प्रदूषण / मुस्तकीम खान

Gadya Kosh से
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यह उन दिनों कि बात है जब मैंने अपनी पहली नौकरी से इस्तीफा दिए बस कुछ महीने ही हुए थे। मेरा रूममेट-- जिससे साल भर में मैंने मुश्किल से दो या तीन बार बात की होगी और वह भी मजबूरन—वह मद्रास के किसी छोटे से गांव का रहने वाला था। अब वह पी.एच.डी की पढाई खत्म करके अपने वतन लौट गया था। दूसरी नौकरी ना मिलने तक मैंने उस भाड़े के घर में अकेले ही रहने का फैसला किया। उन दिनों मेरी उम्र पच्चीस साल की होगी।

शहर की बढती आबादी और धूंआ पैदा करने वाले वाहनों की तादाद के रहते हवा में प्रदुषण कुछ ज्यादा ही महसूस होने लगा था। देखा जाए तो ऐसे बड़े शहरों में प्रदुषण सिर्फ़ हवा में ही नहीं बल्कि सडको पर, पानी में, यहाँ तक कि इंसान की नीयत में भी बड़ी शुमार में पाया जाता है। वैसे तो मुझे पर्यावरण से जुड़े मुद्दों में कुछ खास दिलचस्पी नहीं मगर अभी कुछ ही दिनों पहले शहर के एक मशहूर इंस्टिट्यूट की मुलाकात के बाद ऐसे कुछ ख़याल मुझे आने लगे है।

मैं उस इंस्टिट्यूट में हो रहे फिल्म फेस्टिवल को देखने गया था। वैसे भी मेरे पास फिल्में देखने और किताबें पढ़ने के आलावा कुछ काम नहीं था। कुछ जगहों पर अर्जी भेजी थी, बस वहीँ से जवाब आने का इन्तज़ार करते हुए दिन गुज़ार रहा था। फिल्में देखना मुझे पहले से ही बहोत पसंद है। मगर वहां पर एन्वायरमेंट से जुडी हुई फिल्में दिखाई जा रही थी। और कसम से अगर मुझे पहले पता होता तो में वहां कभी न जाता क्यूंकि यह ‘एक्टिविस्ट’ किस्म की बातें मुझे समझ नहीं आती चुनांचे मुझे उतनी पसंद भी नहीं। खैर, मेरी पसंद ना पसंद में ज्यादा वक़्त ज़ाया ना करते हुए मैं अपनी बात आगे बढाता हूँ।

मेरे बर्दाश्त की इन्तेहा हो जाने के बाद हॉल से बड़ी मशक्कत से, लोगों की नज़रों से बच कर, बाहर निकल आया। नीम के एक घने पैड के नीचे लगे हुए चाय के स्टाल पर हाथ में कप लिए, अपने दो सौ रुपये -- जो मैंने फेस्टिवल की फीस के तौर पर गवाएं थे -- उसका अफ़सोस कर रहा था। इतने में ही मैंने देखा की एक इक्कीस या बाईस साल की लड़की एक ठेला लिए जगह जगह से प्लास्टिक की बोतलें, प्लेट्स, और कप्स उठा रही थी। जैसे ही मेरा कप खाली हुआ तो मुझे कहीं डस्टबिन नज़र नहीं आने पर मैं उसके पास गया और उसके ठेले में वह कप फैंक दिया। उसने मेरी तरफ देखा तो उसकी उन बड़ी बड़ी आँखों और दोनों तरफ से जुल्फों से घिरे हुए मासूम चेहरे को मैं घूरता ही रह गया। उसके हुलिए से यह साफ़ ज़ाहिर था की वह कोई कचरा उठाने वाली भंगन तो बील्कुल नहीं थी। मैं --मेरी उम्र के बाकी मर्दों की तरह-- लड़कियों में उतनी दील्चस्पी नहीं लेता था मगर इस लड़की ने पता नहीं पहली ही नज़र में मेरे ज़हन को जैसे एक फंदे में फांस लिया। उसने जब मेरे पैरों तले दबे उसके थैले को खींचा तब जा कर मुझे होश आया और मैंने एक कदम पीछे लीया।

