प्रतिध्वनियाँ / अज्ञेय
गिरजाघर से कुछ दूर हटकर जो सरू के सुन्दर वृक्षों से सजा हुआ छोटा-सा टीला था, उसी के ऊपर एक सुन्दर साड़ी पहने एक युवती टहल रही थी।
उसका मुख कुछ चिन्तित-सा था, लेकिन चिन्ता इतनी गहरी नहीं थी कि उसके सुन्दर मुख को विकृत करे। केवल हल्की-सी एक रेखा थी, जो किसी दर्शक को एकाएक और भी आकर्षित कर लेती थी और वह पूछ बैठता था, इतने सुन्दर मुख पर यह क्यों?
यह बाग़ के मध्य से टीले के सिर पर एक सरू वृक्ष तक टहल रही थी। यह टीला नैसर्गिक नहीं था, मनुष्यों की मेहनत से बना था, और इसके सिरे पर उसे क़ायम रखने के लिए र्ईंटे चुनी गयी थीं। उस ईंटों के मोर्चे तक आकर युवती एक बार उड़ती हुई निगाह से नीचे देख लेती थी और फिर लौट जाती थी।
नीचे एक छोटी-सी सड़क-चाहे गली कह लीजिए - एक तरह से यह टीलेवाले बाग़ का पिछवाड़ा था। और इधर नीचे मामूली हैसियत के लोग रहते थे - जो कभी उन लोगों की बराबरी करने का ख़याल नहीं कर सकते थे जो गिरजे के सामनेवाले ओर रहते हैं और जिनमें उस युवती का अपना एक स्थान है।
युवती का नाम था अरुणा। वह ईसाई नहीं थी - लेकिन उसने अपने धर्म की तफ़सील यह है कि वह अपने को हिन्दू भी नहीं कहती थी। उसके पिता ने अपने पिता से काफ़ी धन पाया था और इसलिए यह नहीं सीखा था कि अमीरों का जो जुआ है, सट्टा, वह असल में ग़रीबों को ही खेलना चाहिए। वह आजकल सट्टे के मशहूर व्यापारी थे।
अरुणा ईसाई नहीं थी, पर मन्दिर भी नहीं जाती थी। क्योंकि उस बड़े नगर में कोई भी सुन्दर मन्दिर नहीं था। जब कभी उसे सोच होती या उसका मन अपने दैनिक जीवन में उचाट हो जाता, तब वह गिरजाघर से सटे हुए इसी छोटे-से बाग़ में आकर, कुछ देर टहलकर, कुछ शान्त और सुस्त होकर लौट जाती।
अरुणा टहलती हुई टीले के छोर पर पहुँची ही थी कि गिरजे के घंटे एकाएक बजने लगे। अरुणा चौंकी, फिर ठिठक गयी और सुनने लगी। पाँच भिन्न-भिन्न स्वरों के घंटे थे - जिनकी एक खास क्रम से आवृत्ति हो रही थी - टिन्-टिन्-टेन् टन्-टन्!...
अरुणा ने धीरे से कहा, आज इतवार है क्या? फिर उन घंटों के संगीत में उसे कुछ भी होश नहीं रहा। वह जड़ित, स्तब्ध, तन्मय, उस स्वर को सुनने लगी; स्थूल निराकार होकर वातावरण को चीरकर जाते हुए पंख-युक्त तीरों पर बैठकर उन्मुक्त उड़ने लगी - वह गयी... उसकी आँखें नीचे गली की ओर लगी हुई थीं, खड़ी थीं लेकिन जिस अनुभूति में वह बही जा रही थी - जो अनुभूति उसे बहाए लिये जा रही थी, उसकी गति का परिमाण कहाँ है?
अरुणा के मुख पर वह विस्मृति का भाव टूट गया। आकाश से कठोर भूतल पर गिरकर उसने देखा, नीचे गली में एक कलईगर अपनी भट्ठी सुलगाये एक हाथ से धौंकनी चला रहा था और दूसरे से एक चिमटी पकड़े एक पतीली को आँच में घुमाता जा रहा था। आग की लाल चमक में उसके मुख पर एक अमानुषी रंग छाया हुआ था। और जिस उत्साहमय एकाग्रता से वह पतीली घुमाने में लगा हुआ था, वह भी अरुणा को अमानुषी ही मालूम हुआ, क्योंकि क्या मानुष भी इतना अन्धा, इतना बहरा, इतना संज्ञाहीन हो सकता है कि वैसे सुन्दर संगीत के आँचल में बैठकर भी अंगीठी और पतीली में इतना लीन हो - उस दिव्य उपहार की उपेक्षा किये जाय!
अरुणा को बहुत बुरा लगा। यहाँ तक कि वह चाहने पर भी उस वातावरण में नहीं लौट सकी जिसमें वह क्षण-भर पहले थी, हालाँकि घंटे अभी बजे रहे थे। तब झुँझलाकर उसने पुकारा, “कलई वाले! ओ कलई वाले!”
