प्रभा खेतान को याद करते हुए / परमानन्द श्रीवास्तव

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प्रभा खेतान को याद करते हुए
लेखक - परमानन्द श्रीवास्तव (नवम्बर, २००८)

( परमानंद श्रीवास्तव प्रभा खेतान के निकटतमों में रहे, उनके सुझावों को वे गंभीरता से लेतीं। उनका मई 92 में लिखा गया, एक पत्र भी प्रस्तुत है।)

कविता केंद्रित एक बड़े आयोजन में कोलकाता में था और अपनी बहन पे्रम सोन्थलिया के गुरुसदन रोड स्थित अजंता अपार्टमेंट में ठहरा था। सुशीला केजरीवाल पर यह जिम्मेदारी थी कि वे मुझे साथ आयोजन स्थल पर ले जाएँ और छोड़ जाएँ। सुशीला केजरीवाल आत्मीय हो चली थीं। कभी एक दोपहर भोज में हम शामिल थे। अज्ञेय जी और विद्यानिवास मिश्र मेरे लिए सबसे निकट हैं। जब हम मेवे टूंग रहे थे और अपने में डूबे थे। सुशीला केजरीवाल ने मुझे अलग ले जाकर कहा-मेरी एक मित्र किसी अज्ञात जगह ले जाएंगी और गुरुसदन रोड प्रेम के यहाँ छोड़ देंगी। बाद में गंतव्य पर पहुँचकर लगा-वे प्रभा खेतान थीं जो तब ब्यूटी सैलून चला रही थीं। अचानक प्रभा खेतान ने मुझे एक डायरी दी-अस्तव्यस्त, अटपटी-सी कविताएँ! मैंने पूछा-

'कविताएँ आपकी हैं क्या?'

क्या ये कविताएँ हैं?

'मैं तो जानती नहीं, कभी महफिल में अंग्रेजी कविताएँ छपी थीं।'

मैंने वह डायरी रख ली कि, शायद एक संग्रह बन जाये। फिर वे प्रकाशित कर सकती हैं, संग्रह बना, छपा भी। प्रभा का आग्रह था कि लोकार्पण मैं करूं। वह मैंने किया। अब प्रभा खेतान मित्र थीं। जब भी जाता, लिटिल रमेले स्ट्रीट अपने घर ले जातीं। वहीं मेरे अपने शहर के कवि, पद्मश्री नेत्र चिकित्सक डॉ गोपाल कृष्ण सर्राफ मिले। फिर हम तीन परस्पर जुड़ गये। दूर-दूर तक भ्रमण पर जाते। लाँग ड्राइव पर केलूरमठ भी। प्रभाखेतान बाद में चमड़े के व्यवसाय के केन्द्र कारखाने पर ले गयीं। कलकत्ते की गलियाँ, किताबों की दुकानें, रेस्त्राँ।

अब जब भी कोलकाता जाता, एक शाम प्रभा खेतान के साथ बीतती। रात का खाना भी। रचनाएँ तो देखता ही-कविता, कहानी। इसी बीच 'आओ पेये' घर चलें' 'हंस' में छपी। पाठकों के ढेरों पत्र मिले। फिर 'छिन्न मस्ता' पर सौ-डेढ़ सौ पत्र। प्रभा ने मुझे पढऩे के लिए दिए। जब ईरान विषयक कविताएँ लिखीं, तो मैंने संकोच पूर्वक कहा,

'कविता आपकी विधा नहीं है, कहानी है।'

फिर तो 'अग्नि संभवा','तालाबंदी','पीली आंधी' उपन्यास आये। पीली आंधी पर के.विक्रम सिंह फिल्म बनाना चाहते थे। अनुमति मैंने दिलायी। 'छिन्न मस्ता' का नाट्य रूपांतरण गिरीश रस्तोगी ने किया। प्रस्तुति भी रूपांतर के मंच पर हुई।अमृता सरकारी, शंभु तरफदार मुख्य भूमिकाओं में थे। 'पीली आंधी' पर के.के.बिड़ला फाउन्डेशन का बिहारी सम्मान मिला। अब प्रभा स्त्री विमर्श के लिए प्रसिद्ध हुईं। जनवादी लेखक संघ ने उन्हें बहुत मान दिया। पूरी दुनिया में वे चमड़े के व्यवसाय के सिलसिले में जाती। विदेशी ग्राहक भी आते। पर अब प्रभा संस्कृ त सीख रही थीं। सार्च और सीनोम द दबुआ पर उनका काम चर्चा में था। 'सात्र्र' उनकी किताब जे.एन.यू. के पाठ्यक्रम में आ गई। यह नामवर जी ने बताया। राजेन्द्र यादव ने कभी सुझाया कि वे दिल्ली आयें और 'हंस' का काम संभालें। मैंने उन्हें यह न करने के लिए मना लिया। सुभाष मुखोपाध्याय ने प्रभा के लिए दूसरे काव्यसंग्रह का लोकार्पण किया। कभी प्रभा खेतान ने 'सांकलों में कैद क्षितिज' शीर्षक से दक्षिणी अफ्रीकी कविताओं का अनुवाद किया। डेनिस ब्रूट्स की एक कविता संकलन के शुरू में ही थी-'आज जेल में'।


