प्रत्याहार द्वारा चारित्रिक उत्थान की समाजशास्त्रीय प्रासंगिकता / कविता भट्ट

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आधुनिक युग में मानव समाज असीम भौतिक संसाधनों व सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण होते हुए भी घातक मानसिक तनाव से ग्रस्त है। मानसिक तनाव विकृत व्यक्तित्व के मूल कारणों में से एक है। मानव का व्यक्तित्व समाज की इकाई है और इसके विकृत होने से समाज का विकारग्रस्त होना स्वाभाविक है। भारतीय दर्शन (चार्वाक् के अतिरिक्त) स्वस्थ मानव समाज हेतु नीतिशास्त्रीय पक्ष का पोषक रहा है। षड्दर्शनों में प्रमुख स्थान रखने वाले योग दर्षन का इस दृष्टिकोण से अपना विशेष महत्त्व है। जब भी योग दर्शन के नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों को सुदृढ़ करने वाले योगचरणों की बात की जाती है; तो उसके अष्टांग मार्ग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि) में से यम एवं नियम को ही इसके लिए श्रेष्ठ माना जाता है। ध्यातव्य है कि यम नियम द्वारा नैतिक उत्थान का जो प्राथमिक अभ्यास है; वह प्रत्याहार के अभ्यास द्वारा और भी अधिक परिपोषित होता है। प्रत्याहार के इस पक्ष का यथोचित विवेचन नहीं किया गया; जबकि उन्नत समाज हेतु नैतिक पक्षों का विवेचन महती आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि चारित्रिक उत्थान हेतु समग्र भारतीय दर्शन (चार्वाक् को छोड़कर) इन्द्रिय-निरोध को केन्द्रीय विषय मानता है; किन्तु इसे कैसे सिद्ध किया जाय इसकी यथोचित प्रक्रिया योगदर्शन ही प्रस्तुत करता है। योगदर्शन विभिन्न यौगिक प्रक्रियाओं (त्राटक, योगनिद्रा एवं भावातीत ध्यान आदि) के द्वारा इन्द्रिय-निरोध की प्रक्रिया को प्रत्याहार के रूप में प्रस्तुत करता है। इसके द्वारा मानसिक स्वास्थ्य एवं चारित्रिक परिशुद्धि के माध्यम से व्यक्ति का नैतिक उत्थान होता है। इसके परिणामस्वरूप स्वस्थ मानव इकाई द्वारा स्वस्थ मानव समाज की परिकल्पना सत्य सिद्ध होना स्वाभाविक है।

इसलिए प्रस्तुत शोध-पत्र में प्रत्याहार जैसे अल्प-विवेचित योगचरण के नैतिक पक्ष को विवेचित करने का प्रयास करेंगे। ऐसा दो कारणों से है; प्रथम-प्रत्याहार सम्पूर्ण योगसाधना में महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि इसके बिना बहिरंग योग से अंतरंग योग में प्रविष्टि की प्रक्रिया सम्पन्न होना नितांत असम्भव है। द्वितीय-साधना के साथ-साथ प्रत्याहार का अभ्यास चारित्रिक उत्थान का श्रेष्ठ साधन है।

प्रस्तुत शोध-पत्र के अन्तर्गत हम प्रत्याहार के अभ्यास से व्यक्तिपरक नैतिक उत्थान को विवेचित करने का प्रयास करेंगे। इस हेतु शोध-पत्र को तीन भागों में विभाजित किया गया है। प्रत्याहार का अर्थ, परिभाषा, लक्षण, लक्ष्य तथा योगसाधना में इसके महत्त्व आदि; योगदर्शन में निर्देशित प्रत्याहार के दार्शनिक आधार; तथा प्रत्याहार अभ्यास द्वारा चारित्रिक परिशुद्धि को शोध-पत्र में क्रमशः प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय भाग में विवेचित करने का प्रयास करेंगे।

प्रथम भाग

प्रत्याहार का अर्थ, परिभाषा, लक्षण, लक्ष्य तथा योगसाधना में इसके महत्त्व

चारित्रिक परिशुद्धि के द्वारा व्यक्ति की मानसिक कुंठा समाप्त होती है। इस दृष्टि से योग दर्शन श्रेष्ठ है, किन्तु इसका आधा-अधूरा प्रचार व दिग्भ्रमित करने वाला ज्ञान इसके उच्चतम् लक्ष्यों की प्राप्ति में एक बड़ी बाधा है। स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में पूर्ण व सही ज्ञान होना आवश्यक है; तभी योग प्रणाली आधुनिक मानव समाज के लिए भौतिक व आध्यात्मिक उन्नति का श्रेष्ठ साधन सिद्ध हो सकती है।

योग प्रणाली के बहिरंग साधनों (यम, नियम, आसन, प्राणायाम एवं प्रत्याहार) तथा अंतरंग साधनों (धारणा, ध्यान व समाधि) में से प्रत्याहार अल्प-विख्यात किंतु अत्यंत महत्त्वपूर्ण शृंखला है। यह साधक को बहिर्मुखता से अर्न्तमुखता की ओर प्रवृत्त करने की उत्कृष्ट तकनीक है। यह योगसाधना का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक अभ्यास है; किन्तु इसका अपेक्षित प्रचार-प्रसार न हो पाना निराशाजनक है। इस दृष्टि से प्रत्याहार का यथोचित विवेचन आवश्यक है; जिसे ध्यान में रखते हुए सर्वप्रथम प्रत्याहार का अर्थादि जानना आवश्यक है; अब हम इसी पर अपना ध्यान एकाग्र करेंगे।

