प्रतिभा और महेश की कहानी / लाल्टू

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.... प्रतिभा का फोन आया था, उसका पति महेश किसी ऐक्सीडेंट से घायल होकर वाशिंगटन स्क्वायर सिटी अस्पताल के इमर्जेंसी वार्ड ऐडमिट हुआ है ....। कमरे के दरवाजे पर रूममेट आसिफ ने नोट चिपका रखा था। पढ़ने के बाद करीब दस सेकंड तक मैं कुछ सोच न पाया। धीरे धीरे बहुत सी पुरानी यादें सामने आने लगीं। साथ ही बहुत सारे सवाल भी खड़े होते गये। महेश .... ? न्यूयार्क में ....? कब ? प्रतिभा को तो कब का भूल चुका था मैं ! आखिर मुझे याद करने की क्य जरूरत थी प्रतिभा को ? ... करीब साल भर हमने एक दूसरे की खबर न ली थी, आज २५ अप्रैल है..... पिछले साल २४ फरवरी को मैं पिट्सबर्ग से रवाना हो चुका था... शायद प्रतिभा को मेरे न्यूयार्क आने की बात किसी दोस्त ने बतलायी होगी।

और महेश ..... ! पिछले पाँच वर्षों में मेरे जीवन में आये, न भूलने लायक चरित्रों में वह निस्संदेह एक है। हमारी पहली मुलाकात हुई थी पिट्सबर्ग में साउथ हिल्स के एक बार में। यू. एस. ए. आये मुझे करीब दो साल गुज़र गये थे। सिमिरामिस – एक तुर्की लड़की, उसका फिआंसे डेविड और मैं ओकलैंड में, एक अपार्टमेंट में एक साथ रहते थे। उस दिन मैं और सिमिरामिस कोई फिल्म देखने साउथ हिल्स गये थे। मूवी के बाद हूडी ब्रास नामक एक बार में बैठे ' जिन और टानिक' पीते हुए हम बातें कर रहे थे। अचानक "आर यू फ्राम इंडिया?” सुनकर पीछे गर्दन घुमायी तो मँझले कद के एक हँसमुख युवक ने हाथ बढ़ाकर कहा, “माई नेम इज़ महेश।”

१९७८ के बसंत की उस शाम को महेश मेरे लिए एक नवागत भारतीय मात्र था, जिसने अचानक उत्सुकतावश मुझसे परिचय करने की कोशिश की थी। उसके सिर पर सफेद टोपी चढ़ी थी, जिस पर 'हूडी ब्रास' लिखा हुआ था। उसके कपड़े साधारण थे। उस कोमल, हँसमुख और चंचल चेहरे को देखकर मैं गंभीरता खो बैठा। थोड़ी देर में हम हिंदी में बातें करने लगे। सिमिरामिस फारसी कविताओं पर शोध कार्य करती थी। हमें हिंदी बोलते देखकर वह गंभीर हो सुनने लगी। बीच बीच में हमें टोककर शब्दों का अर्थ पूछ लेती थी। महेश ने मेरा पता और फोन नंबर नोट किया और कहा कि जल्दी ही हमारे घर आयेगा। मुझे जरा हिचकिचाहट हो रही थी। पर औपचारिकतावश मैंने हाँ कह दिया।

करीब महीने भर बाद एक रात लैब से लौटा तो उसे अपने मकाने के बाहर सीढ़ियों पर बैठा पाया। उत्तर की ओर से ठंडी हवा बह रही थी। मैंने पूछा, “अरे ! अंदर क्यों नहीं चले गये ?”

“तेरा वह अमरीकन रूमी है न यार, वह बोला तुम है नहीं तो मैंने कहा चलो थोड़ी देर बाहर बैठ लेते हैं। हमको तुमसे काम है बॉस; तुम्हारा रूमी को क्यों बोर करेगा; है कि नहीं?”

