प्रदीप कुमार साह / परिचय
प्रदीप कुमार साह की रचनाएँ |
जीवन-परिचय रचनाकार के स्वयं के शब्दों में...
सुधि पाठकों के समक्ष उनके आशा के प्रतिकूल स्वयं को लेखक-कवि अर्थात साहित्यकार अथवा पत्रकार के गुण-धर्म और उपाधि से रहित सामान्य बुद्धि-बल, विवेक-कौशल, चेतना और कृशकाय शरीर वाला एक युवक मात्र प्रस्तुत करते हुए मुझे रंचमात्र भी गुरेज अर्थात लज्जा, खेद अथवा असुविधा नहीं हो रहा। मेरी राष्ट्रीयता भारतीय है और मैं एक सामान्य सनातनी हिन्दू परिवार से हूँ तथा स्वयं को सामाजिक सहस्तित्व में विश्वास रखने वाला, स्वानुशासन और स्वकर्तव्य पालन करने में विश्वास रखने वाला एक सामान्य सनातनी हिन्दू मानता हूँ। किंतु स्वयं को उदंड-गंभीर प्रकृति लेखक अथवा प्रेमी-विद्रोही प्रकृति कवि या अन्यान्य उपाधि योग्य नहीं मानता परंतु औरों अर्थात साहित्यिक कार्यक्षेत्र अथवा व्यवसायिक सहकर्मियों की नजर में उनके नजरिये से कुछ भी हो सकता हूँ।
यद्यपि मेरी चंद रचनाएँ जहाँ-तहाँ यथा रचनाकार, मातृ भारती, जनकृति अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका जैसे वेव ब्लॉग, वेव प्रकाशन और वेवजीन वगैरह में नियमित-अनियमित रूपमें प्रकाशित हैं, तथापि यह कहते हुए मुझे कोई संकोच नहीं है कि एक अरसे से और वर्तमान में साहित्यिक क्षेत्र में मेरी व्यक्तिगत कोई सृजनात्मक रुचि नहीं। बचपन में जब कुछ भी सांसारिक अनुभव और व्यवहारिक ज्ञान मुझमें नहीं थे, अपितु केवल थोथे आदर्श और कल्पनाशीलता थी और ननिहाल में नानीजी-जो एक रिटायर्ड शिक्षिका थी के साथ अपने सभी भाई-बहन से दूर अकेला रहता था तथा चौथी या पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था, तब से बहुत सारी कहानी कविताएँ लिखा करता था। फिर नानी जी द्वारा बड़े भाई साहब के फाइल में सहेज कर रखे दर्जनों उनके (बड़े भाई साहब) नाम से कई नामचीन पत्रिका समूह के संपादकीय कार्यालय से रचना आमंत्रण हेतु आये वर्ष 1990-1992 ई.के पत्रों से संपादकीय कार्यालय के पते लेकर अपने अभिभावक (नानीजी) से चोरी-छिपे अपनी रचनाएँ कई वर्षों तक कई नामचीन पत्रिका में प्रकाशनार्थ भेजता रहा था। मेरी सभी रचनाएँ अस्वीकृत होती, किंतु कभी रचना अस्वीकरण की वजह समझ न आई.
