प्रतिज्ञा / अध्याय 16 / प्रेमचन्द
दाननाथ जब अमृतराय के बँगले के पास पहुँचे तो सहसा उनके कदम रुक गए, हाते के अंदर जाते हुए लज्जा आई। अमृतराय अपने मन में क्या कहेंगे? उन्हें यही खयाल होगा कि जब चारों तरफ ठोकरें खा चुके और किसी ने साथ न दिया, तो यहाँ दौड़े हैं, वह इसी संकोच में फाटक पर खड़े थे कि अमृतराय का बूढ़ा नौकर अंदर से आता दिखाई दिया। दाननाथ के लिए अब वहाँ खड़ा रहना असंभव था। फाटक में दाखिल हुए। बूढ़ा इन्हें देखते ही झुक कर सलाम करता हुआ बोला - 'आओ भैया, बहुत दिनन माँ सुधि लिहेव। बाबू रोज तुम्हार चर्चा कर-कर पछतात रहे। तुमका देखि के फूले न समैहें। मजे में तो रह्यो - जाए के बाबू से कह देई।'
दाननाथ ने कहा- 'तुम मुझसे बहुत नाराज होगे।'
दाननाथ ने इस बात का कुछ जवाब न दे कर कहा - 'तुम मुझे इतना बता दो कि तुमने मुझे क्षमा कर दिया या नहीं? मैंने तुम्हारे साथ बड़ी नीचता की है।'
दाननाथ ने गंभीर भाव से कहा - 'यही तो मैंने सबसे बड़ी भूल की। मैं प्रेमा के योग्य न था।'
दाननाथ - 'कभी नहीं, लेकिन न जाने क्यों शादी होते ही मैं शक्की हो गया। मुझे बात-बात पर संदेह होता था कि प्रेमा मन में मेरी उपेक्षा करती है। सच पूछो तो मैंने उसको जलाने और रुलाने के लिए तुम्हारी निंदा शुरू की। मेरा दिल तुम्हारी तरफ से हमेशा साफ रहा।'
दाननाथ - 'मैंने तुम्हारे ऊपर चंदे के रुपए हजम करने का इल्जाम लगाया, हालाँकि मैं कसम खाने को तैयार था कि वह सर्वथा मिथ्या है।'
दाननाथ - 'मुझे तुम्हारे ऊपर यहाँ तक आक्षेप करने में संकोच न हुआ कि...'
दाननाथ - 'चलूँगा, मगर मैं चाहता हूँ, पहले तुम मेरे दोनों कान पकड़ कर खूब जोर से खींचो और दो-चार थप्पड़ जोर-जोर से लगाओ।'
दाननाथ - 'पूर्णा भी तो यहीं आ गई है! उसने उस विषय में कुछ और बातें की?'
दाननाथ - 'बस दो-एक बार प्रेमा के साथ बैठे देखा है। इससे ज्यादा नहीं।'
दाननाथ - 'उसके हसीन होने में तो कोई शक ही नहीं।'
दाननाथ - 'यार तुम रीझे हुए हो, फिर क्यों नहीं ब्याह कर लेते। सिंगल रहने का ख्याल छोड़ो। बुढ़ापे में परलोक की फिक्र कर लेना। मैंने भी तो यही नक्शा तैयार कर लिया है। मेरी समझ में यह नहीं आता कि विवाह को लोग क्यों सार्वजनिक जीवन के लिए बाधक समझते हैं। अगर ईसा, शंकर और दयानंद अविवाहित थे, तो राम, कृष्ण, शिव और विष्णु गृहस्थी के जुए में जकड़े हुए थे।'
दाननाथ ने त्योरी चढ़ा कर कहा - 'मैंने कभी अविवाहित जीवन को आदर्श नहीं समझा। वह आदर्श हो ही कैसे सकता है? अस्वाभाविक वस्तु कभी आदर्श नहीं हो सकती।'
अमृतराय - 'अच्छा भाई, मैं ही भूल कर रहा हूँ। चलते हो कहीं? हाँ, आज तुम्हें शाम तक यहाँ रहना पड़ेगा। भोजन तैयार हो रहा है। भोजन करके जरा लेटेंगे, खूब गप-शप करेंगे, फिर शाम को दरिया में बजरे का आनंद उठाएँगे। वहाँ से लौट कर फिर भोजन करेंगे, और तब तुम्हें छुट्टी मिल जाएगी। ईश्वर ने चाहा तो आज ही प्रेमा देवी मुझे कोसने लगेंगी।'