प्रतीक्षा / राजेन्द्र यादव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत बार एक ही अवस्था से गुजर चुकने पर लोग उसके अभ्यस्त हो जाते हैं। लेकिन गीता के साथ ऐसा नहीं है, और प्रतीक्षा करना आज भी उसके लिए जिंदगी की सबसे विकट यातना है। प्रतीक्षा को लेकर वह दो भागों में बंट गई है-एक भाग निश्चिंत और निरुद्विग्न भाव से प्रतीक्षा करता है और दूसरा नस-नस को तड़का देने वाले तनाव में हर आहट पर चौंक-चौंक उठता है। इस बीच उससे कुछ नहीं होता और वह कभी घर की सफाई करने लगती है और कभी किताबें-कागज इस तरह फैलाकर बैठ जाती है कि उन सबको समेटते-समेटते ही वह समय बीत जाए। जब सारे तरीके नाकाम हो जाते हैं तो वह बिस्तर पर जाकर चित्त लेट जाती है और तकिया मुंह पर रखकर बेहोश-सी पड़ी रहती है, कान नीचे लगे रहते हैं कि अब दरवाजे पर खड़-खड़ होगी।

इतना समझाकर कह दिया था नंदा से कि ‘‘देखो, मैं तुम्हारे लिए बैठी रहूंगी, बाहर से कुछ खाकर मत आना और मुझे ज्यादा देर तक भूखों मत मारना। सुना, हर्ष, देर न...’’ वह ऊपर दरवाजे पर खड़ी थी और वे सीढ़ी के बीच मोड़ पर थे। हर्ष ने नंदा की खुली कमर पर हाथ रखकर अगली सीढ़ी उतरते हुए ऊपर देखा, ‘‘अरे दीदी, तुम फिकर मत करो! मैं इसे ज्यादा देर ही नहीं लगाने दूंगा।...कोई बात है भला कि तुम भूखी बैठी रहो और यह वहां शो-केशों में साड़ियां देखती रहे? अच्छा, टा-टा!’’ उसने सिगरेट वाला हाथ सिर के ऊपर हिलाया।

हर्ष की इस शैतानी पर नंदा मुस्कराई, दो उंगलियां होंठों से लगाईं और एक फ्लाइंग किस गीता की ओर उछालकर सीढ़ियां उतर गई।

‘‘दुष्ट!’’ गीता के मुंह से निकला। यह हर्ष बातें बनाने में तो इतना तेज है कि बस! वह देर तक उस जगह को ही मुग्ध भाव से देखती रही और मुस्कराती रही। सीढ़ी पर से सैंडिलों और जूतों की मिली-जुली आवाज नीचे फर्श पर पहुंच गई; दरवाजे का पेंच खुला और खटके से बंद हो गया। खुशबू का बादल वहां मंडराता रहा।

पिछले तीन-चार दिनों से रोज यही हो रहा है-दरवाजा खटके से बंद होता है तो दोनों की बातों और पांवों की आवाज को फीते की तरह काटकर नेपथ्य में फेंक देता है। पतली-सी गली में पदचाप दूर होती जाती है, तब एकदम सड़क का शोरगुल, ट्रामों की चिचियाहट और टन-टन और बसों की घों-घों तथा कंडक्टरों की घंटियां सुनाई देने लगती हैं; और अचानक चौंककर गीता पाती है कि वह मुंह पोंछना छोड़कर तौलिया हाथ में लिए ही दरवाजे पर खड़ी है। और तभी से उसकी प्रतीक्षा शुरू हो जाती है।

अब तो ऐसा लगता है, जैसे वर्षों से यही क्रम हो। कितनी जल्दी यह हर्ष उसके सामने खुल गया है, वरना उसे याद है, पहली बार उसकी हिम्मत गीता के सामने सिगरेट पीने की नहीं पड़ी थी। और अब? अब तो वह गीता के सामने ही नंदा को पकड़कर चूम लेता है। उसकी दोनों चोटियां पकड़कर अपनी और मोड़ता है और आलिंगन में बांध लेता है; और ताजा-ताजा गुसलखाने से नहाकर निकली, अलगनी पर कपड़े फैलाती नंदा यों गीता की ओर पलकें उठाकर मुस्कराती है, जैसे किसी रहस्य की ओर संकेत कर रही हो, या शायद चुनौती दे रही हो।...अब तो नंदा जितनी देर जागती है, बस गुनगुनाती रहती है, खुद नहीं गाती तो उसके कमरे से रेडियो सीलोन के गाने आते रहते हैं, और उनके साथ वह अक्सर स्वर मिलाती रहती है-जाने कितने गाने याद हैं इस कमबख्त को, शायद कलकत्ता की सारी हिंदी अंग्रेजी फिल्म देख डाली हैं इन दिनों!

जब से यह हर्ष आया है, नंदा तो जैसे बौरा उठी है। वह इस धरती पर नहीं, समय और काल से ऊपर कहीं हवा में चलती है। अब उसे ध्यान कहां कि कोई गीता भी है। जब वह चला जाएगा तो वही-‘गीता दी, गीता दी’ करती आगे-पीछे घूमेगी। कितनी जल्दी रंग बदलती है यह लड़की! एक मिनट नहीं लगता! कब जाएगा यह हर्ष? जाने कितने दिनों की छुट्टियां लेकर आया है। अभी तो दो-चार दिन जाने का कोई सिलसिला नजर नहीं आता। हर्ष को होटल से यहां लाकर तो उसने अपनी ही तकलीफ बढ़ा ली। ये लोग सामने रहते हैं तो ऊपर से बहुत खुश रहती है, इनकी हरकतों, मजाकों पर हंसती है और खुद भी कभी-कभी छेड़ देती है, लेकिन भीतर कहीं एक अवसाद गाढ़ा चला जाता है। ईर्ष्या नहीं होती, जैसी मिस रेमंड के समय हुई थी। मिस रेमंड के समय तो उसके भीतर कोई शेरनी की तरह खूंखार हो उठा था। हर्ष और नंदा को साथ देखकर उसे अच्छा भी लगता है, और कहीं असमर्थता का हीनता-बोध भी कोंचता रहता है...

कितने बज गए? गीता ने इस तरह मेज पर रखी घड़ी को चौंककर देखा, जैसे इतनी देर समय की बात को भूल गई थी, हालांकि कलाई से खोलकर घड़ी उसने इसीलिए सामने रख दी थी कि समय का ज्ञान होता रहे। पौने दस। मेज पर रखे खाने को देखकर उसने सोचा, सारा खाना ठंडा हो गया। कितनी देर तक चलता है सिनेमा कि अभी तक इन लोगों का पता ही नहीं है? कहीं लेक-वेक पर भटक रहे होंगे कमर में हाथ डाले। इन लोगों के जाते ही गीता खाना बनाने में जुट गई थी और अभी आधे घंटे पहले ही उसने सारा सामान मेज पर लगाया था। खोका की मां को भी इसीलिए अभी तक रोके थी कि वे आ जाएं तो बर्तन साफ कर जाए, वरना फिर कल आठ बजे तक भिनकते रहेंगे। आखिर कब तक रुकती वह? खोका की मां ने भी पूछा था, ‘‘यह बाबू कब जाएगा? बहुत सिगरेट पीता है, जिधर देखो, उधर राख ही बिखरी रहती है। कौन है, यह इसका?’’ बिना दिलचस्पी दिखाए उसने बात समाप्त कर दी। ‘‘होता कौन, आदमी है उसका। मनाने आया है। ऊपर रसोई के बर्तन और मसाले की सिल तो कम-से-कम धो जाओ...बर्तन सुबह हो जाएंगे।’’

डाइनिंग-टेबल पर ही किताब खोलकर गीता अपने को उलझाए रखने की। कोशिश करती रही। ऊपर लटके बल्ब की रोशनी में चीनी के बर्तन और सफेद प्लास्टिक का कवर आंखों को चौंधिया दे रहे थे। अभी पोंछा गया फर्श चमचमा रहा था; और अंदर के कमरे में शृंगार-मेज के सामने लगा आधा बिस्तरा खुले दरवाजे से दिखाई देता था और आधा शृंगार-मेज के शीशे में। इसी शीशे की गवाही में, इसी बिस्तरे पर उसे सारी रात जागना था। उसे खुद अपने पर बेहद आश्चर्य होता है कि कैसे उसने इस सारी स्थिति को असहाय भाव से स्वीकार कर लिया है; और दोनों के इस सारे उच्छृंखल व्यवहार को सह ही नहीं लेती, बल्कि इस सारी अपमानजनक स्थिति को गले उतारे बैठी है? भयानक बात तो यह है कि उसे कोई शिकायत भी नहीं है। बाद में भले ही क्रोध आता रहे, लेकिन सामने रहते हैं तो ऐसा लगता है, जैसे दोनों छोटे-छोटे बच्चे हों और उनकी देखभाल, खाने-पीने की चिंता उसे ही करनी हो।

उसे पता है, जब दोनों आएंगे तो किस तरह एक-दूसरे को देरी के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए प्रवेश करेंगे, टैक्सी न मिलने या बसों की भीड़ का बहाना बनाएंगे-और कुछ नहीं तो यही कह देंगे कि बहुत बारिश हो रही थी! यह कलकत्ता इतना बड़ा शहर है कि इसके एक हिस्से में बारिश होती है और दूसरे में उसकी खबर भी नहीं होती। फिर किधर मेज पर हर्ष बैठेगा। जब वे मिचराकर खाना खाएंगे तो गीता मजाक करेगी, ‘‘आज फिर खा आए हो न?’’ और दोनों अपराधियों की तरह एक-दूसरे को देखकर मुस्करा उठेंगे। अपना खाना भूलकर गीता मुग्ध भाव से उन्हें देखती रहेगी। इन दोनों को एक साथ देखकर, या कल्पना करके उसका मन अजब वात्सल्य से भीग उठता है। दोनों उसके लिए प्रसन्न भाव का एक ही प्रतीक बन जाते हैं और उस क्षण, मन का स्थायी पाप-बोध अपने-आप कहीं खो जाता है। तब उसके मन में कहीं भी तो नहीं आता कि यह वही नंदा है, जिसके लिए उसने अपने सारे रिश्तेदारों से दुश्मनी मोल ली है, इधर-उधर बदनामी उठाई है, और जिसे लेकर हमेशा उसे लगता है कि वह एक निरीह लड़की की जिंदगी की कीमत पर सुख के कुछ झूठे क्षण बटोरने की कोशिश कर रही है।