एक बार राजस्थान पत्रिका समूह की पाक्षिक पत्रिका बालहंस के उपसंपादक श्री सक्सेना जी के अस्वीकरण पत्र प्राप्त हुये। यह पत्र मेरे लिए खास थी क्योंकि इसमें उन्होंने मित्रवत मेरी रचना की अस्वीकरण की वजह मेरी रचना में व्याकरणिक दोष होने से सम्बंधित तथ्य से मुझे परिचित करवाये। अपनी कमी स्वीकारते हुये तब की रचित रचनाएँ भविष्य में उपयोग के लिये सहेजकर रख दिया। कालान्तर में महसूस हुआ कि उस वक्त के मेरे वह सभी काम अर्थात अपनी प्रारंभिक रचना के प्रकाशनार्थ भेजने की शुरुआत सीधे प्रतिष्ठित पत्रिकाओं से करना, मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल थी। वहाँ व्याकरणिक गलती के आलावा मेरी एक और गलती थी कि अनजाने में एक एककर सीढ़ियाँ चढ़ने के वजाय सीधे ऊपर छलांग लगाने के जैसा मेरा कृत्य था।तब तक बड़े भाई साहब के मार्गदर्शन में (मुझसे बड़े) भाई साहब पत्रकारिता महाविद्यालय के कोर्स कम्प्लीट कर और अपनी नौकरी पेशा जीवन में कुछ वर्ष पार्ट टाइम सक्रिय पत्रकार की भूमिका अदा कर पत्रकारिता और साहित्यिक गतिविधि से मोटे तौर से संन्यास ले चुके थे। यह बताते हुये मुझे अत्यंत प्रसन्नता हो रही है कि मुझे अपने बड़े भाइयों के विभिन्न क्षेत्र में किये उनके अथक प्रयास और जान पहचान से मुफ़्त में आवश्यक तजुर्बे का लाभ हुआ।
यद्यपि अपने पैत्रिक गरिमा और भाई साहब के अथक प्रयास से अर्जित उनकी चीजों (कृति और गरिमा संरक्षण तथा दायित्व) का निर्वहन अथवा आगे बढ़ाने की जिम्मेवारी अपने कंधे पर उठाने में पूर्णतः असमर्थ हूँ तथापि इस बात की घोषणा करते हुये भी मुझ मुफ्तखोर को कोई आपत्ति नहीं कि आगे भी अपने स्वार्थ पूर्ति और लाभ हेतु वैसे लाभ उठाने की ताउम्र मेरी कोशिश जारी रहेगी। अपने बारे में बताते हुये यह पुनः दुहराता हूँ कि वर्तमान में साहित्यिक क्षेत्र में अपनी सृजनात्मक सेवा देने के दरवाजे खुले हुये हैं किंतु मेरी व्यक्तिगत रूचि बिलकुल भी वैसा नहीं है, क्योंकि अपने अतीत के एक स्व- प्रतिज्ञा से बंधा हूँ। एक दिन हुआ यह था कि मैंने अपने और अपने बड़े भाइयों के सहेज कर रखी रचनाएँ की डायरियाँ जिसके करीब चालीस-पचास किलोग्राम वजन थे उनके अनुपस्थिति में रद्दीवाले के पास बिक्री कर दिया और जो रद्दी में बिक्री से बच गये उसके जी भरकर होलिका दहन किया और अपने आखिरी सामर्थ्य तक साहित्यिक क्षेत्र से दूर रहने का निश्चय किया।
इस घटना के समय मैं बिल्कुल भी हतोत्साहित अथवा आकस्मिक उद्वेलित नहीं था अपितु वह मेरे द्वारा कुछ वर्षों में पूर्णतया विचार पूर्वक लिये गए निर्णय के कार्यरूप में परिणति थी। इसलिये अपने उस कृत्य पर मुझे आज भी कोई पश्चाताप नहीं हैं। यहाँ इसके अतिरिक्त कुछ भी कारण नहीं बताना चाहूँगा कि इस घटना से पूर्व तक साहित्यिक क्षेत्र के संबंध में मेरा लक्ष्य और विश्वास एक साहित्यिक क्षेत्र का सामान्यजन को प्रतीत होने वाला उसका मूल बाहरी आवरण अर्थात उसका आदर्श और सामाजिक उद्देश्य थे। वर्तमान में मेरी प्रतिज्ञाबद्धता के वावजूद मेरी मौलिक कृति मेरे नाम से प्रकाशित हैं अथवा भविष्य में भी जो वैसा हो सकते हैं-क्यों और कैसे? वैसे अन्यान्य प्रश्न के सम्बंध में आगे मेरे परिचय में स्वतः व्यक्त है।
नाम- प्रदीप कुमार साह
आत्मज- स्व।विष्णुदेव प्रसाद साह
माता श्री- सरोजनी देवी
जन्म-तिथि- 05 जनवरी 1986 ई.