वह बिना कुछ कहे वहां से चलने लगी। शायद दो तीन घंटे तक मैं उसे यूँही दूर से देखता रहा। उसका लिबास पुराना होने के बावजूद ना जाने मुझे क्यों ऐसा लग रहा था कि उस पर बहोत जंच रहा था। शायद इस लिए कि और कुछ हो ना हो मगर उसके कमीज़ का घिसा हुआ केसरी रंग उसके कच्चे यौवन को ऐसे बढ़ावा दे रहा था जैसे दीपावली के दिये त्योहार की खुशियों को बढ़ावा देते है। उसके चलने का ढंग और उसकी वह कसी हुई छाती उसकी खिल रही जवानी की साफ़ चुगली कर रहे थे। जब वह झुकती तो उसकी बिखरी हुई काली जुल्फें उसके चेहरे को ढँक देती। इस लुका छुपी को देखने में मेरा वक़्त कहाँ गुजर गया मुझे पता ही न चला। किसी लड़की को ले कर मेरे दिल में ऐसे जज़्बात पहले कभी न जगे थे।

जब फिल्में खतम हुई तो हॉल में से लोगों का झुण्ड केन्टीन की तरफ आया और सबने खाना खाया जिसमे से कुछ ने ज़मीन पर डाली हुई पेपर प्लेट्स आदि वह लड़की उठा ने लगी। थोडी देर के बाद जब वहां से भीड़ कम हुई तो वह एक पैड के नीचे बैठ कर अकेले खाना खा खाने लगी। यही मौका समझ कर में उसके पास जा कर बैठ गया।

वह खाने में इतनी मसरूफ थी की उसने मेरी तरफ देखा ही नहीं। और मैं भी थोड़ी देर तक उसे देखता रहा यह सोचते हुए की बात की शुरुआत कैसे करूँ। आखिर मैंने पूछ ही लिया, ““क्या मैं तुमसे कुछ बात कर सकता हूँ?”” यह सुनते ही तुरंत उसने नज़रें उठा कर मेरी तरफ देखा और एक पल के बाद उठाया हुआ निवाला वापस प्लेट में पटक कर वहां से चल खड़ी हुइ। मुझे उसे जाते देख कर बड़ा अफ़सोस हुआ पर मैं कुछ न कर सका। मैंने इधर उधर देखा तो मेरे पीछे दो नौ जवान लड़के मेरी तरफ देख कर हंस रहे थे। मुझे बहुत ही शर्मिंदगी महसूस हुई और मैं वहां से चला गया।

उस रात काफी देर तक मैंने उस लड़की के मुताल्लिक सोचा और सोचते सोचते पता ही नहीं चला कि कब सो गया। दुसरे दिन सुबह ना जाने क्यों पर मैं वापस उस इंस्टिट्यूट में गया और सारा दिन उस लड़की को देखता रहा। कई बार उसके पास जा कर बात करने को जी चाहा मगर मुझे डर था कि वह भीन्ना जायेगी और शायद ऐसा कुछ कर दे कि मुझे और भी शर्मिंदा होना पड़े। और ऐसे किस्म के इंस्टिट्यूट में जहाँ आने वाले लोग उनके पेशे और ‘इन्टलेक्चुअल स्टेटस’ के कारण समाज में एक खास मुकाम रखते है, उनके सामने मैं शर्मिंदा हरगिज़ नहीं होना चाहता था। चुनांचे मैं दूर से ही उस लड़की को देखता रहा। यह सिलसिला कुछ पांच छः दिनों तक और चला। हर रोज उसको घंटो यूँही देख कर मुझे सुकून मिलने लगा था। कभी मुझे वह एक गुडिया सी लगती और कभी एक कविता सी। सच मानो तो ऐसे शायराना खयालात मुझ जैसे आदमी के दिल में भी आ सकते है यह सोच कर मुझे बड़ी हैरानी होती थी।

