभाई। उनके पिता राज कपूर ने 'तीसरी कसम' में हीरामन की भूमिका इतनी जीवंत प्रस्तुत की कि उस कथा के लेखक बिहार के महान फणीश्वरनाथ 'रेणु' ने कहा कि यही मेरे मन में बसा 'साक्षात' हीरामन है।
हिन्दुस्तानी सिनेमा के हर काल खंड में विलक्षण अभिनेता हुए हैं परंतु केवल वर्तमान में फिल्म समीक्षक अपने पूर्वग्रह के आधार पर अजीबोगरीब श्रेणीकरण करते है। मोतीलाल, चंद्रमोहन, पृथ्वीराज कपूर अपने दौर के सितारा भी थे और कुशल अभिनेता भी। इसी तरह बलराज साहनी और संजीव कुमार भी विलक्षण रहे और दिलीप कुमार ने भी लीक से हटकर 'फुटपाथ' और 'अमर' अभिनीत की है। उनकी 'सगीना मेहतो' कैसे भूल सकते हैं। समय आने पर नसीरुद्दीन शाह ने भी गाने गाए हैं, वे नाचे भी हैं और ओमपुरी ने तो अपने आपको पूरी तरह भूमिकाओं में समहित किया है, वह गोविंद निहलानी की 'अर्धसत्य' और 'तमस' हो या प्रियदर्शन की हास्य फिल्में। अनुपम खेर ने भरी जवानी में बूढ़े की भूमिका 'सारांश' में की है और वह 'कर्मा' में खलनायक भी रहा है। ज्ञातव्य है कि सुभाष घई की 'कर्मा' के बनते समय इन स्वयंभू फिल्म समालोचकों ने शोर मचाया था कि दिलीप कुमार का ऊंट अब नसीर के पहाड़ के नीचे आया है परंतु ऐसा कुछ घटा नहीं। ऋषि ने ए. सलाम की अनेक पारिवारिक फिल्में की है तो राज कपूर की 'प्रेमरोग' जैसी नायिक प्रधान फिल्म में उसने विलक्षण भूमिका अभिनीत की है। उसने अनेक नायिका केंद्रित फिल्में जैसे 'दामिनी' इत्यादि में अपनी जमीन नहीं छोड़ी है।
सन् 1969 के बाद फिल्मी पत्र-पत्रिकाओं की आंधी चली थी जिसने देवयानी चौबल को सितारा फिल्म कॉलमिस्ट बना दिया था। वह सचमुच सितारों की तरह व्यवहार करने लगी थी। आज भी टेलीविजन के कुछ एंकर सितारों की तरह व्यवहार करते हैं और अपने सामने बैठे नेता को अपना पक्ष भी नहीं रखने देते। हर बयान को तोड़ मरोड़कर अपने राजनैतिक एजेंडा और पूर्वग्रह के अनुरूप प्रस्तुत करते है और ये बीमारी अब छूत की तरह फैल गई है और अनेक मेमने शेरों की तरह दहाड़ रहे हैं। ये लोग अपने लोकप्रिय मंच की ताकत को अपनी व्यक्तिगत शक्ति समझ रहे हैं। जैसे पांच हॉर्स पावर की मोटर साइकिल पर सवार इंजिन की ताकत को अपनी ताकत मान लेता है।