प्रत्याहार का शाब्दिक अर्थ- प्रति व आहार दो पदों से मिलकर बने प्रत्याहार शब्द में प्रति का अर्थ है- विपरीत तथा आहार के दो अर्थ हैं- पहला संज्ञात्मक है व दूसरा क्रियात्मक। संज्ञात्मक रूप से इसका तात्पर्य उन विषयों से है जिनमें पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ स्वाभाविक रूप से संलग्न रहती हैं। आंख, जिह्वा, नाक, कान व त्वचा इन्द्रियाँ क्रमशः रूप, रस, गन्ध, शब्द एवं स्पर्श जैसे पांच विषयों से निरन्तर संलग्न रहती हैं। क्रियात्मक रूप से आहार का तात्पर्य है- आहरण, पीछे मोड़ना, खींचना, वापस लाना। उल्लेखनीय है कि इन्द्रियों का स्वभाव ही बहिर्मुखी है, जो योगमार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। इन इन्द्रियों को इनके विषयों से आहरित करके अंतर्मुखी करने का अभ्यास प्रत्याहार कहलाता है। प्रत्याहार के अर्थ को समझने के पश्चात् योगप्रणाली में इसके महत्त्व को जानना अपेक्षित है, जो संक्षेप में इस प्रकार जाना जा सकता है।

योगसाधना में प्रत्याहार का महत्त्व- बहिर्मुखी साधक को अर्न्तमुखी बनाना ही प्रत्याहार का आध्यात्मिक लक्ष्य है। साधक की इन्द्रियों का विषयों से अलगाव व अन्तर्मुखी स्वभाव योगाभ्यास की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। उल्लेखनीय है कि जब तक साधक बाह्य विषयों व भौतिक लिप्साओं में भटकता रहेगा उसका योग में सफल होना असंभव है। साथ ही जब तक मात्र बहिरंग साधनों का अभ्यास किया जाता रहेगा योग के वृहत् लक्ष्यों का प्राप्त होना संभव ही नहीं है। यहाँ यह स्पष्ट करना अनिवार्य है कि प्रत्याहार के अभ्यास के बिना योगाभ्यास के अंतरंग साधनों के अभ्यास का प्रश्न ही नहीं उठता। महर्षि पतंजलि योग के बहिरंग व अंतरंग साधनों के मध्य की श्रृंखला के रूप में प्रत्याहार को इस प्रकार बताते हैं, ‘‘यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमधयोऽष्टावगांनि॥”1 अर्थात् यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि योग के आठ साधन स्वरूप अंग हैं। उल्लेखनीय है कि यम से प्रत्याहार तक के साधनों को बहिरंग साधन व धारणा से समाधि तक को अंतरंग साधनों के रूप में प्रस्तुत किया गया है; किन्तु प्रक्रिया एवं लक्ष्यों के दृष्टिकोण से प्रत्याहार को पूर्णतः बहिरंग भी कहना उचित नहीं होगा। इसे बहिरंग व अंतरंग साधनों के मध्य सेतु कहना अधिक उचित होगा; क्योंकि यह साधक को बहिर्मुखता से अन्तर्मुखता की ओर अग्रसर करता है।

उल्लेखनीय है कि राजयोग की जिस प्रणाली का तकनीकीय व प्रायोगिक पक्ष हठयोग के माध्यम से ही अभ्यास के लिए सुलभ है उसमें हठयोग के विविध आचार्यों द्वारा भी प्रत्याहार को सम्पूर्ण योग साधना में सर्वाधिक आवश्यक माना है। सिद्ध हठयोगी गुरू गोरक्षनाथ के अनुसार भी योग के उपरोक्त आठ चरण ही माने गये हैं। वे भी योग को यम से ही प्रारम्भ करते हैं, किंतु वे यम को कुछ इस प्रकार बताते हैं, ‘‘यम इति उपशमः, सर्वेन्द्रिय जयः, आहार-निद्रा-शीत-वाता-तपजयश्च। एवं शनैः शनैः साधयेत्।‘‘2 अर्थात् यम उपशम है; इसके अन्तर्गत सभी इन्द्रियों को वश में करके शान्त करना प्रमुख प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में साधक को शनैः-शनैः अपनी समग्र इन्द्रियों को यथाक्रम उनके विषयों से विमुख करते हुए; आत्मचिंतन में प्रवृत्त करना चाहिए। इन्द्रियों को अपने वश में कर आहार, निद्रा, शीत, वात व आतप आदि द्वन्द्वों (दुःखयुगलों) को नियन्त्रित करना चाहिए। स्पष्ट है कि हठयोग के दृष्टिकोण से साधना का प्रारम्भ ही उपयुक्त आहार-विहार करते हुए अपनी इन्द्रियों को नियन्त्रित करने से होता है। इस प्रकार गुरु गोरक्षनाथ भी महर्षि पतंजलि के समान ही योग का प्रारम्भिक चरण यम को तो मानते हैं, किन्तु इसमें वे प्रत्याहार को भी सम्मिलित करते हैं। उल्लेखनीय है कि राजयोग व हठयोग का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है व राजयोग का आधार हठयोग है। शिव संहिता में स्वयं भगवान शिव ने भी राजयोग के आधारस्वरूप हठयोग को सद्गुरु के मार्गदर्शन में करने का निर्देश दिया है। राजयोग की सिद्धि हठयोग के अभाव में असंभव बतायी गयी है।

