प्रतिफल / राजा सिंह
कीर्ति को भरोसा आता है किन्तु टिक नहीं पाता है। पूरा एक वर्ष साथ रहते बीत गया है और उसकी तरफ से कोई उत्सुकता सम्बंध को स्थायी रूप देखने को लगती नहीं थी। उसे लगता है कि वह संदेह करती है परन्तु वह भी संदेह का कोई उपचार नहीं करता है। वह उसे वैसा ही पड़ा रहने देता है। वह विरक्त रहता है, उसकी चाहती के प्रति।
दोनों शुरू से अनिश्चित थे। दोनों की पुरानी स्मृतियाँ थी-परंतु एक की अलग और दूसरे की अलग। किन्तु एक दूसरे पर टिकी हुई. समय के साथ प्रत्येक दिन उसमें संदेह बढ़ता जा रहा है। किन्तु समाज की नजर में वह इतने घुले मिले थे कि यह कहना मुश्किल था कि वे दम्पती नहीं है।
माँ-बाप थे। जैसा होता है, उन्होंने मना किया था कि मैं उससे न मिलूँ परन्तु उसे उनका फैसला ठीक नहीं लगता था। किन्तु अब उसे क्यों रह-रह कर वे याद आते हैं। उनकी हिदायतें, नसीहतें क्यों सालती है, भिंचती है? तब उसे उनके कहे पर तसल्ली नहीं थी। अब क्यों उसे उनके कहे पर विश्वास आ रहा है?
तब उसे उस पर पूरी तरह भरोसा था। परन्तु अब क्यों भरोसे की नींव दरक रही थी? यद्यपि उसकी दिलचस्पी उसमें कम नहीं हुई थी। कौन बतायेगा यह? वह झींककर खुद से पूछती है। कोई नहीं बता सकता यह, उसके सिवा।
"तुम्हें मालूम है मुझे क्यों यकीन नहीं होता है? मेरे साथ शादी करोगे?" वह अपना मुंह लेकर आती है।
"फिर वही पागलपन?" वह उसे अपने में खींच लेता है। उसके गालों और ओठों पर अपना गीलापन दर्ज करता है।
" निश्चय ही...! ...वह बेतरतीब दोहराने लगता है। उसे तसल्ली नहीं होती। उसका मन असमंजस के दलदल में अब भी अटका है।
"फिर कर लेते है।"
"क्या?"
"शादी।"
"नहीं। अभी नहीं...!"
"अभी क्यों नहीं?"
"तुम समझती क्यों नहीं? । हम पहले भी कह चुके है। तुम्हें याद क्यों नहीं रहता?"
" क्या कह चुके है, एक बार और कहो। अब की बार याद रखूंगी।
हमने आपस में वादा किया था कि साथ रहते हुए हम एक दूसरे को परखेंगे, जब एक दूसरे पर विश्वास आयेगा, एक दूसरे पर आश्रित बगैर जीवन नहीं चलेगा, तब विवाह करेंगे। यदि एक दूसरे के प्रति कुछ थोड़ा-सा भी विरक्त हो जाते है तो अलग हो जायेंगे... यह बात वह गुम कर गया।
आश्रित-यह चीज बहुत विस्मयकारी है। उसे तो आवश्यक लग रहा है, दीप को क्यों नहीं? वह क्यों डिग रहा है? वह क्यों पीछे हट रहा है? । कहीं...?
वे एक दूसरे से पृथक अपने में अलग-अलग जी रहे थे। दीप को यह असंभव लगता था कि वह उच्चता से समतल पर आएगी?
-दीप के दिल में आया कि अपनी बातें उड़ेल दें कि जब वह उससे मिला था, तो सोचा भी नहीं था कि जो उसके बीच हुआ था उसकी परिणति इस तरह से हो जाएगी। वह उसे पाना चाहता था सम्पूर्ण रूप से। वह उसमें जब्ज हो गयी थी। वह समर्पित थी। उस समय उसे उसकी उच्च देह के परे कुछ भी दिखाई नहीं देता था। ... वह कहना चाहता है... 'तुम्हें हास्टल में छोड़कर जब मैं अपने कमरे में लौटता था तो तुमसे छुटकारा पाने की सोचता था, जब तक कि पुनः तुम्हारा शरीर का साथ पाने की याद पीड़ित करने न लग जाती... क्या वह पाप था या अब जो है...?'
