प्रतिरोध की कहानी / सुधांशु गुप्त
आज मैं बहुत खुश हूं। आज मुझे एक कहानी लिखनी है। लेकिन मैं इसलिए खुश नहीं हूं। मेरी खुशी का कारण दूसरा है। आज पहली बार किसी पत्रिका ने मुझसे कहानी मांगी है। मुझे कहानियां लिखते हुए तीन दशक हो चुके हैं, लेकिन कभी किसी पत्रिका की तरफ से कहानी की मांग नहीं आई। मैं कहानी भेज देता हूं। कई बार कहानी छप जाती है और कई बार बिना छपे लौट आती है। मैंने दोनों ही स्थितियों को सहजता से स्वीकार कर लिया है। मुझे लगता है यही प्रक्रिया है। इसे स्वीकारना ही होता है। लेकिन लोगों की, खासतौर पर पत्रिकाओं की मुझसे यह शिकायत होती है कि मेरी कहानियां बहुत नीरस और निराशा से भरी होती हैं। उनमें ना रूमानियत होती है और ना देह दर्शन। लेकिन इसमें मैं कुछ नहीं कर सकता। इसे आप मेरी सीमाएं कह सकते हैं।
मेरा अपना जीवन नीरसता और निराशाओं से भरा है। मैं बड़ी से बड़ी खुशी में भी निराशा तलाश कर ही लेता हूं। मुझे यह भी लगता है कि निराशा और नीरसता ही मुझे कहानी के संसार में ले जाती है। अगर मैं खुशे रहना सीख जाता तो भला मैं कहानी क्यों लिखता! खुश रहता। जैसे और सब रहते हैं। लेकिन आज मैं सचमुच खुश हूं। बहुत खुश। आज पहली बार एक पत्रिका ने मुझसे कहानी मांगी है। किसी भी लेखक के लिए यह खुशी की ही बात होनी चाहिए। मेरे लिए इसलिए भी, क्योंकि ये कहीं ना कहीं मेरी कहानियों की स्वीकृति ही है! मेरी लिए खुशी की बात यह भी है कि बाजार से मेरी कहानी की मांग आनी शुरू हो गई है! अब कहा जा सकता है कि मेरी पहचान लेखक के रूप में बन जाएगी। मैं खुशी के इस मौके को किसी भी कीमत पर गंवाना नहीं चाहता। हालांकि मुझसे कहानी मांगने के साथ ही कहा गया है कि वे ‘प्रतिरोध कहानी विशेषांक’ निकाल रहे हैं।
लेकिन प्रतिरोध की कहानी के साथ कुछ शर्तें भी नत्थी कर दी गईं हैं। मुझे बताया गया कि सरकार का, किसी संस्थान का या किसी व्यक्ति का विरोध कहानी में नहीं होना चाहिए। अब भला कहानी लिखने के लिए भी शर्तों का सामना करना पड़ेगा! लेकिन कहानी मांगे जाने से मैं इतना खुश हुआ कि शर्तें मेरे ज़हन से तुरंत उतर गईं। मैं शर्तों के बारे में भूल ही गया। मुझे बस इतना याद रहा कि मुझे एक कहानी पत्रिका को भेजनी है। मैं खुशी-खुशी कहानी के बारे में सोचने लगा।
प्रतिरोध के लिए सबसे पहले मेरे मन में सरकार और उसका तानाशाहीपूर्ण रवैया ही आया। यानी व्यवस्था विरोध। आख़िर कहानियां विरोध ही तो हैं! लेकिन मैं कुछ और सोचता इससे पहले ही मेरे सामने बहुत सी तस्वीरें आ गईं। मैंने देखा कि जूते बेचने वाले एक युवक को पुलिस ने गिरफ्तार करके जेल भेज दिया है। उसका कुसूर बस इतना था कि वह ‘ठाकुर ब्रांड’ के जूते बेच रहा था। सरकार ने इसी ब्रांड के जूते बनाने वाली कंपनी पर कोई कार्रवाई नहीं की। सरकार को ना जाने आजकल क्या हो गया है। अपने विरुद्ध किसी को बोलते नहीं देख पा रही है। अब बताओ उस पत्रकार का क्या कुसूर था, जिसने खराब मिड डे मील पर एक स्टोरी की। वह भी जेल पहुंच गया। मुझे लगता है अब इस तरह की बातें कम करनी होंगी। सोशल मीडिया पर लिखना तो बिल्कुल कम करना होगा। सरकार का बस चले तो सोशल मीडिया पर ही ताले लगा दे। अगर मैंने भी सोशल मीडिया को सरकार के खिलाफ़ लिखने का प्लेटफार्म बनाया तो कौन जाने मुझे भी जेल जाना पड़े। और कहीं पब्लिके के बीच कुछ कह दिया तो मुझे भी गोली मारी जा सकती है। क्या मैं गोली खाने के लिए तैयार हूं? लेकिन किसी को भी गोली मारे जाने का कोई तर्क तो होना चाहिए। तर्क...। तर्कवादियों को तो सबसे पहले मारा जा रहा है। मुझे यह साफ़-साफ़ समझ आ रहा है कि सरकार इतनी मूर्ख नहीं होती कि अपने समर्थकों और विरोधियों को ना पहचाने। मैं आए दिन कोई ना कोई ऐसी कहानी पढ़ता हूं जिसमें सरकार का विरोध होता है। सरकार इनके ख़िलाफ़ कुछ क्यों नहीं करती? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये प्रतिरोध भी फेक हो? अगर फेक न्यूज़ हो सकती है तो फेक प्रतिरोध क्यों नहीं हो सकता!
