प्रतिदान / राजा सिंह
साहेब का ट्रान्सफर हो गया था, उनके चेहरे से प्रसन्नता निकल-निकल रही थी। शारीरिक भाषा बया कर रही थी कि वह कितने प्रसन्न है। वह अपने घर गाजियाबाद जा रहे थे, अपने बीबी बच्चों के पास। यहॉं कौन है उनका अपना? विगत पॉंच सालो से वह यहॉं रह रहे है। कभी घर जाना भी हुआ तो दो चार दिनों के लिए. बहुत ज़्यादा हुआ तो एक हफ्ता के लिये, बस इससे ज़्यादा नहीं।
परन्तु मैं क्यों उदास हॅू? उॅंपर से देखने में तो नहीं लगता। परन्तु अन्दर ही अन्दर कुछ दरक रहा है। कुछ कचोट-सा रहा है। मन समझाता है कि मुझे तो संतुष्ट होना चाहिये। एक दुश्चिंता से मुक्ति मिलने वाली है। उनके जाते ही, वह राज भी दफन हो जायेगा जो गाहे-बगाहंे मुझे परेशान और विचलित करता रहता है। फिर भी प्राप्ति का सुख उनकी ही देन है। उन्होनंे मुझे वह दिया था जो मन्नू नहीं कर सका था। साहेब ने पूर्णता प्रदान की थी।
मन्नू याने मुनीन्द्र पाठक, मेरा आर्थिक, सामाजिक और कानूनी पति। जिसने मुझे पत्नी के सब अधिकार दिये तो सिर्फ़ उसके कहने पर उसकी सलाह पर, यानी उरसेन वर्मा मतलब साहेब। एक शान्त संतुलित विचारशील दयालू सरकारी अधिकारी। पता नहीं मन्नू की उनसे कैसे दोस्ती हो गयी। वर्मा साहेब उससे करीब दस साल बड़े होगें फिर भी वह उनसे ऐसे मुखातिब होता जैसे वह उनका लंगोटिया-यार हो। फिर भी मन्नू कभी उनका नाम नहीं लेता था, हरदम साहेब ही कहता था। अब मन्नू के वे साहब थे तो मेरे लिए भी वह साहेब ही हुये ना? साहेब थे भी एक आकर्षक देहदृष्टि और न्यौछावर हो जाने वाले चुम्बकीय व्यक्तित्व के मालिक और मुझे मातृत्व का सुख प्रदान करने वाले निर्विकार, निरपेक्ष, महात्मा।
मिस्टर उरसेन वर्मा, आज इतने साल तुमसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सम्बन्ध रखने के बाद भी तुम्हारा यहॉं से स्थायी रूप से प्रस्थान करना मुझे अन्दर से तोड़ रहा है परन्तु एक सुखद अनुभूति को भी जनम दे रहा है कि तुम सदैव मेरे पास विद्यमान रहोगें अपनी निशानी के रूप में। हालांकि तुम्हारी निशानी का आत्मज कोई और कहलायेगा और मैं चाहती भी यही थी।
मैं कुमकुम जिसकी शादी इण्टर पढ़ते हुये श्रीमान मुनीन्द्र से कर दी गई थी। परन्तु हमारा मिलन हुआ था तीन साल बाद, गौने की रस्म पूरी हो जाने के बाद, यही रिवाज था इस ईलाके का। लड़का और बहु साथ-साथ नहीं निकलते थे। बहु विदा कराने भी दुल्ला नहीं जाता था, जाते थे ससुर जेठ या देवर। जब तक ससुराल रही अपने पति के लिए अनजान, अपरिचित ही रही, कभी मिले भी तो रात की तनहाइयों में, वह भी लोगों की निगाहों से बचते-बचाते। उसमें पति से परिचय सिर्फ़ शारीरिक होता था।
