प्रतिष्ठा केवल प्रेमदेव की है / प्रताप नारायण मिश्र
नहीं तो जो दो हाथ दो पाँव एक मुँह एक नाक इत्यादि आपके हैं वही हमारे भी हैं। जैसे हाड़ मांस लोहु चमड़े आदि का बना हुआ आपका शरीर है वैसे ही हमारा भी है। खाने पीने सोने जागने हँसने रोने जीने मरने आदि में भी आप और हम बराबर ही हैं। फिर आपके कौन सा सुर्खाब का पर लगा हुआ है कि हम आपको मन से प्रसन्न रखना चाहते हैं, तन से सेव्य बनाने पर उद्यत रहते हैं तथा वचन से स्वामी जी गुरू जी महात्मा जी राजा साहब बाबू साहब मुंशी साहब हुजूर खुदाबंद बंदापरवर प्यारे प्राणाधार, जीवितेश्वर इत्यादि कहा करते हैं? इसके उत्तर में यदि आप कहिए कि हमारे पास बहुत सा धन है, बहुत सी विद्या है, बड़ी भारी बुद्धि है, बड़ा भारी बल है, हम बड़े लिक्खवाड़ हैं, बड़े मनोहर हैं फिर क्यों न हमारी खुशामद करोगे?
इसका जवाब हमारे पास भी मौजूद है कि आप जो कुछ हैं अपने लिए हैं। हमें क्या? आपकी विद्या से म विद्वान न हो जाएँगे, आपके धन बलादि से धनी बली अत्यादि न बन जाएँगे। फिर हम क्यों चुटकी बजाते हैं? यह तो कभी संभव ही नहीं है कि आप ही ईश्वर के यहाँ से सब बातों का ठेका ले आए हों अब कोई किसी अंश में आपकी समता न कर सकता हो। संसार में एक से एक इक्कीस वर्तमान हैं।
हमारे देखे सुने हुए कई ऐसे हैं जो आपसे हीं चढ़े बढ़े प्रत्यक्ष देख पड़ते हैं, पर हम उनका नाम भी आपके सामने नहीं लेते बरंच आपका उनका सामना पड़ जाए तो आपकी तरफ हो के उनकी लेव देव कर डालने में कोई कसर उठा रखने को पाप समझे़, चाहे वह हमसे कैसी ही जाहिरदारी का बर्ताव क्यों न करें और आप चाहें हमें सीधी आँखों देखना भी अपनी शान बईद समझते हों पर हम आपका मनसा वाचा कर्मणा आदर ही करते हैं और ईश्वर कोई विघ्न न डाले तो इरादा यही रखते हैं कि 'मरते रहेंगे तुम ही पे जीते हैं जब तलक'। यह क्यों? केवल इसी कारण कि हम आपके रूप गुण स्वभाव आदि में से किसी वा सभी बात से प्रेम रखते हैं। अथवा आप हमारे प्रेम का गुण न जानने के हेतु से हमारे आचरणादि का उचित सम्मान न कीजिए तो भी आपके चार काम कर देने से हमें थोड़ा बहुत रुपया मिलता रहता है। आपके साथ रहने से हमारे सताने वाले दबे रहते हैं। आपकी बात सुनने से हमें बहुत सी मतलब की बातें मालूम होती हैं। आपकी छाया से हमें सुभीता मिलता है, आपके दर्शन से हमारी आँखें ठंडी होती हैं। इसीसे हम 'बिन आदर पाए हू बैठि ढिगै अपनी रुख दै रुख लीजत है।' यह भी आपके साथ संबंध रखने वाला प्रेम न सही तथापि हमारा आत्मसंबंधी प्रेम है! इन दोनों बातों पर सुक्ष्म विचार कर सकने पर क्या आप न कह देंगे कि प्रतिष्ठा केवल प्रेमदेव की है।
यही नहीं कि हमीं आप आत्म्गत अथवा भवदीय प्रेम के कारण एक दूसरे की प्रतिष्ठा करते हों। संसार में विचार कर देखिए तो सभी सब छोटे बड़े बराबर वालों का प्यार सत्कार केवल प्रेम के कारण करते हैं। हम अपने पुत्र कलत्र शिष्य सेवक बरंच कुत्ते और जूते तक को बिगाड़ना नहीं चाहते। तन मन धन से इन्हें सुधारने में लगे होते हैं। यह बिगड़ें तो हमारी इज्जत बिगाड़ दें। माता पितादि पूज्य व्यक्ति कुंठित हों तो लोक-परलोक के काम का न रक्खें। भाई भगिनी इष्ट मित्रादि प्रतिकूल हो जाएँ तो हमें जीवनयात्रा में कंटक ही कंटक दृष्टि पड़ने लगें। इसीसे हमें सबका आदर मान करना पड़ता है, पर यह सब वास्तव में किसका है?