वैवाहिक स्थिति- अविवाहित
शैक्षणिक योग्यता- साहित्यिक क्षेत्र हेतु केवल साक्षर (पृष्ठांकित हिंदी-अंग्रेजी के अक्षर पहचानने मात्र की योग्यता)
कम्प्यूटर ज्ञान- डेस्कटॉप पब्लिशिंग (गुजरात)
व्यवसायिक कार्यानुभव- वर्ष 2001-2004तक पार्ट टाइम ब्रिलिएंट ट्यूशन सेंटर, A में सहायक शिक्षक।
वर्ष 2005-2009तक अनुमंडल विधिज्ञ संघ B से सम्बद्ध प्राइवेट (स्वतन्त्र) टँकक एवं पार्ट टाइम शौकिया बड़े भाई साहब द्वारा संस्थापित साह मिनी ट्रेवल्स (टैक्सी सर्विसेज प्रोवाइडर) व्यवसाय संचालन में सहायक और विद्या अध्ययन।
वर्ष 2009 / 10-2013तक आलोक इंडस्ट्रीज लि0 सिलवासा में क्वालिटी इनश्योरेंस डिपार्टमेंट में क्वालिटी ऑडिटर।
वर्ष 2014 से वर्तमान तक पैतृक फर्म की देख-रेख में संलग्न और पुनः शौकिया बड़े भाई साहब के व्यवसाय (टैक्सी सर्विसेज संचालन) में सहायक।
अन्य कार्यानुभव-वर्ष 2000-2009तक सामाजिक संगठन-मानस (रामचरित्र मानस) सत्संग गोष्ठी, C का सक्रिय सदस्य, पुनः 2014 से वर्तमान तक सदस्य।
धारणा-वही चीज (ज्ञान, विचार या वस्तु) सार्थक है जिसका अधिकाधिक उपयोग और उपभोग हो।
आदर्श-अपना कर्म, कर्तव्य और जिम्मेवारी पूर्ति हेतु अपनी जो कुछ ईश्वर और माता-पिता के आशीर्वाद से प्राप्य और अग्रज के आशीर्वाद से संरक्षित थोड़ी-सी प्रतिभा हैं, का यथासंभव सदुपयोग करने की चेष्टा करना।
आदर्श स्त्रोत- माता-पिता और अग्रज (बड़े भाई-बहन) ।
प्रेरणा स्त्रोत- ईश्वररूप यह संसार।
व्यवसायिक अनुभव-प्रतिस्पर्धा एक अवसर और आवश्यक तत्व है।वह योग्यता और सक्रियता में निखार लाता है। नौकरी पेशा जीवन में योग्यता के साथ शीघ्र सफलता प्राप्ति हेतु चटुकारिता आवश्यक है, किंतु सत्य * के पालन करनेवाले हेतु वह बहुत आवश्यक नहीं। वैसे सत्यव्रती व्यक्ति को निःसंदेह सफलता मिलने में देरी हो सकती है किंतु वह किसी भी व्यवसाय अथवा पेशा में अपना स्थान बना सकता है और सभी (उच्च अथवा अन्य सहकर्मियों) की नजरों में उसका स्थान सामने वाले के नजरियानुरूप सदैव भिन्न किंतु स्थाई होता है।
सामाजिक अनुभव-एक तरफ जहाँ अधिकांश व्यक्ति कौटिल्य शास्त्र के रचियता आचार्य चाणक्य के विभिन्न विचार को भूलकर अपने रूढ़ विचार के वशीभूत सामने वाले की योग्यता केवल उसके उम्र अर्थात कितने वर्ष के आंकड़े और हासिल सर्वोच्च शैक्षणिक प्रमाण पत्र तथा सामाजिक हैसियत के पैमानो से मापने में विश्वास करते हैं। वह अपने अनुभव "प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं" पर विश्वास कर ही नहीं पाते हैं। वहीं दूसरे तरफ वह लोग जो गुणवान हैं और जीवन के लघुतमावधि को भी समझते हैं पर आस्तिक नहीं होने से धैर्यवान नहीं हैं, प्रथम पक्ष के रूढ़ दृष्टिकोण की वजह से हीन भावना के शिकार हो जाते हैं अथवा मिथ्या वाचन के शिकार हो जाते हैं।