मिसेज कुंती मेहरा ने पहली बार जब उसका जिक्र किया था, ‘‘दीदी, एक बेचारी अकेली लड़की है, यहां कहीं किसी के यहां पड़ी है। बड़ी तकलीफ है वहां। एक फर्म में टाइपिस्ट है। आप तो आजकल अकेली ही हैं न, एक कमरे में रह आएगी। आपको भी साथ हो जाएगा।...नहीं-नहीं, कतई डिस्टर्ब नहीं करेगी। वह तो खुद इतनी सीधी और दुखी है कि किसी से ज्यादा बोलती ही नहीं!’’ इस सिफारिश के बाद जब गीता ने नंदा को देखा था, तो सचमुच वह बड़ी असहाय और सीधी लगी थी। नाक-नक्श अच्छे थे, और रंग साफ था। लेकिन इसके सारे व्यवहार में एक ऐसा रूखापन और करख्तगी थी, जो चरित्र का गुण कम और छोटी जगह रहने और आत्मकेंद्रित होने का परिणाम ज्यादा था। साड़ी का पल्ला कमर से नीचे नहीं जाता था! और कस-कसकर बाल बांधती थी और समझती थी कि यह स्मार्टनेस है।...कैसी कठिनाई और तरकीबों से गीता ने उसकी रुचियों में परिवर्तन किया था! खुद चाहे सफेद और सादे कपड़े ही पहने; लेकिन चाहती थी कि नंदा जब उसके साथ चले तो लोगों की निगाहें एक बार तो हटें ही नहीं। गीता के स्वभाव में सबसे पहली बार अंतर्विरोध तभी आया-अपने अनचाहे मन में एक चोर आ बैठा और उसकी सादगी की सनक पहली बार नंदा के कारण टूटी और आज वही नंदा है, स्लीवलेस काला ब्लाउज, मोरपंखी बंगलौरी साड़ी, चप्पलों को छूता हुआ बांह पर फैला पल्ला, साड़ी के ऊपर झूलती मोटे-मोटे सफेद दानोंवाले मोतियों की माला और रोमन अंक आठ के आकार का ढीला जूड़ा...क्या फिगर और क्या ग्रेस! फिर आजकल तो हर्ष से सटकर चलते हुए, सपनों में उमंगती नंदा के पांव हवा के पांवड़ों पर मचलते रहते हैं। हल्की लिपस्टिकवाले होंठों से छुलाकर जब उसने उंगलियां गीता की ओर बढ़ाई थीं तो गीता के मन में कुछ ऐंठने लगा था, और एक क्षण तो तब उसे हर्ष की उपस्थिति असह्य लगी थी।


खड़ड़-खड़ड़-खड़ड़...नीचे दरवाजे पर खड़खड़ाहट हुई तो झटके से गीता सीधी हो गई-आ गए शायद! अरे, सामने रखी किताब का, जाने कितनी देर से, वही पन्ना खुला है। किताब बंद की और मेज पकड़े कुर्सी से उठी, प्रतीक्षा करने लगी कि अब दरवाजे का लेच खुलेगा, या अगर चाबी नंदा ऊपर ही भूल गई होगी तो घंटी बजाएगी। मन में आया कि नीचे जाकर खुद ही दरवाजा खोल दे। उठी, सीढ़ी के पास आते-आते फिर खड़खड़ाहट हुई। अरे, यह तो नीचे वाली गाय है। हां, उसी ने सींग हिलाए होंगे। जाने किसकी गाय है, सारे दिन बस यहीं डटी रहती है और दरवाजे के सामने ही गीला-गंदा किया करती है। हर बार आते-जाते उसे भगाया जाता है, लेकिन फिर वहीं। एक तो यों ही बरसात के कारण संकरी गली में फिसलन रहती है, फिर यह और। नंदा को इससे जाने क्यों बहुत डर लगता है। जब भी वह गीता के साथ आती है, वह हमेशा गीता को ही गाय के सामने करके आड़ में चलती है, साड़ी बचाती, पांव जमाती, ‘दीदी, किसी से कहकर इसे हटवाओ न यहां से! जब पास से जाओ तभी सींग हिलाती है...’ नंदा शिकायत करती है।

उसके बढ़ते पांव वहीं ठिठक गए। और हां, अगर वे लोग ही होते तो बोस बाबू का कुत्ता तो भूंकता। कोई आए या जाए, एक बार तो इस पिद्दीराम को जरूर ही भूंकना चाहिए। नहीं, वे लोग नहीं है। रात में तो टैक्सी के मीटर की घंटी भी सड़क से सुनाई दे जाती है। अब गीता की समझ में ही न आया कि नीचे दरवाजे पर चली जाए और किवाड़ खोलकर चौखटे में खड़ी-खड़ी वहीं इंतजार करे या फिर किताब पढ़ने की कोशिश करे। लेकिन वह अनिश्चित कदमों से नंदा के कमरे की ओर चली आई। दरवाजा आधा भिड़ा था और खुला हिस्सा हैंडलूम के चार खानोंवाले भारी परदे से ढंका था। कहीं ऐसा तो नहीं है कि दोनों आज आएं ही नहीं और उसे पहले की तरह परेशानी उठानी पड़े दुनिया-भर की। अपनी इस आशंका पर अचानक ही गीता को ऐसा विश्वास हो गया कि वह परदा हटाकर कमरे में आ गई। स्विच दबाया तो कमरा रोशनी से भर उठा-नहीं, सभी कुछ ज्यों का त्यों है, उसी तरह बिखरा और उसी तरह अव्यवस्थित। उसे अपने पर हँसी भी आई, अगर वे लोग कुछ ले भी जाते तो उसके सामने से ही तो ले जाते। मगर नंदा पहली ही बार क्या ले गई थी? यों ही चली गई। हां, उसने उन्हें सीढ़ी पर जब विदा किया था, तभी कुछ लग सकता था। इस नंदा को वह डेढ़-दो साल में भी सुव्यवस्थित ढंग से रहना नहीं सिखा पाई है। उसने इधर-उधर देखा, तौलिया के स्टैंड पर वही साड़ी, ब्लाउज और पेटीकोटों का ढेर है, नीचे उल्टी-सीधी चप्पलों की लाइन है, हर्ष के सूटकेस पर गीला तौलिया और दो पर्स पड़े हैं, एक नई साड़ी आधी खुली रेडियो पर झूल रही है, चूड़ियों, टॉप्स और प्लास्टिक की मालाओं से भरी अटैची, बिस्तर पर मुंह बाए पड़ी है। आजकल नंदा गीता के कमरे की ड्रेसिंग-टेबल इस्तेमाल नहीं करती। दीवार से लटके लंबे शीशे के नीचे अपनी दो संदूकें रख ली हैं और एक पर सारा शृंगार का सामान बिखरा है, लाल चोंच निकाले लिपस्टिक पड़ी है और कंघे में बालों का गुच्छा फंसा है...अगर हर्ष से शादी हो गई तो कैसे यह घर को संभाल सकेगी? नौकरानी को अपने कमरे में झांकने नहीं देती। वह तो पांचवें-छठे दिन गीता खुद ही जिद करके संभाल जाती है उसका कमरा।

सचमुच क्या हर्ष से शादी हो जाएगी नंदा की? दीवारों की ओर असहाय भाव से देखती गीता उस स्थिति की कल्पना करने लगी, जब तीन कमरों के इस इतने बड़े फ्लैट में नंदा नहीं होगी। आज तो जहां-तहां कलैंडरों की खूंटियों पर हैंगरों में लटके हर्ष के बुश्शर्ट और कमीज झूल रहे हैं। जंगले की चटखनी पर एक हैंगर फंसाया हुआ है, उस पर हर्ष के मोजे और नंदा की ब्रेसरी हैं। नंदा कैसी रच-रचकर घंटों गुसलखाने में हर्ष के कपड़े धोती है और फिर बेदाग इस्तिरी करती है! कभी हर्ष के लिए चाय ला रही है, कभी नाश्ता, कभी उसका शेविंग-सामान धोने खुद उठाए आ रही है, कभी बटन लगाने सुई लिए जा रही है। इसका बस चले, तो हर्ष के लिए नहाने का पानी भी यहीं ले आया करे। सबकी आंखों से बचाकर वह ‘अपने हर्ष’ को अपने तक ही रखना चाहती है। वह तो गीता इतनी सब छूट देने का वचन देकर न लाई होती तो नंदा आसानी से होटल छोड़कर थोड़े ही आती! इसी का नतीजा है कि नंदा शेर है। सारे-सारे दिन उसकी सूरत देखने के लिए गीता तरसती रहती है। आजकल आठ से पहले तो आंख ही नहीं खुलती और दिन यहां हो जाता है पांच बजे। फिर जैसे-तैसे नहा-धोकर ऑफिस भाग जाती है। दोपहर का खाना तो हर्ष के साथ तय ही है-दोनों वहीं कहीं बाहर खा लेते हैं, सांझ को फिर या तो वहीं से कहीं कोई प्रोग्राम बन जाता है या अगर यहां आ गए तो थोड़ी देर चाय पर गीता की मुलाकात हो जाती है। वस्तुतः नंदा इस समय कपड़े इत्यादि बदलने के लिए ही आती है। इसके बाद दोनों फिर निकल जाते हैं; और गीता के पास छूट जाता है, पाडडर और सेंट की खुशबू का बादल, एक छोटा-सा वाक्य-‘‘अच्छा दीदी, टा-टा!’’ सीढ़ियों पर उतरना, लेच का खटका, गली की पदचाप और फिर लोगों का शोर, मोटरों के हॉर्न और एक बेचैन प्रतीक्षा...

हर्ष ने तो एकाध बार कहा भी है, लेकिन नंदा ने कभी भी नहीं कहा कि चलो, दीदी, आज तुम भी हमारे साथ चली चलो सिनेमा या घूमने। हां, होटलवाली घटना से पहले जरूर ले गई थी वह खाना खिलाने स्काईरूम में, सो भी हर्ष से मिलाना था; इसलिए। उसके लिए भी खुद गीता ने ही कहा था, ‘‘इतने गीत गाती है हर्ष के, अपने हर्ष से मिलाएगी नहीं, नंदन?’’ अब जब से हर्ष होटल से यहां आ गया है, तब से तो जैसे उसके अस्तित्व को ही भूल गई है। गीता अपने को टटोलने की कोशिश करती है कि इसमें क्या गलती उसी की है? दोनों चाहे जैसे रहें, लेकिन रहें यहीं-यह सोचकर उसने जो छूट दे दी थी, वह क्या कुछ गलत हो गया? फिर अपने को समझाती है कि अगर इतनी छूट नहीं देती तो निश्चय ही नंदा फिर होटल में चली जाती। इन दिनों होश में कहां है वह अपने। पागल हो रही है, पागल! जाने कैसे दफ्तर में काम करती होगी! खैर, अब दो-चार दिनों की ही तो बात है। आखिर हर्ष जाएगा तो सही अपने काम पर, यहीं तो बैठा नहीं रहेगा। समझ लूंगी मुनिया को!

इस सारी झुंझलाहट-बेचैनी के खून के घूंट के बावजूद, हर्ष और नंदा का उन्मुक्त व्यवहार और तन्मय विसर्जन देखकर कहीं बहुत गहरे उसे एक तृप्ति जैसी क्यों होती है, यह गीता की समझ में न पहले दिन आया था, न आज आता है...