इसके उत्तर में विचारशक्ति कहती है 'प्रेम देवस्य केवलम्'। जिनसे हमें प्रेम है उन्हीं को हम डरते हैं उन्हीं की प्रतिष्ठा करते हैं और इसीसे हमारा तथा उनका निर्वाह होता है, नहीं तो किसी के बिना किसी का कोई काम अटक नहीं रहता फिर क्यों कोई किसी को कुछ पूछे? सबके सभी 'ना हम काहू के कोऊ न हमारा' वाला सिद्धांत ले बैठें और दुनिया के सारे खेल बिगड़ बिगुड़ के बराबर हो जाए! पर वे प्रेमदेव ही हैं जो सबके मध्य अपना प्रकाश करके सभी का काम चलाए जाते हैं और इसीमें सबकी प्रतिष्ठा भी है। अकस्मात हमें यह कहने से कौन रोक सकता है कि प्रतिष्ठा केवल प्रेमदेव की!
एक बाद दो भाइयों में झगड़ा हुआ तो एक ने कहा 'हमें अलग कर दो हमारा तुम्हारे साथ रहने में निवाह नहीं है।' इस पर दूसरे बुद्धिमान् बंधु ने उत्तर दिया कि 'अलग होने में लगता ही क्या है? न तुम्हारे कपड़े मेरे अंग में ठीक होते हैं न मेरे तुम्हारे देह को उपयुक्त होते हैं। न मेरे खाने पीने से तुम्हारी भूख प्यास बुझती है, न तुम्हारे भोजन करने से मेरा पेट भर जाता है। तुम्हारी स्त्री तुम्हारा पुत्र तुम्हारे कार्योंपयोगी पदार्थ मेरे नहीं कहलाते, मेरे हैं वह तुम्हारे काम नहीं आते। केवल आपस का स्नेहभाव था जिसके कारण मैं तुम्हारी सहायता करता था और एक घर में दो गृहस्थियों के झंझट झेलता था। वह भाईपन अब नहीं रहा तो फिर अलग तो परमेश्वर ही ने किया है।
'जैसे सब वस्तु अलग हैं वैसे ही दो तीन पैसे का तवा ले आवो रोटी भी अलग पका करे बनाने वाले की आधी मिहनत बचेगी। एक को दूसरे के दु:ख में हाय-हाय करके दौड़ना न पड़ेगा बस छुट्टी हुई। रही दूसरों की दृष्टि में हमारी तुम्हारी भलमनसी, वह नित्य की दाँताकिलकिल के मारे जैसे अब नहीं है वैसे ही तब न रहेगी, फिर उसका झींखना ही क्या?' पाठक् महाशय! यह कथा हमारी गढ़ी हुई नहीं है आँखों देखी हुई है और आशा है कि आपने भी ऐसे अवसर देखे न होंगे तो सुने होंगे, सुने भी न हों तो समझ सकते हैं कि ऐसा प्रेम के अभाव में असंभव नहीं होता। फिर क्या ऐसी-ऐसी बातें देख सुन सोच समझकर भी कोई समझदार न कह देगा कि प्रतिष्ठा केवल प्रेमदेव की है।
यदि सांसारिक उदाहरणों से जी न भरता हो तो कृपा करके बतलाइए तो आपके परमार्थ का मूल धर्मग्रंथ कागज स्याही और समझ में आ जाने वाली बातों के सिवा क्या है जो एक दियासलाई से जल के राख और चुल्लू भर पानी से गल के आटे की सी लोई हो सकते हैं। देव मंदिर, देव प्रतिमा क्या हैं? केवल मिट्टी पत्थर चूना आदि का विकार, जो हमारे बचाए बिना बच नहीं सकते और अपने गाल पर बैठी हुई मक्खी उड़ाने की शक्ति नहीं रखते।
