प्रतिबिम्ब / खलील जिब्रान / सुकेश साहनी

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(अनुवाद :सुकेश साहनी)

मई के महीने में झील के किनारे हर्ष और शोक की मुलाकात हो गई. दुआ-सलाम के बाद वे शान्त जल के समीप बैठ गए.

हर्ष पृथ्वी की सुन्दरता, प्रकृति के चमत्कारों और सुबह-शाम के संगीतमय वातावरण के बारे में बतियाने लगा।

शोक ने हर्ष से सहमति प्रकट की। शोक को काल के सौन्दर्य एवं चमत्कार की जानकारी थी। पर्वतों और मैदानों के बारे बताते हुए शोक कहीं खो गया था।

इस प्रकार हर्ष और शोक काफी देर तक बातें करते रहे। लगभग सभी जानी हुई बातों पर वे एकमत थे।

तभी दूसरे किनारे पर दो शिकारी आ खड़े हुए. जैसे ही उन्होंने इस पर नज़र दौड़ाई उनमें से एक बोला, "अरे, ये दोनों कौन हैं?"

दूसरे ने कहा, "क्या कहा तुमने? दो! मैं तो एक को ही देख रहा हूँ।"

पहले शिकारी ने कहा, "वहाँ तो दो ही हैं।"

दूसरे ने कहा, "मैं तो केवल एक को ही देख रहा हूँ और फिर झील में प्रतिबिम्ब भी तो एक का ही है।"

पहला शिकारी बोला, "नहीं, वे दो हैं। पानी में दोनों का प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा है।"

दूसरे शिकारी ने फिर कहा, "मैं तो एक को देख रहा हूँ।"

पहले वाले ने दोबारा कहा, "मैं तो स्पष्ट रूप से 'दो' देख रहा हूँ।"

और आज भी एक का कहना है कि उसके दोस्त को एक चीज को दो देखने का रोग है जबकि दूसरे का कहना है, "मेरा मित्र अपनी दृष्टि लगभग खो बैठा है।