जिस रात गीता दोनों को टैक्सी पर होटल से ले आई, उसकी अगली सुबह की ही तो बात है। चाय का पानी खौल-खौलकर भाप बनता और सुबह आठ बजे तक दोनों में कोई नहीं उठा। वह बेचैन-सी इधर-से-उधर घूमती एक-एक काम करती रही, मनाती रही कि खोका की मां न आ जाए। सारी रात उसे नींद नहीं आई थी, नंदा के बिना आती ही नहीं है। नंदा के कमरे का दरवाजा बंद नहीं था, यों ही आधे दरवाजे पर पर्दा पड़ा था। हारकर दो-एक बार किवाड़ पर बाहर से खट-खट भी किया, ‘‘अरे नंदा, उठो भाई, हम चाय पीने को बैठे हैं।’’ भीतर से बस, हल्की कुनमुनाहट और छीना-झपटी की एक आवाज-सी ही आई। फिर तीसरी बार नंदा ने भीतर से ही कहा, ‘‘दीदी, यहीं दे दो न, प्लीज!’’ हमेशा बिस्तर पर लेटे-लेटे ही जैसे वह कहती है इस वाक्य को, ठीक उसी तरह लेटी होगी-गीता ने अनुमान लगाया। रोज की तरह ही गीता ने जवाब दिया, ‘‘हम तो तेरी सेवा लिखाकर लाए हैं न, लाते हैं वहीं।’’ यों भी आज तो वह उसका हर कहना मानने को मजबूर थी न! दोनों हाथों में प्याले उठाए उसने एक पांव से भिड़े किवाड़ खोले और पीठ पर पर्दा लेकर भीतर आ गई तो झटके से हर्ष उठ बैठा और मसहरी के पल्ले ऊपर फेंककर हड़बड़ाता हुआ खड़ा होने लगा। वह नहीं चाहता था कि गीता यों उसे देखे। चारपाई से पांव लटकाकर जल्दी-जल्दी वह चप्पलें तलाश कर ही रहा था कि लेटे-लेटे ही अंगड़ाई लेकर बदन तोड़ती नंदा ने एकदम करवट बदलकर हर्ष की कमर में बांहें डालीं और उसे फिर बैठा लिया। गीता ने सुना, उसकी बांह छुड़ाकर फिर उठने की कोशिश करते हुए हर्ष ने फुसफुसाकर कहा भी था, ‘‘अरे-अरे, नंदी, गीता दी आ रही हैं!’’ तब बंद आंखों, अपनी पकड़ और भी कसकर उसे बैठाए रखे ही अलसाए स्वर में नंदा इतराकर बोली, ‘‘तो क्या हो गया? उन्हें पता नहीं है क्या? अंमारी दींदी बहुत ग्रेंट हैं इन बातों पर ध्यान नहीं देतीं!’’ डरी-डरी निगाह गीता के चेहरे पर टिकाए ही हर्ष झेंपा-सा बैठा रहा। जान-बूझकर व्यस्त बनी गीता प्यालों को घूरती ही आगे आ गई थी। स्थिति को दरगुजर करके उसने भरसक स्वाभाविक लहजे में कहा था, ‘‘लो, चाय तो ले लो।’’ उसने बिना सिर उठाए ही देखने की कोशिश की थी, हर्ष ने कमीज और नंदा की साड़ी का तहमद पहना था, और नंदा सिर्फ ब्लाउज और पेटीकोट में थी। उसने अब सरककर अपना सिर हर्ष की जांघ पर रख दिया था और सिरहाने के तकिए से लेकर पाटी तक उसके घने, मुलायम, सुनहरे बाल बिखर आए थे। तब गीता को अपने-आपको संभाले रखना मुश्किल हो गया था। यह नंदा की रोज की आदत है। जब वे दोनों सोती हैं, तब भी नीचे दूधवाला दरवाजा खटखटाता रहता है और उठती हुई गीता की कमर बांहों में कसकर नंदा उसकी गोद में सिर रखकर लेटी, जिद्दी बच्चे की तरह उसे उठने नहीं देती। इसी तरह तकिए और पाटी पर उसके सुनहरे मुलायम, घने और महीन-महीन बाल बिखरे रहते हैं। उन पर दुलार से हाथ फेरती वह खुशामद से कहती रहती है, ‘‘अब उठने दे, नंदन, देख, दूधवाला गालियां दे रहा होगा। चला जाएगा तो तुझे चाय कहां से पिलाऊंगी?’’ लेकिन इस तरह लेटी नंदा के केशों पर हाथ फेरने में उसे बड़ी तृप्ति मिलती है, और यह भी पता है कि नंदा को खुद बड़ा अच्छा लगता है। अब यों नंदा के केशों को बिखरा देखकर उसके हाथों में वही अभ्यस्त कुलबुलाहट होने लगी...शायद हर्ष को नहीं मालूम कि नंदा को सुबह अपने केशों का दुलार कितना प्रीतिकर है।

खुद उसे बहुत झेंप लग रही थी। जल्दी से हर्ष के बढ़े हाथों में दोनों प्याले देकर लौटने लगी, तभी नंदा ने पुकारा, ‘‘अरे दीदी, सुनो तो सही!’’ गीता ठिठक गई तो हर्ष की गोद से बिना सिर उठाए ही खुमारी-भरी आंखें खोलने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘दीदी, तुम्हें सचमुच बुरा लग रहा है क्या? तुम्हें मेरी कसम, दीदी, इधर देखो न! नहीं देखोगी तो हम समझेंगे, तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा!’’ गीता ने बरबस उसकी ओर गरदन मोड़कर देखा तो उसके गालों पर अनजाने ही हंसी उमड़ आई, ‘‘तेरी किस-किस बात का बुरा मानूंगी?’’ शायद उसके स्वर में शिकायत भी थी।

‘‘तो आप भी अपनी चाय यहीं ले आइए न, दीदी!’’ हर्ष अब तक चुस्त हो गया था। इस बार वह बोला।

‘‘हां-हां, गीता दी!’’ नंदा ने भी खुशामद की, ‘‘अपने नंदन का कहना नहीं मानोगी?’’

‘‘बड़ी कहना मनवाने वाली आई!’’ गीता ने नाराजी का भाव दिखाकर जवाब दिया, ‘‘अभी खोका की मां आती होगी, सो?’’

लेकिन जब वह बाहर अकेली बैठी-बैठी किचन में चाय पी रही थी, तब भी यही सवाल उसके मन में था कि वह इस ‘अनाचार’ का विरोध क्यों नहीं कर पा रही है। उल्टे उसे एक तृप्त सार्थकता की अनुभूति क्यों होती है कि वह किसी तन्मय-सुख की साक्षी है? अपनी उपस्थिति में भी उनके बेझिझक और अंतरंग व्यवहार को देखकर उदारता का यह संतोष क्यों होता है कि वह किसी की चरम प्रसन्नता में बाधक नहीं है। तब से वह रोज अपने-आपसे पूछती रहती है, कि उसके अहं और अधिकार ने कैसे उसे आज्ञा दे दी है कि अपने ही घर में अपने को इतना नगण्य बनाकर रहे! क्यों नंदा उसकी इतनी बड़ी कमजोरी बन गई है, कि चाहे जैसे वह रहे, लेकिन रहे उसकी आंखों के सामने ही। हर्ष क्या है, दो-चार दिन और है...हमेशा एक आशंका से उसका दिल धड़कता रहता है कि कहीं कोई पूछ न बैठे-गीता, तुम तो आचार के मामले में ऐसी सख्त हो, तुम्हें तो सड़क चलती लड़कियों का हंसना-मुस्कराना तक पसंद नहीं है। टीचरों, लड़कियों के फैशन को रोकने के लिए तुमने तो जाने कितने नियम बना दिए हैं। और तुम्हीं यह सब...कोई देखे तो क्या कहे?...यह सवाल उससे किसी ने नहीं किया, एक दिन नंदा के अंडरवियर का पिछला हुक लगाते समय खुद उसने ही कहा था, ‘नंदा, तेरे लिए, देख, मुझे कितना झुकना पड़ा है। इसीलिए मैंने घर पर किसी को भी बुलाना बंद कर दिया है।’

उलटकर नंदा उसके गले में झूल गई, ‘‘दीदी, यू आर लार्जहार्टेड!’’ गीता की आंखों में आंसू भर आए, ‘‘हां, यों ही शब्दों में बहकाती रहो, गांठ से तो कुछ जाता नहीं है!’’ वह रूठ गई...हर्ष और नंदा को साथ देखकर उसे एक गुदगुदाता संतोष होता है। वह हर्ष या नंदा, दोनों में से या तो किसी एक के साथ तादात्म्य कर देती है या ऊंचाई पर खड़ी होकर इन ‘बच्चों’ के खेल पर खुश होती है। लेकिन बाद में अक्सर उस पर एक टूटापन छाया रहता है। नंदा का यों गुनगुनाते हुए नृत्य की तालों पर घर-भर में घूमना, उसकी रग-रग से छलकती मुग्ध तृप्ति की वारुणी, उसका यों सपनों में डूबे हुए हमेशा खोए-खोए ढंग से मुस्कराना...सब कुछ अपने लिए बड़ा अपमानजनक और असमर्थता का ज्वलंत प्रमाण-पत्र लगता है! मन पर एक भीगे कंबल जैसा बोझ लिपटता चला जाता है और अकेले फालतू होने की चिरंतन भावना फिर आत्मा पर छाने लगती है! वह ठोस अंधेरे जैसा डिप्रेशन, जो नंदा के आने से पहले उसका रात-दिन का साथी था और उसे आत्महत्या के लिए उकसाया करता था और जिसे अपने भीतर महसूस करके उसकी समझ में ही नहीं आता था कि अपने इस शरीर और जीवन का क्या करे? क्यों करे? तब केवल रोना आता था और घुटन बढ़ती चली जाती थी। इन दिनों भी उसे वही सब अनुभूति फिर होने लगी है, और लगता है ऐसे अतीत और भविष्य की दो काली-काली दीवारें हैं, जो एक-दूसरी के पास आती-जाती हैं और उसे बीच में लेकर भींचने लगती हैं और इन ठोस दीवारों के पास उसे कुछ नहीं दीखता!

कैसी भयानक स्थिति है कि उसकी नंदा को हर्ष ने छीन लिया है और उसे न गुस्सा है, न ईर्ष्या! बस, चुपचाप पराजय की स्वीकृति है। इस पर शायद नंदा को भी दया आती, उसे भी कहीं यही डर था कि दीदी कहीं वैसा ही कुछ तूफान न खड़ा कर दें, जैसा मिस रेमंड के समय किया था। उस दिन तो पता नहीं गीता पर कैसा भूत सवार हो गया था और वह अपने होश-हवास खो बैठी थी! वैसी ही चुनौती वह हर्ष के समय क्यों नहीं अपने भीतर महसूस करती?

