प्रयोगात्मक लघुकथाएँ / अशोक भाटिया
संकलित लघुकथाएँ
अनघा जोगलेकर -तीन डायरी के पन्ने
अनिल मकरिया -सभ्यताएँ
अमर गोस्वामी -हाय मालिक
अमरीक सिंह दीप -आग के हवाले
अशोक भाटिया -सपना, राम-राज्य, जिंदगी, स्त्री कुछ नहीं करती! , तीसरा चित्र, चौथा चित्र, सूत्रधार
अशोक राय चौधरी -कोई एक अनागत संध्या (बांग्ला)
असगर वज़ाहत -शेर, कवि के दिन फिरे
अहद 'प्रकाश' -एक कुएँ की कहानी
आनंद -अपनी ही आग में
आशा भाटी -मीठी नीम कड़वी नीम
उर्मिल कुमार थपलियाल -समाजवाद
ओ' हेनरी -ईसा का चित्र (अंग्रेजी)
ओमप्रकाश सक्सेना -क्योंकि...?
कमल गुप्त -दावत
कमलेश भारतीय -सात ताले और चाबी
कांता राय -जमात, सावन की झड़ी
कार्ल सैंडबर्ग -रंग-भेद (अंग्रेजी)
कुमार -नई मान्यता
कुमारसंभव जोशी -स्लीपर सेल
घनश्याम अग्रवाल -आजादी की दुम
चंद्रेश कुमार छतलानी -मेरा घर छिद्रों में समा गया, टेबल के बाद...
चैतन्य त्रिवेदी -खुलता बंद घर, धर्म-पुस्तक, शैतान ले आया था किताबें, पवित्र नदी का सच, खून पीने के कायदे, जंगल के जवाब, जूते और कालीन
छवि निगम- लिहाफ़
जसबीर चावला -लस्से, विलायती बोल
जानकी बिष्ट वाही -सुनहली मछली से रेशम के कीड़े तक का सफर
जेम्स थर्बर -उल्लू
ज्योत्स्ना कपिल -अपेक्षाओं के रंग
दामोदर दत्त दीक्षित -जनता गुफाएँ, ऑपरेशन विषज्वरा, न्यायपथ
दिनेश पालीवाल -अ-प्रेम
दिव्या शर्मा -...पा रक्षणे..., सिलौटा
नेतराम भारती -उड़न-तश्तरी
पूरन मुद्गल -निरंतर इतिहास
प्रतिभा पांडे -कहानी फ़िल्मी है
प्रभाकर माचवे -अपराध
प्रेम कुमार मणि -कैरम
पृथ्वीराज अरोड़ा -दया, दुःख, विकार
बनफूल -नीम का पेड़ (बांग्ला)
बर्तोल्त ब्रेख्त -रूप और वस्तु (जर्मन)
बलबीर त्यागी -थैलों में बंद आवाज़
बलराम -आदमी की घोषणा
बलराम अग्रवाल -बिना नाल का घोड़ा, दहशतगर्द
भगीरथ -दोज़ख, बैसाखियों के पैर, हड़ताल, तानाशाह और चिड़ियाँ
मधुदीप -समय का पहिया घूम रहा है
माधव नागदा -मुझे जिंदगी देने वाले
मीनू खरे -कई मौसमों की स्त्री
युगल -हादसा, मुँह लगा खून
योगराज प्रभाकर -आत्मकथा से बेदखल पन्ना, एक अफ़गानी की डायरी
रघुनन्दन त्रिवेदी -स्मृतियों में पिता
रत्नेश कुमार -अखबार
रमेश बत्तरा -सिर्फ एक? , वजह
रवि प्रभाकर -विसर्जन
रवीन्द्र वर्मा -मैं पहाड़ हूँ
रामकुमार आत्रेय -बिन शीशों का चश्मा
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ -चिरसंगिनी
राहुल राजेश -तकिया
लक्ष्मीकांत वैष्णव -लोग
विजय प्रताप -सांस्कृतिक विकास
विष्णु नागर -झूठी औरत
शिव कुमार शिव -कमला
शील कौशिक -उत्सवबोध
शोभना श्याम -आखिरी पन्ना
शोभा रस्तोगी -कैनवस
संध्या तिवारी -और वह मरी नहीं, कविता, प्रायश्चित, डायरी
सन्तोष सुपेकर -एक पत्र अपने नाम
सुकेश साहनी -आधी दुनिया, कोलाज़, गोश्त की गंध, उतार, मेढकों के बीच
सुरेन्द्र मंथन -राजनीति
सुरेश बरनवाल -बर्बर आदमी
सुशांत सुप्रिय -सबके लिए
सुषमा गुप्ता -पूरी तरह तैयार
सूरज प्रकाश -बर्तनों के बच्चे, चोर-चोर चोर, तेरी बारी, लो मैं आ गया
स्नेह गोस्वामी -वह जो नहीं कहा
हरभगवान चावला -मोहल्ला द्रोह, धरती में गड़ी स्त्रियाँ
रचना में प्रयोग निरुद्देश्य नहीं किए जाते। उनका उद्देश्य बौद्धिक विलास करना भी नहीं होता, अपितु रचना की शक्ति को उभारना, ताकि पाठक उसे सही परिप्रेक्ष्य में तीव्रता के साथ महसूस कर सके। जैसे कला-कला के लिए नहीं, बल्कि जीवन के लिए होती है, इसी प्रकार प्रयोग-प्रयोग के लिए न होकर रचना की सामर्थ्य का संवर्धन करने के लिए होता है। केवल प्रयोग के लिए प्रयोग करना रूपवाद के मकड़जाल में पाठक को उलझाना है। प्रयोग रचना की आंतरिक जरूरत से निकलकर आएगा, तो रचना की संरचना में भी बदलाव आएगा। लेकिन यथार्थ का कोई नया पक्ष या कोण अपने में प्रयोग नहीं है। रचना की वस्तु को ग्लोरिफाई करना या बाहर से बिंदी-सुर्खी लगाकर सजाना भी प्रयोग नहीं है। किसी भी शैली में लिख देना भी स्वयं में प्रयोग नहीं है, बशर्ते उससे रचना को कुछ अतिरिक्त शक्ति प्राप्त होती हो या कि अर्थ अथवा संवेदना का अतिरिक्त विस्तार या गहराई मिलती हो। प्रेषणीयता की बलि देकर प्रयोग करना स्वयं में घातक विचार है। नए यथार्थ से प्रेरित होकर अथवा नूतन कल्पना या शाब्दिक चमत्कार के वशीभूत होकर किए गए प्रयोग पाठक को प्रायः प्रेषित नहीं हो पाते। रचना सामान्य धरातल की हो अथवा प्रयोगात्मक, यदि उसके अर्थ और प्रभाव को ग्रहण करने में पाठक असमर्थ रहता है, तो ऐसे प्रयोगों की क्या सार्थकता है? हालाँकि इसमें पाठक को लेकर कई पेंच हैं, किन्तु इस तथ्य पर सामान्य रूप से अवश्य गौर करना चाहिए। प्रयोग का लक्ष्य पाठक तक वस्तु (रचना) के अर्थ और प्रभाव को सही सन्दर्भों में प्रेषित करना है।