शैक्षणिक अनुभव-अभी तक के शैक्षणिक उपलब्धियों से विभिन्न कवि के निम्न चंद लाइन मात्र केवल गुनगुनाने की योग्यता प्राप्य हैं-त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर। सिया राममय सब जग जानी, करूँ प्रणाम जोरी जुग पाणी। तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी, जानऊँ महिमा कछुक तुम्हारी। कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा। नेकी कर दरिया में फेंक और होइहि सोई जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावे शाखा।
मेरी असफलताएँ-
डायबिटीज से लंबे समय तक जूझने और मृत्यु से पूर्व तीन-चार महीने तक पूर्णतः अस्वस्थ रहने के पश्चात मेरे पिताश्री 21 जनवरी 2004 ई.में स्वर्गवासी हुये। मृत्यु से महीने दिन पहले जब उनकी तबीयत ज़्यादा खराब थी उन्होंने अपना मृत्यु समीप होने की अनुभूति व्यक्त कर दिए थे, किंतु उनकी इच्छा 14 जनवरी मकर संक्रांति त्यौहार मनाने की थी। उत्सव वाले दिन उन्होंने पूर्व के इच्छानुरूप त्यौहार के अनुसार दही-चूड़ा (पोहा) और तील-शक्कर की मिठाई की प्रसाद ग्रहण करने की इच्छा जताई जिस आज्ञा का मैं कड़कड़ाती ठंड में उनके स्वास्थ्य और उनके खून में शर्करा स्तर बढ़ जाने तथा उनकी तबीयत अधिक बिगड़ जाने के भय से पालन करने से बारंबार इंकार करता रहा। अंततः माँ के कहने से बाज़ार से दही-मिठाइयाँ लाकर उन्हें प्रसाद ग्रहण करवाये, जिसके बाद उनका अन्न जल ग्रहण करना त्याग हो गया और वे सप्ताहंत स्वर्गवासी भी हो गये। उनके आज्ञा पालन से मेरा वह बारंबार इंकार करना, मेरी वह अनिच्छा मेरी सबसे बड़ी नादानी और असफलता थी जिसके लिये मेरी अंतरात्मा मुझे मेरे आखिरी साँस तक शायद कोसता रहेगा।
मेरा माताश्री के प्रति श्रद्धा, विश्वास और उनके आज्ञा पालन हेतु प्रेम है किंतु संसारिक भोग्य-वस्तु प्राप्ति हेतु अपनी अतृप्त इच्छाओ और लोभ-भय में आसक्त दुर्बल और सशंकित मन के वजह से अपने लक्ष्यानुसार उनका आज्ञा पालन नहीं कर पा रहा हूँ और बहुत बार तो पूर्णतः असफल भी हुआ हूँ जिसका मुझे दुःख है। अभी ईश्वर पर विश्वास कर आगे कर्तव्य पालन और आज्ञा पालन हेतु संघर्षरत हूँ।
सामान्य मानवीय स्वभावानुसार मेरा भी सामान्य सामाजिक कार्य-व्यवहार में स्वभाविक जुड़ाव है और मेरा मन भी उन्हीं चीजों को देखने-सुनने और समझने का इच्छुक रहा है जो मानसिक सुख की अनुभूति कराए. किंतु कहीं आते-जाते, संयोगवश राह चलते कोई मन अशांत करनेवाली चीजें नजर आ जाती हैं तो उसे देखने-सुनने अथवा समझने से परहेज रखता हूँ। क्योंकि अपना हृदय कठोर बनाने के बहुविधि प्रयत्न में असफल हो चूका हूँ। यथासम्भव अपना ध्यान किसी और तरफ मोड़ने की कोशिश करता हूँ, क्योंकि एक अनुभवी सभ्य नागरिक के भाँति प्रत्येक बातों में मजे ले सकने या प्रतिरोध खड़ा कर सकने की मेरी मानसिक क्षमता नहीं हैं और मेरे कमजोर मन वैसे अप्रीतिकर घटनाओं को देखकर प्रबुद्धता से उसे चुपचाप सहन कर लेने का अभ्यस्त भी नहीं है। मुझे उस मानसिक बोझ को विनोद पूर्वक वाणी के माध्यम से स्वयं से किसी अन्य पर डालने की महारत भी हासिल नहीं हैं।