मैं अपने पति मुनीन्द्र उर्फ मन्नू की पसंद थी या नहीं, कह नहीं सकते, परन्तु उनका प्रेम कतई नहीें थी। उनका प्यार थी, गॉंव की रहने वाली और शहर में साथ पढने वाली क्षिप्रा अवस्थी। उसी के साथ मन्नू का समय गुजरता था। उसके घर में आना-जाना बचपन से था। गॉंवों में हरेक से रिश्ते होते है, कौन-सा रिश्ता किसके साथ है, बाहर कैसा है भीतर कैसा है अनुमान लगाना कठिन होता है? जब उच्छंृखलता चरम पर पहुॅंची तो मन्नू की शादी मुझ से कर दी गई, परन्तु सम्बन्धों पर विराम न लग सका। उसके घर वालों से रोक-टोक कभी नहीं रही, मेरी शादी के बाद भी। मन्नू अपने पिता के साथ डेंटिस्ट की दुकान में भी बैठते थे। अच्छी खासी चलती दुकान थी। खेती-बाड़ी अलग से थी। सम्पन्न घर था, तो मन्नू को भी पैसे लुटाने, की खर्च करने की, कोई बंदिशे आयत न हो सकी। वह न केवल क्षिप्रा पर लुटाते थे वरन् उसके घर पर भी खर्च करते थे। मैं मूक बधिर-सी सिर्फ़ महसूसती रह जाती थी।
जब पिता की डेंटिस्ठ की दुकान का कबाड़ा होने लगा और पढ़ाई कौंन-सी चल रही थी यह स्पष्ठ नहीं हो पाया, तो ससुर ने डेंटिस्ठ की एक दुकान अमरोहा तहसील में उनके लिये अलग से खुलवां दी जिससे कि अपनी जिम्मेदारी महसूस करें और अपना खर्च खुद उठायें।
डेंटिस्ट का काम मन्नू को अच्छी तरह आता था, पढ़ाई समाप्त हो चुकी थी। बड़ी जगह थी दुकान अच्छी चलने लगी। दुकान की जिम्मेदारी उठा ली परन्तु मेरी नहीं। मैं वहीं जोआ कस्बे के गांव में इनकी परित्यक्ता और ससुराल की आवश्यक अंग बनकर रह रही थी। अब तो इनसे मिलना तो दूर, दर्शन मिलना भी मुश्किल हो गया था, क्योंकि अक्सर देर हो जाने पर या मौजमस्ती में यह अमरोहा से लौटकर घर भी नहीं आते थे और वहीं दुकान में ही सो जाते थें। या फिर सुबह अमरोहा से आये, फारिग होकर खा-पीकर फिर निकल पड़े। सिर्फ़ सूरत दिख गई, सलामती पता चली और संतोष कर जाना पड़ा। अमरोहा में पूरी तरह आजाद हो चुके थें और क्षिप्रा का साथ अक्सर बहुतायत में मिलने लगा था, उसकी खरीददारी, मौजमस्ती और मूवी-मस्ती, कभी अकेले कभी उसके बन्धु बान्धवों के साथ। मैं विरह-वियोग में भी नहीं थी क्योंकि संयोग तो कभी नसीब ही नहीे हुआ एक मायने से। सिर्फ़ उपेक्षित थी भविष्य के प्रति सशंकित, आशंकित और प्रताणित रहने को विवश।
अमरोहा में कब उद्धारकर्ता श्री उरसेन वर्मा का प्रार्दुभाव हुआ और कब श्री मुनीन्द्र पाठक का सम्पर्क उनसे हुआ, मैं पूरी तरह अनभिग्न थी। सिर्फ़ इनके बीच परवान चढ़ती दोस्ती और उससे मन्नू में उपजती मेरे प्रति संवेदना के असर की छीटें जब मेरे तक आने लगी, तो लगा कुछ ऐसा घटित होने वाला है जो मेरे लिए शुभकारी होगा। मन्नू साहेब से प्रभावित हो चुके थे। साहेब की बातें मन्नू पर असर करती थीं और उनके कहें अनुसार सोंचनें और करने पर विवश करती थी।
एक दिन दुकान पर साहेब बैठे थे, उसी समय क्षिप्रा अपने छोटे भाई के साथ आ गईं। मन्नू लग गये उसकी सेवा में। साहेब का लिहाज भंूल गये और निकल गये, दुकान बंद करके, उसके साथ सैर-सपाटा करनें। साहेब को जब इन्होंने क्षिप्रा के विषय में जानकारी दी और अपनी संलग्नता और प्यार का इजहार किया तो साहेब को अनुचित लगा, परन्तु वह चुप लगा गयें उन्होंने उनके प्यार की भर्थत्सना भी नहीं की।