प्रयोगों की कोई सीमा नहीं होती। रचना की जरूरत नए प्रयोगों को जन्म देती है। 'आलोचना' के जुलाई-सितम्बर 2021 अंक में प्रमुख कहानीकार योगेन्द्र आहूजा की लम्बी कहानी 'डॉक्टर जिवागो' का प्रयोगात्मक आरम्भ, आने वाले प्रसंगों का संकेतक भी है–"अस्पताल मृत्यु से बना था। मृत्यु की ऊँची-ऊँची दीवारों में मृत्यु की खिड़कियाँ और दरवाज़े थे, मृत्यु का एक लम्बा गलियारा, डॉक्टरों और नर्सों के कमरे, सीढ़ियाँ और तहखाने, मृत्यु की बेंचें, कुर्सियाँ, बिस्तर, हर बिस्तर तक मृत्यु पहुँचाते पाइप और नालियाँ और नलकों से टप-टप टपकती मृत्यु। मृत्यु के बड़े गेट के अन्दर मृत्यु के छोटे गेट को खिसकाकर अन्दर क़दम रखो तो रिसेप्शन पर एक ऊबी हुई मृत्यु स्वागत करती थी और कोने में बड़े-बड़े डस्टबिन नज़र आते थे, पिछले दिन की बासी, मैली-कुचैली मृत्युओं से भरे हुए।" भाषायी प्रयोग की ये पंक्तियाँ कहानी में आने वाली दुर्घटनाओं की संवाहक भी हैं। प्रमुख कथाकार रवीन्द्र वर्मा मृत्यु के इर्द-गिर्द 'मृत्यु की कहानी' नामक लघुकथा को बुनते हैं, जिसका आरम्भ है–"मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि मृत्यु कब पैदा हुई थी?" और अंत है–"क्या मैंने मृत्यु को कहानी बना दिया है?" तो कल्पना के प्रयोग से लेखक पाठक को कहीं भी यात्रा करा सकता है। डॉ.हृदयनारायण उपाध्याय का मत विचारणीय है–"इसमें (लघुकथा में) विस्तार की, प्रयोग की और नवनिर्मिति की काफी संभावनाएँ हैं।" यहाँ विस्तार से अभिप्राय अर्थ-विस्तार से है। प्रयोग से संरचनात्मक नवनिर्मिति की अनेक संभावनाएँ बनती हैं। प्रयोग का लक्ष्य वस्तु को तीव्र, संघनित रूप में पाठक तक पहुँचाना होता है। इस सन्दर्भ में जर्मन के प्रगतिशील जन-चेतना के विख्यात कवि-नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त की कथा 'रूप और वस्तु' लेखकों-कलाकारों-दार्शनिकों सबके लिए कुतुबनुमा का काम करती है। वे लिखते हैं-"कुछ कलाकारों के साथ यही दिक्कत है, जो अनेक दार्शनिकों के साथ हुआ करती है, जब वे दुनिया को देखते हैं। रूप की तलाश में वे वस्तु से हाथ धो बैठते हैं।" रचना में 'मैं' नामक पात्र माली के कहने पर एक जयपत्र की झाड़ी को गेंद का आकार देना शुरू करता है। काटते-काटते झाड़ी बहुत छोटी हो जाती है। माली देखकर कहता है–"बेशक यह गेंद है, मगर जयपत्र की झाड़ी कहाँ है?" तो रूप, शिल्प या प्रयोग के चक्कर में वस्तु को विकृत नहीं किया जा सकता। वस्तु को बेहतर ढंग से पाठक तक पहुँचाना ही शिल्प आदि का मंतव्य होता है। आइए, प्रयोग के कुछ दिलचस्प उदाहरणों की चर्चा करें।
कथाकार प्रभाकर माचवे ने, विशेष रूप से, लघु उपन्यासों की रचना में ख्याति अर्जित की। 'वीणा' के मार्च 1934 अंक में प्रकाशित उनकी 'अपराध' लघुकथा स्त्री-पुरुष सम्बंधों को नई दृष्टि और नये कोण से देखती है। इसलिए प्रयोग के माध्यम से अर्थ को बारीकी से पकड़ने का सफल प्रयास करती है। इसका आरम्भ देखें–"पुरुष का नाम था अपराध और स्त्री का नाम था क्षमा। ...क्षमा को अपराध करने का अधिकार नहीं और अपराध को क्षमा करने का। तो भी दोनों अपराध करते और जब क्षमा मांगने की बारी आती तब यह समस्या उठती कि पहले अपराध किसने किया और पहले क्षमा करे कौन?" इस प्रयोग के पीछे चिंतन और विषय की अद्भुत पकड़ सक्रिय है। पुरुष और स्त्री (प्रस्तुत) को क्रमशः अपराध और क्षमा (अप्रस्तुत) के प्रतीक रूप में व्यक्त कर अभिव्यक्ति सौन्दर्य को प्राणवान् बना दिया है।
हिंदी लघुकथा को संघर्ष के दौर में दिशा देने वाले कथाकार-संपादक रमेश बत्तरा की, 1973 में लिखी, पहली लघुकथा 'सिर्फ एक?' एक अलग-सा प्रयोग थी। लेखक रचना के वाक्यों में यथास्थान कोष्ठकों का प्रयोग करता जाता है। कोष्ठकों में रखे शब्द एक तो पाठक की सोच को विस्तार देते हैं, दूसरे सजग पाठक की तरफ से ये शब्द एक प्रतिक्रिया भी हैं, जो आम पाठक को रचना पढ़ने का तरीका-सलीका भी सिखाते हैं। लघुकथा में संक्षिप्तता क्या होती है और कैसे आती है, यह सब भी कोष्ठकों में रखे शब्द सिखा जाते हैं। रचना की आरंभिक कुछ पंक्तियाँ देखें–"नाइट शिफ्ट से (या कहीं से भी) वापसी पर एक आदमी (सिर्फ एक आदमी?) की राहजनी-" जो कुछ भी है, निकाल दो। "
"...कुछ भी नहीं है।" और साथ ही आदमी ने दोहरे घेराव में से बच निकलने (भागना या दो-दो हाथ करना, कुछ भी) की साहस-भरी कोशिश कर डाली। "
रचना में प्रयोग यदि रचना के मूल मंतव्य पर ही भार-स्वरूप होंगे, तो प्रयोग का उद्देश्य ही चरमरा जाएगा। यहाँ रचना बताती है कि राहजनी में आदमी की हत्या के बाद उसकी विधवा ने ससुराल, मायके, समाज आदि का द्वार खटखटाया। कहीं से कोई मदद नहीं मिली। लेकिन–"सातवें दिन वह औरत (सिर्फ एक औरत?) निर्वस्त्र होकर शहर के चौराहे पर जा खड़ी हुई। सारा शहर उसकी सहायता के लिए उमड़ पड़ा।" रमेश बत्तरा का रचनाकार यहाँ पाठक को व्यापक सामजिक परिप्रेक्ष्य में विचरण करने को प्रेरित करता है। 'सिर्फ एक?' हिंदी-लघुकथा के क्षेत्र में एक नायाब प्रयोग है।
