प्रथम दृश्‍य / नदी प्यासी थी / धर्मवीर भारती

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पात्र परिचय

राजेश: शर्मा

शंकर: दत्त

डॉ. कृष्‍णस्‍वरूप कक्कड़

पद्मा:

शीला:

घटना-काल सन 1949 की बरसात


प्रथम दृश्‍य

एक कमरा जो स्‍पष्‍टत किसी लड़की का मालूम पड़ता है क्‍योंकि स्‍वच्‍छ है किन्‍तु सुरुचिविहीन है। सामान बड़ी तरतीब से लगा है पर उस तरतीब से नहीं जिससे कलाभवन में चित्र लगे रहते हैं, बल्कि वैसे जैसे किसी दुकान के शो-रूम में बिकाऊ चीजें लगी रहती हैं। सामने बहुत बड़ी-सी एक खिड़की है जिस पर एक बड़ा-सा सादा पर्दा पड़ा है। कमरे भर में केवल एक तस्‍वीर है, मेज पर। एक 20 साल की हँसमुख लड़की की तस्‍वीर। तस्‍वीर के बगल में टेस, कामायनी और टेनीसन के मोटे वॉल्‍यूम रक्‍खे हैं, बगल में टैलकम पाउडर का एक ऊँचा-सा डब्‍बा।

स्‍टेज पर बाईं ओर एक दरवाजा है। कमरे के बीचोबीच चटाई पर बैठा हुआ, चौकी पर आइना रखकर शंकर: शेव की तैयारी कर रहा है। ब्रश में पानी लगा कर साबुन के प्‍याले में घुमा रहा है। बाहर से कोई दरवाजा खटखटाता है।

शंकर: उँह! किसी पल चैन नहीं। अब पता नहीं कौन आ गया मरने! [दरवाजा फिर खटकता है। कोई बाहर से नेम-प्‍लेट पढ़ता हुआ- 'शंकर: दत्त!... मकान तो यही मालूम पड़ता है। अरे शंकर: !' शंकर: जल्‍दी से ब्रश पानी के गिलास में डाल देता है। आधा उछल कर] अरे! राजेश: आया! [बाईं ओर देख कर, पत्‍नी को पुकारता हुआ] शीला: ! लो राजेश: तो आ गया। [उठ कर दरवाजा खोलता है। राजेश: हाथ में अटैची लटकाए हुआ आता है। शंकर: उठ कर अटैची हाथ में लेता है] ओह डियर! तीन दिन से तुम्‍हारा इन्‍तजार हो रहा है। [बाईं ओर से शीला: आती है।]

शीला: [नमस्‍ते करती हुई] रोज एक आदमी का खाना ज्‍यादा बनाती थी मैं।

शंकर: तो इस समय किस ट्रेन से आए हो!

राजेश: ट्रेन! वह तो लाइन ही टूट गई है। मैं तो स्‍टीमर से आया हूँ। डूबते-डूबते बच कर!

शीला: इस बाढ़ में आप नदी पार करके आए हैं! सचमुच आप वैसे ही हैं, जैसा ये बताते थे।

राजेश: क्‍यों शंकर: , क्‍या बताते थे भाभी से!

शंकर: तुम्‍हारी भाभी तो तुम्‍हें देखने को वैसे ही आकुल थीं जैसे बच्‍चे ऊदबिलाव देखने के लिए आकुल रहते हैं। और नदी से आपको भी उतना ही प्रेम है। भला बताइए, नदी के रास्‍ते से आए हैं! [शीला: से] सुनो! चाय बढ़ा दो जल्‍दी से! [शीला: जाती है] तो आप नदी के रास्‍ते से आए हैं?

