प्रताप नारायण मिश्र की स्मृति में / गोपाल राम गहमरी

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स्व. भारतेन्दु के समकक्ष कवि जिन पं प्रताप नारायण मिश्र का संस्मरण लिख रहा हूँ वे जब मुझे चिट्ठी भेजते थे तब मोटो की तरह ऊपर "खुदादारमचेगमदारंभ" यह वाक्य लिखा करते थे। मिश्र जी उन्नाव जिले के बेल्थर गाँव के रहने वाले थे। बाद को कानपुर में आए। उनके वहाँ कई मकान थे और वहीं "सतघरा" महल्ले में रहते थे। उनका दर्शन मुझे कालाकाँकर में हुआ था। जब मैं 1892 ई में कालाकाँकर नरेश तत्रभवान राजा रामपाल सिंह की आज्ञा से "हिंदोस्थान" के संपादकीय विभाग में काम करने को पहुँचा, तब वहाँ साहित्यकारों की एक नवरत्न कमेटी-सी हो गई थी। उस समय वहाँ पं. प्रताप नारायण मिश्र, बाबू बालमुकुन्द गुप्त, पं. राधारमण चौबे, पं. गुलाबचन्द चौबे, पं. रामलाल मिश्र, बाबू शशिभूषण चटर्जी, पं. गुरुदत्त शुक्ल और स्वयं राजा साहब आदि लोग थे। मुझसे मिश्र जी का पत्रालाप और पहले से था, लेकिन उनका दर्शन वहीं पहले-पहल हुआ। मैं रात को वहाँ पहुँचा और बाबू बालमुकुन्द गुप्त के यहाँ ठहरा था। मेरा उनका (गुप्त जी का) पत्र द्वारा परिचय उसी समय से था जब मैं बंबई में सेठ गंगाविष्णु खेमराज के यहाँ था और मेरा "श्री वेंकटेश्वर प्रेस" में काम करते समय "हिन्दोस्थान" में छपे त्रिपटी के महन्त के आचरण-संबंधी एक लेख पर गुप्त जी से विवाद हो उठा था। गुप्त जी में यह गुण था कि जो उनकी भूल दिखाता था उस पर वे अनखाते नहीं थे, प्रसन्न होते थे। उसी के फलस्वरूप मुझे राजा साहब के यहाँ जाना पड़ा था।

जब सवेरे मैं उठकर दातून कर रहा था तभी उनके चौतरे पर चढ़ते हुए खद्दर का बहुत लम्बा कुर्ता और धोती पहने, कंधों पर तेल चुचआते, लंबे बाल लहराते, झूमते हुए एक देवता ने कहा, "तुम्हूँ बालमुकुंदवा की तरह सवेरे-सवेरे लकड़ी चबात हो।" मैं तो उनका रूप, उनकी चाल, उनकी लंबी-ऊँची नाक, उनका उज्ज्वल रूप देखकर धक् से रह गया। उनका रूप निहारने के सिवा मुझे उस समय और कुछ कहते नहीं बना। वे अपनी बात पूरी कर बैठक में चले गए। मैं जल्दी-जल्दी प्रातः क्रिया निपटाकर भीतर गया। जिस खाट पर वे देवता बैठे थे उसी पर मुझे बिठाकर नम्रता से बोले- "आपने मुझे पहचाना न होगा। मेरा एक बौड़म कागज है, जो हर महीने आपके यहाँ भी जाया करता है। उसका नाम "ब्राह्मण" है।"

