प्रतिशोध / पुष्पा सक्सेना
‘मंतरी जी जेल का निरीक्षण करने आ रह हैं। इस बार महिला वार्ड को खास देखा जाएगा।’ महिला-वार्ड की अटेंडेंट ने खबर दी थी।
‘महिला-वार्ड में खास क्या देखेगें मंतरी जी? हम नंगी-भूच्ची औरतों को देखने में मजा आएगा न? दातौन करती कजरी विफर पड़ी।
‘एई कजरिया! अच्छा मौका है री, हम तन ढापे खातिर साड़ी उनसे मांग लेइब।"
परबतिया का चेहरा चमक रहा था।
‘छिः भौजी, उनके सामने नंगी जात, लाज न आइब?’ लक्खी का चेहरा लाल बहूटी हो रहा था।
‘लाज - कैसी लाज? अब हम क्या आदमी रह गए है।? एक कोठरी में तीस-तीस नंगी औरतों को लाज-सरम कैसी?’ कजरी का स्वर बेहद कड़वा था।
‘तू हमेशा कड़वा ही बोले है ,कजरिया। माना हमार जिनगानी जनावर से बदतर है, पर क्या अन्दर की लाज-हया खतम हो गई है? मंतरी जी के सामने ऐसे जा सकते हैं? शरीर पर दृष्टि डालती परबतिया सहम गई थी।’
पिछले दस बरसों से जेल काटती परबतिया की वो धोती तार-तार हो चुकी थी, जिसे पहिने वह जेल आयी थी। अकेली परबतिया ही क्यों, सबकी वही कहानी थी। कजरी तो लाल बनारसी साड़ी पहिने जेल आई थी। कैसा दप-दप करता रूप था, जेल आते ही बनारसी साड़ी छीन, पुरानी फटी साड़ी पहिनने को दे दी गई थी। जार-जार रोती कजरी को देख, सबका दिल भर आया था। दिन-रात वही धोती पहिने, काम में खटती औरतों के शरीर पर अब मात्र फटे चिथड़े रह गए थे। ब्लाउज फटे तो बरसों बीत गए, अब तो धोती का टुकड़ा भी बदन ढापने को पर्याप्त नहीं था। जेलर साहब जब आते तो घुटनों में मुंह छिपा, औरतें अपनी लाज छिपा लेतीं थीं। लाख मांग-मनुहार करने पर भी किसके कानों पर जूं रेंगी थी? एक ही जवाब मिलता था, सरकार को महिला कैदियों के लिये धोती भेजने के लिये लिखा गया है, जब आयेगी तभी धोती मिलेगी। पता नहीं सरकार को धोती भेजने में इतना टेम क्यों लगता है। मंतरी जी की आने की खबर से उनमें नया जीवन सा आ गया था। अटेंडेंट बता गई थी -
”कल जेलर साहब के कमरे में मिटिंग हुई है, सब औरतों के लिये धोतियां खरीदी जाएंगी।“
‘अरे बिलाउज, पेटीकोट मिली कि नाहीं?’ सुरमइया चहक उठी थी।
‘सब मिली, तनी धीरज रखो। अरे मंतरी जी के सामने औरतें नंगी जाएंगी तो सरम से सिर न झुक जाई सरकार का?’ अपने अनुभव के आधार पर अटेंडेंट ने सूचना दी थी।
‘तो जेलर साहब से साबुन की बट्टी देने को कह दें, अटेंडेंट जी। नए कपड़ों में बसाता बदन ठीक नहीं है न?’ शीलो गिड़गिड़ाई।
‘ठीक है - ठीक है। आज लीला बहिन जी से सबकी फरियाद कर देइब!’