मुझे उसके सवाल का जवाब देने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। मैंने महेश के बारे में स्थानीय भारतीय मित्रों को बताया था। उसकी सरलता और साधारणता के प्रति मेरे आकर्षण का वृत्तांत सुन मेरे मित्रों ने समय की बर्बादी और संभाव्य विपत्तियों के बारे में चेतावनी दी थी। यद्यपि इससे मैं विचलित न होने की कोशिश करता रहा; महेश की उपस्थिति थोड़ी देर के लिए मुझे परेशान करती रही। वह किसी अरुण के बारे में मुझे बतला रहा था, “... हमको बोला रविवार को मिलेगा। रविवार साला हमारा छुट्टी होता है। हम फिर भी दफ्तर गया और वह साला आया ही नहीं।”

दफ्तर यानी कि हूडी ब्रास रेस्तरां। हफ्ते में छः दिन वहां काम करता था। वेटर के काम से दस डालर मिल जाते थे। महेश अपने बारे में सब कुछ बतलाता रहा। पूछने की आवश्यकता नहीं हुई। अपनी बहन व जीजाजी के साथ रहता था। पर उसके इस देश में आने का कारण वे न थे। यहां आने से पहले वह बंबई में एक कालेज में बी.काम. कर रहा था। फिल्मों में काम करने का मूड हो गया। दो तीन फिल्मों में साइड रोल का मौका मिला, पर संतोष न हुआ। किसी ने कह दिया कि दस हजार रूपए दो तो हीरो बना देंगे। पूछने पर उसने सविस्तार समझाया कि दस हजार की गारंटी की आवश्यकता क्यों है और एक बार हीरो बन जाने पर दस हजार तो क्या लाखों मिलेंगे इत्यादि। उसकी सरलता पर यकीन करना मेरे लिए मुश्किल था और जब अंत में यह स्पष्ट हो जाता कि वह झूठ नहीं बोल रहा है, मुझे बहुत दुःख होता। टूरिस्ट वीज़ा पर यहां आकर उसने भी ग्रीन कार्ड बनवा लिया। इसमें उसकी बहन और जीजाजी ने उसकी मदद की। अब वह कानूनन यहाँ रह सकता था, हालांकि नागरिकता के सभी अधिकार उसे न मिले थे। तब से वह इधर उधर नौकरी कर रहा था। दस हजार रुपयों के संचय की आशा में। वैसे तो डालरों में इसी राशि को जमा करने में उसे समय नहीं लगना चाहिए था, पर वह शौकीन भी खूब था और अधिकतर उधारी में ही काम चला रहा था। उसे पक्का विश्वास था कि एक दिन वह भी देव आनंद या धर्मेन्द्र बनेगा। कभी कभी वह विभिन्न फिल्मों में नायकों की भूमिकाओं को सविस्तार बखानता। उसका वात्सल्य भाव मुझे न चाहते हुए भी मुग्ध कर लेता। साथ ही उसकी बातों में से कहीं एक असहाय एकाकीपन का भाव उभरकर आता, जो रह रहकर मुझे छू जाता।

उन दिनों हिंदोस्तान में शहरों में 'बेल बाटम' पतलून का रिवाज था। उसने भी एक गुलाबी कमीज और काली बेल बाटम पहनी हुई थी। मैंने हंसकर कहा, “यहां तो कोई बेल बाटम पहनता नहीं। तुम अभी भी हिंदोस्तानी बने हुए हो?”

पहनावे आदि पर सवाल करने वह बेचैन हो जाता था। उसका दाहिना हाथ उठकर नाक की ऊँचाई तक आ जाता और उंगलियाँ अजीब सी आकृतियाँ बनाती रहतीं। मेरे सवाल के जवाब में भी उसने इसी मुद्रा में कहा, “मेरे को तो बॉस इंडियन हीरो बनना है। तेरे को बताया न हमने कि यहां दो एक साल के लिए आये हैं, दस हज़ार रुपया बना तो फुटलस....।”

फिर थोड़ी देर रुककर चीखते हुए उसने कहा, “१५ अगस्त को साउथ हिल्स में इंडियन सोसायटी 'तेरे मेरे सपने' फिल्म दिखला रही है; पता है न देव आनंद की फिल्म है। चलना है तो बोलो।

कई दिनों से मैंने कोई हिंदी फिल्म न देखी थी। मैं राजी हो गया। महेश थोड़ी देर मानो देवआनंद हो गया। देव आनन्द अभिनीत फिल्मों के कई दृश्य दिखलाता रहा। बड़ी मुश्किल से हँसी रोके उसके डायलाग सुनता रहा। कभी वह विलेन को पीटता, तो कभी नायिका से प्रेम करता ....।

