प्रतिबद्ध क़िस्सागोई का कौशल (संजीव कुमार) / नागार्जुन
नागार्जुन की कविताओं पर जितनी बातें हुई हैं, उपन्यासों पर उसके मुक़ाबले बहुत कम। हिंदी साहित्य के लिए वे मुख्यतः कवि हैं। इसका एक प्रतिनिधि नमूना ‘आलोचना’ पत्रिका का वह अंक है जिसमें नागार्जुन के 70 पूरे करने पर विशेष सामग्री दी गयी थी। उसमें नागार्जुन के साक्षात्कार-रेखाचित्रा के अलावा चार आलेख छपे थे और सब-के-सब उनकी कविताओं पर। ऐसा नहीं कि उनके उपन्यासों को बिल्कुल महत्व न मिला हो। शिवकुमार मिश्र जैसे महत्वपूर्ण आलोचक ने तो यहां तक कहा है कि ‘इस बात का दो-टूक निर्णय कर पाना कठिन है कि कवि के रूप में उनकी उपलब्धियां बड़ी हैं अथवा उपन्यासकार के रूप में’ (आलोचना, जुलाई-सितंबरμअक्तूबर-दिसंबर ’80, पृ. 29)। बावजूद इसके, यह उनके रचनाकार व्यक्तित्व का अपेक्षाकृत उपेक्षित पक्ष रहा है, इसे मानने में शायद ही किसी को ऐतराज़ हो। इसका कारण क्या है? क्या यह हिंदी में उपन्यास-आलोचना के अल्पविकसित रह जाने की कहानी का ही एक हिस्सा है? या कि यह नागार्जुन के उपन्यासों की कमतर गुणवत्ता के चलते है / का सबूत है? या कि इस वजह से है कि एक रचनाकार ख़ुद जिस विधा को छोड़ देता है, उस विधा से जुड़ा विमर्श-संसार भी उसे छोड़ चलता है? मानो सर्जक ने उपन्यासकार के रूप में अपनी दावेदारी की दरख़्वास्त वापस ले ली हो! या इसलिए कि हिंदी संसार उपन्यास को आधुनिक युग में महाकाव्य का स्थानापन्न मानने की धारणा से इस क़दर आक्रांत है कि जब तक अपने विस्तार में कोई उपन्यास महाकाव्यात्मक न हो, तब तक उसे अधिक चर्चा के योग्य नहीं मानता? मैथिली में लिखे गये दो उपन्यासों को मिला कर नागार्जुन ने कुल बारह उपन्यास लिखे। उपन्यासों के लेखन का समय चालीस के दशक के मध्य से साठ के दशक के उत्तरार्द्ध तक का है। लगभग बाइस-चौबीस सालों की अवधि में लिखे गये इन उपन्यासों (सिर्फ़ ग़रीबदास बाद का है) में से कुंभीपाक, इमरतिया, अभिनंदन और ग़रीबदास को छोड़ दें तो शेष आठ कृतियां एक साथ मिल कर मिथिलांचल के ग्राम-जीवन से संबंधित अत्यंत विराट महाकाव्यात्मक कृति का रूप ले लेती हैं। बस इन्हें एक साथ पढ़ने की ज़रूरत है। दो खंडों में छपे हुए ‘संपूर्ण उपन्यास’ को देखें तो यह महाकाव्यात्मक कृति डिमाई आकार के लगभग 800 पृष्ठों की बनती है। यह सलाह उनके लिए है जिनके मन में कहीं ये बात हो कि आखि़र इतने कृशकाय उपन्यासों पर कितनी बात की जाये। वे नागार्जुन के इन उपन्यासों को मिला नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 383 कर एक विराट उपन्यास की तरह पढ़ सकते हैं। अगर शिव प्रसाद मिश्र ‘रुद्र’ की ‘बहती गंगा’ और काशीनाथ सिंह की ‘काशी का अस्सी’ जैसी किताबें बनारस के प्रताप से (यानी एक स्थान और मूड की निरंतरता के चलते) उपन्यास हो सकती हैं तो तिरहुत या मिथिलांचल के प्रताप से बाबा की इन आठ कथाओं को मिला कर एक उपन्यास क्यों नहीं कहा जा सकता! जिन्हें ‘बहती गंगा’ और ‘काशी का अस्सी’ के उदाहरणों के बाद भी परतीत न हो, उन्हें राजकमल झा के अंग्रेज़ी उपन्यास ‘द ब्लू बेडस्प्रेड’ का उदाहरण भी दूं जो आज से कोई दस साल पहले रॉयल्टी के अभूतपूर्व पेशगी-भुगतान के चलते ख़ासा चर्चित हुआ था। (गहन अवसाद रचने वाली अपनी शैली और वातावरण-निर्माण के चलते भी यह चर्चित हुआ था, लेकिन कुल मिला कर गुणवत्ता पर बहुत भिन्न-भिन्न क़िस्म की प्रतिक्रियाएं आयी थीं) यह उपन्यास मूलतः अलग-अलग समय पर छपी कहानियों का संग्रह था जिसे, संभवतः एक साहित्यिक विधा के रूप में उपन्यास के ग्लैमरस ओहदे को देखते हुए, उपन्यास की शक्ल दे दी गयी थी और उसी रूप में उसे साहित्यिक समाज का अनापत्ति प्रमाणपत्रा भी मिला। अब अंग्रेज़ी के उदाहरण के बाद तो लोग मान ही