सबके चेहरे खुशी से चमक रहे थे। वर्षो पहले छोटे-बड़े अपराधों के कारण जेल भेजी गयीं ये औरतें अभिशप्त जीवन बिताने को विवश थीं। शुरू में घरवाले उनकी थोड़ी-बहुत खबर लेने आते रहे पर बाद में वे भुला दी गयी थीं। मुकदमों की तारीखें बढ़ती गई, कभी टलती गई। वैसे भी औरत कोई नायाब चीज तो नहीं, एक गई, ह्ज़ार हाजिर।
कजरी जब जेल गयी थी, हाथ की मेंहदी भी पूरी तरह मैली नहीं पड़ी थी। पति की चाय की दूकान थी। कजरी के ब्याह कर आने से दूकान की आमदनी खूब बढ़ गयी थी। उसके हाथ की चाय पीने दूर-दूर से लोग आया करते थे। घर में न सास, न ससुर, बस एक उसका मरद जूगनू। कजरी की मां ने लड़का देखकर ही कजरी का ब्याह किया था। कजरी को अपना मरद खूब भाया था। गांव में नशा-पानी आम बात थी, पर जुगनू का उससे दूर-दूर का वास्ता नहीं था।
कजरी के आने से घर की काया ही पलट गई थी। दरवाजे पर टाट का परदा लटक गया था। बपौती में मिला जुगनू का मिट्टी का घर कजरी ने लीप-पोत कर चमचमा दिया था। सुबह से ही जुगनू और कजरी दोनों चाय की दूकान चलाते। उस समय बस अड्डे पर खूब भीड़ होती थी। कजरी को देख जब कोई मनचला सीटी बजाता या गीत गाता, तो जुगनू के बदन में आग लग जाती, वो तो कजरी ही थी जो जुगनू को उनसे उलझने न देती।
‘अरे इन बदमाशों का, का ठिकाना, न जाने कब छूरा घोंप दें। तुम हो तो जहान है। अगर हम पर विसवास न हो तब न झगड़ा-टंटा करो।’ कजरी मुस्करा कर जुगनू को घायल कर देती।
मुहल्ले वाले जुगनू का भाग्य सराहते न थकते। खुद कजरी सौ जान जुगनू पर कुर्बान थी। उस रात कजरी ही ने सनीमा जाने की जिद ठानी थी।
‘साथ की सारी औरतें सनीमा जाती हैं, हम भी सहर जाके सनीमा देखी।’
‘देख कजरिया ! तू किसी साथ वाली के साथ सनीमा चली जा, हम दुकान छोड़, नहीं जा सकते।’
‘हमारे खातिर एक टैम भी दुकान नहीं छोड़ सकते तो ठीक है हम नहीं जाइब बस।’ मुंह फुलाकर कजरी बैठ गयी थी।
‘अच्छा भई, तोहार खातिर रात की बेला सनीमा चलब, हिंयां भोला को कह देइब चाय दे देगा। अब तो खुस।’
हंसती कजरी जूगनू की गले में बांहे डाल झूल गई थी। साथ की सहेलियों से सनीमा की ऐसी-ऐसी कहानियां उसने सुनी थी कि सोच कर ही गुदगुदी उठती थी। जुगनू के साथ वो सब देखना कैसा लगेगा?