धीरे धीरे महेश मेरे लिए एक कठिन परीक्षा सी बन गया। मैंने उसे सही रास्ते पर लाने की सोची। मैं उसे मित्रों द्वारा दी गयी पार्टियों में ले जाता। विश्वविद्यालय की स्वच्छंद ज़िंदगी देखकर वह प्रभावित तो हुआ, पर हम सब उसके लिए हौव्वा से बन गये । मैं उसे पढ़ने लिखने को जितना प्रोत्साहित करता, वह और घबरा जाता। यहाँ तक कि धीरे धीरे उसने मेरे यहां आना कम कर दिया।

कभी कभी वह मुझे अपने साथ विभिन्न जगहों में ले जाता। उसकी सेकंड हैंड गाड़ी में बैठकर कभी लाल बत्ती तो कभी स्पीड लिमिट पार होते देखकर कई बार मन में आया, अरे सावधान! पर मैं उसे छोड़ न पाया। कभी कभी उसकी गाड़ी बीच सड़क धकेलते हुए लालबत्ती हो गयी। ऐसे वक्त मैं शर्म से मर जाता। लगता दुनिया के लोग हमें देखकर हंसते हुए कह रहे हैं, “वह देखा ! दो भूरे हिंदोस्तानी !”

एक बार वह अपने कुछ दोस्तों को मेरे घर ले आया। मेरा काफी काम बाकी पड़ा था। पर उस भीड़ ने मुझे 'पत्ती' खेलने को मजबूर कर दिया। तास के पत्तों को फेंकते मैं उनकी बातें सुन रहा था। मुझे आश्चर्य होता कि विदेश आने के पहले भारत में ऐसे लोगों से मेरा परिचय क्यों नहीं हुआ। किस वर्ग के लोग हैं ये ? धीरे धीरे मुझे लगने लगा कि मेरे जैसे टुटपुंजिया बुद्धिजीवी ऐसे कई लोगों को बिल्कुल नजरअंदाज कर जाते हैं। फिर बुनियादी समस्याएं हर वक्त यूँ सामने खड़ी रहती हैं कि कौन देखता था। इससे अलग वे कभी कभी अर्थोपार्जन के विभिन्न उपायों पर बहस करने लगते। एक मजेदार बात यह थी कि उनमें व्यक्तित्व का क्रम विन्यास था। 'राजेन' सबसे ऊपर था। वह अंग्रेजी में बोलना शायद अधिक पसंद करता था, क्योंकि यद्यपि हम सब उससे हिंदी में बातें कर रहे थे, वह हिंदी में उत्तर कम ही देता। महेश की पोजीशन काफी नीचे थी। बाकी लोग उसे बार बार झिड़क रहे थे, पर उससे भी नीचे एक था, जिसे महेश की भाषा में 'अरे ! उसको तो बॉस ए बी सी भी नहीं आती !'

उनकी बातों से लगा हरेक किसी न किसी वक्त बंबई में रह चुका था। राजेन काफी देर से मुझे घूर रहा था। अचानक उसने मुझसे पूछा, ”तुम नागर हो क्या ?”

नागर का अर्थ मैंने समझा शहरी।

”मेरा घर तो गाँव में है, पर मैंने कलकत्ते में कालेज की पढ़ाई की है।"

“पर तुम तो नागर हो न ? मैं देखते ही समझ गया था। मैं भी नागर हूं। ये सब साले छोटी जाति के हैं - इनको कुछ पता वता नहीं ...।”

धीरे धीरे बात मेरी समझ में आयी। मैंने पूछा, “नागर क्या बड़ी ऊँची जाति है ?”

“अरे ! तुम्हें मालूम नहीं ! ब्राह्मणों में सबसे ऊपर होते हैं नागर !”

अब मुझे उसे रोकना पड़ा। मैं तो पता नहीं किस जाति का हूं .... राजेन को बड़ा आश्चर्य हुआ। थोड़ी देर सोचकर उसने कहा, “कलकत्ता तो दक्षिण में है न ?"