नंदा उन दिनों रेमंड से बहुत घनिष्ठ हो गई थी और अक्सर ही साड़ी पहनकर अपने को मुड़-मुड़कर देखती हुई गीता से पूछा करती थी कि, ‘‘दीदी, अगर मैं स्कर्ट पहनने लगूं तो कैसी लगूं?’’ कभी पूछती, ‘‘अच्छा, दीदी, ये लंबे बाल झंझट नहीं होते? कटवा लूं तो कैसी आसानी हो जाए? लिया और ब्रश करके झट चल दिए।’’ गीता रोज सुबह उससे तय करती कि-नंदा, जल्दी आ जाना। आज मिस्टर-मिसेज विश्वास के साथ खाना खाने जाना है...या-आज चलो, फाइन आर्ट्स एग्जीबीशन में हो आएं।...या-आज अमुक कॉलेज का उत्सव है...आज तो मन नहीं लग रहा यों ही लेक घूमेंगे या सिनेमा देखने चलेंगे...नंदा रोज भली लड़की की तरह वायदा कर लेती, ‘‘नहीं, दीदी, आज मैं एकदम ठीक टाइम पर आ जाऊंगी। प्रॉमिस, दीदी, रोज थोड़े ही...!’’ लेकिन रोज ही गीता साफ-सफेद कपड़े पहने, अपने मन के कपड़े नंदा के लिए निकाले इधर-से-उधर घूमती, हर आहट पर खिड़की से झांक-झांककर देखती और गुस्से में चीजें इधर-से-उधर बिखराती रहती। कभी नौ बजे, कभी दस बजे अपराधी की तरह दबी-सी घंटी बजती या लेच खटर-खटर करता-‘‘दीदी, सच, आज क्या बताऊं, मिस रेमंड ने ऐसा मजबूर कर दिया कि...बस पीछे ही पड़ गई और पहले न्यू मार्केट में अपने कार्डीगन देखती रही, फिर उन्हें मैलोडी रूम जाना था...फिर जरा-सी देर हम लोगों ने क्वालिटी में कॉफी...या-यह रेमंड तो ऐसी पीछे पड़ जाती है कि...‘डिसने-कार्टून्स’ का आखिरी दिन था...मेरा तो हंसते-हंसते बुरा हाल हो गया...तुम होतीं तो तुम भी...लेकिन गीता की अपने-आपको घूरती आंखें देखकर उसकी जबान लड़खड़ा जाती और वह चुप हो जाती। करवट बदलकर चुप-चुप रोने लगती तो नंदा खुशामद करती, ‘‘तुम्हें मेरी कसम, दीदी, इस बार माफ कर दो!’’ फिर दो-एक दिन तक अबोला चलता। एकाध दिन नंदा समय से आती और फिर वही क्रम! गीता ने अपनी बदनामी की चिंता किए बिना उन दिनों अपने यहां की मैनेजिंग कमेटी से उसकी नौकरी की बात करनी शुरू कर दी। क्या करे, बी. ए. फेल थी, नहीं तो अपने-आप ही लगा लेती। तब उसकी आंखों के आगे ही रहती। नंदा, अब रोज रेमंड के साथ उसके घर जाने लगी थी और उसने डांस सीखना प्रारंभ कर दिया था। वहीं प्रैक्टिस होती। आते-आते रोज नौ-साढ़े नौ बज जाते। रास्ता भी तो लंबा था। पहले तीन नंबर बस पकड़कर हाजरा मोड़ जाओ। गीता मिसेज कुंती मेहरा से शिकायत करती, ‘‘और तो कुछ नहीं है, मुझे यही डर है कि इन किरंटनियों के चक्कर में पड़कर गलत रास्ते पर चलने लगेगी। जानती हो, बड़े-बड़े होटलों और डांस की दुनिया उसने अभी तक सिनेमाओं में ही देखी है, बड़ा आकर्षण है, उसकी तरफ लपकती है। लड़की खूबसूरत है, बीस लोग चारा डालेंगे। आज यह रेमंड है, कल कोई और होगा। इन स्टेनों, ऑपरेटरों का कोई भरोसा है? मुझे तो डर है, कहीं पीने-पिलाने न लगी हो। अभी ‘स्टेट्समैन’ में आया था, रिपन स्ट्रीट में कोई अंग्रेज बुढ़िया यों ही सीधी-सादी लड़कियों को पहले तो ये सारी रंगीनियां दिखाकर पीने का चस्का लगा देती, फिर नए-नए ग्राहक फांसकर धंधा चलाती...अकेली लड़की है, मुझे तो अपनी बेटी जैसी लगती है, इसीलिए...’’ लेकिन यह सब कहने की हिम्मत उसकी नंदा से नहीं होती। हां, उस दिन रविवार को दोनों में खूब कहा-सुनी हो गई थी। गीता ने साफ कह दिया था, ‘‘नंदा, हम लोग शरीफ मुहल्ले में रहते हैं। यह देर-देर से लौटना, यह दुनिया-भर में भटकना, यहां चलना मुश्किल है। मुझे शांति से जीवन बिताने की इच्छा है। तुम्हें भी यहां अच्छा नहीं लगता होगा। अच्छा हो, तुम मिस रेमंड के यहां ही चली जाओ...’’ नंदा ने उद्धत ढंग से ठोड़ी ऊंची करके जवाब दिया, ‘‘गीता दीदी, मैं किसी का अहसान नहीं लेती!...रहती हूं तो खाने-रहने का पैसा देती हूं। मैं किससे मिलूं-जुलूं, यह तय करने का हक मेरे पास ही रहने दो!...अच्छा हो, हम लोग अपने-अपने अधिकारों की सीमाएं समझ लें!’’

अवाक्! कॉपियों पर नंबर देती गीता का हाथ जहां-का-तहां रुक गया। उसके कान तमतमा आए! वह आंखें फाड़े नंदा को देखती रह गई। नंदा उसी तरह पफ से पाउडर गर्दन और पीठ पर लगाती रही। गीता ने उद्वेग लीलकर कहा, ‘‘नंदा, तुम आजकल लिंड्से स्ट्रीट, न्यूमार्केट और पार्क स्ट्रीट की दुनिया की चकाचौंध में हो न, सो, पैसे से हिसाब-किताब करने की बातें कर रही हो। तुम्हें पता है, तुम्हें मैंने इसलिए नहीं रखा था कि इस फ्लैट का किराया मेरे लिए भारी पड़ता था और तुमसे हिस्सा बंटाना चाहती थी। रखा इसलिए था कि तुम मिसेज मेहरा के साथ मिमियाती आई थीं-दूसरों के यहां कब तक पड़ी रहूं, एक तो वहां जगह नहीं है, फिर मुझे लेकर दोनों मियां-बीवी में झगड़ा होता है! मैंने भी सोचा था कि सीधी लड़की है, एक कमरे में रह जाएगी! घर पर कोई नहीं है, सो बाहर आकर नौकरी करनी पड़ रही है। कोई घरेलू-सी जगह चाहती है। आज तुम्हारे पर निकल...’’ ‘‘बहुत-बहुत शुक्रिया, दीदी! जब तक जीऊंगी, तब तक तुम्हारा अहसान मानूंगी! मुसीबत में थी, तुम्हारे पास आ गई थी।’’ नंदा का गला भर्रा आया था।

छोड़कर जाने को कहने पर रुलाई गीता को भी आने लगी थी। उंगली पर पल्ला लेकर आंखें पोंछती घुटे स्वर में बोली, ‘‘मैं तो तेरी ही भलाई के लिए कह रही हूं, नंदा।’’ इस बार शीशे में देखती नंदा व्यंग्य से मुसकराई-दीदी उसका कहां और कितना भला चाहती है, उसे पता है। हुं, ऐसे ही बंधनों में रहना था तो बिलासपुर से यहां आने की जरूरत ही क्या थी? भला चाहने के नाम पर ही तो चाची भी...

अगले दिन-भर गीता का मन नहीं लगा। दोनों में नाराजगी और अबोला, झगड़े बहुत बार हुए हैं, लेकिन रहने की बात को लेकर किसी ने दोनों में से कुछ नहीं कहा कभी। जरा-सी देर बाद वह पछताती रही कि उसे इतनी सख्त बातें नहीं कहनी चाहिए थीं। छोटी और घुटी जगह से आई है, सो इस नई और खुली जिंदगी का आकर्षण रोक नहीं पाती। थोड़ा भटककर यहीं लौटेगी, जाएगी कहां? लेकिन अब तो गीता की समझ में ही नहीं आता कि नंदा अगर इस घर से चली जाए तो वह अकेली रहेगी कैसे? क्यों उसे लौटने की जल्दी होगी, किसके बिखरे कपड़े समेटा करेगी और भुनभुनाते हुए किसके पैसे-क्लिप संभालकर रखा करेगी? किसे अनुरोध से बच्चों की तरह मुंह में कौर दे-देकर खिलाएगी और...और सबसे बड़ी बात कि उसके बिना गीता को रात में नींद कैसे आएगी? बिस्तर पर अकेले सोने की कल्पना से ही उसे डर लगता है, अकेले होने की आशंका ही उसका दिल धसका देती है।

उसे लगता रहा कि वह सिर्फ अपनी तरफ से लोगों से प्यार करती आई है, दूसरों ने कभी बदले में बराबर का प्यार नहीं दिया। जाने किससे सुना था कि प्यार हमेशा होता ही इकतरफा है। घनिष्ठ और दीर्घजीवी मैत्री या प्यार में दोनों पक्ष कभी एक-दूसरे को समान भाव से प्यार नहीं करते, बल्कि एक व्यक्ति ही करता है। यों, जब मन होता है तो नंदा दिखावा बहुत करती है, लेकिन प्यार कभी भी वह नहीं कर पाई। और उसके लिए गीता अपनी सगी भाभी से लड़ पड़ी। कितनी उम्मीद थी भाभी को कि गीता उनके पिंटू को गोद ले लेगी...

खैर, आज वह नंदा से जाकर माफी मांग लेगी। गलती उसकी है, इतनी सख्त बातें उसे नहीं करनी चाहिए थीं। मन होता था कि सीधी उठकर चली जाए, हालांकि पता था, नंदा तो सांझ को ही लौटेगी। उसका ऑफिस में फोन करने को हाथ उठा, लेकिन फिर याद आ गया कि कल मैनेजिंग कमेटी की मीटिंग है। उसमें कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए जाने थे कि सारे दिन सामने कुर्सी पर मिसेज दे बैठी-बैठी रिपोर्ट तैयार कराने में मदद करती रहीं और वह खुद ऑडीटर को कभी यह और कभी वह कागज ला-लाकर देती रही। क्लर्क और मिसेज दे के सामने वह नंदा से बातें नहीं करना चाहती थी, यों ही उसे और नंदा को लेकर दुनिया-भर की अफवाहें हैं। फिर मिसेज दे तो वैसे ही...ऑडीटर तो, खैर, बाहर का आदमी है।...जितनी जल्दी चाहती थी, उतनी ही देर हो गई। स्कूल की बस से ही घर आई। दस बज रहे थे। उतरकर पागलों की तरह गली में भागी। ऊपर खिड़कियों में अंधेरा था। नंदा होती है तो डर के मारे सारी बत्तियां जलाए रखती है। उत्तेजना से कांपते हाथों से ताली लगाकर लेच खोला। स्विच दबाया तो सामने ही जमीन पर चिट पड़ी थी-‘मैं आपकी आज्ञानुसार जा रही हूं, दीदी। कोई पत्र आए तो नीचे के पते पर रिडाइरेक्ट कर देना। अपने हिसाब के पैसे तनख्वाह मिलते ही पहुंचा दूंगी।’

नीचे मिस रेमंड का, इकबालपुर रोड का पता था।

गीता उल्टे पांव लौट आई। संकरी जगह में अभी ड्राइवर बस मोड़ रहा था। गीता ने पुकारकर कहा, ‘सुनो, बिहारीसिंह, रुको! तुम्हें पता है यह इकबालपुर रोड किधर है?’ एक क्षण सोचकर जब तक बिहारीसिंह ने बताया कि कहीं मोमिनपुर के आस-पास है, तब तक दरवाजा खोलकर गीता बस में आ गई, ‘चलो, रास्ते में किसी से पूछ लेते हैं।’ सामने बिहारीसिंह और गीता को देखा तो नंदा धक-से रह गई। उसे कुछ भी नहीं सूझा। गीता ने बिना किसी भी ओर देखे, सख्त आवाज में पूछा, ‘तेरा सामान कहां है?’ फिर एक ओर खड़े सूटकेस और सोफे पर रखे बैग इत्यादि की ओर इशारा करके कहा, ‘बिहारीसिंह, ये सब बस में रख दो!...’ अब तक बाथरूम से कोई और महिला भी बाहर निकल आई थी और इन तीनों को आश्चर्य से देख रही थी। गीता ने अभयस्त, अधिकार-भरे स्वर में कड़ककर कहा, ‘‘नंदा, चलो बस में बैठो! उठो!’’ आवाज में जाने क्या दुर्निवार था कि नंदा मंत्रबद्ध की तरह आगे-आगे चली आई। उसे आगे बस में चढ़ाकर गीता बैठी। दूसरी ओर बिहारीसिंह, बीच में नंदा।