समान्तर शैली में प्रचलित कथाओं को वर्तमान यथार्थ के समकक्ष रखकर कथात्मक निष्कर्ष निकाला जाता है। पृथ्वीराज अरोड़ा की 'दया' और 'दुःख' , कुमार की 'नई मान्यता' , अशोक भाटिया की 'सपना' और 'राम राज्य' , छवि निगम की 'लिहाफ' आदि ऐसी ही रचनाएँ हैं। इतिहास-पुराण आदि की कथाओं को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में परखना जरूरी है कि वे कितनी प्रासंगिक हैं और आज के यथार्थ के समक्ष कितना टिक पाती हैं।आधुनिक समय में परम्परा के तत्त्व खोजना प्रगति के विपरीत जाना है, जबकि परम्परा वर्तमान मानव-मूल्यों के निकष पर परखना आधुनिकता का आधार है। 'दया' (पृथ्वीराज अरोड़ा) में कपिलवस्तु के राजकुमार गौतम, नदी-किनारे मछुआरे को मछलियाँ निकालते देखते हैं। तड़पती मछलियों को देख उन पर दया कर मछुआरे को सोने की अंगूठी देते हुए, मछलियों को नदी में फिंकवा देते हैं। अध्यापक से दया-भाव की प्रेरक यह कथा सुन एक मछुआरे का बेटा कक्षा में अपनी व्यथा सुनाता है। उसके गरीब पिता अनबिकी मछलियों को घर लाते हैं। उन्हें छीला जाता है, तो मन खराब होता है। विवश होकर उनको खाना पड़ता है। अध्यापक की मोटी किताबों के पास इसका जवाब नहीं कि ऐसे आम-जन किसी पर दया कैसे कर सकते हैं। दया-भाव के लिए प्रायः धन की जरूरत होती है। इस रचना की बुनावट के पीछे लेखक की कल्पना-शक्ति सक्रिय है।
'दुःख' (पृथ्वीराज अरोड़ा) इसी शैली की श्रेष्ठ रचना है। बिना बताए घर से चले गए पिता कब लौटेंगे?-बच्चे के इस सवाल के जवाब में कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ की समांतर कथा कहती है। बेटे का वाजिब सवाल है कि वे तो राजकुमार थे, अमीर पिता के घर तो दो जून का खाना पकता था। वे क्यों चले गए? "माँ का उत्तर दोनों कथाओं को जोड़ता है–" लगता है बेटे, दोनों ही दुखों से डर गए।"
'नई मान्यता' (कुमार) की समांतर कथा अपनी बुनावट में प्रतीक को शामिल करती है। शिक्षक अपने चार बेटों को एक लाठी बनाम चार लाठियों के गट्ठर का दृष्टान्त देता है। छोटा बेटा कहता है कि "यह अर्थ-संकट का युग है। इस युग में हमें नई मान्यताओं को स्वीकार करके ही जीवन जीना होगा।" वह दो गमले लाता है। एक में अमरुद का एक और दूसरे में चार पौधे हैं। एक 'पुष्ट, हरा-भरा एवं होनहार' दिख रहा है, जबकि चार 'दुर्बल, पीले एवं अल्पजीवी' दीख रहे हैं। पुत्र शिक्षक-पिता को नए समय का निष्कर्ष थमाता है–"यदि आप अपने बेटों को होनहार, विकासशील एवं समृद्ध नागरिक के रूप में देखना चाहते हैं, तो इन गमलों से सीख ग्रहण कीजिए।" (निर्वाचित लघुकथाएँ, सं।अशोक भाटिया, चौथा संस्करण, पृष्ठ 155)
'सपना' (अशोक भाटिया) रचना चिड़िया की उमंग-भरी दिनचर्या और स्कूली बच्चे की होमवर्क करते जाने की दिन-भर की चर्या को जोड़कर बुनते हुए दोनों का अंतर स्पष्ट किया गया है। अगले दिन, स्कूल जाते हुए बच्चे का यह कथन पाठक के मर्म को छू जाता है–"माँ, जब मैं यूनिवर्सिटी पढ़ लूँगा तो उसके बाद खूब खेलूँगा, कोई काम नहीं करूँगा।"
इसी प्रकार 'राम-राज्य' (अशोक भाटिया) में दो भिन्न समयों के राजनीति-प्रेरित प्रसंगों को एक अध्यापक समांतर शैली में न केवल प्रस्तुत करता है, बल्कि विद्यार्थियों को भी संवाद मैं शामिल करता है। बाली द्वारा राक्षस से युद्ध करना और सुग्रीव द्वारा सत्ता हथिया लेना, पर बाली द्वारा फिर सत्ता पा लेना। और इधर भारतीय लोकतंत्र में विश्वास-मत के सहारे फिर सत्ता प्राप्त करना, दोनों में फर्क है। सुग्रीव साजिश रचकर राम के हाथों बाली को मरवा देता है। रचना का निष्कर्ष एक छात्र देता है–"सत्ता के लिए एक भाई दूसरे भाई की हत्या करवा दे, तो उसे राम-राज्य कैसे कह सकते हैं? इससे तो हमारा लोकतंत्र कहीं बेहतर है।"
छवि निगम की सघन अनुभूति की रचना 'लिहाफ' समान्तर प्रयोग की विस्फोटक लघुकथा है। एक कथा, मालकिन रीना के अतीत से जुड़ा त्रासद प्रसंग है। उसी जैसा प्रसंग कामवाली राधा के कथन द्वारा रीना के सामने आता है। दस साल की ब्याहता रीना के घर चाचाजी आने वाले हैं, उधर राधा के घर उसकी बेटी के, रिश्ते में चाचा, आ रहे हैं। राधा बताती है–"ई बिटिया को हम ओ के साथ ही पौढा देब।" सुनकर रीना की भावभंगिमा ही बदल जाती है, चेहरा तमतमा जाता है, होंठ कांपने लगते हैं। तना हुआ बदन अजीब तरह से थरथराने लगता है। सर्द आवाज़ में वह पति से नया बनकर आया लिहाफ मांगती है और राधा को देते हुए कहती है–"ये सिर्फ तेरी बिटिया के लिए है। हमेशा वह इसी में सोएगी और अकेले। ...और खबरदार! जो इसे कब्भी किसी मामा, चाचा के साथ।" कहकर उसके दिल का भारी बोझ उतर जाता है। रचना की अन्विति और प्रयोगशील बुनावट इसके प्रभाव को द्विगुणित कर देती है। इसी समांतर शैली का अद्भुत प्रयोग ओमप्रकाश सक्सेना ने 'क्योंकि...?' नामक लघुकथा में प्रयुक्त किया है। बकरी के बच्चे और इधर लड़के के जन्म और जवानी तक उनको पालने वालों की मानसिकता को तुलनात्मक धरातल का ध्यान करते हुए सामने लाया गया है, जो विचारोत्तेजक है। रचना का आरम्भ देखें—
'अ' एक जानवरों का व्यापारी है। उसकी बकरी ने एक बच्चा दिया है। वह खुश है, क्योंकि ...?
'ब' एक (?) है। उसके घर एक लड़का म्पैदा हुआ है। वह खुश है, क्योंकि...? "
एक अच्छा-खासा बकरा बनता है, दूसरा डॉक्टर। अंत देखें–
वह एक निरीह पशु है।
वह एक निरीह (?) है।
यह रचना अनेक सवाल छोड़ जाती है। पहला तो पशु है, लेकिन दूसरा इंसान कैसे हुआ?