राजेश: करता क्‍या? दो साल से आने को सोच रहा था। जब से युनिवर्सिटी छूटी तुमसे भेंट ही नहीं हुई।

शंकर: मैं तो कनवोकेशन में इसीलिए गया, पर तुम वहाँ भी गायब।

राजेश: [गहरी साँस ले कर] क्‍या करूँ। पता नहीं क्‍या हो गया मुझे? इसी दो साल के अरसे में जिन्‍दगी मुझे कहाँ से कहाँ ले गई। और इस समय भी इतना परेशान होकर भागा हूँ। मन पर जैसे हजारों हथौड़े एक साथ चलते हों। अक्‍सर तो यहाँ तक सोचा कि मर जाऊँ, फुरसत मिले। पर आग के बिस्‍तरे पर न इस करवट चैन, न उस करवट।

शंकर: क्‍यों! आखिर यह तुम्‍हें हो क्‍या गया है? न ठहाके, न लतीफे। जाने कहाँ की निराशा लाद ली है। बैठो तो। टहल क्‍यों रहे हो।

राजेश: नहीं, बैठेंगे नहीं। टहलने दो। तुम समझते नहीं शंकर: । मुझसे क्षण भर भी बैठा नहीं जाता। लगता है जैसे नस-नस में लाखों तूफान घुट रहे हों और उनके बहने का कोई रास्‍ता नहीं मिलता। जैसे व्‍यक्तित्‍व का रेशा-रेशा बिखर रहा हो।

शंकर: लेकिन क्‍यों?

राजेश: पता नहीं क्‍यों। पता नहीं क्‍यों जी रहा हूँ। कोई अर्थ नहीं मेरे जीने का।

शंकर: [गहरी साँस ले कर] तुम भी ऐसे हो जाओगे राजेश: यह मैं कभी नहीं सोच पाता था। भावुक मैं था। जिन्‍दगी ने मुझे ठीक कर दिया, और तुम जो अपने मन को कितना बाँध कर रखते थे...

राजेश: हाँ दोस्‍त! लेकिन मन की नदी का बाँध फूट ही गया। और फिर तो इतनी भयानक बाढ़ आई कि जाने कितनी मान्‍यताएँ टूट गईं, कितने संस्‍कार उखड़ गए, और धार इतनी तेज थी मित्र, कि पाँव तले की धरती तक बह गई। न पाँव तले रेत, न सर पर आकाश... जाने किस दुनिया में यह खूँखार नदी खींच लाई है और न जाने क्‍या करने पर तुली है...

सहसा गीत जो कुछ देर से पृष्‍ठभूमि में दूर से सुन पड़ता था, स्‍पष्‍ट हो जाता है, शंकर: , राजेश: के स्‍वर उसमें डूब जाते हैं...

हाय बाढ़ी नदिया, जिया लैके माने

दाया न जाने, माया न जाने, जिया लैके माने,

जिया लैके माने, हाय बाढ़ी नदिया।

बाहर से स्‍वरबहू जी! नदी भवानी के भीख मिलै।

शीला: [अन्‍दर से] अच्‍छा। [मुट्टी में कुछ ले कर आती है।]

राजेश: ये क्‍या है भाभी?

शंकर: चना है। हर घर से ये लोग चने की भीख माँगते हैं।

राजेश: क्‍यों?

शीला: बकरे को खिलाएँगे। नदी बढ़ी है न। ये सब बकरे को नदी के किनारे ले जा कर बलि चढ़ाएँगे और ताजा खून जल पर छिड़केंगे। तभी नदी घटेगी।

राजेश: यह सच है शंकर: ।

शंकर: हाँ पहले हम लोगों को भी यकीन नहीं था। अब तो कई साल तक अपनी आँख से देख चुके हैं।

शीला: लेकिन कभी-कभी इससे भी जल नहीं घटता। देवी के मन्दिर तक जल चढ़ जाता है, मन्दिर डूबने लगता है, तब कस्‍बे का कोई आदमी डूब कर आत्‍महत्‍या कर लेता है और जल उतर जाता है।

गीता का स्‍वर दूर जाते हुए-

हे देवी मैया तोहार हम बालक राखहु हमरा धेयान।

तोका चढ़उबै नरियर बतासा, चढ़उबै पाठा जवान! ...