प्यार छीनकर नहीं लिया जा सकता पर न्याय लिया जा सकता है और वही साहेब ने मेरे लिये किया। साहेब ने मन्नू को प्रेरित किया, मुझे अमरोहा लाने हेतु जिससे कि खाना-पीना रहना व्यवस्थित हो जाये। उन्हें पत्नी के प्रति उनकी जिम्मेदारियों का अहसास कराया। मन्नू ने साहेब की सलाह का जिक्र मुझसे किया और चर्चा की कैसे अमरोहा रहा जायेगा? कैसे मॉ-पिता को सहमत कराया जायेगा कि बहु को बेटे के साथ रहने अमरोहा भेज दें? सास-ससुर राजी हो गये थे क्योंकि उनके पास भी मन्नू की स्वेच्छाचरिता की खबर पहुंच रही थी। विशेषरूप वे क्षिप्रा की नजदीकियों से खफा थे। मेरा आगमन हो गया दुकान के पीछे ही एक कमरे का सेंट मिल गया था और मैंने अपनी गृहस्थी जमा ली।
साहेब! तुमसे मुलाकात भी नहीं हुई थी और तुम मेरे मन-मस्तिष्क पर छाते जा रहे थे। समयानुसार मुझ अनजान, अपरिचित के लिए परोक्ष रूप से जो करते जा रहे थे, वह भाव विहवल करने वाला था और तुम मेरे लिये आदरणीय और दर्शनीय हो गये थें। तुमसे मिलने के लिये मैं उत्सुक ही नहीं मरी जा रही थी।
अमरोहा में हम दोनों, साथ रहने लगे, साथ खाने लगे और साथ सोने लगे मगर मन्नू का मन बांध नहीं पाये थे। वे अक्सर उड़ लिया करते कभी दोस्तों के साथ, कभी क्षिप्रा एण्ड कम्पनी के साथ। दुकान का शटर बंद और निकल लिए, बिना कोई सूचना दिए. एक ऐसी ही बंद की स्थिति में साहेब आ गये, मन्नू के विषय में पूॅछा था। पहली बार तुमसे आमना-सामना हुआ था। मैं मन्नू की अनुपस्थिति के कारण बताने में इतनी मशगूल हो गयी थी कि तुम्हें भरपूर दृष्टि से देख भी नहीं पाई. मेरे वर्णन करने में जाने क्या वेदना थी कि तुम पूरी तरह से भींग गये और तत्काल लौट गये थे। मैं बावरी तुम्हें रोक न सकी, हालाकि इस क्षण की जाने कब से तलाश थी।
इतवार का दिन था, साहब का आफिस बंद था, परन्तु डेंटिस्ट का दवाखाना खुला था। मैं दवाखाने के पीछे सटे कमरे में बैठी कुछ व्यवस्थिति कर रही थी कि तुम्हारी आवाज सुनाई पड़ी। बातचीत होती-होती क्षिप्रा पर आकर ठहर गईं। व्यग्रता और तत्परता से मैं सुनने लगी। सिर्फ़ कानों से ही नहीं, आंखों-अहसासों सॉसों और रोमछिद्रों से सुन रही थी-एकाग्र।
साहेब ने मेरी और क्षिप्रा की तुल्नात्मक समीक्षा प्रस्तुत कर दी और हर मामले में मुझे क्षिप्रा से श्रेष्ठ सि़़द्ध कर दिया। अन्ततः मन्नू मेरे पक्ष में झुकते दिखार्द दिये और मैं अश्रुपूरित नयनों से साहेब के प्रति कृतज्ञ! मेरा दिल चाह रहा था कि साहेब की चरण धूलि अपने माथे से लगा लूॅ। काश ऐसा कर पाती।
अक्सर मैं चाय-नाश्ता लेकर दुकान में आ जाती थी दुकान के पीछे के दरवाजे से जब साहेब आये होते थे और कुछ देर तक वहीं बैठ कर दोंनों की बातों में शामिल भी हो जाती थी, जब दुकान में कोई ग्राहक नहीं होता था। शुरू-शुरू में मेरा थोड़ी देर रूकना मन्नू को अच्छा नहीं लगता था परन्तु बाद में मेरी उपस्थिति साहेब के सामने इन्हें नागवार नहीं गुजरती थीं। फिर तो साहेब जब भी आते थे वे साहेब को चाय-नाश्ता घर का ही देते थे। मन्नू ने उस दिन के बाद से क्षिप्रा से सम्बन्ध कम कर दिये थे। अब खुद प्रारम्भ नहीं करते थे। सिर्फ़ उत्तर देने तक सीमित हो गये थे, या कहो निभा अब भी रहे थे। शनैः-शैनः यह भी खतम हुआ।