लेंगे कि रतिनाथ की चाची, बलचनमा, वरुण के बेटे, बाबा बटेसरनाथ, उग्रतारा, दुखमोचन आदि को मिला कर एक उपन्यास की तरह पढ़ा जा सकता है! आखि़र उपन्यास अंग्रेज़ी से आयी हुई विधा है! शुक्ल जी ने भी हिंदी में उपन्यास की शुरुआत बताते हुए ‘अंग्रेज़ी ढंग के पहले नॉवेल’ (परीक्षागुरु) को ही प्रस्थान-बिंदु बनाया था। दरअसल, नागार्जुन के इन उपन्यासों में इतने गहरे परिचय से निकला, जीता-जागता मिथिलांचल मौजूद है कि उसकी मौजूदगी की आप अनदेखी नहीं कर सकते और अगर उसे आंखें भर कर देखेंगे तो यह कैसे संभव है कि इन अलग-अलग कथाओं को एक विराट कथा के हिस्सों की तरह ग्रहण न करें। कथा में दिखने वाला यह गहरा परिचय सिर्फ़ किसी जगह जनमने और रहने भर से पैदा नहीं होता। यह परिचय तो जीवन को छक कर जीने से और अपनी दुनिया को गहरे कौतुक एवं लगाव के साथ निहारने से पैदा होता है। फिर एक चीज़ और बची रहती है। वह यह कि आप उस परिचय में निहित स्थानीय वैशिष्ट्य के तंतुओं को कथा का पट बुनने के लिए कितना उपयोगी मानते हैं। नागार्जुन उसे उपयोगी मानते हैं। इसीलिए कथा में वह दिखता है। उसके दिखने से कथा ‘आंचलिक’ हुई कि नहीं, यह एक बेमानी-सी बहस हिंदी आलोचकों के बीच चलती रही है। (आलोचक भी क्या करे! इस तरह से बहस के मुद्दे गढ़ना एक धंधई मज़बूरी जो है!) बहस में प्रगतिशील-जनवादी आलोचकों का पक्ष यह रहा है कि नागार्जुन पर ‘आंचलिक’ का लेबल न लगने दें। यह लेबल लगेगा तो नागार्जुन उन प्रेमचंद की परंपरा में बने नहीं रहेंगे जिन्होंने मानवजीवन के साथ अपने परिचय में निहित स्थानीय वैशिष्ट्य के तंतुओं को कथा का पट बुनने के लिए शायद बहुत उपयेागी नहीं पाया था। यह बहस बेमानी यों थी कि इसमें स्थानीय वैशिष्ट्य को व्यापक यथार्थ के प्रतिनिधित्व के विरोध में देखा गया था और यह वैसे ही था जैसे अपने समय में गहरे धंसी हुई कृति को ‘शाश्वत’ के मानदंड पर कमतर मानना। ज़ाहिर है, ‘अभी’ के साथ ‘सार्वकालिक’ का कोई वैर न मानने वाली प्रगतिशील-जनवादी परंपरा अगर ‘यहां’ के साथ ‘सार्वदेशिक’ का वैर-भाव माने ले रही थी, तो यह एक बुनियादी गड़बड़ी का सूचक था। हिंदी के मार्क्सवाद में यह बुनियादी गड़बड़ी राष्ट्रवाद ने पैदा की थी। उसने हिंदी के मार्क्सवादी को यह समझा दिया कि देखो, परिवर्तन की तुम्हारी लड़ाई का पैमाना तो राष्ट्रीय है, इसलिए स्थानिक वैशिष्ट्य के उभार को एक क्षेत्रावादी विचलन की तरह लो; वह स्थानीयता अगर ज़्यादा मुखर 384 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 होगी तो शोषण और उसके विरुद्ध संघर्ष की कथा की प्रातिनिधिकता जाती रहेगी। हिंदी के मार्क्सवादी को ऐसी कई और बातें मनवाने में राष्ट्रवाद कामयाब रहा। इस पर कभी विस्तार से चर्चा होनी चाहिए। फ़िलहाल तो यही कि स्थानिक वैशिष्ट्य को हिंदी के मार्क्सवादी ने शक की निग़ाह से देखा और यह कोशिश की कि नागार्जुन के उपन्यासों को इस शक के दायरे में आने से बचाया जाये। इस तरह शिव कुमार मिश्र को यह कहना पड़ता है कि ‘उनकी रचनाओं में अवश्य भारतीय ग्राम्य जीवन का वह वृत्त विशेष रूप से उभरा है जो उनका जाना-पहचाना था और जिसके वे अंग थे, किंतु उनका कोई भी उपन्यास उठा लिया जाये, उस उपन्यास के भीतर से कोई अंचल-विशेष नहीं, वह मुनष्य ही अपने सुख-दुख की संपूर्ण गाथा तथा अपनी लड़ाकू चेतना से हमारी पहचान करायेगा जो सदियों से सामंतवादी शिकंजे को छिन्न-भिन्न करने के लिए दरभंगा ज़िले के गांवों में ही नहीं, समूचे देश के गांवों और शहरों में संघर्ष कर रहा है, हार रहा है, जीत रहा है।’ (आलोचना, जुलाई-सितंबरμअक्तूबर-दिसंबर ’80, पृ. 