प्रतिज्ञा / अध्याय 2 / प्रेमचन्द
इधर दोनों मित्रों में बातें हो रही थीं, उधर लाला बदरीप्रसाद के घर में मातम-सा छाया हुआ था। लाला बदरीप्रसाद, उनकी स्त्री देवकी और प्रेमा, तीनों बैठे निश्चल नेत्रों से भूमि की ओर ताक रहे थे, मानो जंगल में राह भूल गए हों। बड़ी देर के बाद देवकी बोली - 'तुम जरा अमृतराय के पास चले जाते।' बदरीप्रसाद ने आपत्ति के भाव से कहा - 'जा कर क्या करूँ?'
देवकी - 'जा कर समझाओ-बुझाओ और क्या करोगे। उनसे कहो, भैया, हमारा डोंगा क्यों मझधार में डुबाए देते हो। तुम घर के लड़के हो। तुमसे हमें ऐसी आशा न थी। देखो कहते क्या हैं।'
बदरीप्रसाद - 'मैं उनके पास अब नहीं जा सकता।'
देवकी - 'आखिर क्यों? कोई हरज है?'
बदरीप्रसाद - 'अब तुमसे क्या बताऊँ। जब मुझे उनके विचार मालूम हो गए, तो मेरा उनके पास जाना अनुचित ही नहीं, अपमान की बात है। आखिर हिंदू और मुसलमान में विचारों ही का तो अंतर है। मनुष्य में विचार ही सब कुछ हैं। वह विधवा-विवाह के समर्थक हैं। समझते हैं, इससे देश का उद्धार होगा। मैं समझता हूँ, इससे सारा समाज नष्ट हो जाएगा, हम इससे कहीं अधोगति को पहुँच जाएँगे, हिंदुत्व का रहा-सहा चिह्न भी मिट जाएगा। इस प्रतिज्ञा ने उन्हें हमारे समाज से बाहर कर दिया। अब हमारा उनसे कोई संपर्क नहीं रहा।'
देवकी ने इस आपत्ति का महत्व नहीं समझा। बोली - 'यह तो कोई बात नहीं आज अगर कमलाप्रसाद मुसलमान हो जाए, तो क्या हम उसके पास आना-जाना छोड़ देंगे? हमसे जहाँ तक हो सकेगा, हम उसे समझाएँगे और उसे सुपथ पर लाने का उपाय करेंगे।'
देवकी के इस तर्क से बदरीप्रसाद कुछ नरम तो पड़े लेकिन अपना पक्ष न छोड़ सके। बोले - 'भाई, मंध तो अमृतराय के पास न जाऊँगा। तुम अगर सोचती हो कि समझाने से वह राह पर आ जाएँगे, तो बुलवा लो या चली जाओ। लेकिन मुझसे जाने को न कहो। मैं उन्हें देख कर शायद आपे से बाहर हो जाऊँ। कहो तो जाऊँ?'
देवकी - 'नहीं, क्षमा कीजिए। इस जाने से न जाना ही अच्छा। मैं ही कल बुलवा लूँगी।'
बदरीप्रसाद - 'बुलवाने को बुलवा लो, लेकिन यह मैं कभी पसंद न करूँगा कि तुम उनके हाथ-पैर पड़ो। वह अगर हमसे एक अंगुल दूर हटेंगे, तो हम उनसे गज भर दूर हट जाएँगे। प्रेमा को मैं उनके गले लगाना नहीं चाहता। उसके लिए वरों की कमी नहीं है।'
देवकी - 'प्रेमा उन लड़कियों में नहीं कि तुम उसका विवाह जिसके साथ चाहो कर दो। जरा जा कर उसकी दशा देखो तो मालूम हो। जब से यह खबर मिली है, ऐसा मालूम होता है कि देह में प्राण ही नहीं। अकेले छत पर पड़ी हुई रो रही है।'
बदरीप्रसाद - 'अजी, दस-पाँच दिन में ठीक हो जाएगी।'
देवकी - 'कौन! मैं कहती हूँ कि वह इसी शोक में रो-रो कर प्राण दे देगी। तुम अभी उसे नहीं जानते।'
बदरीप्रसाद ने झुँझला कर कहा - 'अगर वह रो-रो कर मर जाना चाहती है, तो मर जाए लेकिन मैं अमृतराय की खुशामद करने न जाऊँगा। जो प्राणी विधवा-विवाह जैसे घृणित व्यवसाय में हाथ डालता है, उससे मेरा कोई संबंध नहीं हो सकता।'