शादी की लाल बनारसी साड़ी के साथ पूरे जेवर पहिन, कजरी शाम से सनीमा जाने को तैयार खड़ी थी। दस बार अपनी पड़ोसिन सखी रमा के पास जाकर बता आई थी। दिलीप कुमार की ‘नदिया के पार’ देखने जाते समय वह दिलीप कुमार का नाम वह पूरी तरह रट चुकी थी। बार-बार परदे से झांक, जुगनू को जल्दी काम खतम करने की ताकीद करती कजरी, फूली पड़ रही थी। शादी के पहले नौटंकी या तमाशे वाले का सनीमा, कजरी को बहुत भाता था सहर के सनीमा में आदमी-औरत खूब बड़े दिखते हैं, बात करते हैं, गीत गाते हैं, ये बातें उसने सुनी जरूर थीं, पर आज तो वह खुद सनीमा जा रही थी।
ठीक टैम सहर वाली बस में चढ़, कजरी जुगनू के साथ सनीमा पहुंची थी। बाप रे उतनी भीड़ में कहीं जुगनू खो न जाए। जुगनू का हाथ कसकर पकड़े कजरी पसीने-पसीने हो रही थी। जुगनू जब टिकट कटाने जाने लगा तो कजरी भी पीछे-पीछे पहुंची थी। पास खड़ा आदमी हंस पड़ा था -
‘नया-नया बियाह हुआ है? टिकट चाहिये।
जुगनू ने ‘हां’ में सिर हिलाया था।
‘ये लो दो टिकट, सबसे आगे वाली कुर्सी का है। निकालो बीस ठो रूपइया।’
‘बीस रूपइया।’
‘और क्या सबसे आगे वाली सीट का है, समझे। लेना हे तो लो वर्ना किसी और को दे दूंगा।’
‘नहीं-नहीं, टिकट दे दो भइया। इत्ती भीड़ में क्या टिकट मिलेगा।’ जेब से बीस रूपए निकाल, जुगनू ने उस आदमी को थमा दिये।
‘जाव, अब जाके सनीमा का मजा लो भइया।’कजरी पर ललचाई दृष्टि डाल, वह आदमी चला गया था। कजरी सिमट गई थी।
‘ई सहरी आदमी कैसन तो बेसरम होत हैं, पराई औरत को कैसन तो लील रहा था।’
जुगनू हंस पड़ा था।
‘अरी सहर और गांव में फरक तो होई करे, फिर तू चीज ही अइसन है कि सब लोग घूरेंगे।’
सनीमा देखना, मानो सपनों में उड़ान भरना था। नायिका की मौत पर कजरी फूट-फूट कर रो पड़ी थी। जुगनू का हाथ पकड़ जिद कर डाली थी ...................
‘हमें अइसन सनीमा नहीं देखना है, घर चलो।’ बड़ी मुश्किल से पूरा सनीमा देख दोनों बाहर आये थे। बस के लिये लम्बी लाइन लगी थी। कजरी को नींद आ रही थी, भूख लग रही थी सो अलग। धीमे-धीमे लोग कम होते गये, पर गांव जाने वाली बस का कहीं पता ही नहीं था। जुगनू परेशान दिख रहा था। तभी एक काली कार उनके पास आकर रूकी थी- ‘कहां जाना है भाई?’ एक पुरूष ने सिर बाहर निकाल पूछा था।
‘चंदवा गांव जाना है साहब। बस का इंतजार है ................’
‘अरे चंदवा, वो तो पास में ही है न? हां अब तुम्हें गांव के लिये बस नहीं मिलेगी। दस बजे के बाद बस उधर के लिये नहीं चलती ................।’
‘पर हमारे संगी-साथी तो बस से ही जाते हैं।’
‘पहले बस जाती थी, अब बंद कर दी गई है।’
‘हाय दइया, अब का होई?’ कजरी की भोली दृष्टि में डर तैर रहा था।
‘कोई बात नहीं, आओ हम तुम्हें छोड़ देंगे। इतनी रात जवान औरत के साथ यहां खडे़ होने में खतरा है।’
‘पर साहब ....................’
‘अब देर न करो, हम उधर ही जा रहे हैं। पुरूष ने पीछे का द्वार खोल दिया था।’
कजरी और जुगनू पीछे बैठ गए थे। कार तेजी से दौड़ चली थी। धीमे-धीमे कजरी का डर और संकोच दूर होता गया था। वह कौतुक से कार के बाहर देख रही थी। काफ़ी दूर जाने पर कार ने जंगल का रास्ता पकड़ा था। जुगनू चौंक गया ....................