30) अगर बताया न जाये कि यह कथन नागार्जुन के उपन्यासों को लेकर है, तो क्या सैद्धांतिक स्तर पर इस संभावना से इंकार किया जा सकता है कि यह ‘आंचलिक’ विशेषण से विभूषित किसी उपन्यास पर भी ज्यों-का-त्यों लागू हो जायेगा? सैद्धांतिक स्तर पर इस संभावना से तभी इंकार किया जा सकता है जब हम यह मान लें कि ‘आंचलिक’ होने का मतलब ही है, सामान्य मनुष्यता और देश-दुनिया के संबंध में किसी भी वक़्तव्य या आख्यान की क्षमता से रहित होना। यानी जब आप ‘आंचलिक’ की परिभाषा गढ़ते हुए किसी भाव नहीं, अभाव को ही सारभूत लक्षण के रूप में निरूपित करेंगे, तभी इस संभावना से इंकार करना संभव होगा। तभी आप इस परम निश्चय तक पहुंच पायेंगे कि कोई उपन्यास क्योंकि/इसलिए आंचलिक है, इसलिए/क्योंकि उसके सुख-दुख-संघर्ष-जय-पराजय की गाथा का विशिष्ट संदर्भ से बाहर अर्थ-विस्तार नहीं हो सकता (पहले ‘क्योंकि’ को दूसरे ‘इसलिए’ के साथ और पहले ‘इसलिए’ को दूसरे ‘क्योंकि’ के साथ मिला कर पढ़ें और इस चक्रक दोष का लुत्फ़ उठायें)। इसीलिए मैंने कहा कि यह एक बेमानी बहस थी। बाबा के उपन्यासों की पैरवी करते हुए हम ख़ामख़्वाह वो दलीलें दिये जा रहे थे जिनकी उन्हें कोई ज़रूरत न थी। आखि़र किसी कथा की प्रातिनिधिकता का संबंध इससे थोड़े ही है कि उसमें विशिष्ट के वैशिष्ट्य की कितनी कटाई-छंटाई हुई है। अगर कथाकार वैशिष्ट्य को सुरक्षित रखते हुए भी ख़ास ऐतिहासिक चरण में वर्गीय और शोषक संबंधों के रूप में विद्यमान उत्पादन-संबंध तथा उनके तनाव के प्रति सजग है तो इसका मतलब कि वह उस ऐतिहासिक चरण से गुज़रते मुख़्तलिफ़ इलाक़ों की ऐसी साझा (कॉमन) विशेषताओं को भुना पाने में समर्थ है जो कथा में प्रातिनिधिकता को संभव करती हैं। इनके प्रति सजग कथाकार के यहां क्षेत्रा-विशेष के सांस्कृतिक-भाषाई-भूदृश्यात्मक वैशिष्ट्य का अंकन प्रतिउत्पादक नहीं होगा, जिसकी आशंका रामविलास जी1 से लेकर बाद के हमारे कई साथियों तक में दिखलायी पड़ती है, उल्टे अधिक उत्पादक होगा, क्योंकि वह यथार्थ के साझा पहलुओं को निर्जीव रेखाओं में नहीं, जीवंत रंगों में व्यक्त कर पायेगा। मतलब यह कि प्रातिनिधिकता से इन स्थानविशिष्ट जीवंत रंगों का कोई छत्तीस का रिश्ता नहीं है। ऐसा रिश्ता मान कर ही नागार्जुन के उपन्यासों की पैरवी में यह बलाघात मुखर हुआ था कि भले ही उनके यहां भरा-पूरा तिरहुत मौजूद है, पर वह पूरे देश के यथार्थμउसमें विद्यमान शोषक-संबंधों तथा उनके विरुद्ध सजग संघर्ष-चेतना को व्यक्त करता है। आज बलाघात को इस रूप में उलट देने की ज़रूरत नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 385 है कि नागार्जुन के यहां भले ही पूरे देश का यथार्थ मौजूद है, पर वह ख़ास तिरहुत की शक़्ल में व्यक्त हुआ है। तिरहुत की यह शक़्ल नागार्जुन के यहां अद्भुत जीवंतता के साथ उपस्थित है। क्या बोली-बानी, क्या रीति-कुरीति, क्या आचार-व्यवहार, क्या रिश्ते-नाते, क्या छल-प्रपंच, क्या खान-पान, क्या बाग-बगीचे, क्या पोखर-तालाब, क्या आमों और मछलियों की क़िस्मेंμएक ऐसी जीती-जागती दुनिया है तिरहुत की जो आपको अपने मन की जिह्वा पर एक ख़ास तरह का तिरहुतिया स्वाद महसूस करवा कर रहेगी। वह मानकीकृत स्वाद के विरोध में खड़ी है (अलबत्ता संवादों के स्तर पर बाबा थोड़ा ज़्यादा समझौता कर लेते हैं) और इतनी असरअंदाज़ कि कई बार उस स्वाद में लिपटा कम्युनिस्ट संदेश आपकी नोटिस के बग़ैर आपके हलक़ में उतर जायेगा, ‘विशफुल थिंकिंग’-नुमा प्रसंग भी विश्वसनीय लगने लगेंगे। इन्हीं स्थानविशिष्ट रंगों के बल पर नागार्जुन के कम-से-कम आठ उपन्यासों को एक साथ, एक ही महाकाव्यात्मक उपन्यास के अध्यायों की तरह पढ़ा जा सकता है। इस तरह पढ़िए तो शायद उनका वज़न आपको यह परतीत करायेगा कि बाबा उपन्यासकार के रूप में भी बरोब्बर उल्लेखनीय हैं। (2) जैनेंद्र से पूछा गया, ‘हिंदी साहित्य पर मार्क्सवाद का प्रभाव और उसका परिणाम?’ आचार्य जैनेंद्र उवाच, ‘प्रभाव काफ़ी, पर अनष्टिकर।’ (साहित्य का श्रेय और प्रेय, 1953, पूर्वोदय प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 401) एक वाक्यांश में सफ़ाया (ऐनीहिलेशन ऑफ़ क्लास-एनीमी?)। निस्संदेह, यह एक अनिष्टकर प्रभाव था कि जिस अहाते में साहित्य की समाधि लगती थी, और जहां आम आदमी से जुड़े सरोकारों की घुसपैठ करवा कर आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना ने पहले से ही थोड़ी गंद फैलानी शुरू कर दी थी, वहां अब बड़ी संख्या में मेहनतकश ग़रीब-गुरबों के सवाल, उनके शोषण-उत्पीड़न-असंतोष-संघर्ष के चित्रा, निम्नवर्गीय दलित नायक, मध्यवर्ग के ऐसे किरदार जो किन्हीं ‘बड़े’ सवालों से जूझने के बजाय इन मेहनतकशों की नियति के सवालों से जूझते थे, अपना चोला बदलते हुए प्रभुवर्ग के छल-प्रपंच की जीती-जागती तस्वीरें, संवादों की शक़्ल में कम्युनिस्टों और सत्ताधारी विचारधाराओं के बीच की बहसेंμइन सब ने क़ब्ज़ा जमाना शुरू किया। ‘वर्गों और श्रेणियों के संघर्षों की भाषा’, जो ‘सतह को लेती है, मर्म को नहीं कहती’2 (परिप्रेक्ष, संस्करणः 1982, अंतरा प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ. 32), दुखद रूप से हावी होती गयी। नागार्जुन के उपन्यास इस अनिष्टकर प्रभाव के ज्वलंत उदाहरण हैं। कहां जैनेंद्र जो देशकालातीत सत्य, अर्थात् अभेदानुभूति को लक्ष्य कर ‘नीति-शिक्षा और अध्यात्म-सार को लोगों के हृदय में डालने’ के लिए उपन्यास लिख रहे थे (विधा के दबाव में जगह-जगह देशकालबद्ध भेदानुभूति भले ही घुस आयी हो3), और कहां नागार्जुन जो एक टुच्चे इलाक़े की टुच्ची समस्याओं को कथानिबद्ध करते हुए अपने उपन्यासों को दरअसल एक टुच्चे दौर का दस्तावेज़ भर बना रहे थे। वह इतिहास और समाजशास्त्रा और राजनीतिशास्त्रा जैसे टुच्चे अनुशासनों को पढ़ने-पढ़ाने वालों के काम भले आ जाये, साहित्य के किस काम का? कहीं ज़मींदारी उन्मूलन की घोषणा के बाद सार्वजनिक उपयोग की भूमि को चुपके-चुपके बेचते ज़मींदार और उनके खि़लाफ़ संघर्ष करती ग़रीब जनता और उस जनता के खि़लाफ़ ज़मींदारों तथा मातबरों को सुरक्षा प्रदान करता नवस्वाधीन देश का राज्य-तंत्रा जैसी स्थूल चीज़ें कथा का विषय बनी हैं, तो कहीं 386 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 यही क़िस्सा खुरखुन और बिसुनी और भोकर और चुल्हाई जैसे अजीबोग़रीब नामों वाले मछुओं के जीविकोपार्जन का साधन बने पोखर को लेकर दुहरा दिया गया है; कहीं खेत-मज़दूर बलचनमा है जो मालिकों की जूठन स्वाद ले-लेकर खाता है और फिर गद्दारी करते हुए उन्हीं के खि़लाफ़ संघर्ष में उतर पड़ता है, इस समझ के साथ कि ‘स्वराज मिलने पर बाबू-भैया लोग आपस में ही दही-मछली बांट लेंगे’, तो कहीं चुहिया की कटी दुम पर ‘अमृतधारा’ लगाते (रतिनाथ की चाची), कुत्ते की पीठ के जले हिस्से पर बाल उगाने के लिए मन्नत मानते (दुखमोचन ), भूकंप में ज़मीन से आधा उखड़ कर बंकिम हो गये वटवृक्ष पर टेसू बहाते (बाबा बटेसरनाथ) लोग हैं। ये भी कोई विषय हैं साहित्य के? अगर साहित्य इन्हीं में भटकता रहेगा तो इन सबसे परे जो अभेदानुभूति का सत्य है, उसका क्या होगा? सब भ्रष्ट कर दिया इस मार्क्सवाद ने! मार्क्सवाद का कितना अनिष्टकर प्रभाव पड़ा है हिंदी साहित्य पर, यह नागार्जुन के उपन्यासों के बहाने काफ़ी विस्तार से विचार करने का विषय है। प्रगतिशील आंदोलन के जन्म के इस पचहत्तरवें साल और नागार्जुन के जन्म के सौवें साल में हम शुरुआती दौर के इन अनिष्टकर प्रभावों पर ढंग से विचार कर पायें, तभी उस अनिष्ट की पहचान कर पायेंगे जो आज थोड़े परिष्कृत रूप में घटित हो रहा है! (3) नागार्जुन के उपन्यासों को पढ़ कर आज का वाचाल कथाकार (इन पंक्तियों का लेखक भी जब कथा में हाथ आजमाता है तो वाचाल ही ठहरता है) काफ़ी कुछ सीख सकता है। वैसे कह दूं कि आज के कथाकार की वाचालता कोई अपराध नहीं है और न ही वह कोई व्यक्तिगत चुनाव का मसला है। उसके पीछे निश्चय ही समय का, और कई अलग-अलग क़िस्म की मांगों और अपेक्षाओं का दबाव होगा। फिर भी इन उपन्यासों को पढ़ते हुए, हो सकता है, उसे इन दबावों के बीच भी कोई रास्ता निकालने की सूरत नज़र आये। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ही पश्चिम के उपन्यास-सिद्धांत में यह मान्यता स्थापित हो गयी थी कि उपन्यास में सर्वज्ञ-सर्वव्यापी वाचक को यथासंभव अदृश्य रहना चाहिए, जैसे सर्वज्ञ-सर्वव्यापी ईश्वर अदृश्य रहता है। पात्रों के कार्य-व्यापार और संवाद, साथ ही उनकी भंगिमाओं का वर्णन, इन्हीं से वह सब कुछ व्यक्त हो जाये जो कथाकार कहना चाहता है। वाचक को अपनी ओर से कोई टिप्पणी न करनी पड़े। बाबा के उपन्यास इस आदर्श के अत्यंत परिपक्व उदाहरण हैं। वाचक के रूप में वे कमाल के वेन्ट्रिलोक्विस्ट हैं। पृष्ठ-दर-पृष्ठ पढ़ते जायें, आपको पात्रों की हरकतें, भंगिमाएं और संवाद ही मिलेंगे। प्रेमचंद की तरह का व्याख्याकार-टिप्पणीकार नज़र नहीं आयेगा। हरकतों और भंगिमाओं के वर्णन में भी मितकथन और सांकेतिकता। यह भी नहीं कि विवरणों के कंधे पर ही रख कर टिप्पणी की बंदूक दागे जा रहे हैं। यों तो पूरे-पूरे उपन्यास इस बात के उदाहरण हैं, पर यहां दिखलाना हो तो वरुण के बेटे का वह अंश पेश करूंगा जिसमें ‘छोटी जात’ के प्रति हमदर्दी रखने वाला यादव-बिरादरी का युवा अंचलाधिकारी उस गढ़पोखर के काग़ज़ात और संबंधित केस की फ़ाइल देखता है, जिस पर सतघरा के बाबू साहब लोग अपना दावा कर रहे हैंः नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 387 अंचलाधिकारी ने दो-तीन बार उस दस्तावेज़ को देखा और पुलिस-इन्स्पेक्टर से केस की फ़ाइल ले ली। सतघरा के जो बाबू अब तक यों ही खड़े थे, उनमें से एक फ़ाइल पर झुक आया। कपार से सांसें टकरायीं तो अंचलाधिकारी ने गर्दन उठा कर अरुचिपूर्वक उसके चेहरे पर एक नज़र मार ली। दरोगा ने कान से होंठ सटा कर कहा, ‘सतघरा के ज़मींदार के भगिना बाबू हैं आप; आपको फोटोग्राफ़ी का भारी शौक है सर! बैडमिंटन के चैंपियन हैं और वकालत तक पढ़े हैं ’ ‘और शिकार की हॉबी?’μव्यंग्य की हल्की-चरपरी चासनी और चंद नपे-तुले शब्द: साहब ने दारोगा के होंठों को अपने हाथ की दीवार से परे कर दिया। ज़मींदार के भगिना बाबू का चेहरा फक़ हो गया। कपार से सांसें टकराने पर अंचलाधिकारी का गर्दन उठा कर देखना और फिर चार शब्दों में ही यह ज़ाहिर कर देना कि वह अय्याशों के सारे शौकों से परिचित है और उन्हें इज़्ज़त नहीं, हिक़ारत की निग़ाह से देखता है, यह अद्भुत नाटकीय कौशल के साथ सामने आया है। हम सीधे कार्य-व्यापार से रू-ब-रू हैं। वाचक बीच में खड़े होकर किसी तरह की व्याख्या पेश करे, इसकी ज़रूरत ही नहीं। इसी अंचलाधिकारी को लेकर कभी यह आपत्ति की गयी थी कि उसकी ईमानदारी की सनद लेखक ने इसलिए दे दी है कि वह नेहरू की परराष्ट्रनीति का पूरा समर्थक जान पड़ा। यानी नेहरू की परराष्ट्रनीति का समर्थन न करने वाला अन्यायी है, बेईमान है (कल्पना, अगस्त ’59; चंद्रेश्वर कर्ण द्वारा दिया गया हवाला, ‘नागार्जुन के उपन्यास: प्रतिबद्ध जीवन-दृष्टि की शक्ति और सीमा’, आलोचना, अप्रैल-जून ’80)। आप उस प्रसंग को पढ़ें और तब तय करें कि यह आपत्ति कितनी सही हैः युवक अंचलाधिकारी अपने को अधिक देर तक जब्त नहीं रख पाया। वह मोहन मांझी से देश की मौजूदा रीति-नीति पर बातें करने लगा। हाल ही में आंध्र में चुनाव के नजीज़े निकले थे, कांग्रेस ने शानदार जीतें हासिल की थीं और अब नेहरू को रूस के विधाताओं ने आग्रहपूर्वक अपना