मैंने वर्ल्ड एटलस निकालकर भारत के नक्शे में कलकत्ते की स्थिति दिखलायी, पर मेरे 'नागर' होने के बारे में वह निश्चित रहा।

महेश के ये अनोखे दोस्त मेरे यहां कभी कभार आते रहे। इसी बीच महेश को 'हूडी ब्रास' वालों ने निकाल दिया। बड़े दुःख के साथ यह खबर सुनाते हुए उसने कहा, ”नौकरी का ग़म नहीं है बॉस, पर हमारी गर्ल फ्रेंड वहीं काम करती है। अब नौकरी चली गयी। इज्ज़त का मामला है, हम उससे मिल नहीं सकते।"

कुछ दिनों बाद वह एक मोटा सा एलबम उठा लाया। विभिन्न मुद्राओं में उसके उन फोटोग्राफ्स को देखते मैं कभी हँसता, कभी बड़ी हताशा होती। कहीं वह काले चश्मे पहने खड़ा था, तो कहीं गाना गा रहा था; कहीं वह कूद रहा था, कहीं बालों को संवार रहा था। दो तीन तस्वीरें बाथरूम में ली गयी थीं और लड़कियां? कुछ तस्वीरों को देखकर मुझे कहना पड़ा, “ ये तस्वीरें तो तुम डिरेक्टर को नहीं भेज सकते, ऐसा तो सेंसर हो जायेगा। वह प्रतिवाद मुखर हो हीरो बनने के लिए उन तस्वीरों की उपयोगिता समझाता रहा। मैं उसकी कल्पना की दौड़ पर चकित होता रहा।

इसी बीच बेकारी से महेश बड़ा दुखी रहा। पहले तो जीजाजी ने रंग पलटा, फिर दोस्तों ने भूलना शुरु किया। अब वह फिर से नियमित आने लगा और मुझे अपनी दुःखभरी कहानियाँ सुनाने लगा। कभी कभी रात भी मेरे यहाँ बिता जाता। जल्दी ही वेस्टन केमिकल नामक एक छोटी फैक्टरी में उसे नौकरी मिल गयी। पर इसके बाद क्रमशः नौकरी मिलने और छूटने का सिलसिला चलता रहा। कभी उसे जीजा जी घर से निकाल देते और उसे दोस्तों के साथ रहना पड़ता। उसका एक दोस्त उससे मकान का पूरा किराया लेता रहा। मुझे उस पर दया आती, पर मैं निरूपाय था। उसे अपने यहाँ ठहरने को कहना असंभव था। एक तो मुझे डर था कि पता नहीं एक बार घुसने पर वह निकलना भी चाहेगा या नहीं। इसके अलावा डेविड और सिमिरामिस को भी मैं तंग नहीं करना चाहता था। इसी बीच एक छोटा सा ऐक्सीडेंट भी हो गया। उसकी गाड़ी एक ट्रक के साथ टकरा गयी और किसी वकील ने यह समझाकर कि पचास हजार डालर मिल जायेंगे, उससे कुछ कागज़ात पर दस्तखत करवा लिये। उन दिनों मैं घबराया हुआ था कि वह कहीं और झमेलों में न फँस जाय।

एक दिन सुना उसकी शादी पक्की हो गयी। बड़े गर्व से उसने सीना चौड़ा कर बतलाया कि लड़की एम.ए. पास है। मैंने मजाक में कहा, “अरे तुम फिल्मी हीरो बनना चाहते थे और यह क्या ? तुम खुद बी. काम. फेल और वाईफ एम. ए. पास ! पब्लिसिटी में मारे जाओगे ! खैर, कुछ भी करो, दहेज मत लेना ! ”

उसने तुरंत जवाब दिया, “ बी. काम. फेल तो क्या हुआ ! अरे उसको इस कंट्री में जो लायेगा हम ! और दहेज पक्का एक लाख नगद और जवाहिरात अलग से !”

महेश की कहानी बड़ी लंबी है; पर मैं प्रतिभा की कहानी भी कहना चाहता हूं। पिट्सबर्ग से रवाना होते हुए मैंने प्रतिभा व महेश को भूल जाने की कोशिश की थी और मैं सफल भी हो गया होता अगर आज इतने दिनों बाद यह घटना न हुई होती। प्रतिभा से मिलने के पहले मैं महेश की कमियों को नजरअंदाज करता रहा। वह मेरे लिए केवल समाज की सड़ना था। मुझे उससे लड़ना था, अपने बुद्धिजीवी अहं की रक्षा करते हुए। उस पर घृणा कर पाना मेरे लिए असंभव था। पर प्रतिभा के आगमन ने सारा संतुलन बिगाड़ दिया।