इसके आगे उनको कुछ कहने की जरूरत ही नहीं रही। मैंने उठकर सादर प्रणाम किया, लेकिन उन्होंने फिर से उसी सम्मान से बिठाकर अपना स्नेह दिखाया और बाबू बालमुकुंद गुप्त भी, जो इतनी देर से मुस्कराते हुए "हिंदोस्थान" का आलेख लिख रहे थे, समालाप में शामिल हुए। उसी दिन पंडित जी का मुझे पहले-पहल साक्षात् दर्शन हुआ था। तब से मेरे ऊपर मिश्र जी का स्नेह बहुत बढ़ा, वे मुझे अपने लड़के की तरह प्यार करने लगे। उनके साथ में कालाकाँकर के जंगलों में बहुत घूमता था। वहाँ स्वास्थ्यकर वायु के सिवा मकोय खाने को खूब मिलता था। मैं घूमने का सदा से आदी हूँ। अपराह्न का समय हम लोगों का कालाकाँकर के जंगलों में ही बीतता था। "हिंदोस्थान" दैनिक "आज" का आधा केवल चार पेज ही निकलता था। बाबू बालमुकुंद गुप्त अग्रलेख के सिवा टिप्पणियाँ भी लिखते थे। बाकी समाचार, कुछ साहित्य और स्वतंत्र स्तंभ के लिए मेरे ऊपर भार था। पं. प्रताप नारायण मिश्र "हिंदोस्थान" पत्र के काव्य भाग के संपादक थे। वे फसली लेखक थे। जब कोई फसल जैसे जन्माष्टमी, पित्रपक्ष, दशहरा, दीपावली, होली आते तब इन अवसरों पर हम लोग उनसे कविता लिया करते थे। पं. राधारमण चौबे और गुलाबचंद जी अंग्रेजी अखबारों का सार संकलन करते थे। इंग्लिशमैन, पायनियर, मार्निंग पोस्ट और सिविल मिलिटरी गजट उन दिनों एंग्लो-इंडियन अखबारों में मुख्य थे। उनका मुँहतोड़ जवाब राजा रामपाल सिंह "हिंदोस्थान" में दिया करते थे। आजकल हिंदी में दैनिक पत्र बहुत निकलते हैं। काशी, कलकत्ता, दिल्ली, लाहौर, इलाहाबाद आदि से निकलने वाले विशाल हिंदी दैनिक पत्रों के दर्शन जैसे इन दिनों हिंदी पाठकों को हुआ करते हैं, उन दिनों वैसे नहीं थे। हिंदी के प्रेमी दैनिक पत्रों के लिए तरसते थे। मासिक और साप्ताहिक पत्रों के लिए तो हिंदी की दुनिया में कमी नहीं थी, लेकिन दैनिक पत्र तो हिंदी का एक ही "हिंदोस्थान" ही था। उसमें एक बड़ी खूबी थी। यह कि वह दैनिक, राजनैतिक विषयों से जैसे भरा-पूरा रहता था, वैसे ही साहित्य से भी संपन्न रहता था। आजकल हिंदी दैनिकों में राजनैतिक लेखों के आगे साहित्यिक विषय काव्य, नाटक आदि की चर्चा बहुत कम रहती है। किसी हफ्ते में एक-दो लेख निकल आते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि राजनीतिक लेख जिस अधिकता से आजकल दैनिकों में निकलते हैं, वैसे इनमें साहित्य के लेखों की अधिकता नहीं देखी जाती।

पं. प्रताप नारायण मिश्र में कई अनोखे गुण थे। कविता उनकी बहुत ऊँचे दर्जे की होती थी। भारतेन्दु ने भी उनके काव्य की बड़ाई की थी। नाटक और रूपक भी बड़ी ओजस्विनी भाषा में लिखते थे। अपने लेख में जहाँ जिसका वर्णन करते थे, वहाँ उसको मानो मूर्तिमान खड़ा कर देते थे। कलिकौतुक नाटक, जुआरी, खुआरी रूपक आदि उनकी लिखी पुस्तिकाओं के पढ़ने वाले इसके साक्षी हैं। बंकिम बाबू के उपन्यासों के अनुवाद उन्होंने हिंदी में किए थे। उनकी पुस्तक बांकीपुर के "खड्गविलास प्रेस" में छपी है। उस प्रेस के स्वामी मिश्र जी की पुस्तकों को छापने पर भी उनके प्रचार में उदासीन ही रहे। भारतेन्दु जी की सब पुस्तकों को छापने का अधिभार भी "खड्गविलास प्रेस" के स्वत्वाधिकारी को है, लेकिन उन पुस्तकों के प्रचार का उद्योग नहीं देखने में आया। भारतेन्दु जी की पुस्तकों का प्रचार तो काशी की नागरी प्रचारिणी ने भी प्रकाशन करके किया, भारत जीवन प्रेस से भी भारतेन्दुजी की पुस्तकें प्रकाशित हुईं, लेकिन मिश्र जी की पुस्तकों का प्रचार आज कहीं नहीं दीख पड़ता। स्कूल और विद्यालयों की कोर्स-बुकों में उनके लेख और कविताओं का प्रचार कुछ हद तक है, लेकिन साहित्य के क्षेत्र में उनकी कीर्ति लोप-सी हो रही है।