सामान रखकर बिहारीसिंह चला गया तो भीतर की चटखनी चढ़ाई और सीधी नंदा के कमरे में आ गई। दोनों हथेलियों में कनपटियां लिए बैठी नंदा ने जब तक आहट से सिर उठाया तब तक चप्पल हाथ में लिये गीता उस पर झपट पड़ी थी। इसके बाद गीता पागलों की तरह बकती रही और मारती रही, ‘तू मेरे पैसों का हिसाब करेगी। मैंने कभी कुछ लिया है तुझसे, हरामजादी? तेरे लिए मैंने सारी दुनिया से बदनामी ली...सारे जान-पहचान वालों से लड़ी और तुझे यों चली जाने दूं? मैं तेरी बोटी-बोटी नहीं नोंच लूंगी! मैं मर जाऊंगी तो जहां तेरा मन हो, वहां चली जाना...’ पहले तो नंदा ने विरोध किया; लेकिन उस उन्मत्त क्रोध के सामने उसके पांव उखड़ गए। पिटती रही और रो-रोकर प्रार्थना करती रही, ‘मैं मर जाऊंगी! दीदी! दीदी! तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं।...अब कभी ऐसा नहीं करूंगी!...मुझे माफ कर दो, दीदी!’...नंदा कुहनियों से चोट बचाती रही और रोती रही-बिल्कुल छोटी बच्ची की तरह पिटती और रोती रही। जब थककर गीता ने चप्पल एक तरफ फेंक दी और धम-से कटे पेड़ की तरह हांफती हुई जमीन पर पड़ गई तो खुद हिचकियां ले-लेकर रो रही थी, उसकी बांहों में नंदा का ढीला शरीर था और वह पागलों की तरह उसका गला, कनपटियां, होंठ और बांहें चूमे जा रही थी, ‘नंदन! नंदन!...नंदन!...मेरी नंदन!...मुझे माफ कर दे, रानी!...मैं तेरे बिना रह नहीं सकती, नंदन! तू जो कहेगी वही करूंगी! तू जैसे चाहे रह, तू जहां चाहे रह, मगर मुझे यों छोड़कर मत जा! तेरे बिना मेरा कौन है जिंदगी में, नंदन, बता? मैं जहर खा लूंगी!...’ सारी रात उससे लिपटी गीता माफी मांगती और रोती रही।


उस रात की अपनी विह्वलता और चिरौरियां याद करते हुए गीता की आंखों से इस समय भी आंसू ढुलककर गालों पर बह आए। जाने कब वह नंदा के कमरे से आकर फिर खाने की मेज पर बैठ गई थी और बंद किताब की जिल्द के अक्षरों पर लिखने की तरह उंगली फिरा रही थी। आधे घंटे और राह देखेगी, नहीं आएंगे तो अंदर से चटखनी लगाकर सो जाएगी। जाएं भाड़ में दोनों।

उसे डर था कि कहीं उस घटना के बाद दोनों के बीच कोई दीवार न खिंच जाए। लेकिन सुखद आश्चर्य का यह अनुभव उसके लिए नया ही था कि दोनों इसके बाद और भी प्रगाढ़ और अभिन्न हो गई थीं। गीता ने नंदा को पंद्रह दिनों की छुट्टियां दिलाईं और दोनों हफ्ते-भर को पुरी चली गईं।

हर रोज सूर्योदय अगले दिन पर टल जाता, क्योंकि लाख कोशिशों के बावजूद सुबह जल्दी आंखें ही नहीं खुलती थीं। हां, सारे दिन भटकतीं। दो-तीन दिन जगन्नाथ मंदिर की धुन रही। वहां की मूर्तियां देख-देखकर दोनों गूढ़ संकेत से एक-दूसरी की ओर मुसकरातीं। या फिर पानी के बिल्कुल पास-पास, समुद्र के किनारे-किनारे रेत में, दोनों हाथ-में-हाथ पकड़े दूर तक भटकती रहतीं, चप्पलें हाथों में ले लेतीं और पिंडलियों पर लहरों की गुदगुदाहट का रोमांच मुक्त खिलखिलाहटों में किलकार उठता, ‘‘अरे दीदी, मुझे पकड़ो!’’ देर तक रेती में लेटी रहतीं। उस घटना का जिक्र दोनों में से जान-बूझकर किसी ने नहीं किया, दोनों उसे भूल गई थीं।

उस दिन नौ बजे की सुनसान चांदनी थी और दोनों अपने होटल के सामने ही लहरों से जरा हटकर कुहनियों के बल औंधी लेटी, मुट्ठियों में रेत भर-भरकर पानी की धार की तरह छोड़ रही थीं! लहरों की झागदार तहें, बालू पर सफेद झाग लीपती लौट जातीं और सागर में कभी यहां और कभी वहां एक छहराहट के साथ, पानी के पहाड़ टकराकर बिखर जाते। बार-बार गीता का चश्मा गीली-गीली फहारों से धुंधलाकर चिपचिपा हो उठता था। सागर की गरज एक अजस्र उन्माद तन-मन को जगा रही थी।

बड़ी देर की चुप्पी के बाद गीता ने लाड़ से पूछा, ‘‘तेरी चाची तुझे बहुत मारती थी न, नंदन?’’

‘‘हां, तुम्हें कैसे मालूम?’’ नंदा ने अनमने भाव से गहरी सांस ली।

‘‘यों ही,’’ फिर गीता चित लेट गई। आसमान को ताकते हुए बहुत स्वाभाविक ढंग से बोली, ‘‘उस दिन तेरे मुंह से कई बार निकला था-चाची तेरे हाथ जोडूं, अब नहीं करूंगी।’’

नंदा के गालों पर आंसू ढुलक आए। बड़ी देर होंठ फड़कते रहे, फिर उद्वेग लीलकर बोली, ‘‘मैंने बहुत दुःख देखा है, गीता दीदी। सौतेली मां के व्यवहार से बचाने के लिए बाबू जी ने चाचा जी के यहां भेज दिया था। सो, वहां...’’ उसने फिर एक गहरी सांस ली।

रोती नंदा को खींचकर गीता ने उसका सिर छाती पर रख लिया और देर तक उसकी कनपटी सहलाती रही। खुद उसकी आंखों से भी आंसू गिरते रहे।

‘‘छाती पर जो दाग है न, जिसे मैं फोड़ा बताती हूं, वह चाची का ही दिया हुआ है। मैंने सोचा था कि हर्ष के साथ कहीं चली जाऊंगी, या यों ही कहीं भी जहां मन होगा निकल जाऊंगी। मैंने शायद यह बात चचेरी बहन से कह दी, उसने अपनी मां से जा पिरोया और उसके बाद तो, दीदी, बस यही समझो कि हफ्ता-भर पड़ी-पड़ी कराहती रही। गरम कलछी से निशान बना दिया-‘‘ला, तेरी जवानी निकालूं!’’

गीता का सहलाता हाथ उसे धीरज बंधाता रहा और वह रुक-रुककर कहती रही, ‘‘तुम्हें नहीं लगता, दीदी, कि कुछ लोग शुरू से ही किस्मत में दुःख लिखाकर लाते हैं?...उनके लिए अतीत और भविष्य में एक सुनसान अंधियारे के सिवा कुछ नहीं होता और उन्हें जिंदगी में कुछ भी नहीं मिलता।’’

तब गीता को लगा कि यह उसकी छाती पर सिर रखे नंदा नहीं, स्वयं उसके भीतर से कोई बोल रहा है। नंदा बताए जा रही थी, ‘‘कॉलेज में ये मुझसे दो क्लास आगे थे। एक ड्रामे में हम दोनों में साथ-साथ परिचय हो गया। फिर मित्रता गहरी होती चली गई। हर्ष ने मुझे पहले ही बता दिया था कि उनकी शादी हो चुकी है और एम. कॉम. के बाद, बाकी रस्में हो जाएंगी। लेकिन जाने कैसा पागलपन था-मैंने कहा, मैं तुम्हें शादी के लिए नहीं प्यार करती!...अब तो उनके एक बच्चा भी है, लेकिन मुझे लगता ही नहीं है, दीदी, कि हर्ष मेरा नहीं है।’’

गीता ने मन-ही-मन कहा-इसीलिए तो तू मिस रेमंड के साथ चली गई थी न हर्ष के साथ उसके प्यार को बहुत बार सुन चुकी थी, और जानती थी कि नंदा के पास किसी एच. खन्ना के पत्र आते हैं। जब भी वह नंदा के प्रति एक आप्लावनकारी प्यार अनुभव करती, सांप की जीभ जैसी एक आशंका लपलपाया करती-कहीं एक हर्ष है जो उसकी नंदा को उससे छीन ले जाएगा। हर्ष के प्रति नंदा की प्यार-भरी बातें सुनकर वह गहराई में बहुत उदास हो आती थी, लेकिन आज सागर के इस सीले वातावरण में उसे नंदा के प्यार में सचमुच कुछ उदात्त और गंभीर लग रहा था।

नंदा कह रही थी, ‘‘आज वह दिल्ली के किसी बैंक में हैं।...लेकिन लंदन में भी रहें तो भी मुझे नहीं लगता कि मैं उनसे कहीं दूर रह रही हूं।...मैं तुमसे सच कह रही हूं, दीदी, वहां हर्ष और यहां तुम न होतीं, तो शायद...शायद मैं मिट्टी का तेल छिड़ककर...’’ तब गीता ने उसके मुंह पर हाथ रखकर उसे रोक दिया। भीतर यह भी लगता रहा कि ये सब बातें चाहे दिखावटी नहीं, लेकिन उनमें क्षणिक भावुकता तो है ही। फिर भी वह भीग उठी, ‘‘ऐसा क्यों बोलती है, नंदन? तूने मुझे बचा लिया है। वरना पता नहीं...पता नहीं...’’ घूंट-घूंट सटककर वह फिर कहने लगी, ‘‘जान-पहचान और परिवार में जिनके भी कोई छोटा-बड़ा बच्चा है, सभी सोचते थे कि मैं उसे गोद ले लूंगी और अपना सारा प्रोविडेंट फंड और इंश्योरेंस उसके नाम कर जाऊंगी।...मैं इस स्वार्थी पैंतरेबाजी से तंग आ चुकी थी, नंदन!...अब तो तेरे बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता।...मेरा अपना है ही कौन? एक भाई था, आज पागलखाने में पड़ा है।...बहुत बड़े अफसर बाप की बेटी थी, सो ट्यूटर को पापा ने बोरे में बंद करके नौकरों से पिटवाया था, और मैं कमरे में बंद सिर्फ किवाड़ पीटती रही थी। उसकी घुटी-घुटी आवाज आज कभी-कभी सुनाई देती है कि-गीता, मैं तुम्हें लेने आऊंगा...मेरी राह देखना...और उसी के प्रतिरोधस्वरूप कभी बाप का कहना नहीं माना। बस, पढ़ती रही, पढ़ती रही और राह देखती रही...और तो अब लगता है कि राह देखना मेरा स्वभाव बन गया है।...मुझे लगता ही नहीं है कि वह नहीं है और उसकी राह देखना बेकार है।...नहीं, प्यार-व्यार की भावुकता की बातें नहीं हैं। सच बात तो यह है कि राह देख-देखकर जब ऊब गई तो पाया कि जिंदगी मुझे छोड़कर बहुत आगे बढ़ गई है, और मेरा सारा उत्साह ही चुक गया है!...पैंतीस की हो गई तो लगने लगा कि शायद फिर से राह देखने लगी हूं, लेकिन किसकी राह देखने लगी हूं, यह पता नहीं है।...आजकल कभी-कभी लगता है कि शायद तेरी ही।’’ चश्मा उतारकर रेत पर रखा और आंखों पर बांह रखकर फूट-फूटकर रोने लगी। हिचकियों में ही बोली, ‘‘अब तो उम्र हो गई है, नंदन। मेरी तो बेटी, प्रिया, बंधु, स्वामी जो कुछ भी है, सो तू ही है।...किसी दिन मर जाऊं तो सब कुछ लेकर बस जाना कहीं अपने हर्ष के साथ।’’ आत्म-करुणा के आंसू उसकी आंखों से बहते रहे, ‘‘सभी कुछ तेरा है।’’

‘‘दीदी, ऐसा मत कहो, दीदी!’’ नंदा और ऊपर सरक आई और बार-बार गीता के होंठ, पलकें और कान की लबों को अपने होंठों से छूती रही। चांदनी में आंसुओं से चमकते गालों और बंद पलकों को देखकर एक पल को उसे लगा कि शायद मर जाने पर गीता ऐसी ही लगेगी। विचार को बलात् पीछे धकेल वह कहती रही, ‘‘मैं कहीं नहीं जाऊंगी, दीदी...’’ सागर में ज्वार आने लगा था और लहरें अब रेत पर और आगे-आगे सरकती आ रही थीं। एक बड़ी-सी लहर का पानी जब अपनी सीमा से लुढ़कता-लुढ़कता इनके नीचे तक की रेत को भिगोता आगे निकल गया, तो कपड़े झाड़ती दोनों उठ खड़ी हुईं।

उस रात नंदा के निर्वस्त्र, समर्पित शरीर को अपनी उत्तेजित सांसों और उन्मत्त बांहों में जकड़े, उसके दाहिने वक्ष के रुपये के बराबर दाग पर होंठ रखे, गीता पागलों की तरह बस यही कहती रही, ‘‘नंदन, मुझे छोड़कर मत जाना!...मैं तेरे बिना मर जाऊंगी, नंदन!’’