देश देख जाने का निमंत्राण भेजा था अंचलाधिकारी नेहरू की परराष्ट्रनीति का पूरा समर्थक जान पड़ा तो मोहन मांझी को अंदर ही अंदर बड़ी खुशी हुई। उसे लगा कि हो न हो, यह अफसर अन्याय का पक्ष नहीं लेगा। वाचक यहां सिर्फ़ यह बतला रहा है कि अंचलाधिकारी और मोहन मांझी में क्या बातें हुईं और मोहन मांझी क्यों आश्वस्त हुए। वह ख़ुद कोई टिप्पणी नहीं कर रहा है। मोहन मांझी कम्युनिस्ट किसान-सभाई नेता हैं। ऐसे में नेहरू की परराष्ट्रनीति के पक्षधर को न्याय का पक्षधर मान लेना उनके लिए अस्वाभाविक नहीं है। ऐसे कम्युनिस्ट क्या उस समय के यथार्थ का हिस्सा नहीं थे और क्या उनके पक्ष को उपन्यास में जगह देना एक ज़्यादती थी? अगर नागार्जुनμजो ख़ुद ऐसे ही कम्युनिस्ट थे और ज़ाहिर है, ख़ुद भी उस समय के यथार्थ का एक हिस्सा थेμइन कम्युनिस्ट पात्रों और उनकी सोच को उपन्यास से देशनिकाला दे देते, तो आप तो कम्युनिस्टों को नवस्वाधीन देश के इतिहास से निकाल बाहर करने, यहां तक कि देश से ही निकाल बाहर करने में कोई कसर नहीं छोड़ते! फिर यह भी विचारणीय है कि नागार्जुन के उपन्यास में ऐसा प्रसंग आया तो आपको यह पक्षपातपूर्ण वर्णन प्रतीत हुआ, क्योंकि आप जानते हैं कि लेखक कम्युनिस्ट है, पर जब मनोहर श्याम जोशी के 388 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 उपन्यास क्याप में काका खीमराम जैसे पात्रा के साथ इसी तरह की सोच सामने आती है, तब आप क्या करेंगे? निकल गयी न हवा! तो अब मामले को यों देखिये कि जिस तरह यथार्थ में उपस्थित आदर्शों के चित्राण से उपन्यास आदर्शवादी नहीं हो जाता, वह आदर्शवादी होता है लेखक के आदर्शवादी दबावों के भली-भांति प्रकट हो जाने से, उसी तरह यथार्थ में उपस्थित पक्षधरताओं के चित्राण से उपन्यास पक्षपातपूर्ण नहीं हो जाता, वह पक्षपातपूर्ण होता है लेखक की पक्षधर सोच के औचित्यरहित दबावों से। बाबा के उपन्यास ऐसे दबावों से मुक्त नहीं होंगे, उन पर भी बात होनी चाहिए, पर मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि उनके यहां जिस तरह के वर्गचेतन, आशावादी और संघर्षशील चरित्रा मिलते हैं, वे पिछली शताब्दी के मध्य में इस देश के यथार्थ का हिस्सा नहीं थे। बहरहाल, बात नागार्जुन की औपन्यासिक शैली की हो रही थी। तो उसका एक सकारात्मक पक्ष वह नाटकीय प्रस्तुति है जिसकी पीछे चर्चा की गयी, जिसमें वाचक अपने को लगभग ग़ैरहाज़िर बना लेता है। इसके अलावा बहुतेरे और पक्ष उल्लेखनीय हैं। वे जितने सहज क़िस्सागो हैं, उतने ही सजग भी। बलचनमा में प्रथम पुरुष वाचक वाले शिल्प का प्रयोग उन्होंने एक ऐसे पात्रा को लेकर किया जो ग्वाला जाति का अनपढ़ खेत-मज़दूर है। अभी तक जज मि. दयाल या शेखर जैसे मध्यवर्गीय पात्रा ही अवरुद्ध अवलोकन-बिंदु वाले प्रथम पुरुष वाचक बन पाये थे। नागार्जुन ने अनगढ़ ज़बान बोलते एक ठेठ गंवई खेत-मज़दूर की निग़ाह से दिखने वाली दुनिया को सामने लाने का रचनात्मक उद्यम किया। इस उद्यम में उन्होंने इस बात का ध्यान रखा कि यह पात्रा लिख नहीं सकता, बोल ही सकता है। इसलिए पूरा उपन्यास वाचिक शैली में है, जैसे बलचनमा आपको मुखामुखम संबोधित करते हुए अपनी बात कह रहा हो। इस तरह का उपन्यास, संभवतः, हिंदी में यह अकेला है। दूसरी भाषाओं की बात मैं नहीं जानता। हिंदी में कहानियां तो हैं, जैसे निर्मल वर्मा की ‘डेढ़ इंच ऊपर’ या योगेंद्र आहूजा की ‘मर्सिया’। रवींद्र कालिया की भी एक ऐसी कहानी है, जिसका शीर्षक शायद ‘पनाह’ है, जिसमें दंगाई भीड़ से भाग कर कहीं छुपा हुआ एक मुसलमान सामने वाले को संबोधित कर रहा है। ये कहानियां पूरी-की-पूरी बोली हुई-सी शैली में चलती हैं। पर उपन्यास तो अकेला बलचनमा ही है मेरी जानकारी में। इसी तरह देश और काल की छलयोजना (मैनीपुलेशन), जो