उसका साथ उसमें विजेता का भाव भरता था... अब भी ऐसा ही है।
किन्तु वह उसके आकर्षण में प्यार-आबद्ध थी। निश्चय ही प्यार वह भी करता था, परन्तु उसका प्यार सशंकित था। लेकिन वह कहता नहीं है। कुछ कहने का मतलब है उसके संदेहों को और पुख्ता करना और उसे पाप के घेरे में ले आना। जिससे भयभीत होकर वह कुछ कर सकती थी और अब भी कुछ भी...!
अपने प्यार प्रेम और मुहब्बत के गहनतम और गंभीर होते समय में... वह जब मिलती सदैव पूछती, "क्या हमें इसे स्थायी रूप देने की कोशिश करनी चाहिए?" वह उन्हें समझाने की कोशिश करता।
एक दिन कीर्ति ने अपनी स्वभावगत हया और शर्म का त्याग करते हुए विवाह कर लेने का प्रस्ताव खुद रख दिया था।
"मेरे विषय में कुछ जानती भी हो?" उसके मन में खटका था।
"हम तीन साल से एक दूसरे को जान ही तो रहे है। क्या यह नाकाफी है?" उसने कहा। स्त्री जब किसी से प्यार करती है तो सिर्फ उसे ही जानती है। उससे जुड़ी किसी अन्य बातों में उसे दिलचस्पी नहीं होती।
"माफ कीजिये," उसने कहा। ' वह हम व्यक्तिगत स्वभावगत परिचय से रूबरू हो रहे थे। हमारा सामाजिक परिचय भी होना आवश्यक नहीं है क्या? " उसने दृष्टिकोण स्पष्ट किया। वह एकाएक कुछ समझ ना सकी। उसे लगा की कुछ फंस गया है। वह बिलकुल उसके सामने कौतुक भरी निगाहों से उसे देखने लगी।
"जी!" अब क्या? उसकी जिज्ञासा चरम पर आ गयी थी।
' मैं। दीपक पराशर...पराशर...मतलब...एस-सी यानी कि दलित। और तुम कीर्ति दुबे...मतलब ब्राह्मण। निम्न और उच्च का संयोग। चल सकेगा? ..."
"क्या फर्क पड़ता है?" उसने बिना किसी हिचक के जवाब दिया।
"तुम समझती हो कि मैं झूठ बोल रहा हूँ।" उसने कहा।
"यह विचित्र है!" वह दूसरी ओर देखने लगी।
"क्यों?"
"तुम कुछ भी समझो, मुझे इसकी कतई परवाह नहीं!"
"मुझे लगता अगर तुम्हें पहले से आभास होता, तब हमारे बीच इस तरह का प्यार नहीं पनपता। तुम मेरी तुलना एक ऐसे आदमी से करती जो मैं नहीं होता और जो मैं हूँ, वह तुमसे बचने की कोशिश करता।"
"आप को तो पता था? फिर...?" उसकी आँखें उस पर जमी हुई थीं।
"मेरी बात अलग है।"
"चलिए मैं मान लेती हूँ आपके बारे में कुछ नहीं जानती... इसलिए शुरू और आखिर का कोई फर्क नहीं पड़ता।"
"आप शादी करना नहीं चाहते?" उसके प्रश्नों से तंग आकर उसने कहा,
"तुम मेरा विश्वास नहीं करती? तुम सोचती हो मैं भाग रहा हूँ?"
"मैंने ऐसा कब कहा? ..." वह चुप हो गई.