‘‘हठं बिना राजयोगो, राजयोगं बिना हठः।

न सिध्यति ततो युग्मा निष्पत्तेः समभ्यसेत्।

तस्मात् प्रवर्तते योगी हठे सद्गुरू मार्गतः।।” 3

उपर्युक्त श्लोक से स्पष्ट होता है कि हठयोग ही राजयोग की अनिवार्यता है। इससे पूर्व ही हम विवेचित कर चुके हैं कि गुरु गोरखनाथ यम के अन्तर्गत प्रत्याहार को ही हठयोग का प्रारम्भिक चरण मानते हैं। यदि राजयोग की नींव हठयोग है और हठयोग का प्रारम्भ प्रत्याहार से हो रहा है तो इस दृष्टिकोण से प्रत्याहार हठयोग एवं राजयोग दोनों के आधार के रूप में प्रतिष्ठापित होता है। अतः कहा जा सकता है कि अभ्यास के दृष्टिकोण से योगसाधना प्रत्याहार पर ही आधारित है। इस प्रकार हठयोग व राजयोग के आधारस्वरूप प्रत्याहार सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगचरण के रूप में प्रतिष्ठापित होता है। प्रत्याहार के महत्त्व को जानने के पश्चात् इसके लक्षण, प्रक्रिया व लक्ष्य को जानना अपेक्षित होगा।

प्रत्याहार के लक्षण, प्रक्रिया व लक्ष्य- महर्षि पतंजलि प्रत्याहार की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, ‘‘स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।”4 अर्थात् प्राणायाम का अभ्यास करते-करते मन और इन्द्रियों का शुद्धीकरण होने के पश्चात् इन्द्रियों की बाह्यवृत्ति को सब ओर से समेटकर मन में विलीन करने के अभ्यास को प्रत्याहार कहते हैं। जब साधनाकाल में साधक इन्द्रियों के विषयों का त्याग करके चित्त को अपने ध्येय में लगाता है, उस समय जो इन्द्रियों का विषयों की ओर न जाकर चित्त में विलीन सा हो जाना प्रत्याहार सिद्धि की पहचान है।

प्रत्याहार के लक्षण उल्लेखित करते हुए गुरु गोरक्षनाथ सिद्धसिद्धान्तपद्धति में लिखते हैं, ‘‘प्रत्याहार इति चैतन्यतुरंगाणां प्रत्याहरणम्। विकारग्रसने उत्पन्नविकारस्यापि निवृत्तिर्भवतीति प्रत्याहारलक्षणम्।‘‘5 अर्थात् चैतन्यता की वाहक आत्मा के इन्द्रियादि अश्वों के रूप, रस, शब्द, गन्ध व स्पर्श आदि विषयों से प्रत्याहरण (लौटाना)। उन इन्द्रियों के विकारग्रस्त होने से उत्पन्न विकारों की समाप्ति होना ही प्रत्याहार कहलाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जब तक साधक का चित्त विषयों में संलिप्त रहेगा तब तक वह आत्माभिमुख होने में पूर्णतः असमर्थ ही रहेगा। इसके लिए प्रत्याहार के बाह्य विषयों से विमुखीकरण जैसे लक्षणों को अनिवार्य रूप से विकसित करना योगसाधना में महत्त्वपूर्ण है। अब प्रश्न उठता है कि प्रत्याहार सिद्ध होने से योगसाधना में किस लक्ष्य की प्राप्ति होती है। इसका समाधान महर्षि पतंजलि ने पातंजलयोगसूत्र में इस प्रकार किया है, ‘‘ततः परमावश्यतेन्द्रियाणाम्।”6 अर्थात् प्रत्याहार सिद्ध हो जाने पर योगी की इन्द्रियाँ उसके सर्वथा वश में हो जाती हैं; अनुशासनहीनता का सर्वथा अभाव हो जाता है। प्रत्याहार सिद्धि के पश्चात् इन्द्रिय विजय के लिए अन्य किसी भी साधन की आवश्यकता नहीं रहती है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रत्याहार के बिना योग के साधनों की सिद्धि या कैवल्य प्राप्ति की बात करना आकाश-कुसुम होगा। योग तकनीकि में प्रमुख स्थान होने पर भी इस साधन की अपेक्षित व्याख्या व विवेचन अभी तक नहीं किया गया।