मन में कई बार हूक-सी उठती है, एक उबाल-सा उफनता है कि तुम्हें बता दूॅं कि कक्कू तुम्हारा ही अंश है, परन्तु यह सोचकर रह जाती हॅू कि हम तीनों के बीच जो झीना-सा पर्दा है सशंय का, रहस्य का वह टूट जायेगा। शायद अभी इस भ्रम में होगें कि कक्कू मन्नू की उपज है या मैं ऐसा सोचती हॅू। कभी तुमने भी कक्कू को उस ढ़ग से न देखा न मुझसे कभी कहा, या पूॅंछा। तुम क्या सोचते हो, मानते हो, कभी जिक्र नहीं किया। खैर! यह तो बहुत बड़ी बात है, हम दोनों के बीच बहुत कम वार्तालाप होता रहा है, उतना भी नहीं जितनी सम्पर्क रहा। सम्पर्क में भी मौन की प्रमुखता और ऑंखों की बंद स्थिति अनिवार्य रही है। निश्चय ही हम दोनों में प्रेम नहीं रहा है, सिर्फ़ हम दोनों ने एक दूसरे की आवश्यकता की पूर्ति की है।
मुझे तुम्हारे बीज की आवश्कता थी और तुम्हें हमारे शरीर की। देखने में तुम एक दृढ़-आत्मविश्वास से भरे लगते थे जो पत्नी बिछोह में भी इस तरह के किसी भी प्रलोभन के विरूद्ध सशक्त थे। परन्तु तुम इतने सशक्त नहीं निकले जितनी की मुझे आंशंका थी तभी तो परस्त्री की देह को नितान्त अकेले में देखते ही कमजोर पड़ते चले गये और उस तरह की तमाम वर्जनाओं को तिलॉंजलि देते हुये अपने को पूरी तरह, मेरे अनुसार मेरे में एकसार कर दिया था और मुझे मनचाहा वरदान दे दिया था। इस वरदान के लिए मैं जितनी बार चाहा तुमने उतनी बार अनुकंपा की, कभी तुमने अपनी इच्छा, अनिच्छा जाहिर नहीं की है। खैर! प्रेम किसी भी रूप में हो, प्रेम कभी बरबाद नहीं करता, आबाद करता है। वह विध्वंश नहीं सर्जन है।
मैं मन्नू को बहुत प्यार करती हॅू। वह मेरा प्रथम पुरूष था। एक तरफा प्रेम था। तुमने मेरे लिए, उनके दिल में कर्तव्यबोध तो जगा दिया था, परन्तु प्यार नहीं पैदा कर पायें थे। मन्नू भीतर-भीतर बहुत दुखी थे। कारण, मन्नू अपना पुरूषार्थ सिद्ध नहीं कर पा रहा था और अपने संगी-साथियों के बीच में अपने को उपहास का पात्र पाता था। मन्नू और मैं पूरी तरह से निराश, हताश और परेशान और दिशाहीन हो चुके थे। हम दोनांे हर डाक्टर, वैध हकीम पीर पैगम्बर भगवान गॉंड ख्ुादा से दुआ प्रार्थना और ईलाज करवां चुके थे। पूरी तरह से थक चुके थे और इस तरह के किसी भी प्रयास से उदासीन हो चुके थें। यह उदासीनता हमारे आपस के सम्बन्धों में भी पूरी तरह घर कर गई थी। मुझसे मन्नू का दुख देखा नहीं जाता था।
अचानक यह घटित हुआ जो अकल्पनीय और अप्रत्याशित था, तुमसे पहला संसर्ग। उस दिन तुम्हारी छुट्टी का दिन था और मन्नू की दुकान खुली थी। दोपहर के ठीक 12 बज रहे थे और तुम आ गये थे, समय काटने। चाय-नाश्ता के बाद खाने के लिए मन्नू तुम्हें भीतर ले आया था, लंच के लिये। हम तीनों ने लंच एक साथ किया था। ं तुम अपने सरकारी क्वाटर में जाने को उद्धृत थे, परन्तु मन्नू ने जिद करके, कमरे में आराम करने को रोक लिया था। तुम अनमने और अलसाये थे, जल्द ही नींद