ख़ैर, कलईवाले ने सुन तो लिया। सिर उठाकर देखा, फिर बड़े इत्मीनान से भट्ठी में कुछ कोयले हटाकर पतीली वहाँ रखी, धौंकनी को बन्द किया, फिर उठकर धीरे-धीरे टीले के पास आकर बोला, “कहिए बीबी जी, कुछ काम है?”
अरुणा ने कहा, “नहीं, काम तो कुछ नहीं है। पर तुम कैसे काम में लगे हुए हो। जो गिरज़े के घंटे हैं, ये क्या तुमने नहीं सुने?”
जिस तरह कलईवाले ने कहा, “कौन-से घंटे?”-और रुक गया, उससे अरुणा ने उत्तर पा लिया। उसने फिर पूछा, “तुम्हारे पास ही इतनी सुन्दरता और मिठास बही जा रही है, और तुम्हें खबर नहीं है, तुम अपनी धौंकनी और पतीली से मस्त हो! माना की रोटी भी कमानी होती ही है, लेकिन उसमें क्या कोई इतना रम जाता है कि दुनिया के लिए मर ही जाय?”
कलईगर ने भौंचक-सा होकर कहा, “क्या-”
अरुणा ने अधिकार के स्वर में कहा, “यहीं खड़े रहकर ज़रा सुनो तो सही, इन घंटों की आवाज़! ये क्या तुम्हें कुछ भी नहीं कहते?”
कलईगर सहमा हुआ-सा खड़ा होकर सुनने लगा। उसकी मुद्रा मानो यह दिखाने की कोशिश कर रही थी कि “मैं सुन रहा हूँ। है बिलकुल निकम्मी बात, वक़्त ज़ाया करना, लकिन मैं सुन रहा हूँ!”
और अरुणा उसकी ओर देखने लगी।
धीरे-धीरे कलईगर के शरीर की तनी हुई पेशियाँ ढीली पढ़ने लगी। बलात् केन्द्रित ध्यान का भाव उस पर से मिटने लगा और सहज, आकर्षित ध्यान का आने लगा। मानों कानों ने जान लिया कि यह काम सिर्फ़ हमारा है, और बाक़ी शरीर को छुट्टी दे दी कि वह आराम करे, और उस दैवी देन को पाये, भोगे, जो कानों द्वारा उसे प्राप्त हो रही है...
और अरुणा उसकी ओर देखने लगी...
कलईगर मानो संगीत में घुल गया। संगीत मानो उसके भीतर समाकर, उसका होकर उसके चेहरे से फूट निकलने लगा-ऐसा पूर्ण संगीतमय हो गया था उसका चेहरा...
थोड़ी देर बाद जब घंटे एकाएक बन्द हो गये, तब भी कलईगर चौंका नहीं, उसी स्वप्न-से में, उसी प्रकार मुँह उठाये, मुँह पर संगीत की ज्योतिर्मय छाया लिए, धीरे-धीरे वहाँ से हटकर अपनी भट्ठी की ओर चल पड़ा। अरुणा से उसने बात नहीं की, उसकी अनुमति नहीं माँगी, उस वरदान के लिए उसे धन्यवाद नहीं दिया। पर अरुणा को इसका तनिक भी खेद नहीं हुआ, वह प्रसन्नमना उसे देखती रही। उसके अपने मुख पर जो चिन्ता की रेखा थी, उसका स्थान लिया एक सन्तोषमय आनन्द ने, क्योंकि किसी दूसरे की आत्मा को जगा देना, उसमें कला को ग्रहण करने की शक्ति को चेता देना, कितने गौरव की बात है!
अरुणा फिर भी उसकी ओर देखती रही। जब कलईगर अपने स्थान पर जा कर बैठ गया, एक हाथ में धौंकनी उठी ली और दूसरे में चिमटी, तब भी उसके मुँह पर वहीं पारलौकिक भाव था, पर जभी चिमटी पतीली से टकरायी, उसने धौंकनी और चिमटी को ऐसे चौंककर छोड़ दिया जैसे साँप पकड़ लिया हो... और फिर उसकी ओर अनदेखती-सी आँखों से देखने लगा-
अरुणा मुस्करायी। उसने जान लिया कि अब यह व्यक्ति सदा के लिए अपने वातावरण और संसार से असन्तुष्ट है - कि अब इसकी आत्मा जाग गयी है, और सदा जागेगी, सदा अतृप्त रहेगी... अब वह पारखी की आत्मा है, कलाकार की आत्मा है।
अरुणा ने एक काग़ज़ पर अपना नाम और पता लिखा, और फहरा कर टीले से नीचे गिरा दिया।
वह लौटी, तब उसके हृदय में आनन्द और अभिमान था। वह आत्मा मैंने जगायी है-उसके हृदय में जिस वाणी के तार झनक उठे हैं उसे मैंने छेड़ा था, मैंने!
2
एक-एक सीढ़ी ऊपर - एक-एक सीढ़ी नीचे...