इधर वरिष्ठ साहित्यकार सूरज प्रकाश ने लघुकथा में बिलकुल नए और जीवंत प्रयोग किए हैं, जो रचना में गुणात्मक अंतर पैदा करने में सक्षम हैं। 'बर्तनों के बच्चे' , 'तेरी बारी' , 'चोर चोर चोर' , 'लो मैं आ गया' जैसे नायाब प्रयोग यथार्थ की सतह का अतिक्रमण करते हुए पाठक के लिए भी नई जमीन बनाते हैं। ऐसी हर रचना का व्यंग्यार्थ अंत में खुलता है, जो पाठक के लिए अनेकविध आकर्षक होता है। 'बर्तनों के बच्चे' रचना में एक शहरी गाँव में आकर सबसे धनी आदमी के घर से बर्तन उधार लेता है। फिर कुछ दिन में लौटाते हुए एकाध बर्तन फालतू देता है, यह कहकर कि 'बर्तनों ने बच्चे दे दिए होंगे।' कई बार ऐसा करके, फिर एक दिन बहुत सारे बर्तन लेकर गायब हो जाता है। इस सामान्य लगने वाले किस्से का प्रतीकार्थ अंत में दिए 'डिस्क्लेमर' से खुलता है–"इस बोध-कथा का उस देश से कोई लेना-देना नहीं है, जहाँ पहले कुछ चतुर लोग बैंकों से पैसा उठाकर वक्त पर लौटाते भी रहते हैं और बैंक-कर्मियों को कीमती उपहार देकर खुश रखते हैं। ...फिर एक दिन आता है कि बैंकों से चतुर लोगों के पास गया सारा धन ख़ुदकुशी कर लेता है। सुसाइड नोट भी नहीं मिलता। ...कर लो जो करना है।" पाठक को इससे दोहरा लाभ होता है। एक तो वह इस किस्से का सही अर्थ लगा लेता है; देश के बैंकों से अरबों का कर्ज़ लेकर विदेश भाग गए भगौड़ों पर सहज ही ध्यान चला जाता है। दूसरे, यह और ऐसे किस्से पाठक के मन में जीवित कर इनका अर्थ लगाने की सीख भी देते हैं। लेखक ने ऐसे रोचक किस्सों से अभिव्यक्ति की नई युक्ति खोज निकाली है, जो बड़ी प्रभावी है। इनकी ही लघुकथा 'तेरी बारी' में एक गाँव के दो निकम्मे लड़कों को उनके माता-पिता केले और अमरुद की रेहड़ी लगा देते हैं। दिन में एक ही ग्राहक आता है। उसी रुपये से वे एक-दूसरे से सामान खरीदकर खाते रहते हैं। सामान ख़त्म। आगे की पंक्तियाँ हैं–"आगे चलकर उनमें से एक राजनीति में चला गया और दूसरा नामी उद्योगपति बना। दोनों ने एक-दूसरे का ख्याल रखना जारी रखा। आज भी वे वही कर रहे हैं। माल जनता का और...अब उनके साथ ब्यूरोक्रेसी भी जुड़ गई है जो दोनों के फायदे के लिए योजनाएँ बनाने के एवज में दो पैसे अपने लिए भी रख लेती है।" पाठक यहाँ तक आकर सब समझ जाता है, फिर भी रही-सही कसर इसका 'डिस्क्लेमर' पूरा कर देता है–"ये विशुद्ध बोध-कथा है और इसके सारे पात्र काल्पनिक हैं। इसका किसी देश की राजनीति से या अर्थ-व्यवस्था के स्तंभों से कुछ भी लेना-देना नहीं है।" जब अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अघोषित अंकुश लग जाए, तो कहन के ऐसे रास्ते लेखक को खुद ही तलाशने होते हैं।
कविता के अनेक उपकरण किसी भी विधा की रचनाओं को समृद्धि प्रदान कर सकते हैं। रघुनन्दन त्रिवेदी की रचना 'स्मृतियों में पिता' भी व्यापक धरातल की लघुकथा है, जिसे काव्य-उपकरणों के बिना नहीं कहा जा सकता था। प्रतीक जब रचना-प्रक्रिया में घुल-मिल जाते हैं, तो अर्थ-सौन्दर्य देखते ही बनता है। जो लोग लघुकथा के लिए 'एक क्षण' , 'एक घटना' या 'एक प्रसंग' की सैद्धांतिक पोटली उठाए पिछली शताब्दी से मारे-मारे घूम रहे हैं, वे 'हाय मालिक' और 'स्मृतियों में पिता' और इस जैसी लघुकथाओं का पुनर्पाठ करें। इस रचना की आरंभिक पंक्तियाँ देखें–" अपनी जिन्दगी में पिता वह सब हो सकते थे, जो वे खुद या हम चाहते। घर में सबसे छोटा मैं था। मेरी इच्छा थी कि उन्हें घोड़ा बनकर खूब तेज़ भागते रहना चाहिए। भाई मुझसे बड़े थे। वे चाहते थे कि पिता नाव बनें, ताकि बारिश के दिनों में हम चाहें, तो नदी पार कर सकें। माँ और बहन का ख्याल था कि उन्हें छाते में बदल जाना चाहिए, जो धूप में भी उतना ही जरूरी होता है जितना बारिश में। घर में किसी एक की भी इच्छा अधूरी रह जाती, तो पिता कष्ट पाते, इसलिए जरूरत के मुताबिक वे घोड़े और नाव और छाते में बदलते रहे। "फिर वे हारमोनियम, पेड़ भी बने। अंत में तस्वीर में बदलकर" कमरे में टी.वी.के दायीं ओर जहाँ दीवार खाली थी, टँग गए। "
सादृश्यमूलकता उपमान-योजना का मूल आधार है। ‘एंब्रोस बियर्स’ की रचना ‘पादरी महोदय’ में बगुले और पादरी में धूर्त्तता की समानता को देखकर रचना का प्रतीकात्मक निर्वहन उसे प्रयोग की नई भूमि पर प्रतिष्ठित करता है। चिड़ियाघर में बगुलों का झुंड आना, उनके द्वारा मनुष्यों की तरह बात करने की खबर, किंतु मनुष्यों से उदासीनता, एक दिन एक आगंतुक को देख उत्साह में पंख फड़फड़ाना और उसे कहना-लगता है कि आप हमीं में से एक हैं, कहकरर उसे गले लगा लेना - रचना के ये सधे कदम हैं। अंतिम पंक्ति न्यूनोक्ति नामक रचनात्मक युक्ति का प्रयोग कर नया सौंदर्य रचती है-”वह व्यक्ति एक पादरी था।’’
इसी प्रकार अज्ञात चीनी लेखक की लघुकथा ‘रूढ़िवाद’ विभिन्न घड़ियों के प्रतीक से बुनी गई है। पुरानी घड़ियाँ एक ‘नवीनतम घड़ी’ को इसलिए स्वीकार नहीं करतीं कि उसमें सुइयाँ नहीं हैं, वह टिक्-टिक् नहीं करती और उसे चाबी की ज़रूरत नहीं है। किन्तु एक नवयुवक आकर उस नवीनतम घड़ी को खरीद लेता है। उसके जाने पर तीनों घड़ियाँ तब भी कहती रहती हैं कि ”वह घड़ी नहीं थी।“ यह रचना लकीर के फकीरों को एहसास कराने के लिए ‘उत्प्रेरक’ का काम करती है। प्रतीकात्मक निर्वाह लघुकथा को गहन अर्थगर्भिता और स्थायित्व प्रदान करते हैं।
चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथाएँ कथा और काव्य-उपकरणों की जुगलबंदी और रचनात्मक कल्पना के कारण अपने प्रवाह और प्रभाव में अलग और विशिष्ट कोटि की पांत बनाती हैं। इस दृष्टि से वे विरल श्रेणी के लघुकथा-लेखक हैं। यहाँ इनकी एक साथ दो रचनाओं की चर्चा करते हैं। 'धर्म पुस्तक' में ईश्वर किताब लेकर आता है, जबकि 'शैतान ले आया था किताबें' में शैतान। दोनों बड़े फलक और बड़े आशयों की रचनाएँ हैं। 'धर्म पुस्तक' में ईश्वर आदमी के पास दो किताबें लेकर आता है। क्रमशः न्याय और जिरह की किताब में आदमी को अपने लिए कुछ नहीं मिलता। दूसरी बार एक और किताब निकालते हुए ईश्वर कहता है–"चलो, इसे पढ़कर देखो और अपने गुनाह स्वयं तय कर लो। अगर कुछ हो, तो।" पढ़कर आदमी काँप जाता है-"गुनाह के हर तरह के ज़िक्र में गुनाहगार साबित हो रहा था मैं।" तीसरी बार ईश्वर ने आकर उससे तय किए गुनाहों के बारे पूछा, तो आदमी भक्ति-भाव से बिलख पड़ा। ईश्वर ने उसे सहारा दे खड़ा किया–"यह किताब तुम अपने पास ही रखे रहो। आज से यह तुम्हारी धर्म-पुस्तक है।" इतने बड़े सत्य को कोई उपन्यास भी इस प्रभाव के साथ नहीं समझा सकता कि धर्म भय पर टिका हुआ है। चैतन्य की ही दूसरी लघुकथा 'शैतान ले आया था किताबें' में कल्पना, अन्विति और भाषायी सांद्रता रचना को अपेक्षित ऊँचाई प्रदान करती हैं। इसकी पृष्ठभूमि में भारत की आज़ादी है, हालाँकि रचना में देश का नाम नहीं है। शैतान अपने द्वारा जिन तीन किताबों को लिखने का दावा करता है, वे भारत की दयनीय स्थिति का बयान करती हैं। पहली किताब उसने मासूमों के खून में डुबोकर लिखी; वह खून उसने आज़ादी की दवात से चुराया। दूसरी किताब देश की औरतों के बारे में है–"अपनी-अपनी आँखों में रुकी हुई भाषा लिए इतिहास में खड़ी तुम्हारी औरतें। इस किताब को मैंने उनके सिन्दूर में डुबोकर लिखा है। यह जो खनखनाती-सी भाषा इसमें इस्तेमाल की है मैंने, वह उनकी टूटी चूड़ियों से उठाई है।" सिन्दूर कहाँ से लिया?-पूछने पर शैतान बताता है-"यह सिन्दूर, जो कई चीखों, कई चीत्कारों से भरा था, तुम्हारी आज़ादी के श्रृंगारदान से ही चुराया था मैंने।" और तीसरी किताब बेकसों के पसीने, उनकी कराहों और आँसुओं में डुबोकर लिखी है। "
असल किताब तो चौथी है, जिसे उसने चुराया था–" यह उन लोगों की शैतानियों के बारे में है, जिनका कद आज़ादी के बाद बढ़ता गया।
इसे चुराया क्यों?-शैतान बताता है-"मुल्क के आज़ाद होने के बाद मैं शैतानियत के हर मुकाम पर आखिर हारता क्यों चला गया, मैं यह जानना चाहता था।" देश के राजनेता शैतानियत में शैतान से कहीं आगे हैं, रचना इसे बड़ी शिद्दत और सलीके के साथ कहती है और पाठक पर अद्भुत प्रभाव छोडती है। इस सन्दर्भ में अर्जुन कवि का एक दोहा है–
उड़ि गए हंसा देस के, आज़ादी दिलवाय।
रह गए कागा तीर पे, राजतिलक करवाय।।
चैतन्य त्रिवेदी की कुछ और लघुकथाओं का विवेचन जरूरी है। 'पवित्र नदी का सच' रचना में नदी के रूप में गणराज्य का रूपक रचा गया है और उसकी कुटिल स्थापनाओं और क्रियाओं की प्रस्तुति दर्शनीय है। घड़ियालों से भरी उस नदी में नाव चलाना मना था और मगरमच्छों की पीठ पर बैठकर ही पार जाया जा सकता था। "मगरमच्छों की इस कपट-सेवा को निस्स्वार्थ सेवा की तरह समझा गया। ...ताज्जुब लगता कि हत्या, षड्यंत्र, विश्वासघात और छल से मारे जाने के बावजूद वे सारे बन्दर इसे तकदीर का खेल समझते।" इस प्रकार बंदर और मगरमच्छ की प्रचलित कथा को नये सन्दर्भ में रचनात्मक कल्पना के साथ रचा गया है। 'खून पीने के कायदे' लघुकथा में भी लोकतंत्र की विद्रूपताओं को व्यंग्य के धरातल पर उकेरा गया है। मच्छर खून पीते हुए उसे 'ठंडा' कहता है, तो आदमी का तर्क है–"तेरे से तो अच्छी यह सरकार है। हर बार खून की तारीफ़ ही करती है। हमारे हीमोग्लोबीन का परसेंटेज चेक कर ही चूसती है। इतनी डेमोक्रेसी तो है।" तर्क-वितर्क में आदमी फिर कहता है–"एक तो खून पीता है और असलियत भी बताता है। सरकार कम-से-कम ऐसा तो नहीं करती। झांसे में रखती है। इसीलिए सरकार है वह और तू रहा मच्छर का मच्छर ..."
चैतन्य के चिंतन का दायरा बड़ा व्यापक है। इनकी 'जंगल का जवाब' रचना में जंगल और शहर के संवादों के जरिए इंसान की कथित सभ्यता, संस्कृति और लोकतंत्र पर व्यंग्य की तीखी धार महसूस की जा सकती है। जंगल को शहर का फोन आता है कि 'भेड़िया आया' का भेड़िया चाहिए था जरा। लोगों के साथ मजाक करने वाले गडरिये बढ़ते जा रहे हैं। "जंगल का कथन है–" हिंसक जानवर भी यहाँ प्रकृति की दी हुई सच्चाइयों के दायरे में ही रहता आया है। अपनी हकीकतें आप सँभालें। अपनी सभ्यता में ढूँढें ऐसे विश्वासघाती। "इसी तरह शहर द्वारा रीछ और फिर कुत्तों की डिमांड की जाती है। जंगल का जवाब है–" यहाँ कोई भी कुत्ता नहीं है। यह आपका लोकतंत्र नहीं है भाई, जंगल है जंगल। "
कई बार रचना से सम्बद्ध 'प्रॉपर्टी' में से ही संवेदनशील रचनाकार को अभिव्यक्ति के उपकरण उपलब्ध हो जाते हैं। चैतन्य त्रिवेदी की रचना 'खुलता बंद घर' और अशोक भाटिया की 'जिंदगी' रचनाओं का इस सन्दर्भ में पाठ किया जा सकता है। 'खुलता बंद घर' के कथानायक को अपने घर के बाहर गिरी चाबी नहीं मिल रही थी। खोजते हुए उसे क्रमशः टूटी हुई चूड़ी का एक टुकड़ा, बच्चे की मंगाई किताब वाला कागज़ और रिबन की एक चिंदी मिली। वह परिवार के तीनों सदस्यों की इन वस्तुओं से जुड़ी बात याद करता है। रचना की अंतिम पंक्तियाँ हैं–"घर, जो घर के भीतर नहीं पाया मैंने, वहीँ दरवाज़े के आसपास बिखरा पड़ा था। चाबी नहीं मिल रही थी, लेकिन घर खुलता जा रहा था।" रचनात्मक प्रयोग रचना के सौन्दर्य को इसी तरह समृद्ध करते हैं।
रचना में से ही अभिव्यक्ति के रचनात्मक उपकरण कई बार उपमानों की शृंखला बनकर सूक्षम अर्थ-व्यंजना के कारक बनते हैं। 'ज़िंदगी' (अशोक भाटिया) में जिंदगी के दो रूप इसी प्रकार व्यक्त किए गए हैं। कथावाचक का दोस्त प्यार में डूबता है, तो वह सोचता है–"ज़िंदगी प्यार की तरह सुंदर और मुलायम, सपनों की तरह मोहक और भावुक होती है, जिसे गाया जाता है। दोस्त के कहीं और चले जाने और वहाँ एक ठेला-मजदूर के आ बसने के बाद उस मजदूर-परिवार की कठिनाइयाँ देखकर कथावाचक सोचता है–" जिंदगी किसी मजदूर के हाथों-सी कठोर और भूखे बच्चों के पेट-सी खाली होती है। ज़िंदगी माँ की आँखों-सी सूनी, कपड़ों-सी फटी-मैली, दिख रहे बदन-सी नंगी और बेबस होती है, जिसे ठेले की तरह खींचा जाता है। "