षडरिपु पर नियंत्रण रखने की सुशिक्षा मुझे भी बचपन में दी गयी, पर मन की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को रोक अनर्थक कष्ट सहने का कोई युक्तिसंगत कारण मुझे नहीं मिला, इसलिए मैं साधारण ही रह गया। मेरी इस साधारणता पर मुझे गर्व था, पर उन दिनों मुझे इतनी समझ नहीं थी कि विचारों पुरातनता की जकड़ से मुक्त होने पर भी मेरे व्यवहार पर सदियों की संस्कृति जमी हुई थी। प्रतिभा को पहली दफा देखते ही महेश के प्रति विद्वेष की जैसी भावना मन में उठी, उससे मुझे न तो कोई आश्चर्य हुआ, न ग्लानि बोध। हिंदोस्तान में शायद प्रतिभा जैसी लचीली देह की अपेक्षा अधिक कोमल और भरे हुए जिस्मों की ओर पुरुषों की नज़रों अधिक उठती हों, पर मैं पाश्चात्य में लंबी अवधि बिता चुका था। शारीरिक सौंदर्य के मेरे मूल्य बोध के अनुसारा वह रूपसी थी। उसने अर्थशास्त्र में एम.ए. किया था। केवल यू.एस. ए. आने के लिए ऐसी सुरूपा, सुशिक्षिता लड़की महेश जैसे गँवार के साथ शादी करने को राजी हो गयी!

पहले दिन वह चुपचाप थी, शायद नयी ब्याही होने की वजह से या इस देश में आये अभी कुछ ही दिन होने की वजह से वह शरमा रही थी। मैंने बातें करने की कोशिश की तो 'हां', 'न' कहकर टालती रही। फिर मेज पर पड़ी टाइम मैगज़ीन उठाकर पन्ने पलटने लगी। थोड़ी देर कोशिश करते रहने के बाद मैं भी थक गया और महेश स बातें करने लगा। मेरी छठी इंद्रिय प्रतिभा की उपस्थिति से बेचैन थी। उसकी चुप्पी में मुझे एक विक्षोभ का आभास भी हो रहा था और मैं एक अजीब सी अंदरूनी परेशानी से तड़प रहा ता। उसका पति महेश मुझे अपनी शादी, एक महीना स्वदेश में बिताये दिनों के अनुभव और कई दूसरे विषयों पर कहानियाँ सुना रहा था, पर मैं कहीं और खोया हुआ था। मुझे बड़ी नफरत हो रही थी - भारतीय समाज पर ; सब पर।

दूसरी बार वह मिली। उससे खुलकर बातें करने का मौका मुझे मिला। बातों ही बातों में मैंने उसे अर्थशास्त्र पर शोध करने की सलाह दी। महेश ने पहले तो कोई आपत्ति प्रकट नहीं की, पर प्रतिभा ने जब कोई उत्साह न दिखलाया तो उसने हँसकर कहा, “अरे यार ! तुम क्या बातें करते हो ! अ वुमन्स प्लेस इज़ इन द किचन !” शायद प्रतिभा के 'न' न कहने से मैं ज्यादा विचलित था। उसकी निष्क्रिय, दार्शनिक भंगिमा मुझे सोचने को मजबूर कर रही थी।

इसके बाद कई बार उससे मुलाकात होती रही, कभी कभी हम कुछ और दोस्तों को साथ लेकर मूवी वगैरह देखने जाते या पिकनिक मनाते। इस तरह धीरे धीरे मुझमें और प्रतिभा में दोस्ती बढ़ती गयी। समय के साथ प्रतिभा के व्यवहार में महेश के प्रति एक उपेक्षा सी नज़र आने लगी। एक दिन वह अकेली मुझसे मिलने आई।

गर्मी की शाम। मैं जल्दी ही डिनर निपटाकर नोटबुक लिये लाईब्रेरी की ओर जा रहा था। उसे आते देख पहले तो मेरी भौहें तन गयीं।

“अरे ! प्रतिभा ! तुम ! अकेली ? महेश कहां है ?”