बदरीप्रसाद बाहर चले गए। देवकी बड़े असमंजस में पड़ गई। पति के स्वभाव से वह परिचित थी, लेकिन उन्हें इतना विचार-शून्य न समझती थी। उसे आशा थी कि अमृतराय समझाने से मान जाएँगे, लेकिन उनके पास जाए कैसे। पति से रार कैसे मोल ले।
सहसा ऊपर से प्रेमा आ कर चारपाई के पास खड़ी हो गई। आँखें लाल हो गई थी।
देवकी ने कहा- 'रोओ मत बेटी, मैं कल उन्हें बुलाऊँगी। मेरी बात वह कभी न टालेंगे।'
प्रेमा ने सिसकते हुए कहा - 'नहीं अम्माँ जी, आपके पैरों पड़ती हूँ, आप उनसे कुछ न कहिए। उन्होंने हमारी बहनों की ही खातिर तो यह प्रतिज्ञा की है। हमारे यहाँ कितने ऐसे पुरुष हैं, जो इतनी वीरता दिखा सकें? मैं इस शुभ कार्य में बाधक न बनूँगी।'
देवकी ने विस्मय से प्रेमा की ओर देखा, लड़की यह क्या कह रही है, यह उसकी समझ में न आया।
प्रेमा फिर बोली - 'ऐसे सुशिक्षित पुरुष अगर यह काम न करेंगे तो कौन करेगा? जब तक ऐसे लोग साहस से काम न लेंगे, हमारी अभागिनी बहनों की रक्षा कौन करेगा?'
देवकी ने कहा - 'और तेरा क्या हाल होगा, बेटी?'
प्रेमा ने गंभीर भाव से कहा - 'मुझे इसका बिल्कुल दुःख नहीं है। अम्माँ जी, मैं आपसे सच कहती हूँ। मैं भी इस काम में उनकी मदद करूँगी। जब तक आप दोनों का हाथ मेरे सिर पर है, मुझे किस बात की चिंता है? आप लोग मेरे लिए जरा भी चिंता न करें। मैं क्वाँरी रह कर बहुत सुखी रहूँगी।
देवकी ने आँसू भरी आँखों से कहा - 'माँ-बाप किसके सदा बैठे रहते हैं बेटी! अपनी आँखों के सामने जो काम हो जाए, वही अच्छा! लड़की तो उनकी नहीं क्वाँरी रहने पाती, जिनके घर में भोजन का ठिकाना नहीं। भिक्षा माँग कर लोग कन्या का विवाह करते हैं। मोहल्ले में कोई लड़की अनाथ हो जाती है, तो चंदा माँग कर उसका विवाह कर दिया जाता है। मेरे यहाँ किस बात की कमी है। मैं तुम्हारे लिए कोई और वर तलाश करूँगी। यह जाने-सुने आदमी थे, इतना ही था, नहीं तो बिरादरी में एक से एक पड़े हुए हैं। मैं कल ही तुम्हारे बाबूजी को भेजती हूँ।'
प्रेमा का हृदय काँप उठा। तीन साल से अमृतराय को अपने हृदय-मंदिर में स्थापित करके वह पूजा करती चली आती थी। उस मूर्ति को उसके हृदय से कौन निकाल सकता था। हृदय में उस प्रतिमा को बिठाए हुए, क्या वह किसी दूसरे पुरुष से विवाह कर सकती थी? वह विवाह होगा या विवाह का स्वाँग। उस जीवन की कल्पना कितनी भयावह-कितनी रोमांचकारी थी।
प्रेमा ने ज़मीन की तरफ देखते हुए कहा - 'नहीं अम्माँ जी, मेरे लिए आप कोई फ़िक्र न करें। मैंने क्वाँरी रहने का निश्चय कर लिया है।'
बाबू कमलाप्रसाद के आगमन का शोर सुनाई दिया। आप सिनेमा के अनन्य भक्त थे। नौकरों पर उनका बड़ा कठोर शासन था, विशेषतः बाहर से आने पर तो वह एक-आध की मरम्मत किए बगैर न छोड़ते थे। उनके बूट की चरमर सुनते ही नौकरों में हलचल पड़ जाती थी।
कमलाप्रसाद ने आते-ही-आते कहार से पूछा - 'बरफ लाए?'