"फिर..." उसने उसके कंधों में हाथ रखते हुए फुसफुसाया।
' ऐसा करते है, कुछ दिन बिना विवाह के साथ-साथ रहते हैं...यदि बिना वाद-विवाद और कटुता के एक दूसरे के सामंजस्य बैठ गया और बिना एक दूसरे के हम रह नहीं पायेंगे, अधूरे है, एक दूसरे के लिए आवश्यक है तो हम शादी कर लेंगे। अगर नहीं निभी तो पश्चाताप करने से बेहतर है हम अलग हो जाये...विवाह के बाद यह दुरूह कठिन और अपमानजनक होगा।"
बहस करना व्यर्थ था, वह मानेगा नहीं, उसने सोचा ।
स्त्री जब किसी को स्वेच्छया से अपना शरीर दे चुकी होती है तो उस व्यक्ति के सिवा, उसे किसी बात की परवाह नहीं होती है। उसे उसके अलावा सब गौण नज़र आते है। उसे उस पर गुस्सा, नाराजगी, शोक एक साथ उमड़ आया था।
फिर भी उसने कहा, "ठीक है, ऐसा ही सही!" जैसे कोई आसन्न विपदा (अस्वीकार) सामने आते अचानक आँखों से ओझल हो गयी हो। उसकी पूर्ण स्वीकरोक्ति न मिली थी, परन्तु एक तसल्ली जरूर मिली थी कि शायद इसी में उसके साथ विवाह का भविष्य छिपा हो।
दीप को डर के साथ एक राहत मिली थी, जैसाकि विवाह की बला टलते ही किसी अप्रत्याशित खतरे से छुटकारा मिल गया हो। उसका ख्याल-'मुश्किल है तुम्हारी ब्राह्मण वादी सोच पूर्णतया मुझ में एकात्म होकर मेरे में तिरोहित हो पायेगी...? तुम्हारी जातिगत श्रेष्ठता का दंभ कचोटने न लगेगी...?' उसने विजय दर्प से मुस्कराते हुए सोचा।
उसका भरोसा रखने को ही वह साथ रहने को राजी हुई थी।
वह जरूरत से ज्यादा जल्दी कर बैठी? वह अकसर यही सोचती। उसका मन पढ़ने में नाकामयाब रही?
अकेली। वह अकेली ही चली आई थी। वह कुछ देर जड़ बना बैठा रहा था। फिर हड़बड़ा हट में वह ठीक से उसका स्वागत भी नहीं कर पाया था। वह सोचती थी कि साथ रहने से वह मजबूर हो जायेगा विवाह के लिए. यह उसका निर्णय था ठंडा, कठोर, अविचलित जिसे बदला नहीं जा सकता था। परंतु वह आश्वस्त नहीं था कि उसकी उच्चता उसके नीचे आयेगी।
"यह कैसे चलेगा?" वह सशंकित थी। डर था... बहुत शुरू का डर। अपने में बिल्कुल नंगा होता झूठ। उसे लगा कि जैसे वह मुस्करा रहा है।
"इसकी चिंता मत करो। हम संयम रखेंगे।" कुछ देर तक वह उसे घूरता रहा, जैसे इत्मीनान करना चाहता हो कि वाकई ऐसा हो सकता है।
वह उसका हाथ पकड़ता है जो हल्का-सा ठंडा है। उसे लगा उसे सर्दी है परन्तु ऐसा नहीं था। वह नरम था एकदम निर्जीव सा। किन्तु वह जिद में थी। एक पथरीली जिद।
"सब ठीक होगा।" उसने अपने दोनों हांथो से उसके चेहरे को सहलाया। वे रात भर बाते करते रहे थे। उसी समय अलिखित, अविश्वसनीय और अकल्पनीय समझौते हुए और वह सब जो वह एकांत अक्सर मिलने पर करता था अब सदैव के लिए थे... और फिर वही सब। जिसके लिए हरदम बेताब रहता था।