राजेश: सच!

शीला: और क्‍या। त्‍योरस्‍साल एक पागल डूब गया था। पारसाल एक औरत ने खुदकुशी कर ली। उसकी तो लाश ही ले कर नदी पीछे सिमट गई। [क्षण भर सन्‍नाटा] चाय यहीं पिएँगे?

शंकर: नहीं अन्‍दर मेज पर लगा दो। [शीला: जाती है] [सन्‍नाटा]। कभी-कभी गीत हवा में बह आता है। राजेश: ! क्‍या सोच रहे हो।

राजेश: कुछ नहीं। बलि का बकरा! सोच रहा हूँ जिन्‍दगी कितनी खूँखार है हर जगह एक-सी है शंकर:  ! कहीं चैन नहीं लेने देती। वहाँ से भाग कर यहाँ आया था कि कुछ चैन मिलेगी। ये लोग हैं। कितनी खुशी से मासूम जानवर की जिबह करने ले जा रहे हैं। हर जगह यही होता है। गाते-बजाते हुए जिन्‍दगी अपने शिकार को ले जाती है, उसका खून लहरों पर छिड़कने के लिएँ। एक शिकार मैं हूँ। लेकिन मैंने सोचा था मरूँगा नहीं, यहाँ आ कर मन को ताजा करूँगा। [दाँत पीस कर] लेकिन नहीं, जिन्‍दगी का शिकंजा तो हर जगह खून का प्‍यासा है। [गीत फिर सुन पड़ता है] देखो। जिन्‍दगी बार-बार बुलाती है। यह खूनी पुकार यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ती। मैं मरना नहीं चाहता, शंकर: … [अस्‍फुट चीख से] मगर इस आवाज से पीछा छुड़ाओ।

शंकर: पागल हो गए हो राजेश: ! लो मैं खिड़की बन्‍द किए देता हूँ। अब आवाज नहीं आएगी। आखिर कुछ बताओगे तुम्‍हें हुआ क्‍या है?

राजेश: बताएँगे मित्र! कुछ दिन चुपचाप आराम करने दो।

शंकर: खूब आराम करो! किताबें पढ़ो! पूरी आलमारी भरी है!

राजेश: हाँ, किताबें तो हैं [मेज पर से किताबें उठाता हुआ] टेनीसन, टैस आ' ड रबरविले, कामायनी। अच्‍छा टैलकम पाउडर भी इसी के साथ! [चित्र उठाता है, देख कर उल्‍टा रख देता है।] ये तुम्‍हारी किताबें हैं?

शंकर: नहीं, पद्मा: की। मेरी छोटी साली है। उसी की यह फोटो भी है। आजकल शीला: के पास आई हुई है। शीला: ! पद्मा: कहाँ गई है?

शीला: [अन्‍दर से] वहीं गई है, डाक्‍टर साहब के यहाँ।

शंकर: मेरे दोस्त हैं डा. कृष्‍णस्‍वरूप कक्कड़। उनके यहाँ पद्मा: भी चली जाती है। करे क्‍या दिन भर पड़ी-पड़ी? अब तुम आ गए हो। तुम्‍हीं से मगज-पच्‍ची किया करेगी।

शीला: चलिए चाय तैयार है। लेकिन पद्मा: अभी तक नहीं आई, पता नहीं कब तक आएगी।

शंकर: अब आ ही रही होगी। मैं तो कहता हूँ कर दो दोनों की शादी, कुछ हम लोगों को भी पद्मा: की बाढ़ से रिलीफ मिले।

शीला: चलो! तुम तो मजाक करते हो। मुझे तो दोनों की जोड़ी बड़ी अच्‍छी लगती है। मैंने तो कल चाचा जी को लिख भी दिया है। चलिए अन्‍दर चाय ठंढी हो रही है।