‘साहब जी, ये कौन सा रास्ता है? चंदवा तो दांये हाथ है, सरकार।’
‘मुझे थोड़ा काम है, पूरा करके चलते हैं।’
जुगनू शंकित होकर भी चुप बैठने को विवश था, जंगल के बीच कार रोक, उस पुरूष ने पीछे आकर कार का दरवाजा खोला था।
‘एई तुम यहां उतर जाओ। इसे हम ठीक जगह पहुंचा देंगे।’ जुगनू का हाथ पकड़, उस आदमी ने उसे कार से उतारने का प्रयास किया था।
‘नहीं ......ई .... हमका छोड़ के ना जाई ........’ जुगनू को कस के पकड़ कजरी रो पड़ी थी।
झटके से जुगनू को हाथ से खींच उस पुरूष ने उसे कार से बाहर निकाल खड़ा किया। कार का दरवाजा जोरों से बंद कर पुरूष ने जैसे ही कार में बैठने की कोशिश की, जुगनू ने पीछे से आक्रमण कर दिया था। दोनों की मारपीट देख कजरी सहम कर सीट में दुबक गयी थी। अचानक कमर के फेंटे से छुरी निकाल, जुगनू ने पुरूष पर अंधाधुंध वार कर दिए। दर्द से छटपटाता पुरूष धरती पर गिर तड़प रहा था, जुगनू के बलिष्ट हाथों के गहरे घावों से खून रिस रहा था।
कजरी का हाथ पकडे़, दोनों बेतहाशा दौड़ पड़े । पीछे से पुलिस साइरन की आवाज के साथ कुत्तों का भौंकना सुन, जुगनू सचेत हुआ था। इसी जंगल में न जाने कितने मानुस मार गिराए गए थे, तब से रात का पहरा लगने लगा था ........... अब बचने की उम्मीद बेकार थी। ‘सुन कजरिया, अगर पुलिस-थाना पकड़ ले तो कह दीजो - ऊ मरद तोहार इज्जत लूटत रहा, एही खातिर तू उसका मार दी। ले ई छुरी अपन पास रख ले, इसी से तू मारी थी। समझ गई ना ?’ जुगनू फुसफुसाया था।
‘ना .... हम ई ना की ......’ कजरी रो रही थी।
‘अगर तू ना कही तो हमका फांसी लग जाई। तू मेहरारू ठहरी, एही कारन दया करके तोहका थाना-पुलिस छोड़ देही ........... हमार विसवास कर तोहका कुछ न होई, पर हम फांसी चढ़ जाई।’
‘नाहीं तोहका फांसी न होई ...... हम कह देई, ओका हम मारी है........... ’ कजरी रो रही थी।
‘हां ! बस एही बात कहती जाना, तो ऊ लोग हमार कुछ न बिगाड़ पाई ................’
भौंकते कुत्ते पास आते लग रहे थे। पुलिस-जीप शायद वहीं रूकी थी, जहां जुगनू ने आदमी को मार गिराया था। थोड़ी ही देर में पुलिस जीप की तेज लाइट में खड़े, दोनों कांप रहे थे। भारी बूट पहिने इंस्पेक्टर उतरा था -
‘कौन हो तुम लोग ? यहां क्या कर रहे हो?’
‘सरकार ! जंगल में रास्ता भुला गये .............. सनीमा देख लौटत हैं।’ जुगनू का झूठ लड़खड़ा गया था।
‘हमसे झूठ बोलता है साल्ले। औरत से धंधा कराता है। आदमी का माल लूट, उसे मार कर भागा जा रहा था- अब फांसी चढे़गा तो पता लगेगा। जुगनू को जोरदार थप्पड़ मार, इंस्पेक्टर दहाड़ा था।’
‘नही सरकार ! हम नहीं मारी, हम कोई लूट नहीं किया ..........।’ जुगनू रो पड़ा था।
पीछे से दौड़ कर आता कांस्टेबल इंस्पेक्टर के कान में फुसफुसाया था - ‘जिंदा है, सांस चल रही है, सर।’
बात सुनते ही जुगनू को बेंत से मारता इंस्पेक्टर चिल्लाया था -
‘जिसे मार तू भागा है, वह मर गया, अब फांसी पर चढ़ने को तैयार हो जा। रामसिंह, इन्हें थाने पहुँचाओ और लाश अस्पताल भेज देना।
सिपाही को निर्देश दे इंस्पेक्टर जीप में बैठ चला गया। कजरी को देख सिपाही मुस्कराया था -
‘कहां से मार लाया रे, बड़ी जालिम छोकरी है।’
जुगनू कसमसा के रह गया , कजरी जुगनू से चिपक गयी थी।
कजरी थर-थर कांप रही थी, जुगनू ने हाथ जोड़ पूरी कहानी बता दी , कजरी ने अपनी इज्जत बचाए खातिर ओकर खून कर दिया।’
‘वाह रे मरद ! तू खड़ा तमाशा देखता रहा और तेरी जोरू ने उसे मार गिराया। सच बता क्या हुआ था?