कहार ने दबी जबान से कहा - 'अभी तो नहीं, सरकार।'
कमलाप्रसाद ने गरज कर कहा - 'जोर से बोलो, बरफ लाए कि नहीं? मुँह में आवाज़ नहीं है?'
कहार की आवाज़ अबकी बिल्कुल बंद हो गई। कमलाप्रसाद ने कहार के दोनों कान पकड़ कर हिलाते हुए कहा - 'हम पूछते हैं, बरफ लाए कि नहीं?'
कहार ने देखा कि अब बिना मुँह खोले कानों के उखड़ जाने का भय है, तो धीरे से बोला - 'नहीं, सरकार।'
कमलाप्रसाद - 'क्यों नहीं लाए?'
कहार - 'पैसे न थे।'
कमलाप्रसाद - 'क्यों पैसे न थे? घर में जा कर माँगे थे?'
कहार - 'हाँ हुज़ूर, किसी ने सुना नहीं।'
कमलाप्रसाद - 'झूठ बोलता है। मैं जा कर पूछता हूँ। अगर मालूम हुआ कि तूने पैसे नहीं माँगे तो कच्चा ही चबा जाऊँगा, रैस्कल।'
कमलाप्रसाद ने कपड़े भी नहीं उतारे। क्रोध में भरे हुए घर में आ कर माँ से पूछा - 'क्या अम्माँ, बदलू तुमसे बर्फ़ के लिए पैसे लेने आया था?'
देवकी ने बिना उसकी ओर देखे ही कहा - 'आया होगा, याद नहीं आता। बाबू अमृतराय से तो भेंट नहीं हुई?'
कमलाप्रसाद - 'नहीं, उनसे तो भेंट नहीं हुई। उनकी तरफ गया तो था, लेकिन जब सुना कि वह किसी सभा में गए हैं, तो मैं सिनेमा चला गया। सभाओं का तो उन्हें रोग है और मैं उन्हें बिल्कुल फिजूल समझता हूँ। कोई फ़ायदा नहीं। बिना व्याख्यान सुने भी आदमी जीता रह सकता है और व्याख्यान देने वालों के बगैर भी दुनिया के रसातल चले जाने की संभावना नहीं। जहाँ देखो वक्ता-ही-वक्ता नजर आते हैं, बरसाती मेढकों की तरह टर्र-टर्र किया और चलते हुए। अपना समय गँवाया और दूसरों को हैरान किया। सब-के-सब मूर्ख हैं।'
देवकी - 'अमृतराय ने तो आज डोंगा ही डुबा दिया। अब किसी विधवा से विवाह करने की प्रतिज्ञा की है।'
कमलाप्रसाद ने ज़ोर से कहकहा मार कर कहा - 'और ये सभाओंवाले क्या करेंगे। यही सब तो इन सभी को सूझती है। लाला अब किसी विधवा से शादी करेंगे। अच्छी बात है, मैं ज़रूर बारात में जाऊँगा, चाहे और कोई जाए या न जाए। जरा देखूँ, नए ढंग का विवाह कैसा होता है? वहाँ भी सब व्याख्यानबाजी करेंगे। इन लोगों के किए और क्या होगा। सब-के-सब मूर्ख हैं, अक्ल किसी को छू नहीं गई।'
देवकी - 'तुम जरा उनके पास चले जाते।'
कमलाप्रसाद- 'इस वक्त तो बादशाह भी बुलाए तो न जाऊँ। हाँ, किसी दिन जा कर जरा कुशल-क्षेम पूछ आऊँगा। मगर है बिल्कुल सनकी। मैं तो समझता था, इसमें कुछ समझ होगी। मगर निरा पोंगा निकला। अब बताओ, बहुत पढ़ने से क्या फ़ायदा हुआ? बहुत अच्छा हुआ कि मैंने पढ़ना छोड़-छाड़ दिया। बहुत पढ़ने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। जब आँखें कमज़ोर हो जाती हैं, तो बुद्धि कैसे बची रह सकती है? तो कोई विधवा भी ठीक हो गई कि नहीं? कहाँ हैं मिसराइन, कह दो अब तुम्हारी चाँदी है, कल ही संदेशा भेज दें। कोई और न जाए तो मैं जाने को तैयार हूँ। बड़ा मजा रहेगा। कहाँ हैं मिसरानी, अब उनके भाग्य चमके। रहेगी बिरादरी ही की विधवा न? कि बिरादरी की भी कैद नहीं रही?'
