प्रतिकार / उपमा शर्मा
सुबह से कुछ अनमनी-सी थी गौरी। नाश्ते की मेज पर किया बेटे का वह मजाक कि मम्मी को क्या पता बाहर की दुनिया, वह सुघड गृहिणी बन मजे की जिंदगी गुजार रही हैं, गौरी का हृदय बींध गया। बीते पल चल चित्र की तरह आँखों के आगे घूम गए। शेखर से शादी उसने इसी शर्त पर की थी कि शादी के बाद नौकरी नहीं छोड़ेगी, शेखर को क्या आपत्ति होती। एक प्रतिष्ठित पत्रिका की सम्पादक। फिर आता हुआ पैसा किसे बुरा लगता है। दो साल सब ठीक चला फिर गोद में एक-एक कर अनु, अमन आ गए। बच्चों की परवरिश के लिए लिया ब्रेक नौकरी के फुलस्टाप में बदल गया। बच्चों की जिम्मेदारियों ने उसे कब गृहिणी बना दिया पता भी नहीं चला। आज अमन का ये मजाक फाँस बनकर हृदय में चुभ रहा था। पूरा दिन इन्हीं सोच में गुजर गया कि शेखर और अमन आफिस से वापस आ गए।
"शेखर मैंने छवि से बात कर ली है। मैने वापस उसकी पत्रिका ज्वाइन कर ली है। कल सुबह नौ बजे जाना है शाम चार बजे के बाद ही आ पाऊँगी।"
"क्या माँ एक मजाक आपने दिल पर ले लिया। आपको क्या जरूरत नौकरी की, फिर मैं और इति दोनों वर्किंग है, और अब हम बेबी प्लान कर रहे हैं। माँ कौन सम्हालेगा बच्चे को।"
"बेटा, बहू सँभालेगी और कौन? ब्रेक ले लेगी जैसे तुम्हारी माँ ने लिया था तुम्हारे और अनु के लिए। हमने अपने हिस्से की जिम्मेदारियाँ पूरी की, अब अपनी तुम देखो बेटा।"