उसके प्रश्न उसे विचलित कर देते थे। उसे कोई उत्तर नहीं सूझता था। वह उसे विश्वास करने को कहता था। उसका रवैया उसे हैरान करता। कई बार वह उत्तर देने के बजाय हंसकर टाल जाता।
"क्या तुम हमेशा टीचिंग करना ही पसंद करोगी?" यह बात उसने जब पूछी थी, जब वह भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी कर रहा था।
' यही क्या कम है? । फिर मेरे पास तुम्हारी जैसी सुविधा नहीं है।" वह मुस्करायी थी।
"क्या मतलब?" वह चिढ़ गया।
वह बहुत कुछ कहना चाहती थी परन्तु चुप रही। उसमें बहुत कुछ भरा था।
पता नहीं क्यों उसे कुछ ऐसा लगता था कि कुछ होने वाला है, जैसे दूर से कोई सन्देश उसे आगाह करता हुआ कि कुछ अघटित होने वाला है जिसके लिए उसे तैयार रहना है। स्पष्ट कुछ भी नहीं था परन्तु ऐसा लगता कि यह परिस्थिति ज्यादा दिन नहीं रहने वाली है। उसकी स्वप्निल निगाहों में यह दृश्य अकसर आता रहता कि वह तेज-तेज कदमों से आगे जा रहा होता है। वह पीछा करती है किन्तु उसकी दूरी बढ़ती जाती है। कुछ देर बाद, कुछ दूर जाने के बाद वह एक मोड़ पर, वह सिर्फ मुड़ते हुए दिखाई देता, उसके बाद अदृश्य हो जाता।
दीप-'तुम छूटोगे तो नहीं-संदेह और अनिश्चय से उसका स्वर एक तनाव से सिक्त था।' ... और तब उसने ऊपर की तरफ देखा, छत की ओर एक लंबे क्षण तक ताकती रही, जैसे वह उसे देख रहा हो?
कीर्ति को मालूम नहीं था कि उसकी चाहत के रास्ते की परिणति इतने दूरुह और कष्टप्रद होगी। वह जैसे उसके डर को भांप लेता और आश्वस्त करता था अनवरत प्रेम, प्यार और वासना के प्रसंगों-तरंगों से।
विवाह-इससे बड़ी शर्म की बात हमारे लिए कोई नहीं हो सकती, जिसकी प्रतीक्षा वह विगत तीन साल से कर रही थी। नहीं, यह नहीं, उसे ये सब बेकार की बातें नहीं सोचनी चाहिए. बहुत जल्दी हम सामाजिक रूप से भी एक होगे। कुछ लोगों को छोड़कर अधिकांश को यही पता है कि वे पति-पत्नी हैं। वे उस जगह रहते थे जहाँ उनके जान पहचान के लोगों की संख्या अत्यधिक सीमित थी।
अप्रत्याशित बात, एक बड़ी विपत्ति बनकर आई थी। वह विपत्ति स्थायी थी। जिसने उसके जीवन की दिशा और दशा बदल कर रख दी थी। वह हतप्रभ किंकर्तव्यविमूढ़ थी। चौंकाने से भी परे यदि कुछ था तो यही था। सब कुछ हिल गया।
दीपक उसे छोड़कर जा चुका था। यह विश्वासघात था। फोन पर खबर सुनकर वह जड़ हो गई. उसी ने कीर्ति को बताया।
उसके विवाह की मनौती टूट गयी। भारतीय प्रशासनिक सेवा में उसका चयन हो गया था। वह कोलकाता चला गया... वह वही कारमेल स्कूल में टीचर बनी रही। गनीमत यह रही उसे वहाँ से निकाला नहीं गया, हालाँकि उनका प्रकरण काफी चर्चित था।
