प्रतिभा / बालकृष्ण भट्ट

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प्रतिभा बुद्धि का वह गुण और मनुष्य में वह शक्ति जो स्‍वाभाविक होती है और अभ्‍यास से अधिक से अधिक बढ़ाई जा सकती है। काव्‍य रचना इसकी कसौटी है। यह कहना कि बिना प्रतिभा के कवि होगा ही नहीं सर्वथा सुसंगत है। प्रतिभाहीन मनुष्य अभ्‍यास के बल से दो चार पद गढ़ ले तो गढ़ ले, किंतु प्रतिभा न होने से वह निरी गढ़ंत रहेगी, रस उस उसमें कहीं से न टपकेगा। साहित्‍य दर्पण में -

काव्‍यं रसात्‍मकं वाक्‍यम्।

यह काव्‍य का लक्षण उस गढ़ंत में सुघटित न होगा। प्रतिभा में भी तारतम्‍य है। कालिदास में जैसी प्रतिभा थी वैसी भवभूति, भारवि और श्रीहर्ष में न थी। सूर, तुलसी, बिहारी में जो प्रतिभा थी वह केशव, मतिराम, भूषण और पद्माकर में न थी। शेक्‍सपीयर और मिल्‍टन के समान अंगरेजी के और कवियों में प्रतिभा कहाँ है? आधुनिक कवि टेनिसन की रचना चाहे अधिक गंभीर और शिक्षाप्रद (Instructive) हो पर वह रस इनके काव्‍य में नहीं टपकता जैसा शेक्‍सपीयर की रचना में है। अस्‍तु, प्रत्‍येक कवि की प्रतिभा का तारतम्‍य एक जुदा विषय है, जिसे हम कभी अलग दिखाएँगे, आज केवल प्रतिभा का स्‍वरूपमात्र दिखलाने का हमारा प्रयत्‍न है। फिर भी इतना यहाँ सूचित किए देते हैं कि प्रतिभा का प्रसाद-गुण के साथ बड़ा घनिष्‍ठ संबंध है। कालिदास की प्रतिभा जो सबसे अधिक मानी गई सो इसी लिए कि उनकी रचना प्रसाद-गुण-पूर्ण है। कविता में प्रसाद-गुण दाखरस के तुल्‍य है, जो स्‍वाद में मिस्री से अधिक मीठा होता है पर मुख के किसी अवयव को जरा भी उससे क्‍लेश नहीं होता। जीभ पर रखा नहीं कि घूँट गए। और कवियों की रचना में चा‍हे रस हो भी तो पद और भाव इतने क्लिष्‍ट होते हैं कि बिना थोड़ी देर सोचे रस नहीं मिलता।

प्रतिभा केवल कविता ही में नही वरन् और कितनी बातों में भी अपना दखल जमाए हुए है। यहाँ के प्रसिद्ध चित्रकार रविवर्मा में चित्रकारी की अद्भुत शक्ति प्रतिभा ही का परिणाम है। योरप तथा एशिया के कई एक प्रसिद्ध विजयी सीजर, हानिबाल, सिकंदर, नेपोलियन बोनापार्ट, समुद्रगुप्‍त, रणजीत सिंह आदि सब प्रतिभाशाली थे और उनकी प्रतिभा युद्ध-कौशल की थी। बुद्धदेव, शंकर, रामानुज, गुरू नानक, स्‍वामी दयानंद, ईसा और मुहम्‍मद आदि सब प्रतिभावाले महापुरुष थे और इनकी प्रतिभा नया धर्म चलाने में थी। बहुधा ऐसा भी देखा जाता है कि यह प्रतिभा बराबर वंश-परंपरा तक आती गई है। हमारे यहाँ जो एक-एक पेशेवालों की अलग-अलग एक-एक जाति कायम कर दी गई है। उसका यही हेतु है कि उस जाति के मनुष्य में उस पेशे की प्रतिभा बराबर दौड़ती आती है। किसी-किसी में यह पूर्ण रीति से झलक उठती है। और उतने अंश में यत्किंचित् विच्छित्ति-विशेष प्रतिभा ही कही जाएगी। मनुष्य में प्रतिभा का होना पुनर्जन्‍म का बड़ा पक्‍का सबूत है। क्‍या कारण है कि एक ही शिक्षक दो बालकों को पढ़ाता है, एक में प्रतिभा विशेष रहने से वह बात जो गुरु बतलाता है उसे जल्‍द आ जाती है और उस विद्या में वह विशेष चमकता है। दूसरे को गुरु की बतलाई हुई बात आती ही नहीं, आयी भी तो देर में और अधिक परिश्रम के उपरांत। तो निश्‍चय हुआ कि एक का पूर्व संस्‍कार जो अब प्रतिभा के नाम से बदल गया है स्‍वच्‍छ और विमल था और दूसरे का मलिन था, इसी से प्रतिभा उसमें न आई। 'अल्‍पायासं महत्‍फलम्' अर्थात् 'परिश्रम थोड़ा फल बहुत अधिक' यह बात प्रतिभा ही में पाई जाती है। छात्र मंडली में बहुत से ऐसे पाए जाते हैं जो थोड़े परिश्रम में बड़े-बड़े दार्शनिक पंडित और कवि हो जाते हैं पर बहुत से ऐसे भी होते है जो धोख-धोख कर थक जाते हैं, पर अंत:पात या बोध उन्‍हें यथावत् नहीं होता। गीत में भगवद्विभूति को गिनाते गिनाते भगवान् ने कहा -

'हे अर्जुन, अब हम कहाँ तक तुमसे अपनी विभूति गिनाते रहें। जिस मनुष्य में कोई बात असाधारण और लोकोत्तर पाओ उसे भगवद्विभूति ही मानो।' यह लोकोत्तर चमत्‍कार प्रतिभा ही है जो कृष्‍ण भगवान् ने अपनी विभूति कहा है। धन्‍य हैं वे जिनमें किसी तरह की प्रतिभा है। सफल जन्‍म उन्‍हीं का है।