बाद में मन का पाप-बोध भले ही ग्लानि और आत्म-भर्त्सना बनकर चूहों की तरह आत्मा को कुतरता रहे, लेकिन उस क्षण न गीता को होश रहता और न नंदा को। नंदा तो ऐसी पागल हो जाती है कि नोचने-काटने लगती है।

रात को जब भी नंदा की नींद खुली, उसने पाया-गीता, तकिए पर फैले उसके केशों, कंधों और पीठ पर हाथ फेर रही है, या शायद इसी से उसकी आंखें खुल जाती थीं। देर तक वह यों ही पड़ी, निश्चेष्ट छत ताकती रहती और बाहर सागर गरजता रहता। फिर धीरे-धीरे नींद आ जाती। सुबह अंधेरा छंटने से पहले फिर उसकी आंखें खुलीं। उसने अलसाकर गीता से लिपटते हुए पूछा, ‘‘तुम्हें नींद नहीं आई न आज रात-भर, दीदी?’’

‘‘पता नहीं क्या हो गया है...बस, मन करता है तुझे यों ही लिटाए रहूं और तुझे देखती तेरे केशों, गालों को छूती रहूं...लगता है कि कोई तुझे मुझसे छीन लेगा!’’

नंदा ने कुछ नहीं कहा। हल्की ऊब जागी। फिर कुछ सोचती-सी बोली, ‘‘तुम्हें एक बात पता है, दीदी?’’

‘‘क्या, नंदन?’’ जैसे हर बार ‘नंदन’ नाम के उच्चारण से वह अपना प्यार उस पर उंडेल देना चाहती थी।

‘‘मुझे एक बार मिसेज मेहरा ने बताया था,’’ नंदा कहने लगी, ‘‘तुम्हारे कॉलेज में आजकल एक चर्चा बहुत जोर पकड़ रही है कि...कि मैं तुम्हारी बेटी हूं।’’

‘‘सो तो है ही!’’ दुलार-भरे स्वर में गीता ने कहा।

‘‘उंह, यों नहीं! यों कि, तुम किसी को प्यार करती थीं, मैं उसी की निशानी हूं। पहले तुम मुझे कहीं होस्टल में रखकर पढ़ाती रहीं और अब बुला लिया है। बहुत जल्दी कहीं-न-कहीं अपने कॉलेज में लेने की फिराक में हो...’’ नंदा उसकी हर प्रतिक्रिया को भांपती बोलती रही।

‘‘मुझे पता है,’’ गीता ने गहरी सांस ली, ‘‘इसीलिए तो मुझे अभी तक कॉलेज में नहीं बुलाया न, वरना तुझे एक दिन भी उस फर्म में टाइपिस्ट का काम करने देती? वह कोई भले आदमियों की जगह है?’’

नंदा फिर अपनी बात पर लौट आई, ‘‘यह बात सच है, दीदी?’’

दर्द से हंसी गीता, ‘‘सच होती तो तुझे पता नहीं होता? तुझसे कुछ छिपाया है?’’ गीता भावुक हो उठी, ‘‘हां, सच होती तो मेरी लड़की होती तेरे ही बराबर...या तीन-चार साल छोटी होती...हम लोग आखिरी बार मिले थे उन्तालीस में। उसी साल लड़ाई शुरू हो गई थी।...समझ ले, लड़की बीस-बाईस साल की हो गई होती।...’’ और सहसा ही जब गीता ने दूसरी ओर करवट बदल ली तो उसे लगा, जैसे गीता सुबक रही है। वह उसकी पीठ पर लदकर कंधे से उसे अपनी ओर मोड़ती बोली, ‘‘गीता दी!...दीदी! देखो, दीदी! मेरी कसम है तुम्हें!’’

‘‘मुझे अच्छा नहीं लगता, नंदा।...मुझे वो सब बातें याद आती हैं तो बहुत बुरा लगता है!...’’ गीता रोती रही।

‘‘मैं तो हूं, दीदी, तुम्हारी बेटी, तुम्हारी छोटी बहन, तुम्हारी...नंदन!’’ नंदा बड़ी बहन और मां की तरह गीता को समझाती रही, और उसे ऐसा लगता रहा कि कहीं खुद उसका भविष्य भी तो ऐसा ही होने नहीं जा रहा है? मुंह से वह बोलती रही, ‘‘दीदी, मैं तुम्हें छोड़कर कभी...कभी नहीं जाऊंगी!’’ वह दोनों बांहों में गीता का, खिचड़ी बालोंवाला सिर बांधे थपथपाती रही, जैसे छोटी बच्ची को गिर जाने पर प्यार कर रही हो। और उस सात्त्विक अनुभूति की गहराई में कहीं कोई हिसाब लगाता रहा-दस हजार का बीमा है, कम-से-कम दस-बारह हजार प्रोविडेंट फंड होगा, पंद्रह-बीस बैंक में भी होगा ही। खर्चा ही क्या है दीदी का? नौकर है ही नहीं, खाना-पीना भी कोई खास नहीं है। सफेद कपड़े पहनती है। फिर अब वह थोड़ा-बहुत खुद भी बचाएगी और एक दिन जाकर रौब से हर्ष से कहेगी-लो, ये पचास हजार और फैक्टरी, फार्म जो भी खोलना हो, खोलो। चलो, हम लोग जिंदगी को नए सिरे से शुरू करें। या चलो, थोड़े-से शेयर खरीद लो, और किसी छोटी-सी जगह चलकर एक मकान ले लेते हैं...और उस सुख की कल्पना से नंदा की आंखें भर आईं।

गीता समझाने लगी, ‘‘तू क्यों रोती है, पगली, मेरे दुःख से?’’

सुबह उठी तो गीता को सब कुछ ऐसा लगा, जैसे सपने में हुआ था। दोनों बालकनी में आ खड़ी हुईं। दोनों केवल ब्रेसरी पहने थीं और ऊपर से साड़ियों को कसकर अपने कंधों पर चारों और लपेटे थीं। आज धुंध थी, इसलिए सागर से जरा ऊपर सूरज, रोशनी का गोल चकत्ता-भर दीखता था। सागर उसी तरह गरज-मचल रहा था, और कल जहां तक लहरें चली आई थीं, वहां तक रेत धुल गई थी, और किनारों पर सूखे झागों की सफेद किनारी अभी तक बनी थी। धुली रेत पर कौवों के पंजे कपड़े की सीवन की तरह इधर-से-उधर चले गए थे। एक ओर लकड़ी की डोंगी उलटी पड़ी थी।

बालकनी पर कुहनियां टेके ही गीता ने कंधे से साड़ी का जरा-सा पल्ला हटाकर, हंसकर कहा, ‘‘देख, कितने जोर से काट लिया है! निशान बन गया है। उस वक्त होश नहीं रहता?’’ नंदा झेंप गई। फिर भी हंसकर दुष्टतापूर्वक होंठों में जरा-सी जीभ निकालकर मुंह बिराया और दूर दो मछुओं को एक डंडे पर जाल लादे ले जाते देखती रही। होटल के दरवाजे पर खड़े एक रिक्शावाले से लंबी टोपी और लंगोटी लगाए एकदम नंगा मछुआ बात कर रहा था। दूर वैसी ही टोपियां लगाए दो काले-काले मछुए एक परिवार को हाथ पकड़-पकड़कर लहरों में अंदर ले जाकर नहला रहे थे। एक साहब किनारे पर बैठे-बैठे दोनों हाथों से अपने सिर पर पानी डाल रहे थे। जब लहर आती तो वे डरकर पीछे भाग जाते थे। उसने सोचा, कभी हर्ष के साथ आएगी तो बिना मछुओं के हाथ पकड़े, हर्ष से जिद करेगी कि वह उसे अंदर जाकर नहलाए। तब मचलकर कहा, ‘‘चलो, दीदी, हम लोग भी नहाएं।’’ लौटकर आई तो फिर वही दिनचर्या शुरू हो गई। हां, नंदा अब कभी देर से नहीं आती और दोनों नित नई जगह घूमने का प्रोग्राम बनातीं या घर पर ही कॉलेज और दफ्तर की गप्पें लड़ातीं। वह फिर आते समय नंदा के लिए रजनीगंधा और बेले के जूड़े लाने लगी।

एक दिन नंदा ने बताया, ‘‘गीता दीदी, हर्ष आ रहे हैं परसों, यहां अपने दफ्तर के किसी काम से।’’

‘‘यहां?’’

‘‘नहीं, होटल में ही ठहरेंगे। लिखा है कि सांझ को किसी भी दिन कोई प्रोग्राम मत रखना।’’ पहली बार नंदा को लग रहा था कि उसके और हर्ष के मिलने के समय पार्श्व-संगीत की तरह चाची का भय नहीं होगा। वे लोग उन्मुक्त भाव से मिल सकेंगे। यह खुशामद और लाड़ से बोली, ‘‘मुझे देर हो जाया करेगी। दीदी, तुम बुरा मत मानना। क्या है, दो-चार दिनों की ही तो बात है...’’

गीता ने प्यार से उसकी चिबुक उठाकर कहा, ‘‘पागल, मैं तेरी भावनाओं को नहीं जानती? लेकिन हमें मिलाएगी तो सही न?’’ और उदासी का एक बादल भीतर गहराने लगा।

‘‘अरे, जरूर-जरूर!’’ नंदा का अंग-अंग खिला पड़ा रहा था, और प्रतीक्षा में नस-नस तड़की जा रही थी। परसों तक कैसे राह देखेगी? मन होता है, अभी से जाकर स्टेशन पर बैठ जाए!

‘‘लेकिन देख, नंदन, रात को ज्यादा देर मत किया करना।...हम लोग अकेली दो औरतें इस जगह रहती हैं। यों ही लोगों को हम लोगों की बड़ी चिंता है। वे इसकी खबर रखते हैं कि कौन आता है, कौन जाता है। फिर अब मुझसे राह नहीं देखी जाती, भाई!’’