सच्ची हुजुर, हमका तो ऊ जालिम ने सिर पर हैंडल मारा, हम उधर बेहोस पड़ गए थे। जब होस आया तो मरा पड़ा था ........ कह कजरिया, एही सच्ची बात है कि नहीं?’
डरती कांपती कजरी ने सिर हिला ‘हां’ कर दी थी।
‘ठीक है, अब इसी पे मुकदमा चलेगा, इसे थाने रहना होगा। इंस्पेक्टर ने जुगनू को अगले दिन आने को कह, कजरी को लॉक-अप में रखने के निर्देश दे दिये । रो-रोकर कजरी का बुरा हाल था, जुगनू ने प्यार से तसल्ली दी थी -’
तू डरना नहीं,कजरिया। हम भोरे ही आ जाइब। हिंआ इंसपेक्टर साहिब हैं, ऊ देउता आदमी ठहरे, कौनू डर नाही है, कजरिया ...........’
उस रात इंसपेक्टर और सिपाहियों ने कजरी की पूरी देखभाल की थी। कजरी की चीखों को मुंह में कपड़ा ठूंस बंद कर दिया गया था। सुबह तक अर्द्ध-मूर्छित कजरी के बदन पर जेवरों की जगह खरोचें और घाव रह गए थे। सुबह जुगनू जब आया तो इंसपेक्टर ने घुड़की दे भगा दिया -
‘देख साल्ले, हमें तेरी सच्ची कहानी पता है। अब अपनी सलामती चाहता है तो भाग जा, फिर कभी इधर मुंह किया तो फांसी पर चढ़ जाएगा।’
‘पर ........ पर ............ वो हमारी जोरू है, साहिब।’
‘अरे बड़ा आया जोरू वाला। उसे भूल जा और दूसरी जोरू रख मजा कर। तेरे यहां औरतों की कमी है क्या रे? आंखों से गंदा इशारा कर इंसपेक्टर ने सिगरेट मुंह से लगा ली थी। जुगनू को हिचकते देख इंसपेक्टर ने घुड़का था -
‘अब जाता है या फांसी पर चढे़गा। भूलकर भी इधर आया तो पकड़ा जाएगा।’
जुगनू लौट गया था। उसके बाद न जाने कितनी रातें निर्वस्त्र कजरी ने एक काल-कोठरी में काटी थीं। ताज्जुब यही कि उन दरिन्दों के पाशविक अत्याचार झेलने के बाद भी वह जिन्दा रह गई थी। अचानक एस0पी0के आने की बात पर थाने में हल्ला मच गया था। कजरी के विरूद्ध अवैध धंधा करने का आरोप लगाया था।
उसी रात की लाल साड़ी में उसे थाने में पेश किया गया था। हर बात के जवाब में उसे बस ‘हां’ कहना है। ये बात अच्छी तरह समझा दी गई थी।
अपराध स्वीकार करने के बाद कजरी को जेल की सलाखों के पीछे कर दिया गया था। इंसपेक्टर ने उसे बताया था, औरत होने का फायदा उसे दिया गया है, वर्ना खून के जुर्म में तो फांसी दी जाती है।