विश्वास नहीं होता कि यह उसके साथ भी हो सकता है? उसके बाद जो दिन आये वे एक कटु सत्य थे। यह उसकी कल्पना से परे की बात थी। किन्तु क्या वह उसे पहचान सकी थी? बीच-बीच में शक और संदेह जरूर उग आया करते थे, किन्तु...क्यों? उसे गलती नजर नहीं आ रही थी। यह समझ से परे था। वह जार-बेजार रो रही थी। उसने उसे अंतरात्मा से चाहा था। फिर वह चुप हो गयी। भीतर बाहर सब स्थिर हो गया। दरों-दीवार और वातावरण में छाई काली छाया ने पूर्णतया गिरफ्त में ले लिया। पहली बार उसके उदासीन। निराश और निस्पंद चेहरे पर क्लेश की कालिमा उतर आई थी... वह रुक जाती है... न डर नहीं। मरघट जैसी शांति। एक फटी-सी चीख जो बाहर निकल नहीं पा रही है। उसे अपने पर कोई नियंत्रण नहीं रहा था... जैसे वह अपने में मुक्त है।
शायद वही क्षण था जब उसने सोचा था कि उसे भी चले जाना चाहिए था। क्योंकि उसके परे उनके प्रेम का भविष्य नहीं था और शायद जीवन भी। किन्तु उस अदृश्य शक्ति ने उसे बीच में पकड़ लिया।
उसने पागलों की तरह उसे पीटना शुरू कर दिया। उसे अपनी ही चीख सुनाई दी तेज चमकीली और रहस्यमय जो उसके देह में आकर बैठ गयी। फिर कुछ नहीं दिखाई दिया सिवा उस चीख के जो अंतर्मन के अँधेरे में कौंध रही थी।
यह सिर्फ संयोग ही रहा होगा कि वह वापस अपने में लौट आई थी। पलायन की जबरदस्त आकांक्षा ने उसके भीतर पनप रहे भ्रूण ने रोक लिया। सब कुछ वैसा ही था सिर्फ वह नहीं था किन्तु वह दूसरे रूप में उसे जकड़े था। वह बेहोश हो गयी। एक अंतहीन बेहोशी के चंगुल में।
फिर उस बेशर्म ने अपने विवाह की खबर की। ताकि उसके विषय में कोई गलतफहमी न रह जाए. वह हैरान थी। ऐसे में विश्वास करना असंभव था कि वह उसे प्यार करता था। -वह अपनी बीवी के साथ लेटा होगा! उसे लगता है कि वह कब्र में साबुत चली जा रही है। जिन्दा लेटी है उसकी देह को कीड़े-मकोड़े खा रहे है... न चीखन, न चिलकन, न बदबू। उसे कोई कष्ट क्यों नहीं होता? कोई दर्द क्यों नहीं हो रहा है? ...कभी ऐसा लगता कि उसकी देह धूं...धूं... कर जल रही है। ताज्जुब है कि न धुवा उठ रहा है न चिरचिराहट की आवाज न जलन न दर्द। यह कैसा करिश्मा है? -वह आँख मूंदे बैठी रहती। बैठकर हवा में ताका करती।
क्या यह एक तरह की हार थी जब हम नियति के सामने घुटने टेकने को मजबूर हो जाते है। उसके माँ बाप को कैसे आभास था ऐसा ही कुछ होगा! -उसकी आँखों पर माँ का दुःख उतर आता। माँ कितनी आतुर है, कितनी बेबस, बेकस और कितनी भयभीत-सी फिर भी कितनी जागृत और तनी हुई! उनकी डरी हुई धडकनों की एक धुंध आती है और उसमें धुकधुकी मचाती है। माँ का मन उमड़ने लगता है कि उसे रोक ले बाँध ले किसी जादूगर की तरह, उसे अपने कब्जे में कर ले और उससे दूर कर दे। नहीं मानती है वह फिर भी कड़ी हिदायतें देती है। -उसकी भटकी आँखों में बाबू का गर्जन, गुस्सा और तड़पन बेरहम छीलने लगते।