देवकी - 'यह तो नहीं जानती, अब क्या ऐसे भ्रष्ट हो जाएँगे?'
कमलाप्रसाद - 'यह सभावाले जो कुछ न करें, वह थोड़ा। इन सभी को बैठे-बैठे ऐसी ही बेपर की उड़ाने की सूझती है। एक दिन पंजाब से कोई बौखल आया था, कह गया, जात-पाँत तोड़ दो, इससे देश में फूट बढ़ती है। ऐसे ही एक और जाँगलू आ कर कह गया, चमारों-पासियों को भाई समझना चाहिए। उनसे किसी तरह का परहेज न करना चाहिए। बस, सब-के-सब, बैठे-बैठे यही सोचा करते हैं कि कोई नई बात निकालनी चाहिए। बुड्ढे गांधी जी को और कुछ न सूझी तो स्वराज्य ही का डंका पीट चले। सबों ने बुद्धि बेच खाई है।'
इतने में एक युवती ने आँगन में क़दम रखा, मगर कमलाप्रसाद को देखते ही ड्योढ़ी में ठिठक गई। देवकी ने कमलाप्रसाद से कहा - 'तुम जरा कमरे में चले जाओ, पूर्णा ड्योढ़ी में खड़ी है।'
पूर्णा को देखते ही प्रेमा दौड़ कर उसके गले से लिपट गई। पड़ोस में एक पंडित वसंत कुमार रहते थे। किसी दफ़्तर में क्लर्क थे। पूर्णा उन्हीं की स्त्री थी, बहुत ही सुंदर, बहुत ही सुशील। घर में दूसरा कोई न था। जब दस बजे पंडित जी दफ़्तर चले जाते, तो यहीं चली आती और दोनों सहेलियाँ शाम तक बैठी हँसती-बोलती रहतीं। प्रेमा को इतना प्रेम था कि यदि किसी दिन वह किसी कारण से न आती तो स्वयं उसके घर चली जाती। आज वसंत कुमार कहीं दावत खाने गए थे। पूर्णा का जी उब उठा, यहाँ चली आई। प्रेमा उसका हाथ पकड़े हुए ऊपर अपने कमरे में ले गई।
पूर्णा ने चादर अलगनी पर रखते हुए कहा - 'तुम्हारे भैया आँगन में खड़े थे और मैं मुँह खोले चली आती थी। मुझ पर उनकी नजर पड़ गई होगी।'
प्रेमा - 'भैया में किसी तरफ ताकने की लत नहीं है। यही तो उनमें एक गुण है। पतिदेव कहीं गए हैं क्या?'