द्वितीय भाग

योगसाधना द्वारा चित्तवृत्तिनिरोध एवं उनमें प्रत्याहार की भूमिका


यद्यपि योगदर्शन की तत्त्वमीमांसीय पृष्ठभूमि सांख्य पर आधारित है; तथापि दुःख-निवृत्ति के उद्देश्य से यह अष्टांग साधना प्रतिपादित करता है। चित्तवृत्तिनिरोध, क्लेश निवारण, विभूति एवं सिद्धि-प्राप्ति तथा समाधि व कैवल्य आदि इसके प्रमुख दार्षनिक सिद्धान्त हैं। नैतिक उन्नयन हेतु चित्तवृत्तिनिरोध एवं क्लेशनिवारण ही प्रासंगिक हैं; इसलिए व्यक्तिपरक संतुलन एवं सामाजिक उन्नयन हेतु इनकी प्रासंगिकता को दृष्टिगत रखते हुए अब हम इनके संक्षिप्त विवेचन का प्रयास करेंगे।

चित्तवृत्तिनिरोध

महर्षि पतंजलि लिखते हैं, ‘‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।” 7 अर्थात् चित्त की वृत्तियों का पूर्णतः नियंत्रण या निरोध ही है। उपाय हेतु महर्षि लिखते हैं, ‘‘अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।”8 अर्थात् अष्टांग योग के अभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा उन चित्तवृत्तियों का निरोध करना चाहिए। अष्टांग योगाभ्यास के अन्तर्गत प्रत्याहार के महत्त्व का उल्लेख हम कर चुके हैं। तत्पश्चात् वैराग्य भी प्रत्याहार के अभाव में असम्भव है; ऐसा मानते हुए महर्षि लिखते हैं, ‘‘दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्।”9 अभिप्राय यह है कि अन्तःकरण एवं इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष अनुभवों में आने वाले समस्त भोग दृष्ट के अन्तर्गत हैं। अनुश्रविक विषय वे हैं जिनके भोगों के सम्बन्ध में वेदों, शास्त्रों आदि में वर्णन है व हम उन्हें भोगना चाहते हैं। इस प्रकार जब दोनों ही प्रकार के विषयों से चित्त तृष्णारहित हो जाय व भोगों से विराग हो जाए, तो वैराग्य नामक वशीकार संज्ञा होती है। इस प्रकार इन्द्रियों को भोगों से विरक्त करना अभ्यास तथा वैराग्य दोनों ही दृष्टिकोणों से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। चित्तवृत्तिनिरोध के पश्चात् क्लेशों से निवृत्ति योग का दूसरा प्रमुख लक्ष्य है, इसलिए अब हम इसके सन्दर्भ में प्रत्याहार को संक्षेप में समझने का प्रयास करेंगे।

क्लेश निवारण

महर्षि मानते हैं, ‘‘वृत्तयः पंचतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।”10 अर्थात् वृत्तियाँ दो प्रकार की हैं- क्लेशदायक व अक्लेशदायक। इन दोनों ही प्रकार की वृत्तियों में से प्रत्येक के पाँच-पाँच भेद हैं। अक्लेशदायक वृत्तियाँ क्लेशदायक वृत्तियों का क्षय करने में सहायक हैं; इसलिए ये कुछ सीमा तक योगसाधना में सहायक हैं, किन्तु उसके उपरान्त इन्हें भी त्यागना आवश्यक है। साधक को पहले अक्लेशदायक वृत्तियों द्वारा क्लेशदायक वृत्तियों को समाप्त करना चाहिए; तत्पश्चात् अक्लेशदायक वृत्तियों का भी निरोध करना चाहिए। पतंजलि मानते हैं, ‘‘अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशः क्लेशाः।‘‘11 अर्थात् अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष व अभिनिवेश ये पाँचों क्लेशदायक वृत्तियाँ हैं। अविद्या का अर्थ है- अनित्य, अपवित्र, दुःख व अनात्म को क्रमशः नित्य, पवित्र, सुख व आत्म समझना। अस्मिता का अर्थ है दृक् शक्ति व दर्शनशक्ति को एक ही समझना। राग का अर्थ है- सुख-साधनों से प्रेम करना। द्वेष का अर्थ है दुःख के कारणों से घृणा करना। अभिनिवेश का अर्थ है- मृत्यु का भय। ये पांचों क्लेशदायक वृत्तियाँ हैं। योगाभ्यास क्लेश-निवृत्ति के उपरांत साधक हेतु कैवल्य के रूप में परमशुभ लक्ष्य का पथ प्रशस्त करता है। साथ ही व्यावहारिक दृष्टि से भी क्लेशों का निवारण व्यक्ति को मानसिक शान्ति व सुख की ओर अग्रसर करता है। योगदर्शन के मनोवैज्ञानिक पक्ष का विश्लेषण बताता है कि अविद्या क्लेशों का मूल कारण है। महर्षि पतंजलि का मानना है कि प्रतिप्रसव के द्वारा अविद्यासहित अन्य क्लेशों को भी सूक्ष्म किया जाना चाहिए। इसके लिए वे ध्यान का महत्त्व बताते हुए लिखते हैं, ‘‘ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः।”12 अर्थात् ध्यान के द्वारा इन वृत्तियों का नाश करना चाहिए। ध्यान प्रत्याहार का अग्रिम चरण है। यदि प्रत्याहार के द्वारा बाहर से आने वाली इन्द्रिय संवेदनाओं से तटस्थता नहीं हो सकेगी तो ध्यान का अभ्यास भी सम्भव नहीं। उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि योग में प्रतिप्रसव हेतु प्रत्याहार अत्यंत उपयोगी प्रक्रिया है।