हालाँकि इससे पहले कई हसीन और खूबसूरत लड़कियों से मेरा मिलना हुआ था मगर कभी मेरे दिल मैं ऐसी हसरत न हुई थी जो अब हो रही थी, वह भी एक मामूली सी लड़की को ले कर जिसका नाम तक मुझे मालूम नही था और जिसमे ऐसी कुछ खास खूबी भी न थी जो मैं दावा कर कह सकूं कि मुझे हद से ज्यादा अच्छी लगी। सारी रात मैं मुश्किल से कुछ घंटे सो पाया। जैसे ही आँखें बंद होती मुझे वह लड़की नज़र आती और में झपक कर उठ जाता।

दुसरे दिन सुबह जब आँख खुली तो पता चला कि दोपहर हो चुकी है। मैंने झट से तैयार हुआ और ठान ली कि मुझे अपने अज़ीज़ दोस्त राम नरेश से मिल कर इस सिलसिले में बात करनी चाहिए।

राम नरेश ही ऐसा एक आदमी था जिससे बात करके मेरे मन में उठ रहे इस किस्म के अजीबो गरीब ख्यालों को मैं समझ पाता था। लाल दरवाज़ा -- जहाँ राम नरेश का फ़ूड स्टाल लगता था-- उस तरफ मैं पैदल चल पड़ा। मेरे घर से कुछ आधा किलोमीटर दूर था। शुरुआत में दो तीन बार अपनी दूकान में खाना खाते देख कर जब उसने मुझसे बात की तो बातों बातों में उसे मालूम हुआ की मैं भी उसकी तरह फिल्मों का शौक़ीन हूँ। उसके बाद कई बार वह मुझे फिल्मों की पायरेटेड कॉपी मुफ्त में दे दिया करता था। उम्र में मुझसे एक साल छोटा था मगर तजुर्बे में मुझसे कई साल बड़ा। उसकी दूकान में आने वाले ग्राहकों का चेहरा देख कर पढ़ लेता कि फलां शख्स का बेक्ग्राउन्ड क्या होगा। कई बार मैंने चेक करने के लिए ऐसे एक शख्स से पूछताछ भी की तो राम नरेश का अंदाज़ा नब्बे फीसद सही निकला। जब मुझे कोई दिलचस्प शक्लो सूरत वाला आदमी या औरत दिखाई पड़ती तो मैं तुरन्त उससे इशारों में पूछता कि ‘बता, इसके बारे में क्या ख्याल है?’ और वह मुंह बना कर तरह तरह कि कहानियां मुझे सुनाता जिसके सुनने के बाद हंस हंस कर मेरा पेट दर्द करने लगता। हम रात को उसकी दूकान के बाहर वाली सीडियों पर बैठ कर घंटो गप्पे लड़ाते।

आदमी तो वह बुरा न था मगर उसमे एक ऐसी बात थी जो मुझे पसंद नहीं थी। जब भी कोई खूबसूरत लड़की-- थोड़े से भी तंग कपडे पहने-- उसकी दूकान को आती तो वह मुझे उस लड़की के बारे में ऐसी बातें सुनाता जो बड़ी अश्लील लगती। मैंने उससे कई बार कहा कि, ““मियां तुम मुझसे ऐसी बातें ना किया करो, मुझे मर्दों का औरत ज़ात कि तरफ ऐसा रवैया बील्कुल पसंद नहीं।”” तो वह ऊपर से मुझ पर ही हंस देता और बड़ी संजीदगी से कहता, “”भाई, मेरे दिल में औरत ज़ात के लिए कोई गलत ख़याल नहीं। मगर हाँ, खुदा की इस नएमत के मुतल्लिक ना चाहते हुए भी मेरे दिल में सेक्स के ही ख़याल उभरते है इसमें मेरा क्या कसूर।”” मैंने कई बार उसकी यह सोच बदलने कि कोशिश भी की पर नाकाम रहा।

