प्रथम पर्व की समाप्ति / अब क्या हो? / सहजानन्द सरस्वती

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आजादी और स्वतंत्रता के लिए जो महाभारत मुल्क में युगों से चालू था उसका प्रथम पर्व पूरा हुआ, ऐसा, कहा जाता है। कहने वाले लोग दो तरह के हैं। एक तो वह हैं जो समाजवाद, साम्यवाद या किसान-मजदूर राज्य के नाम से ही अब तक नाक-भौं सिकोड़ते थे। उनके लिए पूर्ण स्वतंत्रता, स्वराज्य, आजादी आदि कहना ही पर्याप्त था। अधिक-से-अधिक वे इतना ही कहते थे कि भारतीयों का राज्य इस देश में आएगा। यहाँ के लोगों के हाथ में शासन-सूत्र आएगा। बस, इसके आगे जाना उन्हें बर्दाश्त न था। उनका यह भी कहना था कि समाजवाद या साम्यवाद की चर्चा आजादी की लड़ाई में बाधक होगी, इसे कमजोर बनाएगी क्योंकि इसके करते मुल्क में विचार-विभिन्नता का प्रसार होने से पारस्परिक तनाव बढ़ेगा और हम आपस में ही उलझ पड़ेंगे। गोया न करने से विचार-ऐक्य हो गया था!

दूसरे वे हैं, जो सदा समाजवाद, साम्यवाद तथा किसान-मजदूर राज्य के नारे लगाते रहे हैं। उन्होंने सदा यह माना है कि जब तक शासन सत्ता कमानेवाली जनता, संपत्ति को उत्पन्न करने वाली जनता-किसानों एवं मजदूरों-के हाथ सोलहों आने नहीं चली जाती, जब तक वर्ग-चेतनामूलक राजनीतिक चेतना के आधार पर किसान और मजदूर समूची शासन-सत्ता को मुस्तैदी के साथ बलात अपने हाथों में नहीं ले लेते, तब तक देश का उध्दार नहीं हो सकता, जनता का कल्याण असंभव है और ऐसी चेतना लाने के लिए युगों का संगठित प्रयत्न, सतत क्रियाशीलता अपेक्षित है। यह यकायक या कुछ समय में आनेवाली नहीं है। इसीलिए मुद्दत पहले से उन्होंने इस चेतना के प्रसार की कोशिश शुरू की थी। पहले दलवाले इस कोशिश को फूटी आँखों भी देख न सकते थे। उनकी चले, तो ऐसे लोगों को शूली पर ही चढ़ा दें।

फिर भी, दोनों ही मानते हैं कि राष्ट्रीय महाभारत का प्रथम पर्व पूरा हुआ। विदेशी आधिपत्य से आजाद होने के लिए होनेवाला संघर्ष सफल हुआ, यह दोनों ही मानते हैं हालाँकि दूसरे दलवालों का बराबर यही कहना रहा है कि समझौते का रास्ता छोड़ सीधी लड़ाई और क्रांतिकारी उथल-पुथल के फलस्वरूप ही यह आजादी हासिल होनी चाहिए। इसमें उन लोगों का महत्त्वपूर्ण मतलब था बेशक। सीधी लड़ाई से जो क्रांति होती, उसके फलस्वरूप न तो पाकिस्तान और हिंदुस्तान का ही प्रश्न उठता और न सांप्रदायिक कलह की ही गुंजाइश रहती। ब्रिटिश शासन के साथ ही इन अनर्थों को पैदा करनेवाली शक्तियाँ भी क्रांति के तूफान में जड़-मूल से उठाकरे फेंक दी जातीं। समस्त दकियानूस ताकतों को निर्मूल करना एवं धो बहाना ही तो क्रांति की लहर का एक बड़ा काम माना जाता है। इसी के साथ एक बड़ी बात यह होती कि विदेशी शासकों के स्थान पर जो भी स्वदेशी मालदार तथा पूँजीवादी गद्दीनशीन होते-क्योंकि राष्ट्रीय आजादी की लड़ाई के फलस्वरूप देश के धानियों के ही हाथ में शासन-सत्ता जाया करती है। ऐसे इतिहास बताता है─वे चैन से रह न पाते, उनका शासन दृढ़ नहीं हो पाता, जैसा कि 1917 की क्रांति के बाद रूसी पूँजीपतियों का शासन वहाँ डाँवाडोल ही रहा। फलत: किसान-मजदूरों के एक ही जबर्दस्त धाक्के में उनका सारा शासन-यंत्र चकनाचूर हो जाता और शासन सूत्रा किसानों एवं मजदूरों के हाथ में चला जाता। दूसरे दल ने जो इस संघर्ष और सीधी मुठभेड़ का मार्ग छोड़ा, उसका सीधा परिणाम यही हुआ है कि हम सांप्रदायिक दंगों एवं मुल्क के अंग-भंग के शिकार हो गए। साथ ही, किसान-मजदूरों के हाथ में सत्ता का जाना कठिन हो गया है। उस दल की आँखें खुली हैं और जो कुछ उसने किया है उसका नतीजा यही होगा, यह उसे अविदित था। यह कैसे कहा जाए? संसार का इतिहास तो हमें इसी नतीजे पर पहुँचने को बाध्य करता है कि जानबूझ करे ही यह समझौते का मार्ग उसने अपनाया है और उसके नतीजे के लिए वह पहले से ही तैयार है─वही यही चाहता ही है, बेअदबी माफ हो।