”उन्हें किसी पार्टी में जाना था, इसलिए मैं यहां चली आयी।”

“पार्टी ? तो तुम क्यों नहीं गयीं ?” मैंने हँसकर कहा, ”नाचो वाचो पार्टी में जाकर।”

”नहीं, मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता।”

”हूँ, चलो, कमरे में चलते हैं।”

मेरे मुड़ने के पहले ही उसने पूछा, ”आप किधर जा रहे थे ?

”मैं जरा लाईब्रेरी की ओर चल रहा था।”

“चलिए, वहीं चलते हैं। मैं भी कुछ पत्रिकाएं, वगैरह देख लूंगी।”

करीब घंटे भर लाईब्रेरी में बैठकर वह चली गयी। जाने के पहले मुझसे पूछा, ”फिर कभी आयें तो यहाँ कोई रोकेगा तो नहीं।”

मैंने उसे बतलाया कि कार्नेगी लाईब्रेरी एक आम पुस्तकालय है और वहां किसी प्रकार की रोक टोक नहीं है। वह आश्वस्त होकर चली गयी।

इसके बाद वह हर दो चार दिनों के बाद वहां आने लगी। एक दिन मैंने पूछ लिया, “क्यों, अगले साल पी एच डी प्रोग्राम में भर्ती होने की इच्छा है क्या ?”

एक हल्की सी मुस्कान, वही पुरानी साध्वी सी दार्शनिक नज़रे। यही उसके जवाब थे। मैंने और दबाब देना उचित न समझा। अब सारी बातों में महेश का कोई स्थान न रह गया था। महीने में दो एक बार प्रतिभा के साथ वह आता और साथ घंटे दो घंटे बिता जाता। पर अब वह मुझे पहले की तरह बाँध न सकता।

प्रतिभा से मेरी दोस्ती बढ़ती गयी। भारतीय समाज, नारी का उसमें स्थान और पाश्चात्य जगत के साथ तुलना या अर्‌थशास्त्र विषयों पर हम बातें करते। कई दफा मैं उस जैसी भारतीय औरतों पर व्यंग्य करता कि वे चुपचाप अन्याय सहकर भी एक मुरदा जीवन बिता सकती हैं, पर ज़रा सी हिम्मत कर विद्रोह करने को तैयार नहीं .... इत्यादि।

कई दफा मैं खुद को बड़ा कमजोर महसूस करता। ऐसे दुर्बल क्षणों में मैंने उसे स्पर्श करना चाहा, उसे कालिदास या रवींद्रनाथ की पंक्तियां सुनाना चाहा .... पर किसी तरह खुद को रोके रखा। मुझे अपनी चिंता न थी। उसी ऐसी किसी असहनीय परिस्थिति में मैं नहीं डालना चाहता था, जिससे हमारी दोस्ती टूट जाए। मन ही मन गहराई में कहीं मुझे यह विश्वास था कि उसे मेरी ज़रूरत है।

कई दिनों बाद एक शाम लाईब्रेरी से निकलते वक्त मैंने उसे रेफरेंस में बैठे पढ़ते देखा तो करीब जाकर फिर पूछ लिया , “प्रतिभा, क्यों अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर रही हो ? आखिर ग्रैजुएट स्कूल में भर्ती क्यों नहीं हो जाती ?” ग्रैजुएट स्कूल से मतलब पी एच डी प्रोग्राम से था।

इस बार उसने गंभीर होकर पूछा, “आपके मित्र क्या अनुमति देंगे ?”

“मैं उससे बातें करूंगा।”

यह कहकर दो कदम चलकर मैं लौटा और मानो अचानक ही मेरे मुंह से निकाल पड़ा, “ तुम ज़रा मेरे घर चलोगी, मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूं।”

उसे जैसे ऐसे किसी आमंत्रण की अपेक्षा रही हो - वह उठकर बिना किसी हिचक के चल पड़ी।

कमरे में आते ही बिना किसी भूमिका के मैंने पूछा, “आखिर तुमने उससे क्यों शादी की ? यहां आना चाहतीं तो खुद किसी ग्रैजुएट स्कूल में ऐप्लाई कर आ सकती थीं ?”