जेल का अनुभव कम भयावह नहीं था। उसकी लाल साड़ी जबरन छीन ली गई थी। बदरंग पुरानी सूती धोती पहिने कजरी जार-जार रो रही थी। जेल में रहने वाली औरतों की हालत देख, कजरी सहम गई थी। बालों की जटें बन चुकी थीं। कपड़ों के नाम पर फटे चिथड़ों में लिपटी औरतें, इन्सान कम जंगली जानवर ज्यादा लगी थीं। कजरी पर सब टूट पड़ी थीं वार्डेन ने घुड़की दे, धमका कर उसे बचाया था। अगर वार्डेन न होती तो कजरी की धोती की धज्जियां उड़ा दी जातीं। पिछली कैदी की वही स्थिति हुई थी। उन निर्वस्त्र महिला कैदियों के बीच, वस्त्रधारी कैदी महिला अजनबी सी लगती। सबकी अलग कहानियां थीं, पर एक बात कॉमन थी - वे सब औरतें थी और अपने औरत होने की सजा भुगत रही थीं।
जेल में परबतिया ने कजरी को बहुत सहारा दिया था। जब पहली बार कजरी को वार्डेन ने अच्छी साड़ी-ब्लाअज दे, समझाया था कि उसे बाहर जाना है, तो वह खुश हो गई थी, वापिस लौटी कजरी परबतिया से लिपट फूट पड़ी थी, पीठ पर पड़े नीले निशान, अत्याचार की कहानी बता रहे थे। परबतिया ने प्यार से समझाया था - अगर उसने वार्डेन का कहा न माना तो ऐसी दरिंदगी का सामना करना पड़ेगा, जिसे कजरी सोच भी नहीं सकती। सच तो ये था कुछ औरतें बाहर जाने को बेचैन रहतीं। कुछ देर मौज-मस्ती से वे तरोताजा दिखतीं। उनकी गंदी बातें सुन कजरी घृणा से भर उठती।
‘तू काहे खून जलाए है। अरे इनका गंदा खून जो न कराए थोड़ा है।’ परबतिया समझाती।
एक साबुन बट्टी, एक बीड़ी या ऐसी ही छोटी चीजों के लिये उनका शोषण होता पर वे उससे अनजान छोटी सी चीज पा लेने पर गीत गातीं।
जेल में रहते कजरी काफी-कुछ समझ चुकी थी। अन्याय के विरोध में अक्सर उसकी जेल-अधिकारियों से कहा-सुनी हो जाती। उसे लगता काश ये साहस उसमें तब आया होता, जब वह मां बनने वाली थीं बाहर भेजे जाने के क्रम में जब उसे पता लगा उसकी कोख में कोई जीव पनप रहा है तो खुशी की उमंग आयी थी, कोई तो बस उसका अपना होगा, पर बात पता लगते ही उसकी कोख उजाड़ दी गई थी। कितना रोई-छटपटाई थी पर किस पर असर हुआ था?
शुरू-शुरू में कजरी टकटकी लगा जेल की सलाखों के बाहर ताकती रहती, जुगनू आएगा, उसे यहां से ले जाएगा। धीमे-धीमें सच्चाई स्वीकार करनी ही पड़ी थी। इस जेल में आने वालियों की कुछ दिनों तक घरवालों ने खोज-खबर ली, बाद में उनका आना-जाना कम होते-होते बंद ही हो गया। उनके मुकदमों की तारीखें डलवाने में किसी का कोई आग्रह नहीं था। जेल-अधिकारियों की दलील भी कहीं सही थी। सात-आठ की जगह पचास-साठ औरतें होगी तो उनकी व्यवस्था कैसे की जाए? उन्हें कहां भेजा जाए?