किंतु कभी-कभी प्रथम दृष्टि में ही नजर आ जानेवाली अप्रीतिकर घटना के दृश्यांश भी मन को बेचैन कर देता है। ऐसे समय में एकांत में बैठकर स्वचित्त शांति के प्रयत्न करता हूँ, जिसमें सफलता मिलती थी। शायद मानस सत्संग गोष्ठी वगैरह धार्मिक सत्संग आयोजन में आते-जाते अबतक इतना ही जान और सीख पाया हूँ। किंतु पिछले लगभग डेढ़-दो वर्ष से उत्तरोत्तर अप्रीतिकर नजारे दिखने और चित्तशांति भंग होने की प्रतिकृति की मानो सिलसिला चल पड़ी थी और चित्तशांति के वैसी प्रक्रिया में कुछ अलग ही अनुभव हो रहा था जो अग्रांकित हैं। अग्रांकित बात के सन्दर्भ में सर्वप्रथम स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मुझे आजतक अनुभव नहीं हुये की अमुक प्रश्नकर्ता अथवा उत्तर-प्रतिउत्तर करने वाले कौन हैं, क्योंकि निःसन्देह उनमें से मैं कोई नहीं हूँ। फिर उन विचारों को प्रकट करने में और प्रश्नोत्तर में सहभागी व्यक्तित्व के सम्बंध में जो अनुभव हो सकता है, उससे मेरे संकोची प्रकृति व्यक्तित्व के कोई मेल नहीं। फिर मैं चित्तशांति हेतु अपने समस्त व्यथा और विचार के त्याग करने अथवा भूलने हेतु बैठता था, इसके विपरीत अतिरिक्त कोई विचार ग्रहण करने हेतु नहीं। क्षमा कीजिये यहाँ उसे किसी भी तरह ध्यानस्थ होना या मेरा कोई वैसा प्रयत्न करना मत समझिये। अस्तु वह बातें अग्रांकित हैं-
संसार में इतने दुःख क्यों हैं?
-संसार में बहुत कुछ हैं अन्यथा कुछ भी नहीं। वहाँ यदि दुःख है तो सुख भी है। सभी को समान अवसर प्राप्ति के सुख प्राप्य हैं और पूर्वोक्त अथवा स्व-हृद्यानुरूप धर्म-कर्म चुनने और तदनुसार कर्म करने के सुख भी प्राप्य हैं। स्वकृत कर्म के अनुरूप प्रतिफल प्राप्ति के और कर्मानुसार प्राप्त होने वाले प्रतिफल में कर्म के द्वारा बदलाव ला सकने के सुख भी प्राप्य हैं। आवश्यकता है तो केवल सकारात्मक चीजों को ग्रहण करने की।
-संसार में समस्त छोटी-बड़ी चीजों की बड़ाई अर्थात उनका महत्त्व भी परम् कृपालु प्रभु की कृपा और अनुग्रह से हैं और उपयुक्त समय पर सभी व्यापते अथवा अपना प्रभाव स्पष्ट कर पाते हैं। किंतु मोहादि में लिप्त संसारिक जीव में निःसंदेह सकारात्मक गुण ग्रहण करने की क्षमता प्रभावित रहती है। फिर जीव अपने अकर्म के प्रतिफल स्वरूप दैहिक, दैवीक (मानसिक ताप) और भौतिक यातना पाते हैं और कर्मफल प्रदान करने के अपने वचन से प्रभु भी निःसंदेह बंधे अथवा बाद्ध्य हैं। किंतु प्रभु के "विशेष मार्गदर्शन और ज्ञान कृपा से" रहित जीव बारंबार हृदय विदीर्ण करने वाले अप्रीतिकर दृश्यांश से सामना होने पर और मानसिक ताप तथा चित्तशांति भंग में पड़कर प्रभुचरण-अनुराग प्राप्ति और अपने संसारावतरण की जिम्मेवारी किस तरह पूर्ण कर सकता है। यदि "वह किसी भी तरह सहायतार्थ उपयुक्त अथवा अपने अकर्म का एक मुस्त दंड प्राप्ति के भागीदार नहीं हो सकते तो उसका हृद्यान्तरण पाषाण में कर देना क्या उचित नहीं है"।