में आ गये थे और मन्नू अपनी दुकान चलाने चला गया। रह गये थे मैं और तुम। तुम निद्रा में और मैं पहल में सजग। यह क्षण अकल्पनीय था तुम्हारे शरीर की उठती तरंगों से मेरे कोमल मन और अंग तरंगित हो रहे थे। एक भीनी-भीनीं खुशबू उड़ रही थी और मुझे मदहोश किये जा रही थी। मैं तुम पर बिछ गई और अपने मदमस्त गर्म होठों से तुम पर जो छाप छोड़ी थी कि तुम परवश हो गये और ससंर्ग का आवेग अपनी मंजिल पाकर ही रूका था। अक्सर ऐसा भी होता है जिससे जिसमानी सम्बन्ध हो उससे प्यार न हो और जिससे प्यार हो उससे जिस्मानी सम्बन्ध न हो।
दोस्त तुम मन्नू के थे। परन्तु मेरी सारी इच्छायें आवश्यकतायें कमियाँ तुमने पूरी की थी। तुमने मुझे जीवन का अर्थ दिया। जीवन की सार्थकता दी रतिदान देकर। हॉं, स्त्री पूरी तभी होती है जब उसकी कोख में चाहत का बीज पड़ता है, उसकी ममता पूर्ण रूप से तभी विकसित होती है जब मातृत्व पल्लवित होता है। विडम्बना यह है कि जिसे प्यार करती हॅंू उसका बीज नहीं है और जो आदरणीय है उसका अंश धारण किया था। पर दुभाग्य मेरा मैं तुम्हें बता भी नहीं सकती ...और तुम्हारें बिछोह पर खुल कर दुख भी प्रगट नहीं कर सकती।
मैं तुम्हारे चेहरे को निर्मल, निर्विकार देख रही हॅू...पर मुझे लग रहा है कि तुम्हारें दिल-दिमागं में उथल-पुथल ज़रूर मची होगी और यहॉं से प्रस्थान करने पर विचलित अवश्य कर रही होगी। तुमने एक दृढ़ आत्मश्विास से भरा भाव अपने चेहरे पर अवश्य चस्पा किया हुआ है। जो तुम्हारी आंतरिक मनोस्थिति को पड़ने में नाकामयाब कर रहा है। परन्तु एक चाहत अवश्य मेरे दिल को कचोट रही है कि काश! मेरे वियोग की कोई कशक तुम्हारे में होती।
आज आखिरी दिन है, कल सुबह तुम चले जाओगें। आफिस के विदाई समारोह के बाद, तुम सीधे मन्नू के साथ यहॉं आ गये थे। आज का रात्रि भोज हम दोनांे के साथ नियत था। आखिरी उपकार तुमने फिर हम दोनों पर कर दिया था कि अपनी सारी रोजमर्रा की सम्पत्ति फ्रिज, टीवी, फर्नीचरर्स आदि भेट कर दी थी यह कहते हुये कि जितनी इसकी कीमत नहीं होगी उतने से ज़्यादा अमरोहा से गाजियाबाद ले जाने का खर्चा पड़ जायेगा। इसके बदले कुछ पैसे लेने का, हम दोनों का प्रस्ताव बुरी तरह नकार दिया था और आज सुबह ही सारा सामान हमारे घर में शिफ्ट करा दिया था। आज तुम्हारी ही डायंनिग टेबुल पर तुम्हें दावत दी जा रही है।
मुझ पर एक उपकार और तुमने किया था। मन्नू अक्सर घूमने फिरने या तीर्थ स्थानों पर अपने दोस्तों के साथ निकल जाता था इसी बात को लेकर तुमने उसकी जम कर खिंचाई कर दी थी कि उसे धार्मिक स्थलों पर अपनी पत्नी के साथ ही जाना चाहिए तभी पूर्ण लाभ की प्राप्ति हो पायेगी और इसी कारण से तुम्हें संतान प्राप्ति के प्रयास में असफलता मिल रही है और मन्नू के समझ में आ गया। उसके बाद कम से कम तीर्थ स्थानों पर वह अवश्य मुझे साथ ले जाता था। इस तरह से मुझे मन्नू के और करीब लाने में तुम्हारी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है तुमने इस निर्पेक्ष भाव से उपकार