मुनिया के मुकदमें की तारीख दस साल से नहीं पड़ी है। जमना, कमला, शीला, हरदेई सब यहीं आठ-दस सालों से पड़ी हैं, पर उनके मुकदमों की तारीखें नहीं पड़ी। अब तो उनमें से ज्यादातर औरतें अपने घर परिवार को भूल चुकी थीं। शुरू में सब कुछ कजरी को भुला पाना कितना कठिन लगा था, बार-बार आंखें भर आतीं। जुगनू न सही मां तो आती और दूसरा तो उका कोई था ही नहीं। तभी गांव का किशना दिख गया था। कुछ दिनों के लिये उसे जेल में चाय देने का आर्डर मिला था। किशना ने जो बताया, कजरी के पांव के नीचे से धरती ही खिसक गई। जुगनू ने दूसरी शादी बना ली थी, अब उसका एक छोटा सा ढाबा भी चल रहा था। उसने सबको यही बताया था कि कजरी कहीं सहर में खो गई। कजरी की विधवा मां, बेटी की याद में रो-रो कर प्राण त्याग चुकी थी।
उस दिन कजरी को लगा था, काश उसे दो दिन के लिये छोड़ दिया जाए तो उस आदमी को अपने हाथ से फांसी चढ़ा आए। जिसको फांसी-चढ़ने से बचाने के लिये वह हर पल मरती रही है। मिठबोली कजरी का रूखा स्वर कानों में खटकता था, ऐसा लगता था उसे किसी का मोह नहीं, पर जब गिन्नी टूट कर उसकी गोद में आ गिरी थी तो उसके साथ कजरी भी धार-धार रोई थी। उसकी कहानी में कजरी ने अपनी कहानी पढ़ी थी। वही उमर, वही सलोना चेहरा। एक दिन गुस्से में सौत पर टूट पड़ी थी गिन्नी। गिन्नी को उसके पति से अलग करा देने की कोशिश में उसकी सौत ने क्या-क्या प्रपंच नहीं किये थे ? गिन्नी के पति के साथ खुल्लम-खुल्ला रास रचाती सौत ने गिन्नी को पति के पास फटकने भी नही दिया था। जो भी हो, गिन्नी को कम से कम इतना संतोष तो था कि उसने अन्याय का बदला ले लिया, पर कजरी को तो वो संतोष भी नहीं।
जेल अधिकारी कजरी से अंदर ही अंदर डरते थे। बेखौफ जो जी में आता, सबके सामने वह कह अपनी भड़ास निकाल डालती। पिछली बार जब कुछ समाज-सेविकाएं उनकी दशा देखने आयीं थीं, उस दिन भी उन्हें नई धोती-बिलाउज दिया गया था, कजरी ने साफ कह दिया था, उन्हें दिखाने के लिये ये कपड़े उधार दिये गए हैं, रात में फिर सब नंगी कर दी जाएगीं। उस रात उसकी बेंतों से पिटाई की गई थी पर कजरी जो झेल चुकी थी उसके बाद उसके बदन पर जैसे बेंतों का असर ही नहीं होता था।
सुबह-सुबह वार्डेन कपड़ों के गट्ठर के साथ आ गई थीं। बड़े प्यार से कैदी स्त्रियों को बुलाकर समझाया था-
देखों, आज मंत्री जी तुमसे मिलने आ रहे हैं। तुम सब नहा-धोकर ये कपड़े पहिन कर तैयार रहना।
हमें उनसे क्या कहना है ये भी बता दीजिये दीदी शरबती ने उन्हें खुश करना चाहा था।
हां, उनसे कहना। तुम यहां खूब खुश हो। तुम्हें अच्छा खाना-कपड़ा मिलता है। बीमार होने पर इलाज होता है - दवा मिलती है।
और बिना दवा मर जाने पर हीरा की लाश की तरह घासलेट डालकर जला दिया जाता है, ठीक है न दीदी? कजरी का कड़वा स्वर सुन वार्डेन तमतमा आई थी।
देख कजरिया, आज अपना मुंह बंद रखेगी वर्ना याद रख पिछली बार की तरह तेरा बुरा हाल किया जाएगा। तूने बहिन जी लोगों से जो उल्टी सीधी कह दी थी, उसी की वजह से मंत्री जी को आना पड़ रहा है। अगर आज कुछ गड़बड़ की तो भगवान ही जाने तेरा क्या हाल होगा ?