प्रतिप्रसव भाव प्रत्याहार का एक पक्ष है किन्तु प्रत्याहार द्वारा इस भाव को विकसित करने की प्रक्रिया के अन्तर्गत चारित्रिक परिशुद्धि इसका अतिमहत्त्वपूर्ण पक्ष है। यह पक्ष व्यक्तिगत एवं सामाजिक दृष्टि से अनेक नैतिक निहितार्थों का पोषक है। यही शोधपत्र के तृतीय भाग की विषयवस्तु है जो व्यावहारिक रूप से अत्यंत प्रासंगिक है; इसे समझने हेतु अब हम इसी पर अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे।

तृतीय भाग

प्रत्याहार अभ्यास द्वारा चारित्रिक परिशुद्धि के माध्यम से सामाजिक उत्थान

आधुनिक युग में हम सामाजिक रूप से वर्गसंघर्ष एवं वर्गविभेद को मुख्य समस्याओं के रूप में देख सकते हैं। धनिक एवं निर्धन वर्ग में बढ़ती विषमता के कारण वर्ग-संघर्ष और भी अधिक बढ़ता जा रहा है। वैमनस्य तो इसका परिणाम है ही किन्तु यदि कारणों पर दृष्टि डाली जाय तो अवसरों का समान आबंटन न होना तथा अनियन्त्रित इच्छाएँ इसके कारण कहे जा सकते हैं। धनिकों की बढ़ती इच्छाएँ व अप्राकृतिक तथा अवैधानिक ढंग से किया जाने वाला शोषण तथा निम्न वर्ग की मूलभूत आवश्यकताओं का सम्मान न करना भी एक प्रकार का वैमनस्य उत्पन्न करता है। इससे भेद-भाव व मानसिक संकीर्णता उत्पन्न होती हैं। ऐसे में परस्पर घृणा एवं तिरस्कार के कुत्सित भाव समाज के सभी व्यक्तियों को भोगने पड़ रहे हैं। आत्म-निरीक्षण द्वारा स्वयं के सुधार से सामाजिक उत्थान हेतु आवश्यक समभाव विकसित होता है। आत्म-निरीक्षण जैसी महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया एकमात्र प्रत्याहार द्वारा ही सम्पन्न होती है, जो व्यक्तिपरक अहं से मुक्ति प्रदान करती है। यह प्रक्रिया व्यक्तित्व को परिष्कृत करते हुए हमें सभी व्यक्तियों के प्रति समभाव विकसित करने में सहयोग प्रदान करती है।

भारतीय सभ्यता का मूल मंत्र समभाव है। इस सम्बन्ध में ‘‘ऋग्वेद कहता है सब मनुष्य जाति एक ही है- एकैव मानुषी जातिः। सब मनुष्य भाई हैं- भ्रातरो मानवाः सर्वे।” 13 लेकिन यदि हम विचार करें; तो आज इस विचारधारा के पर्याप्त विपरीत परस्पर संघर्ष में ही मनुष्य अपनी शक्ति को स्वाहा कर रहा है। इस समस्या का समाधान प्रत्याहार के व्यावहारिक उपयोग द्वारा सम्भव है। सामाजिक दृष्टिकोण से समरसता हेतु जिस समभाव की आवश्यकता है, वह वैमनस्य से उत्पन्न होने वाले आपसी संघर्ष को समाप्त करके प्राप्त किया जा सकता है। आचार्य रजनीश इस संघर्ष को समाप्त करने के सन्दर्भ में आत्म-निरीक्षण की उपयोगिता को इस प्रकार विवेचित करते हैं, ‘‘ऐसे लोग हैं संसार में जो दूसरों के साथ एक गहरी प्रतियोगिता में उलझे हैं- व्यापार में, राजनीति में, इधर-उधर की बातों में। फिर वे थक जाते हैं। यदि वे थोड़े भी बुद्धिमान हैं, तो वे थक ही जायेंगे। फिर वे अपने अहंकार से ही लड़ने लगते हैं, जो कि एक आवरण है। एक दिन वह आवरण भी हट जाता है, तब लड़ने के लिए, संघर्ष करने के लिए कुछ बचता नहीं। जब संघर्ष करने के लिए कुछ नहीं बचता, तो अहंकार के लिए इंच भर भी सरकना असम्भव हो जाता है, क्योंकि अहंकार का पूरा प्रशिक्षण ही किसी न किसी के साथ संघर्षरत रहना है- या तो दूसरे के साथ या फिर अपने अहंकार के साथ है। जब लड़ने के लिए कुछ नहीं रहता, कोई बाधा नहीं रहती, तो ठहराव आ जाता है।‘‘14 इस ठहराव को हम प्रत्याहार से उत्पन्न होने वाली एक विशेष स्थिति कह सकते हैं, जो यथार्थानुभूति के द्वारा अधिक भौतिक संग्रह की अनिच्छा को उत्पन्न करने में सहयोगी है। इसी के कारण व्यक्ति में अपनी इच्छाओं का नियन्त्रण एवं दूसरे की इच्छाओं के सम्मान जैसे भाव परिपोषित होकर ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ जैसी भाईचारे की भावना सुविकसित हो जाती है।