[सब अन्‍दर जाते हैं। क्षण भर स्‍टेज खाली रहता है। फिर बाईं ओर से डा. कृष्णा: और पद्मा: आते हैं। डा. कृष्णा: पैंट और कमीज पहने हैं। पद्मा: लापरवाही से उल्‍टा पल्‍ला डाले है। देह पर तरुणाई, आँखों में बचपन, बातों में मिसरी, चाल में अल्‍हड़पन।

पास से कुर्सी खींच कर पलंग के पास डाल लेती है और बन्‍द खिड़की खोल देती है। फिर डाक्‍टर का कन्‍धा पकड़कर कुर्सी पर बिठाल देती है।]

पद्मा: लो बैठो। आज दीदी और जीजा गए हैं स्‍टेशन, अपने एक दोस्‍त को रिसीव करने! सुना है कि बड़े लेखक हैं।

कृष्णा: लेकिन मुझे देर हो रही है। आज बाढ़ रिलीफ कमेटी की मीटिंग है। मैं उसका सेक्रेटरी हूँ न!

पद्मा: तो क्‍या करते हो तुम लोग?

कृष्णा: बाढ़-पीड़ितों की सहायता! जो लोग बेघरबार हो गए हैं उनकी मदद! जो बाढ़ में फँस गए हैं उन्‍हें निकालना।

पद्मा: अहा! अहा! तुम तो खूब निकालते होगे। जरा-से पानी में तो उतरा नहीं जाता, तुम किसी को बाढ़ में से क्‍या निकालोगे!

कृष्णा: मैं तैरना जानता हूँ पद्मा: ! तुम्‍हें यकीन नहीं। आजकल भी भरी नदी में कूद जाऊँ तो डूब नहीं सकता।

पद्मा: और अगर कोई ऐसी धार में उलझा हो कि डूब कर ही उसे बचा सकते हो तो? क्‍या करोगे?

कृष्णा: डूब ही जाऊँगा तो बचाऊँगा कैसे? तुम तो बच्‍चों की-सी बातें करती हो।

पद्मा: यही तो तुम नहीं समझते डाक्‍टर साहब! कैसे बताएँ तुम्‍हें कि बिना डूबे तुम बचा ही नहीं सकते?

कृष्णा: किसे?

पद्मा: किसी को भी! मसलन मुझे...

कृष्णा: [हँस पड़ता है। पद्मा: के आँचल का छोर अपनी अँगुली में लपेटते हुए] तुमने इतनी बात करना कहाँ से सीखा है? डाक्‍टरी पढ़ने में बड़ा नुकसान रहता है। मुझे भी लिटरेचर पढ़ा दो तो कम से कम तुम से बात तो कर सकूँ। तुम कितनी कुशल हो बात करने में।

पद्मा: [लजा जाती है] धत्!... अरे यह मेरी फोटो किसने उल्‍टी रख दी है। [उठ कर ठीक करती है] और यह अटैची किसकी पड़ी है? [नाम पढ़ती है] राजेश: वर्मा! अच्‍छा आ गए ये लोग!

कृष्णा: कौन लोग? क्‍या शंकर: आ गए? अच्‍छा तो उनसे भी चन्‍दा ले लूँ रिलीफ का, और चलूँ फिर!

पद्मा: अरे बैठो भी! हमारे पास एक मिनट भी बैठे भारी लगता है। हमसे चन्‍दा नहीं माँगा तुमने?

कृष्णा: तुससे मदद मागूँगा, चन्‍दा नहीं। मेरे साथ चलो। तमाम औरतें बे-घरबार मदद के लिए पड़ी हैं।

पद्मा: न बाबा! मुझे उनकी हालत देख कर बड़ी रुलाई आती है। अभी उस दिन बाढ़ देखने गई, रोते-रोते आँख सूज गई। हमारी आँखें बड़ी कमजोर हो गई हैं कृष्णा: ! एक चश्‍मा दिला दो ना!