भारतीय परम्परा में पाँच विकारों-काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार-का उल्लेख बहुत हुआ है। पृथ्वीराज अरोड़ा ने उनको कथा में बुनकर 'विकार' लघुकथा रची है। जीवन में हम कैसे इन में फँसते हैं, इसका यहाँ रोचक बुनावट के साथ चित्रण हुआ है। अहंकार-भाव को चित्रित करतीं अंतिम पंक्तियाँ देखें–"सब भाग गए साले! मंजिल तक पहुँचने के लिए हिम्मत चाहिए। हुँह।" मारे घमंड के वह गर्दन अकड़ाकर, छाती फुलाकर, आकाश की ओर निहारता आगे बढ़ने लगा।
एकाएक उसे लगा कुछ चुभा है। उसने गर्दन झुकाकर रास्ते की ओर देखा। एक काला-लम्बा नाग झाड़ियों में घुस रहा था। वह भय और आतंक से वहीं ढेर हो गया।
...मंजिल अभी बहुत दूर थी।"
भगीरथ की 'दोज़ख' और 'बैसाखियों के पैर' बड़े आशयों को उभारने के लिए नये प्रयोग हैं। 'दोजख' बताती है कि जीवन के सच से विमुख होना कायरता है। एक आदमी के सामने एक हत्या होती है और वह ईश्वर से आँखें वापिस लेने की दुआ केता है। इस तरह वह अंधा, फिर बहरा और गूंगा भी हो गया। ऊपर गया, तो यमराज ने उसे दोजख की आग में झोंकने की आज्ञा दी। उसे प्रभु ने बताया–"मैंने तुम्हें न केवल जीवन दिया, बल्कि उसकी सब उपलब्धियों से परिपूर्ण किया। इसके उपरांत भी तुम लगातार जीवन से भागते रहे दब्बू और कायर की तरह। मेरी रचनात्मक शक्ति का उपहास किया तुमने।" 'बैसाखियों के पैर' लघुकथा सूक्ष्म प्रतीकों के प्रयोग से बताती है कि एक निहायत कमजोर आदमी किस प्रकार अपनी कुटिलता से सफलता की चोटी पर पहुँचता है। आरंभिक पंक्तियाँ देखें–"वह अपनी टांगों के सहारे नहीं चलता था, क्योंकि उसकी महत्त्वाकांक्षाएँ ऊँची थीं, क्योंकि वह चढ़ाइयाँ बड़ी तेज़ी से चढ़ना चाहता था, क्योंकि उसे अपनी टांगों पर भरोसा नहीं था, क्योंकि वे मरियल और गठिया से पीड़ित थीं।"
रवीन्द्र वर्मा हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कहानीकार हैं। 'कोई अकेला नहीं है' और 'पचास बरस का बेकार आदमी'-दोनों संग्रहों में कथाकार ने बड़े आशयों की, बड़ी उपयोगी लघुकथाएँ भी दी हैं। रवीन्द्र वर्मा की कई लघुकथाएँ दार्शनिक धरातल की रचनाएँ हैं। दूसरे संग्रह में 'मैं पहाड़ हूँ' और 'पहाड़ी की चोटी' ऐसी ही रचनाएँ हैं। "रवीन्द्र वर्मा ऐसी अभिव्यंजक विशिष्ट छोटी कहानियाँ रचने वाले एक विरल कहानीकार हैं।" 'मैं पहाड़ हूँ' में लेखक पाठक को दार्शनिक धरातल की यात्रा पर ले जाता है। कुछ पंक्तियाँ देखें। पहाड़ का नाम धौलाधार है। वह कहता है–"मुझे अपना बचपन बहुत याद आता है जब मेरा कोई नाम नहीं था। बच्चे और बूढ़े मुझे एक ही नाम से पुकारते थे–पहाड़। तब मुझे लगता था जैसे मैं धरती के सब पहाड़ों में हूँ और धरती के सब पहाड़ मुझमें हैं।" रचना के मध्य की एक पंक्ति–"लोग मुझे दूर-दूर से देखने आते, जैसे मैं कोई देवता हूँ। ...ऐसा कोई पहाड़ कैसे दैवी हो सकता है, जिसका अपना कोई प्रकाश ही न हो?" और रचना का अंत है–"मैं अपना नाम छोड़ता हूँ। मुझे कोई धौलाधार न कहे। मैं पहाड़ हूँ।" यह रचना अपनी निर्मिति में प्रतीकात्मक है।
कथाकार-पत्रकार मुकेश वर्मा की सृजनधर्मिता ने 'इस्तगासा’ कहानी-संग्रह की लघुकथाओं में रूढ़ साँचों को तोड़कर जरूरत के मुताबिक नई शैली में कलम चलाई है। रचनात्मकता, अपनी राह में बिछी ‘बर्फ' को इसी तरह हटाया करती है। इसीलिए ‘कथा’ का पारंपरिक रूप यहाँ कम ही मिलता है। ‘मुक्त करो’ रचना में शोषक पात्र की आक्रामक वृत्ति को व्यक्त करता हुआ लेखक उसे ही कठघरे में खड़ा कर देता है. इस संदर्भ के साथ रचना की भाषायी पकड़ को देखने की ज़रूरत है। पाठक की संवेदना, अंततः, साइकिल वाले लड़के के पक्ष में खड़ी नज़र आती है। ‘नहीं देखा’ रचना में ‘कहन’ की गद्य-काव्य की-सी पद्धति पाठक को बाँधती भी है, बेधती भी है। घर में स्त्री के होने, न होने की दो स्थितियों का गहन अर्थगर्भी अंकन घर में मौजूद घुटन और यातना को मानो चुपके से सामने ला देता है। स्त्री के जाने के बाद घर घर रहना भी कहाँ था- ”उसे रोका गया। घेरा गया। कैद किया गया। दीवारों में सींकचे लगाए गए। फर्श को तलघर बनाया गया। छत को दहलीज तक झुकाया गया। जो मैंने कहा, जो लोगों ने कहा, उसने कुछ नहीं सुना। नहीं देखा। घर में अब साँसों की आवाज भी गायब थी। घर में अब साँसें भी गायब थीं। घर में अब घर भी नहीं था।’’
प्रयोग की दृष्टि से सुकेश साहनी की दो विशिष्ट कोटि की लघुकथाएँ हैं–'आधी दुनिया' और 'कोलाज़' । 'आधी दुनिया' लघुकथा में केवल मध्यवर्गीय पुरुष का डिक्टेटर बोलता है, लेकिन उससे मुखरित होता है मध्यमवर्गीय स्त्री की जीवन-व्यथा का कोना-कोना। इस लघुकथा में पुरुष-ताना मारने, मीन-मेख निकालने, बंदिशें लगाने का-कोई कोना नहीं छोड़ता, किन्तु अंत में पाठक लानत भी उसी पर बरसाता है। पति और पत्नी के पूरे जीवन को एकतरफा संवादों से, सूक्ष्म पर्यवेक्षण के साथ सामने ला दिया है। कुछ पंक्तियाँ देखें–"खिड़की पर मत खड़ी हुआ करो...बेमतलब खी-खी मत किया करो! ...तुम्हारे घरवालों में ज़रा भी अक्ल नहीं है, इस कूड़े-कबाड़ की जगह कार ही दे देते। अक्ल से बिलकुल पैदल हो! प्यार करने के तरीके इन विदेशी मेमों से सीखो। ...कितनी बार कहा है बेवक्त घर का रोना मत रोया करो, सारा मजा किरकिरा हो जाता है। ...मुझसे पहले तुम कैसे सो सकती हो? ...दोस्त आएँ, तो उन्हें चाय-पानी के लिए पूछा करो। ...दोस्तों के सामने मुँह उठाए क्यों चली आती हो? उनसे ज्यादा हँस-हँसकर बात मत किया करो। ..." यह सार्थक प्रयोग इसलिए है कि इसके माध्यम से रचना ने बाहरी आकार का अतिक्रमण करके मध्यवर्गीय पति-पत्नी के इतने बड़े संसार को एक लघुकथा में समाहित कर दिया है। सुकेश की ही दूसरी विशिष्ट लघुकथा है– 'कोलाज़' । कोलाज़ यहाँ विशिष्ट कोटि की समांतर शैली ही है। इसमें दो भिन्न संसार आमने-सामने रखे गए हैं। एक संसार श्रमजीवी, संघर्षशील जीवन जी रहा है, दूसरा अत्याधुनिक सुविधाओं और वस्तुओं से समृद्ध है। मोटे तौर पर पहला संसार वंचितों की दुनिया है, दूसरा खाए-अघाए की। इनके जीवन का कंट्रास्ट सजगता से उभारा गया है। एक नमूना देखें-"बिहार के मरबल जिले के तीरा गाँव में सविता देवी की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी गई क्योंकि वह काली थी। (दो हफ्तों में मनचाहा गोरापन पाएँ, मिल्की वाइट अपनाएँ)"।