किये है कि दूसरों को एहसास भी नहीं हो पाता था कि तुम्हारा कोई अहसान हो गया और उसे कृतज्ञता ज्ञापन का अवसर ही नहीं मिल पाता था। खाने की टेबुल पर हम तीनों बैठे है और हम लोगों का सॉंझा नन्हा कुक्कू टुकुर-टुकुर सभी को तॉंक रहा है। मुझे लगता है कि वह पहचानने की कोशिश में है कि कौन उसका आत्मज है। साहेब ने तो कभी उसका स्पर्श भी नहीं किया है ओैर न कभी उस दृष्टि से देखा है जिसे पितृ दृष्टि कहते है। उसकी पहचान का दायरा सीमित है जो मुझसे होकर मन्नू तक जाता है।
मन्नू साहेब के प्रति कृतज्ञता प्रगट कर रहा है अपने सुधार के लिए. मेरी कृतज्ञता दिल-दिमाग के रास्ते ऑखों से प्रगट हो रही थीं। वह कह रहा था: साहेब आते रहियेगा। ः मैं यह भी नहीं कह पा रही थी।
साहेब आपके जाने का दुख हो रहा है। ः मन्नू ने कहा। मैं यह भी नहीं कह सकती।
ःअच्छा तुम अपनी बीबी बच्चों के पास आराम से रह रहे हो। अब साहेब भी अपनी बीबी बच्चों के पास रहेंगे, परिवार का सुख भोगेंगे। अच्छी बात है। ः मैंने अपना और मन्नू का दुख कम करने की कोशिश की।
' साहेब की संगत से मैं सुधर गया था, डर है कि फिर से न बिगड़ जाऊॅ। ः मन्नू संजीदा था।
'तुम तो सुधर गये, परन्तु मैं बिगड़ गया हॅूः।' अचानक आवाक और स्तब्ध कर देने वाली प्रतिक्रिया पर मेरी और मन्नू की ऑखें साहेब पर जम गई.
'मतलब! इतना सम्मान, प्रेम और अपनापन मुझे और कहॉं मिलेगा, शायद अपने घर में भी नहीं?' अब यह सब पाने का आदि हो गया हॅू।
अरे! नहीं मैडम बहुत सुन्दर, सलीकेदार समझदार और आपको प्यार करने वाली है। बच्चे भी अपके कितने क्यूट है। आपको यह सब चीजें तो पहले से ही प्राप्त है, तभी तो इन सब चीजों को हम पर भी आपने जागृत कर दिया, जो हमारे पास पहले नहीं था। आपके सम्पर्क से ही ये सब चीजें हमें प्राप्त हुई है। ' अनायास ही मेरी जुबान खुल गई.
एक बार मैडम साहिबा अमरोहा पधारी थी। बच्चों की गर्मी की छुट्टियांॅं थी। वे लोग हर छुट्टियों में घूमने जाते थे। अब की बार साहेब उन्हें यहॉं ले आये थे, परिवार का सुख भोगने के लिए. मैडम को यहॉं की बिजली, पानी, सड़क, खाना और रहन-सहन कुछ भी पसन्द नहीं आया। वे और उनकी दोनों पुत्रियॉं परेशान हो गई और हफ्ते के भीतर ही साहेब को उन्हें वापस गाजियाबाद छोड़कर आना पड़ा था। उन्होनंें हम दोनों को, कोई भाव नहीं दिये थे, जब हम उनसे मिलने साहेब के सरकारी क्वाटर में गये थे। कह रहीं थी यहॉं कैसे रहा जा सकता है? मेरे बार-बार अनुरोध करने पर भी वे मेरे घर नहीं आयी थी।
डिनर के बाद जब साहेब चलने लगे, मेरे दिल में एक अरमान पलने लगा कि साहेब कक्कू को देखें, प्यार करें आशीष दें। परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वह एक बार उसकी तरफ बढे़ तो मगर फिर ठिठक गये। एक पल कुछ सोंचा और झटके से घर के बाहर हो गये। वह अनासक्त थे। मैं कयास लगाती रह गई. मैं बेटे को उनका अनुदान मानती थी, जिसे मैंने वरदान के रूप में ग्रहण किया था परन्तु वे उसे प्रतिदान के रूप में देख रहे थे।