ऋषि मुनि पीर पैगंबर इत्यादि क्या हैं? सहस्त्रों वर्ष के मरे हुए मुरदे, जिनकी अब ढूँढ़ने से हड्डियाँ भी नहीं मिल सकतीं। इन प्रश्नों से आप हमें दयानंदी समझते हों तो हम पूछेंगे कि परब्रह्म परमेश्वर ही क्या है, केवल एक शब्द मात्र ही, जिसके लक्षण ही में अपनी-अपनी डफली अपने-अपने राग का लेखा है, अस्तित्व का तो सपने में भी सिद्ध होना लोहे के चने हैं। फिर हम इन सबको क्यों अपने लोक-परलोक का आधार समझते हैं? क्यों हम इनके निंदकों को नास्तिक समझकर शास्त्रार्थ बरंच शास्त्रास्त्र तक से मर्दन करने पर उतारू होते हैं? क्या इसका उत्तर एकमात्र यही नहीं है कि हमें अपने धर्म कर्म देव पित्रादि से प्रेम है इसीसे प्रत्यक्ष प्रमाण न पाने पर भी तन पर कष्ट धन की हानि उठाने पर भी सच्चे मन से इनकी ऐज्जत करते हैं। फिर हमारे इस कथन का आप क्योंकर विरोध कर सकेंगे कि प्रतिष्ठा केवल प्रेमदेव की है।
आप नास्तिक हों तो हमें आपसे शास्त्रार्थ करने को रोग नहीं है, पर केवल इतना पूछेंगे कि दुनिया में किसी को कुछ मानते हो या नहीं? यदि कहिएगा-हाँ तो फिर हमारा प्रश्न यही होगा कि-हाँ, तो क्यों? - अथवा हठ के मारे कह दीजिए - नहीं-तो हम कहेंगे यह हो नीं सकता कि आप अपने जीवन को भी न मानते हों, उसको सुखित सुरक्षित बनाए रखना अच्छा न जानते हों।
इन सब बकवादों के पीछे अंत में हार मान के यही मानना पड़ेगा कि जिससे हम प्रेम रखते हैं उसकी प्रतिष्ठा करते हैं। अत: अखंडनीय सिद्धांत यही है, परमोत्कृष्ट श्रेणी वाली बुद्धि का निचोड़ यही है, पाताल से ले के सातवें आकाश तक कोई दौड़ जाए तो जड़चेतनमई सृष्टि बरंच स्वयं सृष्टिकर्ता को अपनी-अपनी बोली में यही मंत्र पढ़ते हुए सुनेगा कि प्रतिष्ठा केवल प्रेमदेव की है। इससे जिसे जितनी अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त करके अपना अपने लोगों का जीवन सफल करना हो उसे चाहिए कि उतनी ही अधिक प्रेमदेव की आराधना करे क्योंकि चींटी से लेकर ब्रह्म तक उन्हीं के बनाए प्रतिष्ठित बनते हैं नहीं तो किसी में कुछ भी तत्व नहीं है, किसी का कुछ भी सत्व नहीं है। तंत की बात यही है कि प्रतिष्ठा केवल प्रेमदेव की है।