एक कंपकंपी सी मेरे बदल में आई। मेरे भीतर एक डर-सा पैदा हो गया। मुझे लगा कि कोई भी तार्किक बात मेरी हत्या की वजह बन सकती है। मैंने तुरंत सरकार के विरुद्ध कहानी लिखने के विचार को छोड़ दिया। कुछ इस तरह जैसे यह विचार कभी मेरे ज़हन में आया ही नहीं था। विचार छोड़ने के बाद ही मुझे ध्यान आया कि पत्रिका ने सरकार के विरुद्ध कुछ भी लिखने के लिए मना किया है। पत्रिका भी क्यों ख़ुद को ‘देशद्रोही’ कहलवाना चाहेगी। और मेरे लिए भी इस उम्र में ‘देशद्रोही’ का तमगा हासिल करना कोई सुखद नहीं होगा। मैंने फौरन तय किया कि सरकार से इतर किसी के विरोध पर कहानी लिखी जाए। किसी संस्थान पर, किसी व्यक्ति पर या किसी और पर। प्रतिरोध ऐसा होना चाहिए, जिससे मुझ पर कोई उंगली ना उठा सके। ना मुझपर और ना पत्रिका पर। हां, यही मुनासिब होगा। बेवजह क्यों किसी से दुश्मनी मोल ली जाए। यूं भी दुश्मनों की कोई कमी नहीं है। काम ऐसा होना चाहिए जिससे मैं भी महफ़ूज़ रहूं और सामने वाला भी!
मेरे बहुत से साहित्यिक मित्र हैं। लगभग सभी अच्छा लिखते हैं और लोकप्रिय हैं। कई लेखकों को तो पुरस्कार भी मिल चुके हैं। अनेक लोगों के बड़ी संख्या में फॉलोअर्स हैं। मैंने इन साहित्यिक मित्रों को कभी किसी की आलोचना करते नहीं देखा। ये लोग या तो दूसरों की तारीफ करते हैं या अनदेखा कर देते हैं। मैं भी इनकी तरह का ही बनना चाहता हूं! लेकिन पता नहीं मुझे क्या हो जाता है। मेरे भीतर एक और आदमी रहता है। वह मुझे अकारण किसी की भी तारीफ करने से रोक देता है। किसी की कहानी, उपन्यास या कविता पढ़ने के बाद मैं अपने भीतर के आदमी की ही आवाज़ सुनता हूं। लोग मेरे मुंह पर कहते हैं, ‘यार तुममें सच कहने का साहस है। तुम्हारी राय हमेशा ईमानदार होती है। तुम्हारी निष्पक्षता की सब तारीफ़ करते हैं।’ लेकिन मैं जानता हूं कि वे सब लोग झूठ बोलते हैं। हम साहसी और निरपेक्ष हमेशा दूसरों को ही देखना चाहते हैं। अगर उन्हें सचमुच मेरी बात पसंद आ रही है तो वे उस पर चलते क्यों नहीं!