‘‘तो तुम समझती हो कि मैं सारी रात बाहर रहूंगी? मुझे खुद ही तुम्हारी चिंता रहेगी!’’ गीता की शृंगार-मेज पर नंदा प्लास्टिक के ब्रश से बाल सुलझा रही थी...होंठों में टिका क्लिप बात करने से हिलकर नीचे टपक पड़ा।

पहली बार हर्ष को गीता ने देखा था क्वालिटी रेस्टोरेंट में। उसने ही खाने पर बुलाया था।

‘‘आप वहीं ठहरते न! नंदा, कम-से-कम हर्ष को घर पर एक बार खाना खाने तो बुलाओ!’’ जैसे औपचारिक बातों के बीच रेस्तरां के उस अंधेरे-उजाले में गीता हर्ष को तौल रही थी। बाईं तरफ मांग निकालकर, एक्टरों की तरह बाहर की ओर निकले बाल, आधे फ्रेमवाला चश्मा, क्रीम कलर सिल्क की कमीज और काली बो। काफी साफ रंग, नाक के पास एक छोटा-सा मस्सा और कमीज के बटन-होल से झांकता काले चश्मे का फ्रेम। गीता को लगा, जैसे हर्ष अपने को संवरा दिखाने के लिए बहुत अधिक सचेष्ट है। वह सोचने लगी कि अगर वह नंदा की उम्र में ऐसे आदमी से मिलती तो उसे पंसद करती या नहीं? अब तीस के आस-पास होगा, उस समय तो पचीस रहा होगा। यह सोचकर उसे अच्छा नहीं लग रहा था कि मिस रेमंड के मुकाबले हर्ष भारी प्रतिद्वंद्वी है। और जब-जब वह नंदा को मुग्ध-मयूरी की तरह हर्ष के मुंह का शब्द-शब्द, हर हरकत, हर मुद्रा को आत्मसात् करते देखती तो मन का बोझ और भी भारी लगने लगता।

हर्ष बता रहा था, ‘‘इसका तो हर पत्र दीदी-ही-दीदी से भरा होता है। जब आपकी प्रशंसा करने बैठती है तो पन्नों की गिनती भूल जाती है। हमारी दीदी यों खयाल रखती हैं, हमारी दीदी हमें यों प्यार करती हैं...हम उनके साथ यों पूरी घूमने गए थे...मैं तो जाने कब से सोच रहा था कि एक बार दीदी से मिल तो लें।’’

‘‘यह? इसकी किसी बात का विश्वास मत कर लेना, हर्ष। यह बड़ी तोताचश्म है, ऐसी निगाहें पलटती है कि बस!...लेकिन हां, सारे दिन बस तुम्हारा ही गाना गाती रहती है!’’ पहले तो मन में आया कि मिस रेमंड वाली बात की शिकायत हर्ष से कर दे; लेकिन अपनी प्रशंसा से वह गद्गद हो आई। उसे सचमुच ऐसा लग रहा था, जैसे वह बहुत बड़ी है और नंदा उसकी बेटी है और वह हर्ष के रूप में नंदा के भावी पति से इंटरव्यू ले रही है कि वह उसे सुखी रख सकेगा या नहीं? उसने पास बैठी नंदा को बांहों में भींचकर कहा, ‘‘तुम्हारे पीछे तो पागल है। परसों से छत्तीस बार रोज मुझे साड़ियां और जूड़े दिखा रही है। आज जाकर तुम इसका कमरा देखो, सारी चीजें करीने से लगाई हैं, वरना ये और व्यवस्था? आज रजनीगंधा के गुच्छे भरे हैं, गुलदस्तों में!...दीदी, इस ब्लाउज की फिटिंग ज्यादा अच्छी है या उस चाकलेटी...हर्ष को बिक्र कलर बहुत पसंद है...’’ नंदा उसकी उंगलियां मरोड़ती रही और गीता मुसकराकर कराहती हुई हर्ष को बताती रही। उसे हर्ष का यों धूप के चश्मे के फ्रेम को बटन-होल में लगाना बिलकुल पसंद नहीं आया। यह क्या कॉलेज में पढ़ने वाले लड़कों का टेस्ट है!

नंदा सिंदूरी हो उठी थी और बार-बार सिर झटकाकर अपनी नाराजी जाहिर कर रही थी। जब कुछ और नहीं सूझा तो कांपते हाथों से कांटा पकड़े, मेजपोश के सफेद कपड़े पर सीधी-सीधी धारियां बनाने लगी, ‘‘दीदी, बस, बस, प्लीज!’’ नंदा का यह झेंपता और शरमाता रूप गीता को एकदम नया लग रहा था। उसे लग रहा था कि वह नंदा नहीं है, जिसे वह इतने समय से जानती है।

एक बार निहाल होकर हर्ष ने नंदा के चेहरे को भरपूर देखा, फिर प्यार से उसके कांटेवाले हाथ पर हाथ रखकर बोला, ‘‘नहीं, दीदी, लड़की बहुत सीधी है। आपको तो पूजती है।’’ गीता और नंदा की निगाहों ने मिलकर उस क्षण क्या आदान-प्रदान कर लिया, यह हर्ष को नहीं पता। वह तो अपने प्रवाह में बोलता रहा, ‘‘मैं तो यही सोच-सोचकर बहुत परेशान था कि इतनी बड़ी नई जगह में यह रहेगी कैसे? इसके बिलासपुर रहने के पक्ष में तो मैं शुरू से ही नहीं था। इसकी भी जिद थी और मैं भी समझता था कि इसे बाहर ही जाना चाहिए। इसकी फर्म की दिल्ली ब्रांच से मैंने कह-सुनकर इसकी नौकरी का इंतजाम तो करा दिया, लेकिन समझ में नहीं आता था कि कैसे सब करेगी यह यहां अकेली। दिल्ली रखना संभव होता तो मैं इसे एक दिन को भी बाहर जाने देता? एक दोस्त के यहां रहने का इंतजाम किया तो और तरह की उलझनें आ गईं। जवान और सुंदर लड़की को रखकर कौन बीवी अपने यहां खतरा बुलाना चाहेगी? मैं तो खुद ही आने की सोच रहा था। तभी वहां कुंती भाभी से मुलाकात हो गई। वो बोलीं कि मैं जाते ही इंतजाम कर दूंगी। शायद उनके दिमाग में आपका ही खयाल रहा होगा। तब चैन की सांस आई।’’

हर्ष इस लहजे और अधिकार से नंदा के बारे में बातें कर रहा है, जैसे पत्नी के बारे में ही बातें कर रहा हो। यानी इन लोगों में आपस में इस हद तक बात तय है। गीता के मन में आया, काश, वह पुरुष होती और नंदा के बारे में ऐसी ही संजीदगी और चिंता से बातें करती! उसने दबी-सी सांस ली।

‘‘बस, कुंती भाभी मिल गई तो साल-भर आने का नाम ही नहीं!’’ नंदा शिकायत कर रही थी। ‘जवान और सुंदर लड़की’ पर वह सकुचाकर नीचे देखने लगी थी। ‘‘ओफ्फोह! कल तो इस कदर समझा रहा हूं और फिर वही...तेरा दिमाग है या कुत्ते की पूंछ?’’ हर्ष ने गीता की ओर देखकर कहा, ‘‘आप ही बताइए, दीदी, कहीं भी जाना इतना आसान है? फिर हमारे यहां तो एक शेरनी भी बैठी है।’’

‘‘हां, वही मैं तुमसे पूछना चाहती थी!’’ गीता ऊपर से बुजुर्गी और भीतर से स्थिति टटोलने के लिए पूछने लगी, ‘‘इस तरह आखिर चलेगा कब तक? तुमने भी तो कुछ-न-कुछ सोचा ही होगा न!’’

बैरा सूप की प्लेटें लगाने लगा तो हर्ष एक ओर झुककर उसके लिए जगह बनाता हुआ पूछ बैठा, ‘‘सिगरेट पी लूं, दीदी?’’

‘‘हां-हां, पियो न!’’ हालांकि उसे सिगरेट का धुआं अच्छा नहीं लगता था।

‘‘बस्स!’’ नंदा चिढ़ाकर आंखें नचाती बोली, ‘‘जब से इशारे कर-करके पूछ रहे हैं और मैं कहे जा रही हूं कि पी लो। दीदी के सामने छिपाने में क्या है?’’

पीछे सीट पर रखे कोट की जेब से सिगरेट निकाली, ‘‘नहीं, मैंने सोचा कि शायद आपको आपत्ति हो। इसने मुझे बहुत डरा दिया है कि दीदी बहुत सख्त प्रिंसिपिल्स की प्रिंसिपल हैं। इनके कॉलेज में टीचर्स तक रेशमी साड़ियां पहनकर नहीं आ सकतीं; उल्टे-सीधे बाल बनाना, खुली बांहों के ब्लाउज, सेंट, पाउडर इस्तेमाल करने की सख्त मुमानियत है!’’ और इतनी देर का मुंह में रुका धुआं उसने होंठों की दुष्ट मुसकराहट के साथ नंदा की ओर उड़ा दिया।

‘‘क्या करते हैं?’’ नंदा हाथ से धुआं हटाती पीछे सोफे की पीठ से जा टिकी। गीता ने उसकी ओर देखा, उसे लगा, नंदा बहुत ओवर एक्टिंग कर रही है। उसे उसका आंखें मटकाना, मुस्कराना और इतराना सब बहुत बनावटी लगा। हल्के अफसोस से बोली, ‘‘हां, हूं तो सही, लेकिन इसकी वजह से वह सख्ती चल कहां पाती है!’’

फिर अचानक गीता सुस्त हो गई। वह किसी गलत चीज की गवाह है, किसी गलत बात में सहयोग दे रही है। यों ही चेहरे पर धुआं छोड़ने की आदत ‘मास्टर साहब’ को भी थी। जितनी ही वह झुंझलाती, पापा से शिकायत करने की धमकी देती, उतनी ही दुष्ट जिद के साथ वे बार-बार धुआं आंखों पर फेंकते। शायद सभी पुरुषों की यही आदत होती है। ‘‘लो, दीदी, शुरू करो,’’ जब नंदा ने कंधे से उसे हिलाया तो वह चौंककर अपने में लौट आई। गोल चम्मच से सूप का एक घूंट लेकर नमक देखा।...अब क्या नंदा भी जिंदगी से चली जाएगी? उसे याद आ गया, ‘‘तुमने मेरी बात का जवाब नहीं दिया, हर्ष?’’