चलते चलते उसकी दूकान तक पहुँच गया तो मुझे कई दिनों के बाद देख कर बड़ा खुश हुआ। उस वक़्त ग्राहकों की भीड़ ज्यादा होने की वजह से उसने मुझे बाहर वाली बेंच पर थोड़ी देर बैठने को कहा। काम खतम करने के बाद वह मेरे पास आया और मुझसे पूछा, “”खां साहब, कहाँ थे इतने दिन?”” मैंने कहा, ““बस, इधर ही था।” वह हंस कर बोला, ““चलो प्लेटे लगवाता हूँ, साथ बैठ कर खाते है।”” उसने दूकान का शटर आधा बंद किया और हम दोनों बीच वाले टेबल पर बैठ गए। वैसे तो वह बड़े दिल वाला आदमी था। उसने यह बील्कुल परवाह नहीं की कि आधा बंद शटर देख कर कई ग्राहक वापस लौट सकते है। वह बस मुझे देख कर खुश था इसलिए आराम से मेरे साथ बैठ कर खाना खाना चाहता था।

खाते हुए मैंने बात शुरू की, ““यार, तुमसे एक लड़की के सिलसिले में बात करनी है।”

वह खाते हुए रुक गया और मजाक में कहने लगा, “”भाई उसके लिए तुम्हे कोई और किस्म के पेशे वाले शख्स से बात करनी चाहिए।” वह हँसने लगा।

“”नहीं नहीं, तुम समझे नहीं। देखो, एक लड़की है जिसको मैंने एक हफ्ते पहले देखा। उस में ऐसी कोई भी खास बात नहीं है मगर अब वह मेरे दिमाग पर अजीबो गरीब तरह से असर कर रही है, मेरा मतलब है तब से मैं कुछ और सोच ही नहीं पा रहा हूँ।”” राम नरेश ने यह सुन कर ज़ोर का ठहका लगाया और कहा, “”अच्छा तो मामला इश्क का है।”

मैंने शरमाते हुए कहा, “”अभी तक तो ऐसे कुछ नतीजे पर मैं पहोंच नहीं पाया हूँ मगर...”” और मैंने पूरा वाकिया उसे सुनाया-- बताया कि कैसे वह लड़की मेरे दिलो दिमाग पर डेरा डाले बैठ चुकी थी।

उसने सारी बात सुनने के बाद मुझसे कहा कि वह उसे देखना चाहता है। पहेले मुझे यूँ करना मुनासिब न लगा। डर था कि शायद फिर से फ़िज़ूल की अश्लील बातें उस लड़की के बारे में बोलना शुरू कर दे। मगर फिर ख्याल आया कि उसे दिखाने में कोई हर्ज नहीं क्योंकि वह लड़की तो वैसे भी कोई खूबसूरत नहीं है। हम दोनों अगले ही दिन सुबह उस इंस्टिट्यूट में गए और देखा कि वह लड़की आज भी वहीँ अपना ठेला लिए घूम रही थी। राम नरेश ने उसे गौर से देखा और मुझे वहीँ पर खड़े रहने का आदेश दे कर खुद उस लड़की की तरफ चल दिया।

ना जाने वह उधर जा कर उससे क्या बातें कर रहा था। काफी देर के बाद वह लौटा तो उसके चेहरे पर एक अजीब सा ठहराव था और उसकी आँखों में जो मैंने पहले कभी ना देखि थी वैसी नमी थी। कुछ पल के लिए उसने कुछ न कहा फिर एक गहरी सांस लेने के बाद मुझसे सिर्फ़ इतना कहा, “”कल आ कर मुझसे दूकान पर मिलना।”” मेरी समझमें कुछ नहीं आया मगर उस वक़्त राम नरेश ने मेरे कोई भी सवाल का जवाब देने से साफ़ इनकार कर दिया।