कृष्णा: [अनमना-सा] अच्‍छा।

पद्मा: और हाँ, तुम्‍हें एक बात बताऊँ [कृष्णा: घड़ी देखता है] अरे बैठो भी- [कान के पास मुँह लगाकर धीमे से] कल जीजी ने चाचा के पास तुम्‍हारे बारे में चिट्ठी लिखी है। और तो सब ठीक है लेकिन हम लोग सारस्‍वत हैं और तुम लोग कक्‍कड़...

कृष्णा: [क्षण भर पद्मा: की ओर देखता है... फिर हाथ होठों से लगा कर] हम लोग कितने सुखी होंगे पद्मा: ! यह ठीक है कि मैं तुम्‍हारी तरह भावुक नहीं, इन्‍टेलेक्‍चुअल नहीं, लेकिन हम लोग एक दूसरे की कमी पूरी करेंगे।

पद्मा: [बहुत मुलायम स्‍वरों में] हाँ कृष्णा: , मैं कविताओं में डूबी रहती हूँ, मगर कवियों से, लेखकों से मुझे डर लगता है। एक-तिहाई तो इनमें से भिखारी होते हैं, एक-तिहाई पागल और एक-तिहाई...

कृष्णा: सखी सम्‍प्रदाय के! [दोनों हँसते हैं] नहीं, एक बात तो है... कभी-कभी कविताओं के मीनिंग मुझे अच्‍छे लगते हैं। साल भर पहले मैंने भी सोचा था कि कविता बनाऊँ, फिर सोचा उससे मेरे पेशे में नुकसान पहुँचेगा और उसके बाद मिल गईं तुम - बजातखुद कविता! [पद्मा: का आँचल अँगुलियों पर लपेटने लगता है।]

पद्मा: [जल्‍दी से आँचल खींच कर] छोड़ो जीजा जी आ रहे हैं।

[शंकर: और राजेश: बाहर से दोनों बहस करते हुए आते हैं।]

राजेश: और इसलिए कभी-कभी लगता है कि आदमी को पत्‍थर होना चाहिए, फौलाद की राक्षसी मशीन होनी चाहिए जो अपने बाहु-चक्रों में सभी को कुचल दे। उसके बिना आदमी जिन्‍दा नहीं रह सकता। कभी-कभी मन में एक भयंकर खूनी प्‍यास जागती है जिन्‍दगी से बदला लेने की; मगर दोस्‍त! प्‍यार ने यह भी साहस तोड़ दिया है। जहाँ खयाल आता है कि इस चक्र में वह भी पिस जायगी जिसे मैंने ईश्‍वर से बढ़ कर माना है, जो आज मुझसे दूर हो गई है तो क्‍या हुआ, तभी ऐसा लगने लगता है कि मुझ में हिलने तक की ताकत नहीं। मेरा सब कुछ छिन गया [पद्मा: और कृष्णा: एक दूसरे की ओर देखते हैं...] अब मेरे लिए जिन्‍दगी का क्‍या अर्थ है। मैं किसके लिए जिन्‍दा रहूँ, क्‍यों जिन्‍दा रहूँ? फिर सोचता हूँ क्‍यों मरूँ? जिन्‍दगी ने फूल बन कर न रहने दिया तो काँटा बन कर रहूँ... लेकिन रहूँ जरूर! [पद्मा: और कृष्णा: को देख कर चुप हो जाता है।]

शंकर: आओ तुम्‍हारा परिचय करा दें - ये हैं राजेश: ! तुम दोनों इनके बारे में सुन चुके हो। ये हैं पद्मा: , ये हैं डॉ. कृष्‍णस्‍वरूप कक्‍कड़ - [झुक कर धीमे से] पद्मा: के भावी पति, और कल से यही तुम्‍हारा इलाज करेंगे। कृष्णा: इन्‍हें कुछ-कुछ हार्ट ट्रबुल है। और अब महीने भर रह कर इन्‍हें स्‍वास्‍थ्‍य सुधारना है यहाँ!