'इतने अरसे बाद भी
हम भूले नहीं हैं उनको
कुरेद-कुरेद कर जिंदा रखी हैं हमने
अपने गुस्से की आग।'

प्रभा खेतान भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी को बुर्जुआ पार्टी मानती थी। के.सी.पी.एम. के साथ थीं। 'हंस' के स्त्री अंक का संपादन किया। सुभाष मुखोपाध्याय की एक कविता का अनुवाद मैंने प्रभा खेतान के साथ किया

-'जाता हूँ'। प्रभा ने जब कार चलाना शुरू किया, रात ग्यारह बजे मुझे गुरुसदन रोड छोडऩे गईं। ड्राइवर को साथ नहीं लिया। कहा आप सुरक्षित रहेंगे। यह उत्तेजना से कम न था।

कुछ ऐसा त्रासद प्रभा के आंतरिक जीवन में घटा, जिसके आघात से वे उबर नहीं सकीं, इसलिए विवाह नहीं किया। एक किसी युवा लड़के को गोद लिया। उसकी शादी का खूबसूरत कार्ड मिला। उत्तरापेक्षी थीं प्रभा खेतान। जनवादी लेखक सम्मेलन के राष्ट्रीय सम्मेलन(पटना)में प्रभा के संबोधन की देर तक चर्चा हुई। डॉ.सर्राफ से उनके प्रेम की चर्चा अब पूरे साहित्य जगत में थी। 'अन्या से अनन्या' प्रभा की आत्मकथा सारे भेद खोल देती है। यह दो-चार महत्वपूर्ण आत्मकथाओं में है। मेरे प्रभा के बीच के पत्र भी डाक्टर साहब से उनके प्रेम का संकेत देते हैं। 'अन्या से अनन्या' में अंतिम प्रसंग-डॉ.साहब केंसर से मरे, तो उनकी अर्थी के निकट परिवारजन थे, प्रभा परिवार में नहीं थीं, किसी तरह माला शव के पास रख पाईं। प्रभा के शब्द हैं-

'उनकी मृत्यु के बाद बहुत बार उनका वही चेहरा देखा है। बस मृत्यु के दो दिन बाद मैं अपने कमरे में आकर बैठी ही थी, मुझे लगा डाक्टर साहब दरवाजा ठेलकर भीतर आये और उन्होंने कहा, 'प्रभा! मैं आ गया हूँ।'

प्रभा खेतान का प्रेम अवैध भी था, तो अंतरंग था और क्षुद्र नहीं उदात्त था। परिवार कथा में प्रभा का नाम हो, न हो, प्रभा को प्रेमिका ही कहा जाएगा रखैल नहीं। डाक्टर साहब के निधन के बाद 20 जनवरी 1992 के पत्र में लिखा था-

(पंक्तियाँ नज़ीर की थीं)-

'है बहारे बाग दुनिया चंद रोज
देख लो इसका तमाशा चंद रोज।

परमानंद श्रीवास्तव का पत्र प्रभा खेतान के नाम

प्रिय प्रभा जी,

26 मई, 1992

आपके पत्र से यह तो स्पष्ट है कि, आपको मेरे दो पत्र नहीं मिले। इस डाक व्यवस्था पर चकित हूँ। अग्निसंभव पहली किश्त पढ़कर पत्र लिखा था। फिर सोचा था, कि समग्र पढ़कर लिखूंगा। तीसरी किश्त पढऩे के बाद पहले के दो अंक खोज रहा हूँ कि एक साथ पढूं। शायद तभी पूरा प्रभावबिम्ब मन में बनेगा, तो वे मिल नहीं रहे हैं। कोई ले गया है। अंतिम किश्त से लगा कि, यहीं तक कथा का क्रम चल सकता था, क्योंकि एक झलक ही देनी है। खास जीवन पद्धति के द्वन्द या विडम्बनाओं की। त्रासदियाँ। दाह। खीझ। आसक्ति। पर यह आधी प्रक्रिया मात्र। तीनों पढ़कर ही, (वह भी एक साथ) आपसे बात करने की स्थिति बनेगी।

अगला उपन्यास क्या वही जो कुछ, डायरी की तरह चलता है। क्या वह मैंने अंशत: पढ़ा है, आपकी रफ कापी से। पढऩे पर याद आयगा।