पं. प्रताप नारायण मिश्र सत्य भाषी थे। उनके मुँह से भूलकर भी असत्य कभी सुनने को नहीं मिला। वे बड़े निर्भीक और बड़े हाजिर जवाब थे। कालाकाँकर में प्रवास काल में पितृपक्ष में आग्रह करने पर उन्होंने "तृष्यन्ताम" शीर्षक से लंबी कविता लिखी। उसमें उन्होंने समाज नीति, राजनीति और धर्म सब भर दिया। उन्होंने कचहरियों की दशा को देखकर उसमें लिखा है -

अब निज दुखहू रोय सकत नाहिं ,

प्रजा खरीदे बिन इस्टाम।

पंडित जी अपने कान हिलाया करते थे। जब दो-चार मित्र इकट्ठे होते तब कहने पर पशुओं की तरह कान हिलाने लगते थे। हँसी-दिल्लगी में भी कभी झूठ नहीं बोलते थे। एक बार भादों के महीने में वे अपने हाथों में मेंहदी रचाए हुए आए। मैंने पूछा, पंडित जी, तीज में आप मेंहदी रचाते हैं?" उन्होंने छूटते ही कहा, "अरे भाई! मेंहदी न रचाऊँ तो मेहरिया मारन लगे। यह उसी की आज्ञा से तीज की सौगात है।"

मिश्र जी बड़े हँसोड़ थे। कविता तो चलते-चलते करते थे। एक बार कानपुर की मित्र-मंडली के आयोजन से एक नाटक खेला गया। उसमे हिंदी के बड़े-बड़े उद्भट लेखकों ने भाग लिया। शब्दकोषों के रचयिता राधा बाबू भी उसमे थे। प्रसिद्ध कवि और सुलेखक राय देवी प्रसाद पूर्ण का भी उसमें सहयोग था। मिश्र जी नास बहुत सूँघते थे। सुघनी भरा बेल सदा अपने अंदर खद्दर के कुर्तेवाले पाकेट में रखते थे और जब चाहा बेल निकालकर हथेली पर नास उड़ेलते और सीधे नाक में सुटक जाते थे। एक बार उसी नाटक मे राधा बाबू पियक्कड़ बनकर आये और झूम-झूम कर कहने लगे -

कहाँ गई मोरि नास की पुड़िया ,

कहाँ गई मेरी बोतल। इसको पीके ऐसे चलिहौं , जैसे लड्डू कोतल।

चलो दिल्ली चलें हरे - हरे खेतन की सैर करें।

इसे पंडित प्रताप नारायण मिश्र ने अपने ऊपर ताना समझा। उस समय वे नेपथ्य में मछली बेचने वाली मल्लाहिन का स्वाँग भर चुके थे। झट स्टेज पर आकर बोले -