कृष्णा: बड़ी खुशी हुई आपसे मिल कर।

राजेश: मैं ऐसा आदमी नहीं जिससे मिल कर किसी को खुशी हो डाक्‍टर!

शंकर: नहीं! वह व्‍यापार की दृष्टि से कह रहे थे। उन्‍हें एक मरीज मिला, क्‍यों!

[सब हँस पड़ते हैं, शीला: हाथ में स्‍वेटर और सलाई लिए आती है।]

शीला: अरे भई, इतना मत हँसो। अहा कृष्णा: हैं!

कृष्णा: भाभी तुमसे कुछ वसूलने आया हूँ।

शीला: देखो, अभी घबराए क्‍यों जाते हो डाक्‍टर साहब! हमने नुस्‍खा लिखा है। दवा तैयार हो जाय।

[पद्मा: शरमा जाती है। कृष्णा भी झेंप जाता है, लेकिन चन्‍दे की कापी निकालता है।]

कृष्णा: लिखो।

शंकर: यह क्‍या है भाई, कुछ हमें भी मालूम होगा?

कृष्णा: बाढ़ रिलीफ कमेटी का चन्‍दा। [कापी राजेश: की ओर बढ़ा कर] कुछ आप!

राजेश: [कापी हाथ में ले कर और लाइनें लिख कर हस्‍ताक्षर कर देता है।] देखो शंकर: , मैंने क्‍या लिखा है - 'जब आदमी के सामने जिन्‍दगी की दिशाएँ धुँधली पड़ जाएँ, जब वह अपनी जिन्‍दगी के सही-सही अर्थ न खोज सके तो उसका जिन्‍दा रहना उसका अहंकार और कायरता है। उसे आत्‍महत्‍या कर लेनी चाहिए - राजेश: !' [सब अचरज से देखते हैं...]

शंकर: अरे यह चन्‍दे की रसीद है राजे, आटोग्राफ बुक नहीं।

[पद्मा: आँचल में मुँह दबा कर हँसती है। शीला: खिलखिला पड़ती है। शंकर: आँख से दोनों को मना करता है।]

कृष्णा: मुझे संदेश नहीं चाहिए। मुझे चन्‍दा चाहिए।

राजेश: ओ, आई ऐम सारी! काहे का चन्‍दा।

कृष्णा: बाढ़ रिलीफ का।

राजेश: क्‍यों?

कृष्णा: क्‍यों? उससे हम बाढ़ में मरनेवालों को बचाएँगे।

राजेश: लेकिन क्‍यों बचाएँगे उन्‍हें?

पद्मा: तो क्‍या उन्‍हें मरने दिया जाय?

राजेश: बेशक! कितना बड़ा दम्‍भ है। हम घास-फूस के छप्‍परों को बह जाने देते हैं। ढोर-ढंगर को बह जाने देते हैं। आदमियों को बचाने के लिए चन्‍दा करते हैं। क्‍यों! क्‍या ये आदमी घास-फूस और ढोर-ढंगर से किसी माने में बेहतर होते हैं? कभी नहीं डाक्‍टर! ये लोग कीड़ों से भी बदतर होते हैं। इनका जिन्‍दा रहना दुनिया के लिए अभिशाप है और इनके लिए यातना। फिर इन्‍हें क्‍यों न मरने दिया जाय। मैं जब कभी सोचता हूँ कि इस धरती पर करोड़ों आदमीनुमा कीड़े रेंगते हैं और नारकीय जिन्‍दगी बिताते हैं तो मेरा मन गुस्‍सा और तरस से भर जाता है। ये, हम सब, क्‍या हैं हमारी जिन्‍दगी के माने? करोड़ों साल से हम लोग सितारों की छाँह में धरती पर अपने पद-चिह्न बनाते हुए चले आए हैं। मगर हैं हम सब भी कीड़े के कीड़े! हमारा अस्तित्‍व मिट जाय तभी अच्‍छा हो। मुझे तो अफसोस है कि ये बाढ़ें इतनी कम क्‍यों आती हैं? मनु के जमाने का जल प्रलय क्‍यों नहीं आता है! इन्‍सान की जिन्‍दगी का नाम-निशान क्‍यों नहीं खत्‍म हो जाता? कीड़े? ये सब मरने के लिए बने हैं।

शीला: तो क्‍या दया और सहानुभूति कुछ भी नहीं है? राजेश: बाबू, आप क्‍या कह रहे हैं?