कि कथाकार के आधारभूत कौशलों में से एक है, उसमें भी नागार्जुन सिर्फ़ पारंपरिक तरीक़ों तक सीमित नहीं रहते। देश और काल को सिकोड़ने या फैलाने के नये-नये प्रयोगों को देखना हो तो उग्रतारा को देखिए। कथा के बड़े-बड़े हिस्से कोष्ठकों में चलते हैं। इन कोष्ठकों के आने का मतलब है कि कथा पात्रा के मन में उतर गयी है। यह मन कभी तथ्यों में विचर रहा होता है, कभी कल्पना में। जहां वह तथ्यों में विचरता है, वहां कथा का घटना-क्रम खुलता जाता है। जहां वह कल्पना में विचरता है, वहां मन की तहें उजागर होती चलती हैं। इसी तरह एक दूसरा प्रयोग बाबा ने यह किया कि कई प्रसंगों की ओर इशारा पात्रा-विशेष के मन में उठते प्रश्नों की आवृत्ति या एक ख़ास शैली के वक़्तव्यों की आवृत्ति से कर दिया और इस तरह उसके कथा-काल को बहुत संक्षिप्त करने में कामयाब रहे। जैसे, नर्मदेश्वर की भाभी का संपर्क कैसे बालविधवा उगनी के प्रेम में पड़ने के मामले में निर्णायक भूमिका निभा पाया, इसे चार सवालों में समेट लिया गया हैः वस्तुतः भाभी के उपकार आधा दर्जन से कम तो क्या होंगे। उगनी के मन की ग्लानि को धो-पोंछ कर साफ़ कर देना क्या मामूली उपकार था? मां को समझा-बुझा नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 389 कर लड़की को दूसरी शादी के लिए तैयार करना क्या मामूली उपकार था? पुरानी पीढ़ी की महिलाओं के संयुक्त मोर्चे में दरार डालना क्या मामूली उपकार था? स्वप्नदर्शी, भावुक किशोर मन को संकल्पशील दृढ़ युवक-मन में बदल देना क्या मामूली उपकार था? इसी तरह ‘भभीखनसिंह को याद आया’ की आवृत्ति से दांपत्य के बीच उगनी को सत्वस्थ करने की कोशिशों और फिर उसके गर्भवती होने के समय की स्थितियों का पूरा विवरण उपन्यास में आ गया हैः भभीखनसिंह को याद आयाः कैसे क्वार्टरों में अफवाह गर्म हो उठी कि उगनी का माथा खराब है! और कैसे, अफवाह अपने-आप ठंडी पड़ गयी! भभीखनसिंह को याद आयाः कैसे महीनों तक वह काबू में नहीं आयी, कैसे अगले दो दिन, दो रात उगनी रोती रही, भूखी रही दो दिन, दो रात! और कैसे तिवारी की बड़ी बेटी आरजू-मिन्नत करके उसे खाना खाने के लिए मना सकी! भभीखनसिंह को याद आयाः मठिया के बाबा जी ने कैसे जजमानिन के ग्रहों की शांति के लिए रामायण का ‘नवाह’ पाठ किया था! और कैसे तिवारी ने आसिन की ‘नवरात्रि’ में दसों दिन चंडी का पारायण करवाया था। और कैसे हवन के अंत में सिपाही जी और उनकी घरवाली के हाथों पूर्णाहुति दिलयावी थी अग्निकुंड में! भभीखनसिंह को याद आयाः कैसे कातिक की पूरनमासी के दिन तिवारी जी की बीवी ने शुभ समाचार सुना कर इन कानों में अमृत घोल दिया था! और कैसे वे घंटाघर जाकर सेर-भर रसगुल्ले और गुलाबजामुन उठा लाये थे और कैसे उगनी ने मिठाई का एक टुकड़ा भी अपने मुंह के अंदर जाने नहीं दिया था इन युक्तियों के इस्तेमाल से नागार्जुन बेखटके समय में आगे-पीछे आते-जाते रहते हैं। क़िस्सागो घटना के कालक्रम के नियंत्राण में नहीं रहता, घटना का कालक्रम क़िस्सागो के नियंत्राण में रहता है। वह आगे और पीछे के किसी भी प्रसंग को जब चाहे अपनी सुविधा के हिसाब से तलब कर सकता है। यह उपन्यासकार के रूप में नागार्जुन का एक उल्लेखनीय हुनर है। ऐसा नहीं कि नागार्जुन के शैली-शिल्पगत नवाचारों पर पहले ध्यान न दिया गया हो। इनकी चर्चा हुई है, पर उनकी ख़ास-ख़ास युक्तियों को चिह्नित करने का काम नहीं हो पाया है। उनकी प्रतिबद्धताएं इतने स्पष्ट रूप में उपन्यासों पर उतरायी हुई दिखती हैं कि उन्हीं के पक्ष या विपक्ष में बहस करने तक आलोचक महदूद रह जाते हैं, दूसरे पहलुओं की चर्चा कम हो पाती है। हालांकि ठीक तरीक़े से बहस में उतरने वालों को यह अहसास होना चाहिए कि शैली-शिल्प का पहलू भी, दरअसल, कोई अलहदा पहलू नहीं है। मो.: 09818577833