बाम्हन छत्री सभी पियत हैं, बनिया आगरवाला।

हो मल्लाहिन पिउ लयी तो

क्या कोई हँसेगा साला।

चलो दिल्ली चले हरे-हरे खेतन की सैर करें।

मुँहतोड़ जवाब की कविता सुनकर सभी बड़े प्रसन्न हुए।

पंडित जी कविता में अपना उपनाम "बरहमन" रखते थे, इसी से उन्होंने अपने मासिक पत्र का नाम "ब्राह्मण" रखा था। उर्दू शायरी भी उनकी बड़ी चुटीली होती थी। उन्होंने नीचे लिखी पुस्तकें लिखी है - शृंगार बिलास, मन की लहर, प्रेम प्रश्नावली, कलिकौतुक रूपक, कलिप्रभाव नाटक, हठी हमीर, गौ संकट, जुआरी-जुआरी, लोकोक्ति शतक, दंगल खंड, रसखान शतक, तृष्यन्ताम्, ब्राडला स्वागत, भारत दुर्दशा, शैव सर्वस्व, मानस विनोद, वर्णमाला, शिशु विज्ञान, स्वास्थ्य रक्षा, प्रताप संग्रह। और नीचे लिखी पुस्तकों का अनुवाद किया - राजसिंह, इंदिरा, युगलांगुलीय, सेनवंश व सूबे बंगाल का इतिहास, नीतिरत्नावली, शाकुन्तल, वर्ण परिचय, कथावल संगीत, चरिताष्टक, पंचामृत। कालाकाँकर प्रवास में उन्होंने ब्राडला-स्वागत और तृष्यन्ताम् नाम से कविताएँ लिखीं थीं। मिश्र जी हिंदी की दीन-दशा पर बड़ा दुख करते और साथ ही बँगला की उन्नतावस्था पर बहुत प्रसन्न होते थे। वे कहा कहते थे कि देशी भाषाओं में बंग भाषा का साहित्य खूब भूरा-पूरा है। इसका कारण यह है कि उसके लेखक धनी-मानी और समृद्धशाली तथा ऊँचे पदों पर पहुँचकर भी अपनी मातृभाषा के प्रचार का खूब उद्योग करते हैं। उसके लेखक अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं में ऊँचा ज्ञान प्राप्त कर उन उन भाषाओं के सब उपयोगी विषय अपनी मातृभाषा में लाकर साहित्य भण्डार भरने में सदा सहायक होते हैं। उस भाषा के पाठक भी बहुत हैं। उन दिनों बंग भाषा में "दैनिक चन्द्रिका" निकलती थी। उसमें समाचार और राजनैतिक लेखों के सिवा साहित्यिक लेख भी खूब होते थे। पंडित जी ने राजा रामपाल सिंह को वही दिखाकर "हिंदोस्थान" में साहित्य स्तम्भ का कालम सन्निवेश कराया था। पंडित जी कहा करते थे - भारतेन्दु के पास धन था। उनकी कीर्ति धन-बल से ही थोड़े ही दिनों में खूब फैली। मेरे पास भी रुपया होता तो मैं भी हिंदी मे बहुत कुछ काम करता। हिंदी में पाठकों की संख्या इतनी कम है कि उनके भरोसे कोई ग्रंथकार उत्साहित होकर आगे नहीं बढ़ सकता। वे दिन भी कभी आएँगे जब हिंदी के पाठक बँगला के पाठकों की तरह खूब बढ़ेंगे, जिनके भरोसे हिंदी के ग्रंथकार फलेंगे-फूलेंगे और उदर-भरण की चिंता से मुक्त होकर हिंदी में ग्रंथ-रत्न संग्रह करके गरीबिनी हिंदी को उन्नत करेंगे। शायद मेरे मरने के बाद वे दिन आयें।