कृष्णा: दिस इज़ ब्रूटिश!

राजेश: तो क्‍या दया कम ब्रूटिश होती है डाक्‍टर साहब! अभी उस बलि के बकरे को देखा था। दया तो हमारे व्‍यवहार का महज वह अंश है जिसमें हम बकरे को फूल-माला से लादते रहते हैं। डाक्‍टर साहब! हमारे दो चेहरे हैं। एक जो हम दुनिया को दिखाते हैं, वह है दया, ममता, स्‍नेह, प्रेम का चेहरा; एक वह जो हम खुद देखते हैं, वह है क्रूरता, घृणा, हिंसा, प्रतिशोध का चेहरा और यही जिन्‍दगी की असलियत है मेरे दोस्‍त! दया करके, प्रेम करके, हम हमेशा जिन्‍दगी की असली कुरूपता को ढँकने की कोशिश करते रहे हैं। यह गलत है। असलियत यह है कि जिन्‍दगी क्रूर है, जिन्‍दगी कुरूप है, घिनौनी है और आदमी उसे बदल नहीं सकता। आदमी को मर जाना चाहिए। खत्‍म हो जाना चाहिए।

शंकर: यह फिलासफी की बात दूर... लाओ तुम्‍हारे नाम से चन्‍दा लिख दूँ।

राजेश: चन्‍दा... यही लाइनें मेरा चन्‍दा है। यह तो रसीद बुक है। यह मैं आग की लपटों पर लिख सकता हूँ, पानी की लहरों पर लिख सकता हूँ, आसमान के बादलों पर यही लिख सकता हूँ। यही जीवन का ध्रुव सत्‍य है। कह दो आदमियत से वह मर जाय। चूँकि आज तक उसकी दिशाएँ अस्‍पष्‍ट हैं, धुँधली हैं। छि ! [उसी आवेश में] मैं बाथरूम जा रहा हूँ। नहाऊँगा मैं। अन्‍दर जैसे भट्ठी सुलग रही हो।

[चला जाता है।]

शंकर: कृष्णा: , कल इन्‍हें इक्जामिन करो जरा। जानते हो यह बड़े अच्‍छे लेखक हैं।

कृष्णा: हिन्‍दी के न? तभी ये न्‍यूराटिक हैं। मानसिक रोग है शंकर: भइया!

पद्मा: रोग नहीं; बहुत गम्‍भीर बात कहते हैं ये! मैं तो जैसे बह गई थी।

[कृष्णा: आश्‍चर्य से पद्मा: की ओर देखता है, वह लजा जाती है।]

कृष्णा: अच्‍छा कल देखूँगा इन्‍हें। अब जरा रिलीफ़ कमेटी की मीटिंग में जाना है।

शंकर: क्‍या हालत है बाढ़ की।

पद्मा: सब जगह पानी भर गया है जीजा! देवी के मन्दिर पर भी पानी आ रहा है। इस साल फिर कोई बेचारा डूबेगा।

कृष्णा: वाहियात! महज अन्‍ध-विश्‍वास है। हाँ शंकर: भइया, इनमें बड़ी आत्‍मघाती प्रवृत्तियाँ हैं। जरा सम्‍हाल कर रखना...

[शीला: घबराई हुई आती है।]

शीला: सुनते हो, उन्‍हें दिल का दौरा फिर आ गया है।

[सब अन्‍दर जाते हैं।]

[पर्दा गिरता है।]