प्रतियोगिता / शशि पाधा
अध्यापिका ने चाक से बड़े- बड़े अक्षरों में ब्लैकबोर्ड पर लिखा - अपनी प्रिय कलाकृति की ड्राइंग बना कर उसमें रंग भरिए।
फिर बच्चों की ओर मुड़ते हुए अध्यापिका ने पूछा, “अच्छा तो बच्चो! आप सब लोग ड्राइंग पेपर, ब्रश और रंग ले कर आए होंगे।”
विद्यार्थियों के समवेत स्वर में- “जी हाँ” के बीच अमर की दबी-दबी “जी नहीं” कहीं दबी ही रह गई। सभी बच्चों ने साफ़ सुथरे, कोरे कागज़ डेस्क पर बिछा दिए और रंगों की डिबिया खोल कर ड्राइंग करने में जुट गए।
बीच की पंक्ति में अमर का डेस्क था। उसके डेस्क पर थोड़ा मुड़ा-तुड़ा- सा सफेद कागज़ था। पास में उसने दो पेंसिलें रक्खी हुईं थीं। वह बड़ी कुशलता से पेंसिल से कागज़ पर कोई आकृति उकेर रहा था। अध्यापिका कुछ दूरी से देख रही थी।
“अरे! इसके पास तो रंग भी नहीं हैं, फिर यह कैसे आज प्रतियोगिता में भाग लेगा।” उसकी उत्सुकता जागी।
अमर ने अपनी पेन्सिल से धीरे-धीरे एक बूढ़ी स्त्री का चेहरा उकेरा। चेहरे पर हल्के-हल्के पेंसिल को फेर कर झुर्रियाँ बन गईं। बूढ़ी स्त्री के पोपले मुख पर एक मुस्कान दिखाई दे रही थी।
अध्यापिका ने कक्षा में चक्कर काटने शुरू किए। कोई बच्चा समुद्री जहाज बना रहा था, कोई पहाड़ और नदियाँ। अधिकतर बच्चे पेड़ और चिड़िया बना रहे थे। पेड़ों-पहाड़ों में हरा रंग भरा जा रहा था और आसमान में नीला।
अध्यापिका एक बार फिर से अमर के डेस्क के पीछे आकर खड़ी हो गई।
अमर की ड्राइंग को उसने ध्यान से देखा। वो कुछ अलग सी थी। बूढ़ी स्त्री सामने खड़े बच्चे की ओर देख रही थी। और सामने एक छोटे से बच्चे का हँसता हुआ चेहरा था, जिसके हाथों में एक दवा की शीशी थी। अध्यापिका से रहा नहीं गया। उसने अमर के पास जाकर पूछा, “अमर, आपने यह क्या बनाया है? आपके पास तो रंग भी नहीं हैं। सिर्फ पेन्सिल से यह किसकी ड्राइंग बना रहे हो?’’
”मै’म! कल मेरी दादी के पास रंग दिलवाने के लिए पैसे नहीं थे। कुछ दिन से वो बीमार हैं और उनको बहुत खाँसी भी हो रही है या तो मैं दादी के लिए दवा लाता या रंग; इसलिए रंग के लिए मैंने जिद नहीं की। बस कागज़ और पेन्सिल लेकर आ गया।”
डरे-डरे स्वर में उसने पूछा, “मैम! आप नाराज़ तो नहीं होंगी, मेरे पास रंग नहीं हैं? ”
अध्यापिका ने कहा, "इस चित्र में किसी रंग की ज़रूरत नहीं।" कहते-कहते उनकी आँखें भर आईं।
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