सुकेश साहनी की ही 'गोश्त की गंध' में फैंटेसी शैली का धारदार प्रयोग हुआ है। भारतीय परिवारों में अनेक कारणोंसे दामाद की दहशत आज तक मौजूद है। हैसियत से बढ़कर देने का सच आज भी कायम है, जिसके संकेत इस रचना में 'बदरंग दरवाजों' , 'झड़ते प्लास्टर' , 'पुराने जर्जर सोफे' आदि घर की प्रॉपर्टी से मिल जाते हैं। । भारतीय दामादों को सब्जी की प्लेटों में खून के बीच आदमी के गोश्त के ताज़ा टुकड़े तैरते दिखा देना ही इसका मकसद है, जिसमें यह सफल रही है। जो नहीं होता, उसके माध्यम से, जो होता है, उसे दिखाना ही फैंटेसी का उद्देश्य होता है। 'गोश्त' देखकर दामाद कहता है कि-"मुझे ...अपना माँस परोसना बंद कीजिए।" तो सास-ससुर को लगा-"जैसे एकाएक किसी शेर ने उन्हें अपनी गिरफ्त से आज़ाद कर दिया हो।" यह एक कठिन शैली के सफल प्रयोग की, झकझोरने वाली रचना है।
राजनीतिक संदंभों की लघुकथाएँ हिन्दी में बहुत कम हैं, तिस पर प्रयोगात्मक तो बहुत ही कम हैं। यहाँ ऐसी तीन रचनाओं की चर्चा करते हैं। भगीरथ की लघुकथा 'तानाशाह और चिड़ियाँ' सत्ता के दमन और जनता के विद्रोह की प्रतीक-कथा है। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर आज भी बंदिशें हैं, जो इस प्रतीक-कथा को और भी प्रासंगिक बनाती हैं। चिड़ियों की 'चें-चें' से तानाशाह की नींद में खलल पड़ता है, तो राजद्रोह कानून में संशोधन कर, 'चें-चें' की आवाज़ को ही राजद्रोह में शामिल कर दिया जाता है। दूसरी रचना सुकेश साहनी की 'मेढकों के बीच' है; वह भी आज अधिक प्रासंगिक हो गई है। आज, विशेष रूप से सोशल मीडिया पर, जो नफरत, झूठ, संकीर्णता और हिंसक प्रवृत्ति का बोलबाला हो गया है, उसे यह रचना बेबाकी से व्यक्त करती है। गाय और मेढक इसके कथात्मक उपकरण हैं, जिनके माध्यम से आज होने वाली व्यर्थ और दिशाहीन बहसों पर उँगली टिकाई गई है। जरा देखें-
"आखिर गाय नाले में गिरी कैसे?" उनमें से एक मेढक टरटराया, "हमें इस पर गहराई से विचार करना चाहिए।"
"मुझे तो दाल में कुछ काला लगता है।"
एक आदमी गाय को नाले से बाहर निकल देता है, तो उनको इसमें भी कोई साजिश दिखाई देती है। बहस इस पर होती है कि "गाय को बाहर निकालने वाला हिन्दू था कि मुसलमान।" कहानी सुनता बच्चा यही सवाल पूछता है तो पिता बताता है–"तुम्हारे दादाजी ने मुझे बचपन में ही सावधान कर दिया था कि जिस दिन मैं इस चक्कर में पडूँगा, उसी दिन आदमी से मेढक बन जाऊँगा।" तो आज जो मेढक बड़े गर्व से टर्र-टर्र कर रहे हैं, उन पर यह कथा सटीक बैठती है। जो लोग मेढक हुए जा रहे हैं, उन्हें अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करने को प्रेरित करती है यह रचना। वास्तव में यह वस्तु और प्रतीक के संयोजन से निर्मित रचना है । तीसरी रचना हरभगवान चावला की 'मोहल्ला-द्रोह' है। हरभगवान राजनीतिक क्षेत्र के सजग और विलक्षण लेखक हैं। इधर के वर्षों में हालात ऐसे बन गए हैं कि कोई भी किसीको भी देश-द्रोही का तमगा थमा देता है। इसी विषय पर यह सटीक लघुकथा तर्क-वितर्क से बुनी गई है। एक अंश–
"वह मोहल्ला मेरा भी तो है। क्या गंदगी साफ़ करने के लिए कहना उँगली उठाना है?"
"क्या सिर्फ हमारा ही मोहल्ला गन्दा है, दूसरा मोहल्ला तुम्हें क्यों नहीं दीखता?"
"दूसरे मोहल्ले में अगर गंदगी है तो वहाँ के लोग आवाज़ उठाएँ। हमें पहले अपने मोहल्ले को देखना चाहिए।"
"इसीको मोहल्ला-द्रोह कहते हैं और इसी मोहल्ला-द्रोह की सज़ा तुम्हें मिली है। ...यह मोहल्ला तुम्हें गन्दा लगता है तो दूसरे मोहल्ले में चले जाओ।"
"पर वह मोहल्ला भी तो इतना ही गन्दा है। बेहतर हो कि हम मोहल्लों को इंसानों के रहने लायक बनाएँ।"
हरभगवान चावला की बहुत-सी लघुकथाएँ तर्क-वितर्क की शैली अपनाते हुए द्वन्द्व के परिणाम तक ले जाती हैं। 'धरती में गड़ी स्त्रियाँ' भी इसी कोटि की रचना है। यह औरतों के सामूहिक संघर्ष और स्वतंत्रता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की काव्यात्मक कथा है। धरती में गड़ी स्त्रियों को देख एक ऋषि उन्हें चरित्रहीन और कुलटाएँ कहता है। किन्तु श्रमिक स्त्री का कथन है–"इन स्त्रियों ने निश्चय ही दासत्व से मुक्ति का प्रयास किया होगा।"
रामेश्वर कम्बोज 'हिमांशु' की रचना 'चिरसंगिनी' अंत तक पाठक की जिज्ञासा को बनाए रखती है। जिनकी पीठ में उसने छुरे घोंपे थे, उनके बीच फँसने पर वह अपनी कारिस्तानियों का विवरण देती है—लोगों का अपमान करना, उनकी उन्नति से ईर्ष्या करना, इसलिए पीठ में छुरे घोंपना। 'दिगम्बर' के साथ-साथ कुंठा का स्वरूप भी स्पष्ट होता जाता है। वह उसे कहती है–"तुम्हारे काले दिल में रहते-रहते मेरा रंग एकदम आबनूसी काला हो गया।" यह रचना कुण्ठा के यथार्थ मूर्तन और कलात्मक चित्रण के कारण प्रभावशाली बन गई है।