बेचैनी से मेरी तबियत मरी जा रही थी। बड़ी मुश्किल से वह दिन भी मैंने गुज़ार दिया। दुसरे दिन सुबह जल्दी उठ कर, तैयार हो कर जब मैं राम नरेश की दूकान पर गया तो देखा कि दूकान का शटर गिरा हुआ है। उसके बाद भी तीन रोज तक दूकान बंद रही। चौथे दिन जब मैं उधर से गुज़र रहा था तो देखा कि दूकान खुली थी। अचानक काउंटर पर उसी लड़की को देख कर मैं भौंचक्का रह गया। गभरा कर मैं उधर से ही लौट जाने वाला था कि मुझे राम नरेश ने आवाज़ दे कर बुला लिया। मैं कांपते हुए पैरों से सीडियां चढा और उसके पास गया तो उसने मुझे उस लड़की से मिलवाते हुए कहा, ““इससे मिलो, इसका नाम है जहांआरा।”” मैंने अटकते हुए उस लड़की को “हेल्लो” कहा मगर लड़की ने कुछ जवाब न दिया। फिर राम नरेश ने मुझे एक तरफ बैठा कर दबी हुई आवाज़ में खुलासा किया कि, ““भगवान की कृपा से मेरी जिंदगी मैं जो एक बहन की कमी थी वह पूरी हो गइ। कुछ सालों पहले एक एक्सीडेंट में इसने अपने माँ बाप और अपनी ज़बान को खो दिया। अब बोल नहीं सकती।”” पहले तो मुझे अपने कानों पर विश्वास ही न हुआ। मैं चुप चाप बस सुनता रहा। ““आज कल अपने चचेरे भाई के साथ रह रही थी जो उसी इंस्टिट्यूट में एक लेक्चरर है। मैंने इस लड़की के चेहरे पर पढ़ा कि यह लड़की उस प्रोफेसर पर बोझ बन रही है तो मैंने इसे मेरी बहन बना कर अपने साथ रहने के लिए राज़ी कर लिया। पहली मुलाक़ात में ही एक गहरा अपनापन महसूस हुआ। इसके भाई को जब मैंने अपना इरादा बताया तो उसने खुशी खुशी अपनी रजामंदी ज़ाहिर की। मैं शायद उसे उतने ऐशो आराम से न रख सकूं मगर उससे कई ज्यादा प्यार तो दे ही सकता हूँ।”” उसने एक गहरी सांस ली, “”खैर, भाई तेरी वजह से आज मुझे यह खुशनसीबी हांसिल हुई है, मैं शुक्रगुजार हूँ।” और उसकी आँखों में पहली बार मैंने आंसू देखे।”

मुझे समझ नहीं आया कि क्या जवाब दूं। मैंने राम नरेश को पहले ऐसे कभी नहीं देखा था। मैंने उसका हाथ हमदर्दी के साथ थपथपाया और उसकी तरफ मुस्कुरा कर उस लड़की की तरफ देखा। उसके चेहरे पर अभी भी वही मासूमियत छलक रही थी। मेरा जी कर रहा था कि मैं अभी जा कर उसे गले से लगा लूं और कसके अपनी बाहों में जकड लूं मगर उसकी हकीकत जानने के बाद मुझे अपने आप पर शर्म महसूस हो रही थी। मैंने राम नरेश को “खुदा हाफ़िज़” कहा और उधर से चला दिया।

कई दिनों तक मैं घर से बहार न निकल सका। जी तो बहोत चाहता था कि अभी जा कर उस लड़की को कुछ कर के पूरी हकीकत बता दूं कि उसके बारे में मैंने क्या क्या सोचा था मगर मुझे एक अजीब सी घुटन हो रही थी। शायद मुझे बुरा लग रहा था कि उस लड़की का बहरे गूंगे होने कि वजह से मेरे दिल मैं उसके लिए अब पहले जैसे जज़्बात नहीं उठ रहे थे। मुझे हैरानी भी हो रही थी कि राम नरेश, जिसने मेरे सामने आज तक किसी लड़की को शायद हवस के अलावा और कोई नज़र से न देखा होगा उसने ऐसा एक बड़ा ही हिम्मत वाला और इंसानियत की एक मिसाल कायम करता हुआ कदम कैसे उठा लिया। ना जाने क्यों मुझे लग रहा था जैसे कुछ गलत हुआ।

इसी कश्मकश से तंग आ कर एक दिन जब मैं टहलते हुए राम नरेश की बंद दूकान के पास से गुजर रहा था तब पूछने पर किसीने मुझे बताया कि राम नरेश ने अब अपनी बहन को अपनी धर्म-पत्नी बना लीया है और दोनों कहीं दूर कोई छोटे से गाँव में एक ढाबा चला रहे है।

दुसरे दिन जब में गांधी ब्रिज पर सैर के लिया निकला तो मुझे शहर की पूरी फिजा जैसे प्रदूषित मालूम हो रही थी।