धौंकनी और पतीली जाती है, सट्टे का व्यापार गर्म होता है; बीवी भूखी मरती है, रुपये की माँग बढ़ती है; सारंगी आती है, धन जाता है; प्रसिद्धि होती है दीवाले निकलते हैं; कला आती है, कला जाती है...
एक-एक सीढ़ी ऊपर - एक-एक सीढ़ी नीचे...
और घंटे बजते जाते हैं...
बीस वर्ष...
साँझ की प्रार्थना हो चुकी थी। गिरज़े के बाहर टीले पर, अच्छा-सा सूट पहने और हाथ में वायलिन थामे हुए अधेड़ उम्र का किन्तु देखने में आकर्षण एक व्यक्ति टहल रहा था। उसका मन कहीं और था, लेकिन कभी-कभी उस की उगलियाँ तारों पर कमान को खींच ले जाती थीं, तब एक गम्भीर गूँज से मानो सरू भी काँप से जाते थे...
जो लोग प्रार्थना करने आये थे, वे एक-एक करके जा रहे थे। जब सब चले गये, तब उस व्यक्ति ने वायलिन को अच्छी तरह ठोड़ी से दबाया, कमान उठायी, और क्षण-भर सोचकर बजाने लगा...
बिजलियाँ काँपीं। पपीहे बोले। विरहिणियाँ पुकारा कीं। पहाड़ी झरने, मानो एक हंसी से दूसरी हँसी की ओर उछलते हुए बहा किये। फूल फूटे और कुम्हलाये और कलियों के नीचे छिप गये। प्रकाश की लहरें बहती रहीं...
और संगीतकार वायलिन बजाता हुआ टहला किया...
एकाएक टीले के सिरे पर आकर वह रुक गया। नीचे एक भीड़ एकत्र हो रही थी। सुन रही थी, आनन्दित हो रही थी। सन्नाटा था। और वायलिन बजता जा रहा था...
खुट्... खुट्... खुट्
गली की ओर से एक बुढ़िया लकड़ी टेकती हुई बढ़ी आ रही थी। सिर उसका झुका हुआ था, चेहरे पर झुर्रियाँ थीं। और वह गली को जल्दी से पार कर लेने की चेष्टा में धीरे-धीरे चली जा रही थी।
संगीतकार को अच्छा नहीं लगा। उस बुढ़िया की ओर देखने लगा जिसने उसके संगीत की ओर ध्यान नहीं दिया-तन्मय होना तो, दूर बिलकुल अनसुनी कर दी...
भीड़ बुढ़िया के सब तरफ़ होती हुई बिखरने लगी। बुढ़िया अपना आगे बढ़ना असम्भव पाकर लाठी टेक कर खड़ी हो गयी, मानो कह रही हो, ‘लो, पहले तुम्हीं चले जाओ। तुम्हारे ठहरने से दुनिया का काम रुक जाएगा; पर मैं और दुनिया अलग-अलग हैं। मेरा कोई हर्ज नहीं होता...’
थोड़ी देर में भीड़ छँट गयी - गली सूनी हो चली। तब बुढ़िया फिर आगे बढ़ने को हुई - खुट्-खुट्-खुट्...
संगीतकार ने अपने उलहना-भरे स्वर में कछ विनय लाने की चेष्टा करते हुए, कहा, “बुढ़िया, तुम्हें संगीत अच्छा नहीं लगता?”
बुढ़िया ने कुछ पास आकर, रुककर, सिर उठाकर उसकी ओर ऐसे देखा, मानो कहना चाहती हो, “क्या कहते हो तुम?”
चेहरा देखकर व्यक्ति ने जाना, वह उतनी बुढ़िया नहीं थी - अकाल ही में ये झुर्रियाँ पढ़ गयी थीं, उसके चेहरे पर, जो कभी बहुत सुन्दर रहा होगा...
वह उसकी ओर देखती जा रही है, यह नोट करते हुए उसने पूछा, “क्यों बुढ़िया, संगीत तुम्हें अच्छा नहीं लगता?”
बुढ़िया फिर भी कुछ नहीं बोली, ध्यान से उसकी ओर देख रही है तो बस, देखती जा रही है, यह जानकर, कुछ अचकचाये स्वर में वह फिर बोला, “क्या-”
बुढ़िया ने एक शब्द कहा, लेकिन उस शब्द में था विस्मय, उसमें थी वेदना, उसमें था अभिमान-सा भी कुछ, जो नींद से नहीं, मौत से जागने की चेष्टा कर रहा था, ‘कलईगर!’
संगीतकार ने सधे हुए कान ने इस पुकार में वह जान लिया जो आँखों ने नहीं पाया था और वह भी बोल उठा, “अरुणा!”
थोड़ी देर बाद, कुछ अधिक अनिश्चित-से, सहमे हुए-से बहुत ही धीमे स्वर में उसने फिर कहा, “अरुणा...”
(लाहौर, दिसम्बर 1935)