व्यक्तियों से मिलकर ही समाज का निर्माण होता है व व्यक्तियों की मानसिकता ही समाज के प्रति उसके उत्तरयायित्व को सुनिश्चित करती है। परन्तु यह तब तक सम्भव नहीं है जब तक व्यक्ति स्वयं को एक विश्वात्मा के समान न समझकर अपने व्यक्तिगत अहं में ही बँधा रहेगा। वास्तव में हमारा अहं ही है जो कि हमारी मानसिकता को संकीर्ण करके समाज के अन्य व्यक्तियों से हमारी दूरी बनाता है। यह अहंभाव वास्तव में हमारे इंद्रियाश्रित भौतिक शरीर से उत्पन्न एक प्रत्यय ही होता है। जबकि चेतन स्वरूप पुरुष तो सार्वभौम है। प्रत्याहार हमें अपने अहं भाव को चित्त में समेटकर आत्मोन्मुख करने हेतु मार्ग दिखाता है। श्री अरविन्द इस तथ्य को इस प्रकार स्पष्ट करते हैं, ‘‘मनुष्य को पूर्ण रूप से अपनी सत्ता का स्वामी बनने के लिए... अपने अन्दर उस वास्तविक मनुष्य या उच्चतम पुरुष को ढूंढना होगा जो स्वतन्त्र तथा अपनी अविच्छेद्य शक्ति का स्वामी है। उसे मानसिक, प्राणिक, भौतिक अहं में रहना छोड़ना होगा। यह अहं उसकी वास्तविक आत्मा नहीं, अपितु प्रकृति का एक करण है जिसके द्वारा प्रकृति ने मनुष्य के अन्दर मन, प्राण और शरीर में रहने वाली एक सीमित एवं पृथक् व्यक्तिगत सत्ता की भावना विकसित की है।...जब तक तदाकारता बनी रहती है तब तक आत्मा इस यान्त्रिक चक्र और संकीर्ण कार्य में आप से आप कैद हुई रहती है और जब तक वह इनसे परे नहीं चली जाती तक वह अपने वैयक्तिक जीवन का स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग नहीं कर सकती।... इसी कारण योग की एक अनिवार्य क्रिया यह है कि जिस बाह्य अहं बुद्धि के द्वारा हम मन, प्राण और शरीर की क्रिया के साथ अपने आपको एकाकार किए हुए हैं उससे हम पीछे हट जायें ताकि भीतर अपनी अन्तरात्मा में रहने लगें। बहिर्मुख अहंबुद्धि से मुक्ति आत्मा के स्वातन्त्र्य और प्रभुत्व का प्रथम पग है।...इससे हम अपने अन्दर के ऐसे पुरुष को जान लेते हैं जो आत्मज्ञान एवं विश्वज्ञान प्राप्त करने के लिए मन की भूमिका पर स्थित है और जो आत्मानुभव एवं विश्वानुभव प्राप्त करने के लिए तथा अन्तर्मुख और बहिर्मुख कार्य व्यापार करने के लिए अपने आप को एक व्यक्ति समझता है, किन्तु फिर भी मन, प्राण और शरीर से भिन्न है।” 15

	सामाजिक विसंगतियों एवं प्रज्ज्वलित अन्तःकरण को निदानस्वरूप स्पष्ट करते हुए डॉ.  राधाकृष्णन् लिखते हैं, ‘‘ अननुशासित दृष्टि, अपरीक्षित अन्तःप्रज्ञा, आत्यन्तिक भावावेग, अन्धविश्वास, कट्टरता, तथा पागलपन के स्रोत हैं।...जो सामाजिक बुराइयाँ हमारे जीवन को पंगु कर रही हैं, उनसे हमें लड़ना ही होगा। आदतें, विद्वेष, स्थापित स्वार्थों को तोड़ना होगा। महत् कार्य और क्षुद्र मन साथ नहीं चल सकते। हमें पैनी अन्तःप्रवेशी प्रज्ञाओं, सर्जनात्मक आदर्शों और प्रज्ज्वलित अन्तःकरण की आवश्यकता है।...संघर्ष है चेतन अभिप्राय एवं अचेतन मनोवेग के बीच। मनुष्य भलाई-बुराई का, ज्ञान एवं मूढ़ता का मिश्रण है। हमें स्वयं अपने से, दुर्बलता से, अपनी प्रकृति में निहित भ्रष्टता से अपनी रक्षा करनी है। यह विश्व पतित मानव का घर है, जहां विवेक का राज्य होना चाहिए किन्तु राज्य है वस्तुतः अविवेक का।...अपने प्रयत्न से हम अपने अन्दर के द्वन्द्व को मिटा सकते हैं ओर अपने जीवन से घृणापूर्ण संवेगों को नष्ट कर सकते हैं तथा प्रेम और भाईचारे की भावना बढ़ा सकते हैं। हमें उन राक्षसों से एकान्त में लड़ना ही होग जो हमारी प्रगति का विरोध करते हैं- स्वयं अपने ही बनाए हुए राक्षसों से। एक ऐसी नैतिक ऊर्जा की नवीन उपलब्धि की तीव्र आवश्यकता है जो समाज को एक नये ढाँचे में ढालने में सहायक हो।”16 वास्तव में उपरोक्त विवेचन के माध्यम से डॉ राधाकृष्णन् जिस द्वन्द्व की बात कर रहे हैं वह अनियन्त्रित इन्द्रिय सुख हेतु वासनाओं से उत्पन्न होता है। हम अधिकाधिक स्वादिष्ट भोजन करना चाहते हैं, अत्यधिक सुसज्जित व कीमती वस्त्र पहनना चाहते हैं, हमारे शरीर को सुखद स्पर्श ही चाहिए। हम सुविधाओं को भोगते समय समाज के उस वर्ग के विषय में विचार ही नहीं करते जिसके अथक परिश्रम के कारण हम भोजन हेतु अन्न को प्राप्त करते हैं। धनी वर्ग को उस किसान या श्रमिक की समस्याओं का क्या आभास जो समाज के विभिन्न वर्गों हेतु अन्न एवं वस्त्रादि उत्पादन में अपना जीवन समाप्त कर देते हैं, किन्तु उसके पारिश्रमिक स्वरूप यह वर्ग अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को भी पूर्ण नहीं कर पाता। 