वह सिर नीचा किये बैठी थी। पता नहीं कब तक मैं चीखे जा रहा था। अचानक उसका सिर घुटनों पर गिर पड़ा और मैंने उसकी सुबकियां सुनीं, मैं परेशान हो कमरे के बाहर चला आया। नार्‌थ नेविल स्ट्रीट पर दौड़ती गाडियों को देखते मैं प्रतिभा की शादी के कारण ढूंढ रहा था। शायद उसके माता पिता ने यह सोचकर कि 'अमेरीका में है लड़का तो अवश्य ही अच्छी नौकरी कर रहा होगा,' उसकी शादी पक्की कर दी हो या शायद... इस तरह की असंख्य संभावनाओं के बारे में मैं सोच रहा था, जब अचानक वह कमरे से निकल आयी, “साढ़े दस बज गये मैं चलूं।”

मैंने क्षमा माँगनी चाही, पर मेरे लिए कुछ कहना मुश्किल हो रहा था। बड़ी मुश्किल से मैंने कहा, “ प्रतिभा ! तुम फिर आओगी न ?” और उसके होठों पर थी वही बेजान मुस्कान !

प्रतिभा चली गयी। अगर कभी कार्नेगी लाईब्रेरी में वह दिखलाई पड़ जाती, मेरे उसके करीब जाने के पहले ही वह मुस्कराकर दूसरी ओर चल पड़ती .... अगर कभी बिल्कुल सामने सामने भी हो जाते, तो दो चार औपचारिक बातों के अलावा और कुछ आपस में न कहते। महेश इसके बाद अकेले ही मुझसे मिलने आया। एक दो बार मैंने प्रतिभा के बारे में पूछा भी, तो वह 'पता नही , वह कुछ खाना वाना बनाने के चक्कर में थी' कह देता। शीघ्र ही मैंने भी परिस्थितियों से समझौता कर लिया। कभी कभी स्वयं से पूछ बैठता, “मुझे क्या पड़ी है उसकी सोचने की ?” पर मन के किसी कोने में प्रतिभा के लिए एक छोटी सी जगह बन गयी थी और जब अक्तूबर में पेड़ों के पत्ते गिरने के पहले अचानक चारों ओर रंगो की बहार खिल गयी और हर शाम ठंडी हवा बहने लगी, कई दिनों तक रात रात मुझे नींद न आयी। उन दिनों के वे दर्दनाक क्षण मेरे लिए असहज से थे....यह सब लिख पाना सचमुच बड़ा कठिन है।

इमर्जेंसी वार्ड पहुंचा तो पता चला कि महेश को रेगुलर वार्ड नं. २४ में शिफ्ट कर दिया गया है। वहां पहुंचते ही बाहर प्रतिभा से मुलाकात हो गयी। उसके चेहरे पर थकान सी थी। पास खड़े सुदर्शन युवक की ओर संकेत कर उसने कहा, “नागेश्वर राव।”

“ बड़ी खुशी हुई आपसे मिलकर। प्रतिभा ने आपके बारे में बहुत कुछ बतलाया है मुझे।”

”महेश की क्या हालत है ?”

प्रतिभा को अचानक जैसे कुछ याद सा आया, ”वो ! अब ठीक है। सेंट्रल पार्क में किसी ने 'मग' कर दिया, जेब में सवा सौ डालर थे। वालेट गायब। हमें दोपहर को पता चला। आपको फोन कर यहां चले आये, विज़िटिंग आवर्स अभी खत्म हुए हैं। अच्छा हुआ, आप आ गये। मेरा तो अब चलने का इरादा था, नागेश ने थोड़ी देर और इंतजार करने को कहा, खैर... चलिए पहले कहीं चलकर डिनर करते हैं।"

“मैंने तो डिनर कर लिया। चलो मैं कॉफी पी लूंगा।”

बीकर स्ट्रीट पर 'नार्‌थ चाईना' रेस्तरां में बैठकर आधी रात तक प्रतिभा की कहानियां सुनता रहा। उन दोनों को काफी भूख लगी थी। वे पूरा डिनर खाते रहे। मैंने पहले तो काफी पी, फिर बाद में उनके साथ थोड़ी 'लिक्वेर' ली।

”आपके पिट्सबर्ग छोड़ने के बाद नागेश से मेरा परिचय हुआ। जब इसे मैंने आपके बारे में बतलाया तो इसने आपसे मिलना चाहा।”

नागेश ने कहा, ”प्रतिभा के विचार में आप जैसे प्रगतिशील विचार रखने वाले भारतीय बहुत कम हैं।” मैं झेंप गया, उसकी बातें कहीं चुभ सी रही थीं।