यह उसका जीवन था, जो एक रिहर्सल एक प्रयोग जिसे उसने करना चाहा था। असफल रहा था। किन्तु यह रिहर्सल या प्रयोग नहीं रहा था। यह जिंदगी की एक स्थायी पड़ाव बन गया था। इस पड़ाव से वापस लौटना असम्भव था। शुरू में हम कितना दौड़ना चाहते है हार-जीत का कोई सम्बन्ध, परिणाम जाने बगैर। हम अपने निर्णयों के साथ प्रसन्न थे। यह हमारी बनायीं दुनिया है और यही हमारी जीत है। इसमें किसी दूसरे का दखल बर्दाश्त नहीं है। किन्तु कभी-कभी एक ठोकर इतनी घातक, जटिल और दुसाध्य होती है कि वह लाइलाज बीमारी की तरह चिपक जाती है कि अपनी बनायीं दुनिया भरभराकर गिर पड़ती है, ढह जाती है। जिसके नीचे दबे हम सिर्फ जिन्दा रहते है और एक अनजाने डर, भाव से जिन्दा रहते है कि शायद कोई हमें इस ढूह से निकालने वाला नहीं है और अब यही हमारी नियति है।
अकसर वह यहाँ आ जाती थी यहाँ के शांत, निःशब्द और पवित्र वातावरण में एक अजीब-सा सुकून महसूस होता था। उसने कभी वहाँ के भगवान से कुछ माँगा नहीं। उसे शायद अब किसी चीज की जरूरत भी नहीं रही थी। वह अपना मन बदलने से ज्यादा अंशु को खेलाने यहाँ मंदिर में आ जाती थी। मंदिर के प्रांगण में टहलते हुए, बैठते, ऊँघते, बतियाते और खेलते हुए वह खो जाती थी, जैसे कोई पुरानी फिल्म आँखों के सामने चलती रहती, घूमती रहती। इस जगह उसका कोई अस्तित्व है।
कभी कभी दुखदायी जीवन में दिल दिमाग को राहत देने वाले कुछ ऐसे वाकये घटित होते है कि वह किसी चमत्कार से कम नहीं होते है।
"दीदी...दीदी...!" का स्वर उसके कानों में जा रहा था। परन्तु वह बहता हुआ उसकी यादों की तन्द्रा में प्रवेश नहीं कर पा रहा था... "कीर्ति, । दीदी...!" अब की बार अभद्रता के हद तक चीखती हुई आवाज गूंजी.
" वह चौक गयी उसने नजरे उठाकर देखा तो रोते हुए अंशु को पकडे एक लड़की खड़ी थी। उसने लपककर अंशु को पकड़ा और अपने छोटे से रूमाल से उसका नाक, मुंह और माथा पोंछा और सीने से चिपका लिया। फिर उसका ध्यान लड़की पर गया और वह आश्चर्यचकित रह गयी। वह शिल्पी थी, उसके बचपन की पड़ोसिन लड़की।
"आपका बेबी है?" वह उसे पहचान चुकी थी।
"हाँ...हाँ...एस.। हाँ और क्या?" उसके स्वर में बेताबी झलक रही थी।
"मै...तो देखते ही समझ गयी थी... अरे।! ।आपके पास गिरा था और आपको होश नहीं था? कहाँ खोयीं थी दीदी?" उसे बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई परन्तु उसने कोई सफाई नहीं दी। फिर हलकी-सी कृतज्ञता की मुस्कराहट से पूछा।
"अरे।! तू यहाँ कैसे?" वह कुछ अनिश्चित भाव से उसे ढंग से देखते हुए कहती है।
"मेरी इसी शहर में नौकरी लग गयी है। समाज कल्याण विभाग में...फिर कुछ रूक कर कहा," यहाँ पास में मंदिर देखा तो भगवान का शुक्रिया अदा करने आ गयी।"
"अच्छा, वैरी गुड।" वह उठकर खड़ी हुई और उसे आलिंगन में जकड़ लिया। अंशु देखता रह गया। उसे देखकर उसके चेहरे पर एक गहरी उत्पत्ति जिज्ञासा झलक आई.