वास्तव में आधुनिकयुगीन सामाजिक वर्ग संघर्ष को समाप्त करने हेतु तथा भाईचारे को स्थापित करने हेतु इच्छाओं व आवश्यकताओं में अन्तर स्पष्ट करते हुए मात्र आवश्यकताओं को प्रधानता देना ही हमारे समाज के प्रत्येक व्यक्ति का लक्ष्य होना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि समाज के कुछ वर्गों को अनियन्त्रित भोज्य पदार्थ को पचाने हेतु दवाओं का सेवन करना पड़े वही दूसरे वर्ग को अथक परिश्रम के पश्चात् भी कुपोषण का ग्रास बनना पड़े। प्रत्याहार योग का ऐसा अद्वितीय अभ्यास है जो हमें मूलभूत आवश्यकताओं एवं अतिशत भोग हेतु वासना-विषयों में विभेद करना सिखाता है। यह सिखाता है कि भोजन जीवन हेतु आवश्यक है; जिह्वा के असंयमित स्वाद हेतु नहीं।

इन विसंगतियों को स्पष्ट करते हुए आचार्य श्रीराम शर्मा लिखते हैं, ‘‘अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों, मुद्रा की क्रय शक्ति, वैज्ञानिक प्रगति, यान्त्रिक सभ्यता, अधिकोष (बैंकिंग) सुविधाओं की प्रचुरता, यातायात व संचार के दु्रत साधनों ने मनुष्य की उपार्जन शक्ति में आश्चर्यजनक वृद्धि कर दी है। वे ही साधन सामाजिक वैषम्य को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं। उसके आज की वैज्ञानिक प्रगति का एक अभिशाप मानें तो अत्युक्ति नहीं होगी। हमारे देश की ही दशा देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि व्यक्ति अपने विश्व मानव परिवार के सदस्यों के हिस्से की, उनके मुँह की रोटी को किस निर्दयता से छीनकर अपने खजाने को भर रहा है। इसके लिए व नीति-अनीति, औचित्य-अनौचित्य की चिंता नहीं करता। लोग दाने-दाने को तरसें, किन्तु स्वार्थ की मदिरा पी मदमस्त हुए लोगों को अपने गोदामों में अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से लाखों टन खाद्यान्न छिपाते लज्जा नहीं आती। यही हाल अन्य उपभोक्ता वस्तुओं का है। अधिक लाभ कमाने का लोभ जिन व्यापारियों को मन में शेर की दाढ में खून की तरह लगा गया है वे जाने क्या-क्या हथकण्डे अपनाते है। यह बताने की आवश्यकता नहीं। उसके परिणामस्वरूप देश में गरीबी, बेकारी, महँगाई, भ्रष्टाचार आदि अनेकानेक समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं।... परिग्रह का अर्थ संग्रह करना ही नहीं है, वरन् अपने उपभोग, सुख, ऐश्वर्य व अधिक लाभ पाने के उद्देश्य से इकठ्ठी की हुई वस्तुएँ व धन सम्पदा आदि सभी परिग्रह की सीमा में आती हैं।... धर्म के शाश्वत नियमों जिनमें अपरिग्रह मूल है, का पालन आज के युग में और भी अनिवार्य हो गया है। उनके पालन से हीं व्यक्ति का अपना तथा अपने समाज का हित है।‘‘17