”आपके मित्रों ने बतलाया कि आप न्यूयार्क आ गये हैं। फिर आपकी बात करीब करीब भूल ही गये थे। महेश के कोई रिश्तेदार कल इंडिया से आये हैं। बोस्टन में बढ़ने। इसलिए हम लोग यहां आये थे जे.एफ.के. एयरपोर्ट से उन्हें रिसीव करने। नागेश के एक मित्र यहां हैं, उन्होंने दो दिनों के लिए रोक लिया।”

नागेश ने हँसकर कहा, “यह तो कह रही है कि भूल गयी है आपको, वास्तविकता तो यह है कि हर दूसरे दिन आपका नाम बखानने लगती है।”

उनकी बातों में आत्मीयता थी। बीच बीच में एक दूसरे की ओर उस रहस्यमय तरीके से ताकते हुए वे मुस्कराते, जो घनिष्ट अंतरंगता से आती है। शुरू में मुझे अस्वाभाविक कुछ न लगा, पर नागेश जिस तरह अधिकारपूर्वक प्रतिभा के बारे में बातें कर रहा था, उससे लगने लगा कि वे सिर्फ दोस्त नहीं। मैं बड़ी कठिनाई से मानसिक तनाव दबाये संयत रहने की कोशिश करता रहा। कोई और होता तो इसे महज निजी मामला समझकर मैंने सोचने की भी कोशिश न की होती। पर प्रतिभा मुझे कमजोर कर रही थी।

रेस्तरां से निकलते वक्त मुझसे रहा न गया। काफी देर से मेरे मन में सवाल उठ रहे थे। नागेश के सिगरेट खरीदने के लिए एक दुकान में घुसते ही मेरे होंठों से खौलते द्रव सा प्रश्न फूट पड़ा, “तुम क्या अभी भी महेश की पत्नी हो ?”

प्रतिभा ने एक बार मेरी ओर ताका, फिर दुकान के अंदर नागेश की ओर ताकते हुए मानो दूर से उससे कुछ बातचीत की। फिर बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा, “आँफकोर्स ! महेश अभी भी मेरा पति है!”

मैं चुप था, मन ही मन सोच रहा था नागेश के बारे में पूछना उचित न होगा, पर उसने खुद ही जैसे मेरे अंतर्द्वंद्व को भांपते हुए कहा, ”वैसे नागेश भी मेरी ज़िन्दगी में ....” शर्माती सी उसकी आंखें झुक गयीं।

जरा सा सँभलकर उसने मेरी ओर देखा। उसकी शक्ल थोड़ी बहुत बदल तो चुकी.थी, पर वह मुस्कान अभी भी पहले जैसी उसके होंठों पर थी। चुपचाप ताकते हुए मानो वह पूछ रही थी, “क्यों, बहुत बड़ा पाप कर लिया क्या मैंने ?”

अचानक मेरे अंदर कहीं कुछ पिघलने लगा। उसको मैंने बाँहों में जकड़ लिया। अब हम दोनों जोर से हँसने लगे थे।

घर लौटकर बहुत देर तक मैं सो नहीं पाया। बहुत सारी बातें एक दूसरे से उलझी हुई दिमाग को परेशान कर रही थीं। पर कहीं एक भरपूर संतोष की भावना मन में थी - लग रहा था, दुनिया में कहीं तो कुछ अच्छा है।

बहुत दिनों बाद मैंने यह कहानी एक वैज्ञानिक मित्र को पढने को दी। उसके पिता एक प्रसिद्ध कवि हैं। उसके साथ साहित्य चर्चा मैं नियमित रूप से करता रहता हूं। उसने पढ़कर कहा, “यह तो बिल्कुल बकवास है ! लेखक दूसरे की पत्नी से संभोग करना चाहता है....” पता नहीं उसने और क्या क्या कहा। कई लोग मानते हैं ऐसा साहित्य लिखना नहीं चाहिए, पर न लिखने से क्या मैं, प्रतिभा, महेश व नागेश कुछ और बन पाते ? प्रतिभा और महेश की कहानी मेरे मित्र को अच्छी नहीं लगी, क्योंकि वह कुछ हद तक मेरी भी कहानी है और सच तो यह है कि शायद कुछ हद तक वह उसकी भी कहानी रही होगी?