कालाकाँकर के जंगल में घूमते हुए एक बार मुझसे उन्होंने कहा था- "बच्चा, मेरे पास एक अनमोल वस्तु है। जिसे मैंने बेदाम लिया है, लेकिन उसकी तुलना में संसार की दौलत भी पलड़े पर रखी जाए तो वह हल्की होगी। उसको हम भी बेदाम देने को तैयार हैं, लेकिन कोई लेने वाला नहीं मिलता।" मैं अचकचाकर उनका मुँह ताकने लगा और पूछा, "वह कौन-सी चीज है, पंडित जी? जरा मुझे भी बताइए।" पंडित जी ने कहा, "यों नाम जानकर क्या करोगे? तुम लेते हो तो अलबत्ते मैं देने को तैयार हूँ।" मैंने कहा, "इतना महान पदार्थ, जिसकी तुलना में दुनिया भर की संपत्ति हल्की है, मैं भला कहीं पा सकता हूँ।" पंडित जी बोले, "नहीं, वह कोई ऐसी भारी या नायाब चीज नहीं है, जिसके बोझ से तुम पिस जाओगे। वह संसार में अतुलनीय है और अनमोल होने पर भी ऐसी है कि जो जब चाहे ले ले। उसमें कुछ दाम नहीं लगेगा, न कुछ बोझ ही उठाना पड़ेगा।" मैं तो बिल्कुल न समझकर अचरज में आ गया। कहा, "अगर मेरे साध्य का हो, मैं ग्रहण कर सकता हूँ तो ऐसा अनमोल पदार्थ लेने को तैयार हूँ।" उन्होंने भूत झाडऩे वाले ओझाओं की तरह अकड़कर कहा, "ले बच्चा! ये सत्य भाषण है।" मैं तो सकते में आ गया। और कुछ देर तक विस्मय में पड़े रहकर फिर बोला, "पंडित जी, है तो जरूर यह अनमोल और जगत में इसकी तुलना में कुछ भी नहीं है, लेकिन बहुत ही कठिन ही नहीं, बल्कि असाध्य भी है।" उन्होंने कहा, "नहीं बच्चा! यह असाध्य नहीं और कष्टसाध्य भी नहीं। तुम चाहो तो बड़ी सुगमता से इसे सिद्ध कर लोगे।" मैंने कहा, "पंडित जी! रात-दिन मैं झूठ बोला करता हूँ। यहाँ तक कि बेजरूरत झूठ बोलने की बान-सी पड़ गई है। जिसका झूठ तो ओडऩ-डासन और चबैना है वह कैसे सत्य भाषण कर सकता है?" उन्होंने उसी दम से कहा, "इसका रास्ता मैं बताए देता हूँ। तुम आज से ही मन में सत्य बोलने की ठान लो और जब मुँह से इच्छा या अनिच्छा से झूठ बोल जाओ तब याददाश्त लिख लिया करो और मुझे संध्या को बतला दिया करो कि आज इतना झूठ बोला। बस, इसके सिवा और कुछ भी उपाय दरकार नहीं है।"

मैं उस घटना के बाद वाले अपने अनुभव से कहता हूँ, उनकी ये बात बिल्कुल सत्य है। उस दिन से मैं नम्बर लिखने लगा और महीने भर नहीं बीता कि अभ्यासवश अनजाने अर्थात इच्छा विरुद्ध जो झूठ निकल जाता था वही रह गया था। स्वयं अपने मन में रुकावट हो गई और मैं उनका इस विषय में चेला हो गया। एक बार राजा रामपाल सिंह "हिंदोस्थान" पत्र के लिए अग्रलेख लिखा रहे थे। जो कुछ वे बोले जाते थे उसको लिखने में जो उनसे दोबारा कुछ भी पूछता था उस पर बहुत बिगड़ उठते थे। मैं तेज लिखता था। इस काम के लिए वे सदा मुझे बुलाया करते थे। सफर में भी मुझे साथ रखते थे। एक बार वे अशुद्ध बोल गए, लेकिन मैंने शुद्ध लिख लिया। जब समाप्त होने पर सुनने लगे तो जहाँ मैंने सुधारकर लिखा था उसको सुनते ही अशुद्ध कहकर उसे सुधारने को कहा। पंडित जी वहीं बैठे थे। उन्होंने कहा कि लड़के ने शुद्ध लिखा है। इस पर राजा साहब बिगड़कर पंडित जी से बोले, "आप बड़े गुस्ताख हैं।" पंडित जी ने छूटते ही कहा, "अगर सच्ची बात कहना आपके दरबार में गुस्ताखी है तो मैं सदा गुस्ताख हूँ।" राजा साहब को और क्रोध आया और गर्म होकर बोले, "निकल जाव यहाँ से।" पंडित जी बोले, "हम यहाँ से चले।" यह कहकर उसी दम बारादरी से उठे और चले गए। फिर कभी उनके यहाँ नहीं गए। और थोड़े दिन में अपना हिसाब चुकाकर कानपुर चले गए। बाबू बालमुकुंद गुप्त, पं. रामलाल मिश्र आदि किसी की भी बात उन्होंने नहीं सुनी।

पंडित जी कभी स्नान नहीं करते थे। मित्रों के आग्रह करने पर टाल जाते थे। जब कभी कोई त्योहार या बड़ा पर्व आता, बहुत उद्योग करने पर कभी-कभी स्नान कर लेते थे। कालाकाँकर में उनके डेरे के सामने ही थोड़ी दूर पर गंगा जी बहती थी, लेकिन अपने मन से उन्होंने कभी स्नान नहीं किया। जब मित्र-मंडली उनको स्नान कराने पर तुल जाती थी तब भी बड़ा समर लेना पड़ता था। एक बार उन्हें लोग टाँगकर गंगा तट पर ले गए। किनारे जाकर भी भागने लगे। तब सबने उन्हें उठाकर गंगा में फेंकना चाहा, उन्होंने कहा, "अच्छा गंगा में ऐसा डालना कि मेरा पाँव पहले गंगा में न पड़कर मस्तक ही पड़े।" तब वैसा ही किया गया।