‘‘वही तो सोच रहा हूं, दीदी, कि क्या जवाब दूं।’’ मेज पर रखे हाथ की उंगलियों में सिगरेट धुआं देती रही और हर्ष दूसरे हाथ से सूप का क्रीम चम्मच से घोलता रहा, ‘‘यह सच है, दीदी, कि मैं नंदा के बिना नहीं रह सकता। तुम्हें पता है, हम लोगों का परिचय कॉलेज के एक नाटक से हुआ था और उसमें मुझे कुछ इसी तरह के डायलॉग बोलने पड़े थे। तब शायद खयाल भी नहीं था कि इसी नाटक के डायलॉग एक दिन जिंदगी के डायलॉग हो जाएंगे। उसमें एक वाक्य था-तुम मेरी जिंदगी की एक ऐसी सच्चाई, एक ऐसा हिस्सा बन गई हो, जिसे मैं अब और झुठला नहीं सकता!...लेकिन परेशानी है मेरी वाइफ को लेकर...अगर यह मेरी जिंदगी में चार महीने पहले भी आई होती तो हम लोगों को आप शायद किसी और रूप में देखतीं। उसे किसी दूसरी औरत के लिए कोई दया नहीं है। बारहों महीने बीमार रहती है, लेकिन बेहद जिद्दी है और हर पत्नी की तरह यही ठाने बैठी है कि मुझे ठीक रास्ते पर लाकर ही छोड़ेगी। उसके पूजा-पाठ, लड़ाई-झगड़े मुझे एक दिन सद्बुद्धि देंगे और मैं इसे मन से निकाल दूंगा और मेरे मन के विकार शांत हो जाएंगे। लेकिन आप बताइए, वह कैसे मन में शांति महसूस करे, जिसे पता है कि कोई उसकी राह में जिंदगी के सबसे सुनहरे दिन एक-एक करके घुलाए दे रहा है? वह मुझे सारा-का-सारा अपने लिए ही रखना चाहती है और मैं अपने-आपको सारा उसे दे सकने में असमर्थ हूं, क्योंकि मेरी आधी जिंदगी यहां है।’’ गीता ने देखा कि हर्ष के चेहरे पर दर्द उभर आया है। वह कुछ देर रुककर कह रहा था, ‘‘हर पल मैंने यही कोशिश की है कि कहीं कोई रास्ता निकाल लूं, वह मेरी तकलीफ न समझे तो शायद उसे इसी पर दया आ जाए। सच कहता हूं आपसे, दीदी, इन दिनों बहुत ईमानदारी से उसे अपने-आपको सारा दे देने की कोशिश की है, जो कुछ उसने कहा है, किया है-लेकिन लगता है, वह दुहरी जिंदगी अब मुझसे चलेगी नहीं। उसने भी देख लिया है कि वह मुझे सारा नहीं पा सकती! तो अब उसे सारा छोड़ना होगा-शी विल हैव टु लूज मी होल। बस, यही राह देख रहा हूं कि कौन-सा ऐसा तरीका हो सकता है कि मैं उससे अपने-आपको वापस देकर नंदा को सौंप दूं। मैं तो मना रहा हूं कि उसकी बीमारी ही...’’

तभी बैरा आ गया। गीता ने हर्ष की अगली बात की राह देखी, लेकिन भीतर हल्का-सा क्रूर संतोष हुआ-हर्ष की बातों में हर गैर-ईमानदार आदमी की शब्दावली और लहजा है...अभी नंदा को उससे कोई नहीं ले जाएगा, वह गीता के पास ही रहेगी।

नंदा हर्ष के चेहरे को मुग्ध देखती रही और सोचती रही कि हर्ष राह देख रहा है कि अपने को संपूर्ण वापस लेकर उसके पास आ जाएगा और वह सोचती है कि गीता के संपूर्ण को पाकर...वह बेमालूम-सी मुसकराई।

गीता ने हंसकर बात को बहुत हल्का स्तर दे दिया, ‘‘कहीं इसके लिए भी आगे जाकर यही मत मानने लगना!’’ तीनों धीरे से हंसे और इसी तरह की दो-एक बातों के बाद बातें फिर हंसी-परिहास पर आ गईं, और हर्ष अपने उस नाटक की घटना सुनाने लगा, जिसमें नायिका की किसी बात का बुरा मानकर नायक उसे भला-बुरा कहने लगता है, उसके वर्ग और वंश की शान में भी कुछ ऐसा कहता है कि नायिका चांटा मार देती है। हर्ष हंसकर बताने लगा, ‘‘दीदी, इसने ऐसे जोर से तमाचा मारा कि मेरा तो सिर भन्ना गया। बाद में जब शिकायत की तो बोलती है कि पीछे के दर्शकों को कैसे सुनाई देता?’’

जब बाहर हर्ष आगे जाकर पान बनवाने लगा तो नंदा ने पास आकर बहुत डरते-डरते कहा, ‘‘दीदी, हर्ष कहते हैं कि मैं पीछे आ जाऊं। उन्हें मुझसे बातें करनी हैं।’’ ‘‘बातें तो ठीक हैं, लेकिन इन्हें एक बार अपने यहां भी तो बुलाओ!’’ गीता उसके ब्लाउज की बांह के एक छूटे हुए डोरे को खींचकर तोड़ती हुई समझदारी से मुस्कराई। पान लाते हुए हर्ष ने उसकी बात सुन ली थी, ‘‘वो मैं खुद आ जाऊंगा। जब तक मिला नहीं था, तभी तक की बात थी।’’

सामने से जाती टैक्सी को हाथ उठाकर नंदा ने रोक लिया, और तत्परता से बोली, ‘‘दीदी, तुम्हें अकेले जाते हुए डर तो नहीं लगेगा?’’

‘‘हां, लगेगा तो, तू चल छोड़ने?’’ गीता ने हर्ष के हाथ से लेकर दो पान मुंह में रखे और उलाहने से नंदा को देखा तो हर्ष ने पूछा, ‘‘चलो, छोड़ आते हैं दीदी को, क्या है!’’ ‘‘अरे, नहीं-नहीं! मैं तो नंदा से कह रही थी। बहुत हमदर्दी दिखा रही थी न!’’ फिर टैक्सी की ओर बढ़ते हुए कहा, ‘‘यहां रोज अकेले ही तो जाना पड़ता है!’’ उसके स्वर में शिकायत नहीं थी। अचानक ही वह बहुत उदार और प्रसन्न हो आई थी। हर्ष टैक्सी का फाटक खोले खड़ा था।

‘‘नंदा को कुछ देर हो जाए तो माइंड मत करना, दीदी,’’ उसने दरवाजा बंद करके धीरे से कहा।

‘‘लेकिन उससे अकेले नहीं आया जाएगा। उसे पहुंचाकर आना।’’ बंद दरवाजे का शीशा उतारते हुए उसने हर्ष की ओर देखा, तो उसकी आंखों में अनचाहे ही एक परिहास चमक आया, ‘‘पौने दस बजे हैं...घंटे-भर से ज्यादा देर नहीं...और, सुनो, नो बेवकूफी!’’ तब टैक्सी झटके से चल पड़ी। पहले सोचा, जाने सरदार जी ने क्या समझा होगा। फिर खयाल आया कि सारी बातें इतने सांकेतिक ढंग से हो रही थीं कि कुछ भी समझ में नहीं आया होगा। वह रास्ते-भर रेस्तरां की बातों पर मुस्कराती रही।

उस रात हर कार का हॉर्न, हर घर्राटा उसे टैक्सी जैसा लगता और हर आहट चप्पलों और जूतों की आवाज। वह रात-भर करवटें बदलती रही, पहरेदार लाठी से फर्श ठोंक-ठोंककर चक्कर लगाता रहा, स्टेशन की सीटी और लेट तथा अर्ली चलने वाली ट्रामों और बसों का शोर उसकी बेचैनी बढ़ाता रहा और दोनों में से कोई नहीं आया। रेस्तरां का परिहास-भरा वातावरण और मन की उदारता शीघ्र ही समाप्त हो गई और प्रतीक्षा का तनाव अब झुंझलाहट बन गया। बार-बार मन में आता था कि उसी दिन की तरह जाए और झोंटा पकड़कर घसीट लाए उस कुतिया को! यार से चिपकी पड़ी होगी!...झूठा, धोखेबाज आदमी! आएगी तो रोती हुई मेरे ही पास। तब कहूंगी, यहां जगह नहीं है! लेकिन इस बार उसे खींचकर लाने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। हर्ष और रेमंड में फर्क है। हर्ष के सामने नंदा को दांव पर लगाएगी तो हो सकता है, हार जाना पड़े।...सारी रात मुंह पर तकिया रखे, नीचे वह और ऊपर बत्ती, दोनों जलती रहीं और सुबह वह इसी निर्णय पर पहुंची कि हर्ष की पत्नी की तरह सारे को पाने की जिद में हो सकता है, एक दिन उसे सारे से ही हाथ धोना पड़े। इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि गम खा जाए और थोड़ी-सी छूट दे दे और हर्ष जिंदगी-भर तो यहां रहेगा नहीं-चार दिन, छह दिन...दो हफ्ते। फिर उसके भी तो बाल-बच्चे हैं, नौकरी है। कुछ हो, हर्ष पुरुष है और उससे जुआ नहीं खेला जा सकता...नहीं खेलना चाहिए।

अगले दिन, सारे कॉलेज-टाइम में उससे कुछ भी नहीं किया गया और सिर-दर्द का बहाना करके वह माथा पकड़े सोचती रही, और जब रह पाना असंभव हो गया तो रात को जाकर प्यार-दुलार से नंदा और हर्ष की खुशामद करके दोनों को अपने यहां ही ले आई। वह दोनों की स्वतंत्रता में कोई बाधा नहीं पहुंचाएगी। गुस्सा तो ऐसा आ रहा था कि इस मतलबी लड़की का सिर दीवार से दे मारे। कैसी जल्दी वह अपने सारे वायदे-वचन भूल जाती है! जाकर होटल में रहने लगी, जैसे सदा से यहीं रहती हो और यहीं रहना है। और गीता देखती कि कैसी तन्मयता से नंदा गुसलखाने में हर्ष के कपड़े धोती है, कमीज-बुश्शर्ट प्रेस करती है; या अंदर से राखदानी लाकर कूड़े के टीन में सिगरेट के टुकड़े और राख झाड़ती है, तो ऐसी जिम्मेदारी और व्यस्तता का भाव मुंह पर रहता है, मानो वह वर्षों से उसकी पत्नी की जिम्मेदारी निभाती चली आ रही है। कभी उसके कपड़ों पर तो नंदा ने यों अपनी ओर से इस्तिरी नहीं की, उसके तो सिर में तेल भी लगाना होता है तो ऐसा भाव दिखाती है, जैसे जाने कहां की बेगार करनी पड़ रही हो।...उल्टे गीता ही है, जो नहाने जाती है तो उसके छोटे-मोटे कपड़े धो लाती है, अपने कपड़ों के साथ उसके कपड़े तहकर रख देती है, धोबी का हिसाब रखती है...


भौं-भौं-भौं! इस बार बोस बाबू का कुत्ता भूंका तो गीता झटके से जाग्रतावस्था में लौट आई। उसे खयाल ही नहीं आया कि कब वह कुर्सी से उठकर बिस्तरे पर आ लेटी थी, चश्मा सिरहाने रख लिया था और जाने कब तकिया उसके मुंह पर आ गया था। उसने तकिया फिर अपनी जगह रखा और टटोलकर चश्मा उठाया और कुहनियों के बल आधी उठी ही उत्सुक हो आई कि नीचे का लेच खड़के और वह झटपट खाने की मेज पर पहुंच जाए, ताकि लगे कि वह पढ़ने में व्यस्त थी। कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह नीचे की चटखनी लगा आई हो। नहीं खुलेगा तो अपने-आप ही घंटी बजाएंगे और कुहनियों के बल उठी हुई वह यों ही अधर में लटकी-सी कान नीचे लगाए, गर्दन मोड़े शीशे में देखती रही। एक क्षण एक भ्रम-सा उसके मन में आया कि यह कुहनियों के बल उठकर उसे गौर से देखती, शीशे के अंदर लेटी गीता असली है या यह बाहर चारपाई पर पड़ी? और अपना यह भ्रम उसे बिजली के झटके की तरह ऊपर से नीचे तक ऐसा आक्रांत कर गया कि पल-भर के लिए वह इस बत्तियों जलते अकेले फ्लैट में घबरा-सी उठी-शायद...शायद दरवाजा खुलने की आहट में यों आधी उठी, शीशे से झांकती गीता ही असली है...परछाईं तो यह है, जो बाहर लेटी है...