सबके अपने रास्ते होते हैं। वे अपने रास्ते पर चलें और मैं अपने रास्ते पर। यही रास्ता है। लेकिन मैं अपने रास्ते पर चल नहीं पाता। जब भी मुझे कोई कहानी लिखनी होती है, मैं भटक-सा जाता हूं। सोच के स्तर पर पता नहीं कहां से कहानी शुरू करता हूं और कहां पहुंच जाता हूं। इस वक्त भी मैं भटक रहा हूं। यह भटकाव मेरा स्वभाव बन चुका है। जीवन में भी और कहानियों में भी। कहानियों में यह भटकाव पता नहीं कैसे धीरे से उतर आता है। सीधी-सी बात है। दूसरा क्या कर रहा है, इससे मुझे क्या लेना-देना। मुझे एक कहानी लिखनी है। मुझे कहानी के बारे में सोचना चाहिए। ठीक है पत्रिका ने मुझसे प्रतिरोध की कहानी मांगी है। अगर मैं लिख सकता हूं तो मुझे लिखनी चाहिए अन्यथा मना कर देना चाहिए। लेकिन कहानी तो लिखनी ही है। अगर पत्रिका की तरफ से शर्तें ना लगाई गई होतीं तो मैं अब तक कहानी लिख चुका होता। लेकिन दिक्कत यहीं से शुरू हो रही है। पत्रिका ने कहा है कि कहानी में सरकार, व्यवस्था, किसी संस्थान या किसी व्यक्ति का विरोध कहानी में नहीं होना चाहिए।
तब मुझे किसका विरोध करना चाहिए? किस पर कहानी लिखनी चाहिए, जो मेरे विरोध का जवाब ना दे। ऐसा भला कौन हो सकता है! मैंने बहुत सोचा। मैंने अपने आसपास की दुनिया पर नज़र डाली। मुझे लगा कि हमारे चारों तरफ़ आजकल सांप्रदायिकता का ज़हर फैल रहा है। लोग लड़ रहे हैं मर रहे हैं। पूरे समाज में हर ओर सांप्रदायिक सौहाद्र नष्ट हो रहा है। सहिष्णुता नाम की चीज़ ही नहीं बची है। हम किसी से भी मिलते हैं तो सबसे पहले उसका मज़हब देखते हैं। मज़हब ही यह तय करता है कि हमें सामने वाले से किस तरह का व्यवहार करना है। अगर वह हमारे मज़हब का नहीं है तो अचानक हमारी नज़र बदल जाती है। हम उसके आगे पीछे का इतिहास खंगालने लगते हैं। उसके पुरखों के सारे काले कारनामे हमारे सामने आ खड़े होते हैं। पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा है। लेकिन अब पहले जैसी दोस्तियां नहीं रहीं। अब मज़हब सबसे ऊपर आ गया है। सांप्रदायिकता का ज़हर हर तरफ दिखाई दे रहा है। मैं जिस कॉलोनी में रहता हूं वह तीन खंडों में बंटी है। पहले में हिन्दू, दूसरे में मुसलमान और तीसरे में सिख रहते। चालीस साल से अधिक हो गए उन्हें यहां रहते, कभी कोई दंगा नहीं हुआ। दंगा तो छोड़िए कभी किसी को मज़हब के नाम पर एक दूसरे से लड़ते नहीं देखा। सिख दंगों में जब पूरे देश में सिखों के विरुद्ध आक्रोष की आग जल रही थी, तब भी यहां कोई वारदात नहीं हुई। लेकिन अब? अब क्या हो गया है यहां रहने वालों को। क्यों ये एक दूसरे के दुश्मन होते जा रहे हैं। क्या ये अचानक सांप्रदायिक हो गये हैं। क्या ऐसा सिर्फ हमारी कॉलोनी में ही हो रहा है? क्या पूरे देश में ही ऐसा नही हो रहा?