-संपूर्ण सृष्टि में घटित प्रत्येक कर्म के कर्ता, तदुपरांत प्रतिफल प्राप्तकर्ता और प्रदाता निःसंदेह एक हैं और वही परम् वैरागी भी हैं। किंतु एक ईश्वरांश मोहासक्त होने पर जीवात्मा रूप में संसार में जन्म लेने हेतु बाध्य हैं तो दुराव (भेद-भाव) रहित सेवाभाव रखते हुये स्वकर्तव्य पालन से मल-मद त्यागकर जीवात्मा पुनः ईश्वरांश रूप में स्वयं को परिणत कर सकने के अवसर भी यहीं प्राप्त करते हैं। फिर ईश्वरांश वह जीवात्मा स्वकर्तव्य पालन करते हुये सहजता से अपना सहज प्रकृति प्राप्त कर सके इसलिये कर्तव्य पालन के अवसर प्राप्ति निमित्त भी यह संसार है। वास्तव में ईश्वरांशरूप इस संसार से ही समस्त लोक हेतु मार्ग हैं। ईश्वरांश जीवात्मा सुगमता से अपना लक्ष्य प्राप्त कर सके इस निमित्त संसार में समरसता स्थापित रहे और वह लघुता-जड़ता से मुक्त रहे, अतः संपूर्ण चराचर जगत का आधार सह-अस्तित्व का होना और कर्मफल अकाट्य होना आवश्यक है। कर्मफल सिद्धांत की रचना के साथ ही प्रत्येक जीव को उसे उचित धर्म-कर्म चुनने और करने की स्वतंत्रता और जिम्मेवारी प्राप्त हैं तथा संसारावतरण के साथ ही एकसमान प्रत्येक जीव के हृदय पुष्प कोमल और सुवासित होते हैं। उसे जागृत रहकर यत्न पूर्वक अपने कर्तव्य पालन से उसे सुवासित रखना चाहिये।
चित्तशांति हेतु बैठने के प्रक्रियोपरांत स्मरण शक्ति बेहद कमजोर रहने के वावजूद उपर्युक्त अजीब (क्योंकि इसका अनुभव शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता) सख्त किंतु बेहद मधुर स्वर में आभास (महसूस) हुई बातें स्मृति में रह गये। सिर्फ तारांकित पैराग्राफ में ही उद्धरण चिन्हान्तर्गत जो शब्द या वाक्य हैं के अतिरिक्त सारी बातें पूर्णतया और स्पष्ट स्मरण नहीं रहे। यहाँ अपना तत्समय का विशेष अनुभव बताना बिलकुल भी उचित नहीं समझता, किंतु इसके पश्चात भयवश आजतक दुबारा चित्तशांति हेतु बैठने के वैसी प्रक्रिया नहीं करता। परंतु तब दिन रात जहाँ उपर्युक्त बातें मन में गूँजती रहीं वहीं मन के दूसरे कोने में अपने कमजोर शारीरिक और मानसिक क्षमता का भान भी बना रहा था। कुल मिलाकर तब एक अजीब ऊहापोह और मानसिक तनाव की स्थिति बन गयी थी और कुछ सूझ नहीं रहे थे कि स्वकर्तव्य पालन में कहाँ चूक हो रही है और उसका क्षति पूर्ति किस तरह हो? इसके बाद मूर्त रूप में ऐसी अनेक बातें हुई जिसने मेरे सभी प्रश्नों और शंका-आशंका और ग्रंथियों का समाधान किया तथा यह स्पष्ट किया कि मुझसे मेरे कर्तव्य पालन हेतु क्या होना चाहिए एवं साहित्यिक क्षेत्र के संबंध में मेरी स्वप्रतिज्ञा भी मेरे लिये वरदान होंगे। इसी कड़ी के अंतर्गत उस बात की परीक्षण हेतु मेरे द्वारा वेवकूफी और अशुद्धि से भरे इलेक्ट्रॉनिक पत्र व्यवहार (ई-मेल) से शुरुआत करने के वावजूद कालांतर में मेरे नाम से प्रकाशित कुछ रचनाएँ मातृ भारती पर प्रकाशित हुये और अन्य पत्रिकाओं में मेरी रचना-कृति को जगह मिली।