कालाकाँकर में मिश्र जी को तीस रुपये मासिक दिए जाते थे। उस समय वह तीस रुपया उनके निर्वाह के लिए काफी थे। कानपुर से मकानों का किराया आया करता था। पंडित जी के कालाकाँकर में रहते समय पंडित श्रीधर पाठक की पुस्तक "एकान्तवासी योगी" का प्रकाशन हुआ और खड़ी बोली में व्यवहृत हो इस पर बड़ा विवाद छिड़ा। "हिंदोस्थान" में "स्वतंत्र स्तंभ" नाम का एक अलग कालम था। उसमें खड़ी बोली की कविता के पक्ष और विपक्ष के लेख सालाना प्रकाशित किए जाते थे। पाठक जी के पक्ष में मुजफ्फरपुर की कलक्टरी के पेशकार बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री मुख्य थे। उन्होंने विलायत से सुंदरतापूर्वक खड़ी बोली काव्य छपवाकर यहाँ मँगाया और बिना मूल्य वितरित किया। खड़ी बोली की कविता का प्रचार ही उनका मुख्य उद्देश्य था। इसके सिवा गढ़वाल के पं. गोविंद प्रसाद मिश्र खड़ी बोली में कविता करके उत्साह बढ़ाते थे। लेकिन विपक्ष में बड़े-बड़े प्रभावशाली कवियों ने कलम उठाए थे। पं. प्रताप नारायण मिश्र खड़ी बोली की कविता के विरोधियों में प्रधान थे। लखनऊ के "रतिक पंथ" के संपादक से लेखक व सुकवि पं. शिवनाथ शर्मा भी खड़ी बोली की कविता के विरोधी थे। लेकिन राष्ट्रभाषा के प्रचार को और जिस भाषा का साधारण बोल-चाल में प्रचार है उसको कविता में भी अधिकार देना उसकी और राष्ट्रभाषा दोनों की उन्नति के लिए परमावश्यक है, इस विचार से प्रेरित होकर सबको खड़ी बोली की कविता के आगे अवनत होना पड़ा। इसके सिवा पं. श्रीधर पाठक ने भी यह सत्य प्रमाणित कर दिया कि उत्तम और रोचक लालित्यपूर्ण कविता करना कवि की शक्ति पर निर्भर है, भाषा पर नहीं। तब पंडित जी ने राष्ट्रभाषा की उन्नति का ध्यान करके कह दिया, "अच्छी बात है। आप कविता कर चलिए। मैं भी उस पर रोड़ा-कंकड़ फेंकता चलूँगा। लेकिन, याद रखिए, यह सड़क ऐसी सुंदर नहीं बनेगी कि कवि की निरंकुश शक्ति बेरोक-टोक दौड़ सके।" पाठक जी ने कहा, "हम इंजीनियरों को आप जैसे कंकड़ फेंकने वाले खचिवाहों की बहुत जरूरत है। आप उसे फेंकते चलिए। देखिएगा, यह सड़क ऐसी सुंदर और उत्तम बनेगी कि कवि लोग बे-रोक इस पर सरपट दौड़ेंगे।" मिश्र जी की आत्मा स्वर्ग लोक से यह देखकर खूब प्रसन्न होती होगी कि खड़ी बोली काव्य किस उन्नत दिशा को प्राप्त है और कैसे-कैसे उद्भट कवि इन दिनों हुए हैं जिनकी मर्यादा और काव्य शक्ति के आगे अब बिरले ही किसी कवि की ब्रज-भाषा की कविता में रुचि देखी जाती है। पंडित जी का जन्म आश्विनी कृष्ण नौमी को संवत 1913 वि में हुआ था। अड़तालीस वर्ष की उम्र में आप अषाढ़, शुक्ल चौथ को संवत 1951 वि में परलोकवासी हो गये।