यह सब सोचते हुए मुझे बड़ी राहत मिली। मुझे लगा कि कहानी का जो सूत्र मैं तलाश रहा था, वह मुझे मिल गया है। मैंने सोचा क्यों ना सांप्रदायिकता के विरुद्ध ही कहानी लिखी जाए। सांप्रदायिक विष-वमन को रोकना भी तो साहित्यकारों की ही जिम्मेदारी होनी चाहिए। हां, यही ठीक रहेगा। मैं संप्रदायिकता के विरोध में कहानी लिखूंगा। इसमें प्रतिरोध भी आ जाएगा और पत्रिका की शर्तों का पालन भी हो जाएगा। लेकिन...लेकिन सांप्रदायिकता का ज़हर आ कहां से रहा है। कहानी में इसकी भी तो खोज़ करनी होगी। मैं फिर दुविधा में पड़ गया। मुझे समझ आ गया कि खोज करने पर उंगली फिर सरकार की ओर ही उठेगी। उसकी इच्छा के बिना भला समाज में इतना सांप्रदायिक ज़हर कैसे फैल सकता है? ये तो फिर गड़बड़ हो गई। इसका अर्थ हुआ कि सांप्रदायिकता के विरुद्ध भी कहानी नहीं लिखी जा सकती। उसे यह भी अजीब लगा कि देश में जो भी ग़लत हो रहा है, उसके पीछे हमेशा सरकार ही क्यों दिखाई देती है? ऐसे में प्रतिरोध की कहानी लिखना तो सचमुच मुश्किल हो जाएगा। क्या समाज में जो भी अव्यवस्था है उसके पीछे सरकार का ही हाथ है? अगर सरकार का हाथ नहीं भी है तो क्या वजह सरकार ही है?
सांप्रदायिकता के विरोध में कहानी लिखने का इरादा भी मुझे छोड़ना पड़ा। अब फिर नए सिरे से सोचना था कि किसके विरोध में कहानी लिखी जाए। पता नहीं मेरे साथ ही क्या दिक्कत है। लोग इतनी अच्छी-अच्छी कहानियां लिखते हैं। ऐसा नहीं है कि उनकी कहानियों में प्रतिरोध नहीं होता। बाक़ायदा होता है। इसके बावज़ूद उन पर कोई उंगली नहीं उठाता। इस बार मैंने भी तय कर लिया है कि कहानी ज़रूर लिखूंगा। ऐसी कहानी लिखूंगा जो ना सरकार के विरुद्ध हो, ना व्यवस्था के और व्यक्तिगत रूप से किसी के विरुद्ध तो मैं वैसे भी कहानियां नहीं लिखता। मैं विरोध के लिए फिर से अपना ‘टारगेट’ तलाश करने लगा। काफी सोचने के बाद भी मुझे कुछ ऐसा नहीं मिला, जिसके विरुद्ध कहानी लिखी जा सके।
मैं बाहर निकल आया हूं। मुझे लगा कि इस दुविधा से बाहर आने के लिए घर से बाहर आना जरूरी है। बाहर की दुनिया एकदम शान्त है। सड़कों पर कुत्ते घूम रहे हैं। छोटी-छोटी दुकानों पर लोग सामान खरीद रहे हैं। उन्हें किसी प्रतिरोध से कोई मतलब नहीं है। इस कॉलोनी का मूल चरित्र यही है। लेकिन यह चरित्र अब बदल रहा है। इस कॉलोनी में हर तीन चार ब्लॉक के बाद एक पार्क है। मैं सड़क से होता हुआ पार्क में आ गया। मुझे लगा पार्क में जरूर मुझे कुछ ऐसा मिलेगा जिस पर मैं कहानी लिख सकूंगा। ऐसी कहानी जिसमें सरकार, संस्था या किसी व्यक्ति विशेष का विरोध ना हो। यह पार्क बड़े सलीके से बना है। टहलने वालों के लिए पार्क में चारों तरफ टाइलें लगाकर जगब बनाई गई है। बीच में हरी घास है और चारों तरफ पेड़ लगे हैं। हरियाली आंखों को सुकून देती है। अचानक मेरे ज़हन में आया क्यों ना प्रकृति के विरुद्ध कहानी लिखी जाए। मुझे अपने इस मूर्खतापूर्ण विचार पर गुस्सा आया। मुझे लगा दिमाग एकदम जड़ हो गया है। मैं पार्क से बाहर निकल आया और सड़क पर पहले की तरह ही चलने लगा।