यद्यपि मैं स्वयं को एक लेखक नहीं मानता, क्योंकि जिस चीज की मुझसे कल्पना हो सकती है वह पहले से संसार में मूर्तरूप में उपलब्ध होती है और उससे साक्षात्कार होने पर कुछ तथ्य स्वसंस्कारानुसार मनोंमस्तिष्क पर अंकित होते हैं, फिर कल्पनाशीलता जगती है, अतः मूल और मुख्य लेखक तो ईश्वर-रूप यह संसार ही हैं, मुझे तो उनके ही द्वारा एक माद्ध्यम मात्र बनाये गए हैं अथवा यह समझा जाय कि एक पाठक मात्र चुने गए हैं। तथापि यदि वह रचनाएँ प्रकाशित होना मेरी तीसरी असफलता है भी तो मैं अपनी इस असफलता से दुःखी नहीं हूँ। क्योंकि किसी एक के असफलता में बहुतों की भावी वास्तविक सफलता हो, एक की प्रतिज्ञबद्धता भंग से बहुतों में भावी सात्विक प्रतिज्ञा निर्मित हो, एक के अहंकार मर्दन से बहुतों में स्वाभिमान जगे और सभी प्रकार से मानवीय मूल्यों की रक्षा हो तो वह पराजय मुझे स्वीकार्य है और मेरे कर्तव्य पालन के एक अंश रूप में मुझे स्वीकार है।
किंतु मुझे मेरे आराध्य से कुछ अपेक्षाएं भी हैं। वह कि मेरी जिम्मेदारी-पूर्ति जिस किसी कार्य से निर्धारित हैं उसमें मेरी व्यक्तिगत रूचि न हो, क्योंकि वह रूचि ही कालांतर में मोह, अपेक्षा और लोभ की जननी है। किंतु यह भी कि मुझे गोस्वामी तुलसीदास या अज्ञात न बनाया जाये बल्कि रैदास के पीछे ही चलने दिया जाय। यदि संसार मुझे नास्तिक भी समझे तो कोई परवाह नहीं, परंतु मेरे प्रतिज्ञा की रक्षा भी स्वयं प्रभु ही करें, ताकि मेरे सहज स्वभाव की रक्षा हो और उस कुछेक भाट या चारण जो दूसरे को वास्तविकता से दूर रखकर, अति अल्पसत्य बताकर अथवा फ़क़त मनोरंजन कर केवल स्वयं हेतु यश और धन कमाने मात्र की इच्छा रखते हों के अनुसरण से बचा रहूँ। मेरे हाथों से यदि कुछ कृति हो तो वह थोथे आदर्श अथवा अनुचित तरीके से सत्य को संबल देने हेतु कोई अल्पसत्य न हो, फ़क़त दर्द भरी दास्ताँ सुनाकर अथवा वास्तविकता से बिलकुल परे प्रेम बयार की काल्पनिक अनुभूति करवा कर केवल अपनी वाहवाही लूटने हेतु न हो। अपितु वास्तविक समस्या और उसके संभावित समाधान दोनों व्यक्त करे, यदि वह अंततः सत्य की जय होती है व्यक्त करे तो सत्य और असत्य के निरंतर संघर्ष की वास्तविकता को भी व्यक्त करे, यदि मेरी कृति से यह व्यक्त हो कि सज्जन सत्य का त्याग कभी नहीं करते तो सत्य के पक्षकार होने के लिये बिना पूर्वाग्रह के हमेशा जागृत रहने की सदैव चेष्टा होनी चाहिए यह वास्तविक्ता भी व्यक्त करे।
यदि मेरा परिचय मेरी सफलता हो सकती है तो मेरी असफलता के जिक्र हुये बिना वह पूर्ण कदापि नहीं हो सकता। इसलिये मैंने सबकुछ व्यक्त किया। हृदय से सबकुछ शब्दों में अंकित करते हुये एवं इसके पश्चात जो व्याकुलता अनुभव कर रहा हूँ, लगता है मैं पूर्ण निर्धन हो गया। परंतु तब भी यह सब कुछ मैं ईश्वररूप संसार के समक्ष अर्पित करता हूँ, यह स्मरण करते हुये कि जो कुछ है वह तेरा है और तुझको ही अर्पित है, इसमें मेरा क्या जाता।
-प्रदीप।