इस सम्बन्ध में आधुनिक युग की त्रासदी एवं उसके निदान स्वरूप प्रवृत्तियों को सुधारने व भौतिकता एवं सत्ता की लालसाओं पर अंकुश लगाना समाज के आपसी सामंजस्य एवं सौहार्द हेतु आवश्यक है। यह प्रत्याहार द्वारा इन्द्रियों को अनुशासित करने के उपरान्त ही सम्भव है। इस प्रकार का सुझाव डॉ. राधाकृष्णन् प्रस्तुत करते हैं, ‘‘आधुनिक मानव की यह दुविधा है कि वह जीवन में निराश है, किन्तु मरना नहीं चाहता। जीवित रहने की यह मूलवृत्ति हमें आशा देती है जिस शत्रु से हमें लड़ना है, वह पूंजीवाद या साम्यवाद नहीं हैं, हमारी अपनी ही बुराई है, हमारी आध्यात्मिक अन्धता, सत्ता के प्रति हमारी आसक्ति और प्रभुत्व के लिए हमारी वासना है। यदि हम अणु-युग की अविश्वसनीय यथार्थता के साथ अपना समंजन नहीं करते, यदि हम अपनी पुरानी आदतों में सुधार नहीं करते...तो हम विलुप्त हो जायेंगे। ...मुक्त मानव व्यक्ति को उसके लिए एक सामाजिक पक्ष भी है किन्तु जब तक वह मानव प्राणी बना रहता है। तब तक उसके हृद्य में एक ऐसी निर्दोषता बनी रहती है। जिसकी कोई व्याख्या नहीं की जा सकती। हमारे अन्दर जो आत्मपरक है वहीं हमें व्यक्त्गित स्वातंत्र्य एवं उत्तरदायित्व के योग्य बनाता है हमें अपने को मुक्त करने के लिए अपनी इस आत्मिक शक्ति को फिर से दृढ़तापूर्वक ग्रहण करना चाहिए। हम सब सम्पूर्णतः इच्छाओं एवं आवष्यकताओं के दास नहीं हैं।... राजनीतिक व आर्थिक कार्यसाधकता के विवर्तनशील बालुका-कणों पर नहीं, नैतिक यम-नियम की दृढ़ चट्टान पर ही ऐसे सभ्य समाज का निर्माण किया जा सकता है, जिसमें व्यक्तिगत स्वातन्त्र्य, सामाजिक न्याय और राजनीतिक समानता हो।‘‘18 उल्लेखनीय है कि जिस यम-नियम की बात राधाकृष्णन् कर रहे हैं वह योग के प्राथमिक अंग एवं प्रत्याहार की पूर्वशर्त हैं। इनसे इन्द्रिय-अनुशासन को विकसित करते हुए इच्छाओं एवं आवश्यकताओं में विभेद करते हुए मूलभूत आवश्यकताओं के सन्दर्भ में सामाजिक भाव को विकसित करना आवश्यक है। इससे ही सच्चे अर्थों में भाईचारा, प्रेम, सामंजस्य एवं समानता आदि युक्त समाज की परिकल्पना धरातल पर यथार्थ रूप से प्रतिष्ठित हो सकती है। सामाजिक विसंगतियों को दूर करने हेतु प्रत्याहार का योगदान आधुनिक युग की समस्याओं के समाधान हेतु व्यक्तिगत अभिवृत्ति विकास हेतु प्रत्याहार प्रासंगिक एवं उपयोगी है।

सन्दर्भ सूची-

1-पतंजलि, महर्षि, पातंजलयोगसूत्र, 2/29

2-गोरक्षनाथ, गुरु, सिद्धसिद्धान्तपद्धति, 2/32

3-शिव, भगवान उपदेशित शिव संहिता, 5/222

4-पतंजलि, महर्षि, पातंजलयोगसूत्र, 2/54

5-गोरक्षनाथ, गुरु, सिद्धसिद्धान्तपद्धति 2/32

6-पतंजलि, महर्षि, पातंजलयोगसूत्र 2/55

7-पतंजलि, महर्षि, पातंजलयोगसूत्र, 1/2

8-उपर्युक्त, 1/12

9-उपर्युक्त, 1/15

10-उपर्युक्त,,1/5

11-उपर्युक्त, 2/3

12-उपर्युक्त, 2/11

13-राधाकृष्णन्, डॉ. सर्वपल्ली, भारतीय संस्कृति: कुछ विचार, हिन्द पॉकेट बुक्स, 2004, पृष्ठ 94

14-ओशो, पतंजलि: योगसूत्र, अनुवादक, योग निरुपम, फ्यूजन बुक्स, ओखला इण्डट्रियल एरिया, नई दिल्ली, 2008, पृष्ठ 379

15-श्री अरविन्द, भाषानुवादक जगन्नाथ वेदालंकार, योग समन्वय, श्री अरविन्द आश्रम, पांडिचेरी, 1990, पृष्ठ 640

16-राधाकृष्णन्, डॉ. सर्वपल्ली, भारतीय संस्कृति: कुछ विचार, हिन्द पॉकेट बुक्स, 2004, पृष्ठ 68, 99, 13

17-शर्मा, आचार्य श्रीराम, साधना पद्धतियों का ज्ञान और विज्ञान, अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा, 1998, पृष्ठ 4.31

18-राधाकृष्णन्, डॉ. सर्वपल्ली, भारतीय संस्कृति: कुछ विचार, हिन्द पॉकेट बुक्स, 2004, पृष्ठ 12, 16, 21

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