मुझे लोग दिखाई देने बंद हो गये। मैं सामने नहीं सड़क पर देखते हुए चल रहा था। कॉलोनी में साफ सफाई का बिल्कुल ध्यान नहीं रखा जाता। इसे आप स्लम एरिया भी कह सकते हैं। सड़क पर आपको बहुत सा सामान पड़ा हुआ मिल जाएगा। डिब्बे, प्लास्टिक की बोतलें, खाली लिफाफे...और भी बहुत कुछ। मुझे लगा मैं सड़क पर कहानी का विचार तलाश कर रहा हूं। लेकिन सड़क पर भला कहानी का विचार कहां मिलता है। मेरे पैर के सामने अचानक एक डिब्बा आ गया। मैंने उसे गुस्से में लात मारी। वह कुछ दूर चला गया। मैं उसके पास तक पहुंचा और फिर उसे लात मारकर आगे खिसका दिया। मुझे याद आया बचपन में यह हमारी प्रिय खेल था। सड़क पर पड़ी हुई किसी भी चीज को हम लात मारकर दूर तक ले जाते थे। बच्चों में एक प्रतियोगिता सी होती थी कि कौन इसे अधिक दूर तक ले जा सकता है। उसने सड़क पर इधर-उधर देखा। कुछ किशोर अपने अपने मोबाइल फोन में डूबे हुए थे। किसी का किसी से कोई लेना देना नहीं था।
जब मैं किशोरावस्था में यहां घूमता था तो कितने ही लोग जान पहचान के मिलते थे। लेकिन अब? मैं कितनी देर से यहां घूम रहा हूं। लेकिन कोई भी परिचित नहीं मिला। चलते-चलते मेरी चाल थोड़ी तिरछी हो गई थी। मैं सड़के किनारे लगे एक खंबे तक पहुंच गया। मैंने देखा जिस खाली पैक को मैं लात मारकर आगे खिसका रहा था, वह फिर उसके सामने आ गया है। मैंने देखा कि यह फ्रूटी का खाली पैक है। किसी बच्चे ने या संभव है किसी बड़े ने ही फ्रूटी पीकर खाली डिब्बा यहां फेंक दिया होगा। इस बार मैंने पूरी ताकत से फ्रूटी के पैक पर लात मारी। वह सड़क के किनारे बनी नाली में चला गया। अब वह लात खाने के लिए तैयार नहीं था। फ्रूटी....। मुझे याद आया कि बचपन में फ्रूटी नहीं थी। छोटी-छोटी दुकानें होती थीं, जहां से गुड़ की पट्टी, टाफियां, आमपापड़ और ना जाने क्या-क्या खाया करते थे। खाने पीने में भी अब बच्चों की प्राथमिकताएं बदल रही हैं। अब बच्चे फ्रूटी, कोल्ड ड्रिंक्स पीते हैं, अलग अलग नामों की चॉकलेट्स खाते हैं और खाने में उन्हें पित्जी और बर्गर सूट करते हैं। मैं कभी इस तरह की चीजें नहीं खाता। फ्रूटी मैंने कभी नहीं पी। पता नहीं कैसी होती होगी। बच्चों को यही पसंद आती है। पता नहीं क्यों?
चलते चलते वह एक दुकान पर पहुंच गया। यह घर के आगे बनाई गई एक छोटी सी दुकान है। इस पर सारा सामान मिलता। आटा, चावल, घी, दालें, सिगरेट, बीड़ी, तंबाकू....ब्रेड, मक्खन और फ्रूटी भी। मैंने टिंडे से कहा, एक फ्रूटी दे दो। दुकानदार का नाम टिंडा है। क्यों है, पता नहीं। बस वह पहले सब्जी बेचा करता था। सब्जी की दुकान नहीं चली तो वह परचून की दुकान करने लगा। फिर उसने परचून की दुकान पर ही विविध किस्म का सामान रख लिया। टिंडे ने मुझे ठंडी फ्रूटी दी। मैं पीने लगा। आश्चर्य हुआ कि मुझे फ्रूटी अच्छी लगी। अफसोस भी हुआ कि मैंने अब तक इसे क्यों नहीं पिया था। मैंने टिंडे को दस रुपए दिए और फ्रूटी के खाली पैक को अपने ही पैरों के पास फेंक दिया। मैं उसे पैरे मारते हुए आगे ले जाने लगा। मुझे समझ आ गया कि क्यों और कैसे बाजार अपनी जरूरतों को हम सब पर थोप रहा है। मुझे यह भी समझ आ गया कि मौजूदा समय में बाजार से बचना बहुत मुश्किल है।
मुझे मेरी कहानी का विषय मिल गया था। मैं बाजारवाद के विरुद्ध कहानी लिखूंगा। बाजार कभी मुझसे लड़ने नहीं आएगा और ना ही वह लड़ने के लिए पत्रिका के कार्यालय जाएगा।