कविताएँ जरूर लिखिए। 'वर्तमान साहित्य' का कविता अंक आया है। राजेश जोशी के संपादन में। महत्वपूर्ण। सामान्य । एक साथ है-अंक में। खाड़ी प्रसंग की कविताएँ नहीं हैं। पता नहीं वे मिली भीं या नहीं उन्हें। क्योंकि किसी पत्र में राजेश जोशी ने जिक्र भी नहीं किया। वे कविताएँ कहीं भी प्रकाशित होनी चाहिए।

मैं अभी विनोद कुमार शुक्ल के संग्रह 'सब कुछ होना बचा रहेगा।' मैं इस रंग की कविताएँ पढ़ रहा था। रंग तो विनोद कुमार शुक्ल का-कन्टेन्ट का स्पर्श जरूर वही।

'समुद्र में जहाँ उदित हो रहा है, सूर्य,
एक ऐसे समुद्री पक्षी की तरह,/
जो निकलने की कोशिश करता है, /
पर सतह के तेल से,/
पंख लिसटे होने के कारण,/
निकल नहीं पाता है।
एक मनुष्य, मनुष्य की प्रजाति की तरह,/
साइरन की आवाज सुनते ही,/
जान बचाने गड्ढ़े में कूद जाता है,/
गड्ढ़े के किनारे टहलती हुई,/
एक गर्भवती स्त्री,/
एक मनुष्य जीव को जन्म देने,/
सम्हलकर गड्ढ़े में उतर जाती है /
पर कोई मनुष्य मर जाता है...................'

यह संग्रह राजकमल ने इसी साल छापा है।

आपके कविता क्रम का इंतजार रहेगा, क्योंकि आप लिखेंगी तो, शायद एक क्रम में कई-कई कविताएँ।

पाषाण जी नाराज हैं। और भी सब,अभी मैं पाषाण जी की 'बाल्मीकि की चिंता' पढ़ रहा था। तेवर हैं,तीक्ष्णता भी। गुस्सा समकालीन। कविता समकालीन क्यों नहीं। क्या हमारी समकालीनता की अपेक्षा भिन्न है। मुहावरे की मांग अलग है। संभव है, पूर्वग्रहों के कारण ही ऐसा हो। समझना तो चाहता हूँ। उम्मीद है कि अगस्त के अंत का आने का कोई बहाना निकालूँ। आपका कार्यक्रम अगस्त अंत का ऐसा बनें कि, कलकत्ते में रहिए। आपकी कविताओं पर बहुत अच्छी तरह साथ बैठकर विचार कर अच्छा लगेगा, क्योंकि आपके साथ होने से अपने पूर्वग्रह भी पकड़ में आते हैं।

वर्तमान साहित्य कवितांक पढ़कर लिखिएगा। अपने इम्प्रेशन्स। मैंने एक पत्र में एक अखिल भारतीय संवाद मंच (पत्रिका तथा और भी कुछ) का प्रस्ताव किया था। चुनौतियाँ ऐसी ही हैं। कठिनाइयों के बावजूद, इस पर बात होगी, अभी तो बस आपको लिखा था शायद। दो-तीन मित्रों को और। दूसरे प्रदेशों में।

कलकत्ते के लेखक और हिन्दी के पूर्वग्रह पीडि़त लेखक आपको छोड़कर कहते-बुनते रहे। आपने अपना काम जिस बैचेनी से, जिस निष्ठा से किया है, उससे ईष्र्या होती है। रचना को दूसरों से प्रमाण नहीं चाहिए। यही आपके असंख्य पाठक कह रहे हैं। अभी इतना ही, फिर लिखूंगा। अगस्त अंत का कुछ बहाना बने, तो स्पष्ट कार्यक्रम भी। आदरणीय डाक्टर साहब को प्रणाम। सस्नेह अभिवादन

आपका

परमानंद श्रीवास्तव

पढ़ता रहा हूँ इधर मिलानकुन्देरा फैन्टेसी का करिश्मा और,

रचनात्मक विस्फोट के लिए ट्रैजिक बोध और परिहासवृत्ति से भरपूर!

अभी मैंने राष्ट्रीय सहारा हिन्दी दैनिक के फलक स्तंभ के लिए मारीना त्स्वेताएवा पर एक टिप्पणी लिखी-आपसे उनकी कविताओं पर बहुत चर्चा हुई है।

'काश जान पाते कितनी आग

और कितनी गंवाई है मैंने उम्र।'

यह इन्टेन्सिटी यह तड़प कविता को और क्या चीजें मूल्यवान बनाती हैं। यहाँ तो मृत्यु जैसे चरम प्रश्रों पर चरम विकलता भी है।

आत्मस्वीकृति कुछ लिखूंगा। कुछ तो डायरी के अंश ही छप जायें तो, बहुत कुछ हैं उनमें।आप भी। आपका लेखन। आपसे हुई बहस...........और तमाम बहसों के नतीजे.......।

सम्पर्क- बी-70, आवास विकास कालोनी , सूरजकुण्ड, गोरखपुर-273015