वार्डेन की घुड़की पर कजरी हंस दी थी। शंकित वार्डेन चली गई थी।
सारी औरतें नल पर पहुंच गई थीं। नहा लेने की जल्दी में वे आपस में लड़ाई-झगड़ा, गाली-गालौज कर रही थीं। थोड़ी सी देर की खुशी भी उन्हें पुराने अच्छे दिन याद करा देती थी, बस कुछ देर को नई धोती-कपड़े पहिन, वे बीत गए पलों को जी लेती थीं। नए कपड़े पहिन अपने चेहरे को शीशे तके निहारने को वे बेताब थीं। न जाने कहां से टूटे शीशे का एक टुकड़ा बतसिया उठा लाई थी, अपने को निहारने की जल्दी में शीशे के टुकड़े की छीना झपटी में न जाने कितनों के हाथ घायल हो गए थे। कजरी अपनी जगह से नहीं उठी थी। ऊपर पूर्णतया निर्वस्त्र कजरी, नीचे धोती का छोटा सा फटा टुकड़ा लपेटे थी।
मंत्री जी की जय-जयकार करते, मंत्री जी के साथ जेल के सारे अधिकारी, पुलिस वाले महिला कैदियों से मिलने आ गए थे। सारी कैदी स्त्रियों ने बड़े अदब से मंत्री जी को प्रणाम किया । मंत्री जी ने पूछा-
आप लोगों को यहां तकलीफ तो नहीं है ?
नहीं, हम बहुत खुश हैं, सरकार। मंतरी जी की जय। शरबती ने हाथ जोड़ जवाब दिया था।
हां-हां, हमें कोई तकलीफ नहीं है, मंतरी जी। ये देखो हमारे कपड़े कितने अच्छे हैं। अच्छे हैं न मंतरी जी ? कमर में लिपटा चिथड़ा हवा में उड़ाती निर्वस्त्र कजरी हुंकार रही थी।
"अरी ओ करमजलियों, मंतरी जी को काहे नहीं बताती, तू लोग उधार का कपड़ा पहिने हो। मंतरी जी के जाते ही तू सब नंगी कर दी जाब-।"
मंत्री जी ने आंखे नीची कर ली थीं। दो सिपाहियों ने लपक कर कजरी को अपने कब्जे में कर लिया, पर वह चीखती जा रही थी-
मंतरी जी हम सबको किसी चकले में भिजवा दें। वहां भरपेट खाना, तन ढापने को कपड़ा तो मिली- मंतरी जी हम सब बिना दवा मर जइहें। हमका कपड़ा-दवा चाही मंतरी जी। सरकार से कहें, हिंआ जेल में औरतन को तन ढापे का कपड़ा नहीं है। हम बिन दवा-दारू लावारिस मौत नहीं चाहीं - मंतरी-जी-ई-
सिपाही ने कजरी पर डंडे वरसाने शुरू कर दिये थे, पर वह गुहार करती जा रही थी।
ये सब क्या है ? मंत्री जी ने जेलर की ओर देख पूछा था।
सर ! ये पागल औरत है। इसके पहले भी दो-चार बार ऐसे दौरे पड़ चुके हैं। जब यहां सोशल-सर्विस संस्था की लेडीज आई थीं, तब भी इसने ऐसा ही बिहेव किया था। शायद बाहर वालों को देख इसे दौरे पड़ जाते है, वर्ना ये नार्मल रहती है, सर। जेलर ने सफाई दी थी।
जी हां, जेलर साहब बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, वो देखिये इसके कपड़े वहां पड़े हैं, आप ही सोचें सर, भला कोई सामान्य औरत अपने पूरे कपड़े उतार कर सबके सामने आ सकती है। क्यों परबतिया, पहले भी इसे ऐसे दौरे पड़ते रहे हैं न ? वार्डेन ने इशारे से परबतिया को धमकाया था।
जी सरकार, वार्डेन दीदी ठीक कहीं हैं। हामी भर परबतिया ने सिर झुका लिया था।
ठीक है। ऐसा कीजिये, इस औरत को फौरन पागल खाने में भर्ती करा दीजिए। पूरी तरह ठीक होने तक इसे वहीं रखा जाए।
जी सर। जेलर ने सिर झुका आदेश स्वीकार किया था।
मंत्री जी के साथ पूरा काफिला वापस लौट चला था। पिच्च से जमीन पर थूक, कजरी ने मानो अपना बदला ले लिया था।