पूर्णा - 'हाँ, आज एक निमंत्रण में गए हैं।'
प्रेमा - 'सभा में नहीं गए? आज तो बड़ी भारी सभा हुई है।'
पूर्णा - 'वह किसी सभा-समाज में नहीं जाते। कहते हैं, ईश्वर ने संसार रचा है, वह अपनी इच्छानुसार हरेक बात की व्यवस्था करता है, मैं उसके काम को सुधारने का साहस नहीं कर सकता।'
प्रेमा - 'आज की सभा देखने लायक़ थी। तुम होती तो मैं भी जाती, समाज सुधार पर एक महाशय का बहुत अच्छा व्याख्यान हुआ।'
पूर्णा - 'स्त्रियों का सुधार करने की आवश्यकता नहीं है। पहले पुरुष लोग अपनी दशा तो सुधार लें, फिर स्त्रियों की दशा सुधारेंगे। उनकी दशा सुधर जाए, तो स्त्रियाँ आप-ही-आप सुधर जाएँगी। सारी बुराइयों की जड़ पुरुष ही है।'
प्रेमा ने हँस कर कहा - 'नहीं बहन, समाज में स्त्री और पुरुष दोनों ही हैं और जब तक दोनों की उन्नति न होगी, जीवन सुखी न होगा। पुरुष के विद्वान होने से क्या स्त्री विदुषी हो जाएगी? पुरुष तो आखिरकार सादे ही कपड़े पहनते हैं, फिर स्त्रियाँ क्यों गहनों पर जान देती हैं? पुरूषों में तो कितने ही क्वाँरे रह जाते हैं, स्त्रियों को क्यों बिना विवाह किए जीवन व्यर्थ जान पड़ता ? बताओ? मैं तो सोचती हूँ, क्वाँरी रहने में जो सुख है, वह विवाह करने में नहीं है।'
पूर्णा ने धीरे से प्रेमा को ढकेल कर कहा - 'चलो बहन, तुम भी कैसी बातें करती हो। बाबू अमृतराय सुनेंगे, तो तुम्हारी खूब खबर लेंगे। मैं उन्हें लिख भेजूँगी कि यह अपना विवाह न करेंगी, आप कोई और द्वार देखें।'
प्रेमा ने अमृतराय की प्रतिज्ञा का हाल न कहा। वह जानती थी कि इससे पूर्णा की निगाह में उनका आदर बहुत कम जो जाएगा। बोली - 'वह स्वयं विवाह न करेंगे।'
पूर्णा - 'चलो, झूठ बकती हो।'
प्रेमा - 'नहीं बहन, झूठ नहीं है। विवाह करने की इच्छा नहीं है। शायद कभी नहीं थी। दीदी के मर जाने के बाद, वह कुछ विरक्त-से हो गए थे। बाबूजी के बहुत घेरने पर और मुझ पर दया करके वह विवाह करने पर तैयार हुए थे, पर अब उनका विचार बदल गया है और मैं भी समझती हूँ कि जब एक आदमी स्वयं गृहस्थी के झंझट में न फँस कर कुछ सेवा करना चाहता है, तो उसके पाँव की बेड़ी न बनना चाहिए। मैं तुमसे सत्य कहती हूँ, पूर्णा, मुझे इसका दुःख नहीं है, उनकी देखा-देखी मैं भी कुछ कर जाऊँगी।'
पूर्णा का विस्मय बढ़ता ही गया। बोली - 'आज चार बजे तक तुम ऐसी बातें न करती थीं, एकाएक यह कैसी काया-पलट हो गई? उन्होंने किसी से कुछ कहा है क्या?'
प्रेमा - 'बिना कहे भी तो आदमी अपनी इच्छा प्रकट कर सकता है ।'
पूर्णा - 'मैं एक दिन पत्र लिख कर उनसे पूछूँगी।'
प्रेमा - 'नहीं पूर्णा, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ। पत्र-वत्र न लिखना, मैं किसी के शुभ-संकल्प में विघ्न न डालूँगी। मैं यदि और कोई सहायता नहीं कर सकती, तो कम-से-कम उनके मार्ग का कंटक न बनूँगी।'
पूर्णा - 'सारी उम्र रोते कटेगी कहे देती हूँ।'
प्रेमा - 'ऐसा कोई दुःख नहीं है, जो आदमी सह न सके। वह जानते हैं कि मुझे इससे दुःख नहीं, हर्ष होगा, नहीं तो वह कभी यह इरादा न करते। मैं ऐसे सज्जन प्राणी का उत्साह बढ़ाना अपना धर्म समझती हूँ। उसे गृहस्थी में नहीं फँसाना चाहती।'
पूर्णा ने उदासीन भाव से कहा - 'तुम्हारी माया मेरी समझ में नहीं आती बहन, क्षमा करना। मैं यह कभी न मानूँगी कि तुम्हें दुःख न होगा।'
प्रेमा - 'तो फिर उन्हें भी होगा।'
पूर्णा - 'पुरुषों का हृदय कठोर होता है।'
प्रेमा - 'तो मैं भी अपना हृदय कठोर बना लूँगी।'
पूर्णा - 'अच्छा बना लेना, लो अब न कहूँगी। लाओ बाजा, तुम्हें एक गीत सुनाऊँ।'
प्रेमा ने हारमोनियम सँभाला और पूर्णा गाने लगी।