प्रदूषित नदियां, सूखते तालाब और श्रीहीन पहाड़ / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :29 जून 2016
खिमलासा में एक तालाब की खुदाई का काम पंचायत ने एक कंपनी को दिया कि वह यह काम मुफ्त में करे और तालाब के तल से निकलने वाली सिल्ट यानी गाद को बेचकर अपना खर्च व मुनाफा निकाले। इस काम के 1 करोड़ रुपए के अनुमानित खर्च को बचाने के लिए पंचायत ने यह रास्ता निकाला। ज्ञातव्य है कि तल से निकली गाद उच्च कोटी की खाद होती है। इस प्रकरण में यह उल्लेख बार-बार किया जा रहा है कि इसी तालाब के किनारे 'तीसरी कसम' का एक दृश्य और गीत शूट किया गया था। कथा में कुंवारी नदी और उससे जुड़ी लोक-कथा का जिक्र था। दरअसल, बिहार के विश्व प्रसिद्ध कथाकार फणीश्वरनाथ 'रेणु' की तीस पृष्ठ मंे छपी कथा 'तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम' से प्रेरित फिल्म की पटकथा नवेंदु घोष ने लिखी है और यह उनका ही कमाल है कि मूल कथा की हर पंक्ति अपनी संपूर्ण संवेदना सहित पटकथा में उभरकर आई है। साहित्य से प्रेरित फिल्म बनाने का यह सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। इतना ही नहीं फिल्म के सारे गीतों के मुखड़े भी मूल कथा से लिए गए हैं। अपवाद है महुआ घटवारिन का प्रसंग, क्योंकि कथा में प्रयोग किया लोकगीत इतना अधिक लोक-कथा से जुड़ा है कि उसे अखिल भारतीय लोकप्रियता नहीं मिल सकती थी। अत: निर्माता शैलेंद्र ने अपने साथी हसरत जयपुरी को सारी बात समझाकर उनसे गीत लिखवाया, 'दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई।' फिल्मांकन करते समय मुखड़े और अंतरों के बीच हीरामन महुआ घटवारिन की हृदय द्रावक कथा भी सुनाते हैं। इस तरह मूल रचना की भावना जस की तस फिल्म में अभिव्यक्त हुई है। साहित्य व सिनेमा का यह अभूतपूर्व विलय है और शैलेंद्र ने सिद्ध कर दिया कि साहित्य से इस तरह फिल्म बनाई जाती है। फणीश्वरनाथ 'रेणु' ने राज कपूर से मिलने के बाद शैलेंद्र से अपनी शंका जाहिर की थी कि यह गोरा चिट्टा यूरोपीयन-सा दिखने वाला राज कपूर मेरा गंवई गांव का हीरामन कैसे दिखेगा? शैलेंद्र ने उनसे कहा कि रश प्रिंट देखने पर भी आपकी यह शिकायत कायम रही तो वे री-शूट करेंगे परंतु प्रदर्शन पूर्व चंद रीलें देखते समय रेणु बरबस बोल पड़े, 'ओ माई, ये तो साक्षात हीरामन है।' राज कपूर भूमिका में ऐसे समाए कि साक्षात गाड़ीवान हीरामन बन गए। राज कपूर ने अपने जीवन का सबसे बड़ा करिश्मा इसी भूमिका में दिखाया और क्यों न दिखाते, वे शैलेंद्र को सिनेमा का राजकवि मानते थे। इसके पूर्व राज कपूर ने ख्वाजा अहमद अब्बास की 'चार दिल, चार राहें' में भी अछूत का पात्र पूरी शिद्दत से निभाया था। दरअसल, फिल्मकार के रूप में राज कपूर के विराट व्यक्तित्व के नीचे दबा रहा उनका विलक्षण अभिनेता स्वरूप और इस पक्ष का पुनरावलोकन किया जाना चाहिए। फिल्म 'अनाड़ी' के एक दृश्य में संवाद है कि वे अब अपना रूप बदलकर तथाकथित संभ्रांत समाज के व्यक्ति बनेंगे और एक ही शॉट में उनके चेहरे पर अलग-अलग किस्म के भाव उभरते हैं।
बहरहाल, भारत के नेता विदेशों में भिक्षा पात्र लिए घूमते हैं और देश के विकास के लिए देश की संपदा का न उन्हें ज्ञान है और न ही वे भारत को समझना चाहते हैं। देश के सारे तालाबों को गहरा करवाना, नदियों को प्रदूषण मुक्त करना तथा श्रीहीन पहाड़ों को पुन: पेड़ों से सजाना कितना आवश्यक है। सत्ता प्राप्त करने की होड़ ही उनका जीवन है। वर्तमान में भारत से पूरी तरह अनभिज्ञ लोग सत्ता पर विराजमान हैं। किसी दौर में यह कल्पना करना असंभव था कि इतने संवेदनहीन लोग सत्तासीन हो जाएंगे। यह दौर मुंहजोर लोगों का दौर है और बड़े-बड़े वादे करने का दौर है, क्योंकि वे जानते हैं कि वादे पूरा करना उनके लिए संभव ही नहीं है।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने देश के चप्पे-चप्पे की यात्रा की थी अौर हजारों वर्ष पुरातन संस्कृति का उन्हें भरपूर ज्ञान था। वे तो इस महान सांस्कृतिक संपदा के साथ आधुनिकीकरण के हिमायती थे। उनकी वसीयत पढ़िए, जिसमें उन्होंने अपनी अस्थियों को भारत की भूमि पर बिखेरने की इच्छा जाहिर की थी। उनका गंगा पर लिखा लेख महान कविता की तरह है। जब उन्होंने इंदौर आकर मांडू की यात्रा करने की इच्छा प्रकट की तब आला अफसर दंग रह गए, क्योंकि उन्हें स्वयं मांडू के अस्तित्व का ज्ञान नहीं था। ताबड़तड़ एक गाइड को खोजा गया और मांडू यात्रा की व्यवस्था की गई। अभी सरोज कुमार से मालूम हुअा कि गाइड कोई शर्माजी थे। इसी वाकये के बाद मांडू के संरक्षण के उपाय किए गए।
नेहरू की इस वसीयत में गंगा पर उनके विचार विदेशी शिक्षा संस्थाओं के पाठ्यक्रम में शामिल हैं। हमारे देश में तो बौने लोग नेहरू का नाम पूरी तरह से मिटाने के बचकाने प्रयास कर रहे हैं। उनका कद बढ़ नहीं सकता तो कद्दावर को कांट-छांटकर अपने समान लघु बनाना चाहते हैं। समय की नदी में लहरों द्वारा अंकित नाम कभी मिटाए नहीं जा सकते। एक कविता की पंक्तियां स्मरण में कौंधती है, 'मुझसे छीन ले गई मेरा सबकुछ इक्कीसवीं सदी, एक जंगल, एक पहाड़, एक बहती हुई नदी।' कवि का नाम याद नहीं आने के लिए उनसे क्षमा याचना करता हूं।