वे वर्षो बाद मिली थीं। वस्तुतः जब से वह दीपक के संपर्क में आई थी उसका घर जाना ही समाप्त था। वह एक बार अपने घर गयी भी थी तो दीपक के विषय में बताने। माँ कितनी आतुर थीं, कितनी जागृत और फिर भी कितनी डरी हुई कि वह बाबू जी के बताये किसी रिश्ते को हाँ कर दे। परन्तु उसने तो दीपक राग छेड़ दिया था। उनका मन उमड़ने लगा था कि उसे रोक ले बाँध ले किसी जादूगर की तरह उसे अपने कब्जे में कर ले और उससे दूर कर दें। परन्तु असफल रही थी फिर भी कड़ी हिदायत दी थी उससे दूर रहने की। किन्तु वह दूर क्या रहती, उसके साथ सह जीवन सपना लिया था।
वे पुरानी यादों में खो गयी थीं, अपने गृह नगर बरेली की गलियों-रास्तों, स्कूल-कालेज और घर-पड़ोस और नाते-रिश्तेदारों और जान-पहचान वालों की भूलभुलैया में। फिर उसने हलके से अपने माँ-बाप और घर के विषय में पूछकर तसल्ली करनी चाही कि सब कुछ ठीक है।
उसके शुरू के वाक्य इतने धूमिल थे कि उसे संशय हुआ कि वह क्या कह रही है? कहते हुए चेहरे पर विस्मय का भाव था, मानो उसे खुद मालूम न हो? उसके स्वर में कुछ ऐसा था जो उसे उपहास करता जान पड़ा। किन्तु वह वेदना उपजा रही थी...वह शायद जरूरत से ज्यादा जल्दी कर बैठी थी। उसकी डबडबाई आँखों पर माँ की एक परछाई उतर आई थी। उसने उसे जल्दी से पोंछ डाला।
वे कुछ देर चुपचाप बैठी रही। एक दूसरे की प्रतीक्षा करते रहे कि कोई कुछ बोले या पूछे। शिल्पी उठ खड़ी हुई. वह बैठी रही। उठते हुए उसने उसके कंधे पर हाथ रखा जैसे वह उसे दिलासा दे रही हो।
फिर यकायक वह पूछ बैठी, " दीदी कोई किराये का कमरा खाली हो तो बताना? मैं कई दिनों से होटल में रह रही हूँ। काफी खर्चा आ रहा है। लगता है कि हॉस्टल-नुमा दड़बे में जाना पड़ेगा।
वह कुछ सोच में पड़ गयी। पांच मिनट या सात मिनट ऐसे ही रहे, क्या यह ठीक रहेगा? वह जानती है कुछ चीजें ऐसी है जो देखने में नहीं आती परन्तु वह विद्यमान होती है। जैसे उसकी रची बसी अदृश्य गंध जो हर समय उसे प्रताड़ित, पश्च-तापित करती रहती है। शिल्पी साथ रहेगी तो...? अकेलेपन का दुख कम रहेगा... उसकी कोई बात नहीं।
"तू ऐसा कर मेरे साथ रह ले...? जब मेरे से मन भर जाये या कोई और मिल जाये तो चली जाना।"
"क्या कह रही हो दीदी? वह संकोच में पड़ गयी...," आपके मिस्टर को एतराज नहीं होगा?
"नहीं। अब वे नहीं है।"
"क्या...? नहीं रहे...?"
' ऐसा नहीं है परन्तु साथ नहीं रहते है।"
" डिवोर्स...?
"जब शादी नहीं की तो डिवोर्स कैसा?"
"क्या मतलब?" वह उत्सुक और चिंताग्रस्त थी, "फिर अंशू?"
"यह हमारे सह जीवन का प्रतिफल है...!" वह हंसने लगी। एक मारक हंसी जो दूसरों से ज्यादा खुद को घायल करती थी। "हम विवाह करने का निर्णय नहीं कर पाए थे।" उसने एक लम्बी साँस ली। अंशू उनकी गोद में लुढ़क कर सो गया था।
उसके भीतर एक रूआंसी जिज्ञासा उठी थी...कब क्यों...कैसे...? कुछ देर तक वह इंतजार करती रही। उसने सोचा दीदी उसके प्रश्नों से आहत हैं। सब कुछ शांत और स्थिर था। कुछ हिलता नज़र नहीं आ रहा था सिवा दिल के जो शरीर से बाहर पड़ा कराह रहा था। उसने दीदी साथ रहने का फैसला कर लिया था। उन्हें बताया। उसकी आँखों में आँसू छलक आए थे।
वह उठ खड़ी हुई. उसका मन किया वह उसे अपने पास घसीट ले, उससे कहे तुम मेरे दुखड़ों से दूर रहो, उनका कोई अंत नहीं। यह सिर्फ मेरा प्रश्न है, कष्ट है, जिसे सिर्फ और सिर्फ मैंने अर्जित किया है।
किन्तु शिल्पी तेजी से कदम बढ़ाती हुई लान की दूसरी तरफ जहाँ गेट था चली जा रही थी।