संदर्भ
1. ‘प्रेमचंद की परंपरा और आंचलिकता’ शीर्षक लेख में रामविलास शर्मा प्रेमचंद के बारे में लिखते हैंः ‘उनके पात्रों में आंचलिकता से अधिक हिंदुस्तानीपन अथवा हिंदीपन है।’ और ‘विषयवस्तु के चित्राण के इस साधारणीकरण द्वारा प्रेमचंद एक विशाल पाठकवर्ग को अपना सके; आंचलिकता के साथ जो अटपटापन लगा हुआ है, वह उनमें नहीं है।’ इसी तरह वृंदावनलाल वर्मा के बारे मेंः ‘जहां-तहां बुंदेलखंडी बोली का प्रयोग, और अधिकांश कृतियों में लोकसंस्कृति की पृष्ठभूमि से उनके उपन्यास सजीव बन गये हैं। किंतु उन्होंने इस बात का ध्यान रखा है कि इस पृष्ठभूमि के भार से पात्रा दब कर निर्जीव न हो जायें। साधारणीकरण का गुण यथेष्ट मात्रा में विद्यमान रहता है।’ साधारणीकरण जैसे पद का जितने चलताऊ ढंग से यहां इस्तेमाल किया गया है, उसे छोड़ भी दें, तो इन वाक्यों में निहित ‘आंचलिकता’ संबंधी पूर्वमान्यताएं ख़ासी दिक़्क़ततलब हैं। उन्हें निकालें तो वे इस प्रकार होंगीμ1. हिंदुस्तानीपन अथवा हिंदीपन नामक एक शै है जिसका औपन्यासिक दायरे में आंचलिकता नाम की एक दूसरी शै के साथ, संभवतः, प्रतिलोम-अनुपाती संबंध है (भाषा के रूपक में देखें तो यह हिंदीपन मानक भाषा की तरह और आंचलिकता बोली की तरह नज़र आयेगी। फिर यह सवाल बचा रहेगा कि अगर मानक हिंदी भाषा खड़ी बोली के आधार पर विकसित हुई, तो यह मानक हिंदीपन किस अंचल के आधार पर तैयार हुआ है और जिस तरह एक शब्द के विभिन्न प्रचलित रूपों में से एक मानक रूप चुन कर मानकीकरण की प्रक्रिया संपन्न होती है, उसी तरह क्या इस मानक हिंदीपन के लिए भी मानक प्रचलनों का चयन हुआ है?)
2. जिसे हम आंचलिकता कहते हैं, उसके साथ एक अटपटापन लगा हुआ है; 3. प्रेमचंद विशाल पाठकवर्ग बना सके, क्योंकि उनमें यह अटपटापन नहीं था। इसका मतलब यह कि जिनमें यह कथित अटपटापन था, वे विशाल पाठकवर्ग नहीं बना पाये; 4. आंचलिक कहे जाने वाले उपन्यासों में लोकसंस्कृति और बोली के भार से दब कर पात्रा निर्जीव हो जाते हैं। इन सभी मान्यताओं को लगभग स्वतःप्रामाण्य मान लिया गया है। बताने की ज़रूरत नहीं कि ये कितनी मनोगत हैं। अगर मैला आंचल को ही आंचलिकता के नमूने के तौर पर लें, तो कितने लोग इस बात से सहमत होंगे कि उसमें एक अटपटापन है, उसका पाठकवर्ग विशाल नहीं है, और उसकी आंचलिकता के भार से दब कर पात्रा निर्जीव हो गये हैं? तथाकथित आंचलिकता को लेकर आपको ख़ुद इन शिकायतों में अटपटापन नज़र आये तो कोई आश्चर्य नहीं, बशर्ते कि आप अटपटेपन को शैली नहीं, अंतर्वस्तु के स्तर पर देखने को तैयार हों।
2. मर्म क्या है? जैनेंद्र बताते हैंः ‘मर्म यह है कि छोटा-बड़ा, ऊंचा-नीचा, अच्छा-बुरा ये एकदम दो नहीं हैं। बल्कि एक दूसरे को थामते हैं। ऊंचा नीचे को दबाता है या नीचा ऊंचे को गिराना चाहता है, तो दृष्टिदोष के अधीन ऐसा होता है। कारण उसमें भय और द्वेष है।’ (परिप्रेक्ष, पृ. 32)
3. जैनेंद्र मानते थे कि ‘उपन्यास में वास्तविकता यथावश्यक से अधिक बिल्कुल नहीं होनी चाहिए।’ यथावश्यक का मतलब यह कि जिस तरह रस को एकत्रा करने के प्रयोजन से अंगूर का छिलका होता है, उसी तरह सत्य-तत्व की प्रतीति कराने के लिए वास्तविकता का परिधान होना चाहिए। ‘सामाजिक मनुष्य’ के लिए लिखी गयी कथा में वास्तविकता के इस परिधान से, अर्थात् ‘सामाजिकता का वातारण’ रचने से सामाजिक पात्रों को सत्य-तत्व का वाहन बनाने की सुविधा मिल जाती है, क्योंकि इससे पाठकों को ऐसा नहीं लगता कि ‘कुछ बताने के लिए मेरे आगे गढ़ंत गढ़ा जा रहा है।’ (देखें, साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ. 170-71) इस तरह वास्तविकता जैनेंद्र के लिए एक विधागत-रूपात्मक बाध्यता थी जिसका मक़सद था पाठकों का भरोसा जीतना।