हिंदी के लोकप्रिय लेखकों में से एक, कवि-कथाकार विष्णु नागर की कथाएँ रोचक प्रयोगों का भण्डार हैं। 'ईश्वर की कहानियाँ' की सभी रचनाएँ लघुकथा-क्षेत्र में एक नायाब प्रयोग हैं। ईश्वर इस दुनिया में विभिन्न स्थानों का दौरा करता है और वहाँ की विसंगतियों को बेनकाब करता जाता है। इसी प्रकार 'ईश्वर और चुनाव' सीरीज भी इनकी रचनात्मक कल्पना का शाहकार है। इसीकी एक रचना के दो दृश्य हैं। सन 1996 में ईश्वर ने देखा कि एक काले भैंसे पर एक दुबला-पतला मरियल-सा आदमी बैठा चला आ रहा है। पंद्रह दिन बाद उस मरियल आदमी पर ही काला भैसा सवार था। फूलमालाएँ भी इस बार भैंसे के गले में थीं। "पता चला कि पहला दृश्य मतदान से पहले का था और दूसरा दृश्य मतदान के बाद का।" ईश्वर की उपस्थिति बलराम अग्रवाल की लघुकथा 'दहशतगर्द' में एक दुनियावी सच को उभारने के लिए प्रयोग में लाई गई है। कबीलों के सरदार जनता को कैसे अपने काबू में रखते हैं, यह ईश्वर से कहलवाया गया है। धर्म-संसद में एक धर्मगुरु अपने प्रवचन में पहले बताता है कि हवा, पानी, धूप आदि सरदार ने नहीं बनाई। ईश्वर उसकी इमानदारी पर खुश होता है। लेकिन फिर वह ईश्वर के बारे कहता है–"कबीला-सरदार से उसने कहा–" तू मेरे बन्दों के जान-माल की हिफाजत कर और बदले में कौम को जिंदा रखने वाले काम उनसे ले। "अब ईश्वर को कहना पड़ा–" झूठ...झूठ बोलता है यह मक्कार। मैंने सिर्फ इंसान बनाए, किसीको भी सरदार या रिआया नहीं बनाया। " फिर जो होना था, हुआ। धर्मगुरु के संकेत पर कारिंदों ने ईश्वर को पहाड़ की छोटी से नीचे फेंक दिया। यह रचना कल्पना के माध्यम से धर्म के नाम पर फैलाए गए भ्रम को तोडती है। विष्णु नागर की रचना 'झूठी औरत' एक साधारण स्त्री के अलग-अलग स्थिति में कहे परस्पर विरोधी संवाद हैं, जिनसे स्त्री के त्याग और सहनशीलता का पता चलता है। तीन में से एक प्रसंग देखें–
"मैं तंग आ गई हूँ इन बच्चों से। जान ले लूँगी इनकी।" यह कहने वाली माँ अभी-अभी अपने पति से झगड़ रही थी, " बिन बच्चों के अकेली कहीं नहीं जाऊँगी। भारतीय संस्कृति में स्त्री की सोच और संवेदना को उभारने में यह प्रयोग बड़ा कारगर सिद्ध हुआ है।
विभिन्न प्रसंगों की निरंतरता में हर प्रसंग के बाद एक ही वाक्य का प्रयोग रचना को नई अर्थवत्ता प्रदान कर सकता है। संध्या तिवारी की रचना 'और वह मरी नहीं' में स्त्री की जिजीविषा, संघर्ष और साहस को विभिन्न प्रसंगों के बीच अपने अस्तित्व को बनाए रखने की मुहिम का कलात्मक चित्रण हुआ है। एक वाक्य–"ठुक्कर लगैगी और हम मरि जांगे" का हर प्रसंग के बाद प्रयोग पाठक को सोचने पर विवश करता है कि स्त्री में ऐसी क्या खूबी है कि वह हर विपरीत स्थिति में बनी रहती है।
प्रतीकात्मकता रचना के अर्थों को खोलने, उसकी व्यंजना-शक्ति को बढ़ाने और रचना के स्थायित्व के लिए साहित्य का महत्त्वपूर्ण उपकरण है। विशेष रूप से कथा-साहित्य में इसका प्रयोग इसकी अर्थ-सामर्थ्य को बढ़ाता है। भुवनेश्वर की प्रसिद्ध कहानी में 'भेड़िए' व्यवस्था के संचालक, संपोषक और खैरख्वाहों के संयुक्त प्रतीक हैं। इस संरचना में, बीसवीं सदी के चौथे दशक की यह कहानी आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है। जैनेन्द्र की दार्शनिक धरातल की कहानी 'तत्सत' अपने रूपक और प्रतीकात्मकता के कारण सूक्ष्म अर्थों की संवाहक बन गई है। प्रतीकों की दृष्टि से ज्ञानरंजन की 'फेन्स के इधर और उधर' , निर्मल वर्मा की 'परिंदे' , रमेश उपाध्याय की पौराणिक मिथक और उसकी प्रतीकात्मकता की कहानी 'कामधेनु' आदि अनेक चर्चित कहानियाँ हैं। इस सन्दर्भ में कुछ लघुकथाओं की चर्चा करते हैं।
रामकुमार आत्रेय की रचना 'बिन शीशों का चश्मा' अनेक प्रतीकों के रचनात्मक व्यवहार की अद्भुत लघुकथा है। गाँधी जयंती पर मूर्ति को कबाड़ख़ाने से ढूँढा जाना, मूर्ति के चश्मे का न होना, बच्चे द्वारा अपने अंधे दादा का बिन शीशों का चश्मा मँगाकर लगाना, बाद में चश्मे का आँखों पर हमेशा के लिए चिपक जाना-रचना में रचे-बसे ये सब प्रतीक कथा में विन्यस्त होकर उसका स्थायी हिस्सा बन गए हैं। गाँधी की मूर्ति का, बिन शीशों के चश्मे बारे कहना-"अच्छा है, मैं भी अपने नाम पर होने वाले पाखंडपूर्ण नाटक को नहीं देख पाऊंगा।"
चन्द्रेश कुमार छतलानी ने अपनी बेहद प्रभावशाली प्रतीकात्मक लघुकथा 'मेरा घर छिद्रों में समा गया' में, तथाकथित प्रचलित धर्मों में व्याप्त आपसी वैमनस्य और स्वार्थपरकता को, बड़े सधे हुए ढंग से रूपायित किया है। बड़े आशय को रचनात्मक कल्पना कैसे रूपाकार प्रदान करती है, उसका यह श्रेष्ठ उदाहरण है। रचना का आरम्भ देखें–"माँ भारती ने बड़ी मुश्किल से अंग्रेज किरायेदारों से अपना एक कमरे का मकान खाली करवाया था। अंग्रेजों ने घर के सारे माल-असबाब तोड़ डाले थे।" उसके चार पुत्र अपना जरूरी सामान लेकर आते हैं, चारों धर्मों के परिधान और धर्म-ग्रंथों के साथ। रचना का अगला चरण देखें–"चारों केवल खुद की किताबों और तस्वीरों को घर के सबसे अच्छे स्थान पर रखकर अपने-अपने अनुसार घर बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने आपस में लड़ना भी शुरू कर दिया।" अब माँ भारती उनको चारों दीवारों में एक-एक छेद करवा देती है, जहाँ वे एक-दूसरे से पीठ करके सामान रख देते हैं। रचना का अंत भी देखें–"अब वे छे्द काफी मोटे हो चुके हैं और उस घर में बदलते मौसम के अनुसार बाहर से कभी ठण्ड, कभी धूल-धुआँ, कभी बारिश तो कभी गर्म हवा आनी शुरू हो चुकी है ...और माँ भारती? ...अब वह दरवाज़े पर टँगी नेम-प्लेट में रहती है।" यह रचना धर्म की संकीर्णता और उसके दुष्परिणामों को सलीके से पाठक के सामने रख देती है। धर्म जब सिर पर सवार हो जाता है, तो सही अर्थों में न देश-देश रहता है, न ही मनुष्य मनुष्य। इसी सन्दर्भ में रमेश बत्तरा की संकेतात्मक लघुकथा 'वजह' का पाठ करना जरूरी है। एक हिन्दू और मुसलमान आपस में मिलते हैं और दंगों के बीच भी आपस में प्रेम-भाव होने की बात करते हैं। लेकिन भगवान् और खुदा पर आकर बात बिगड़ जाती है। रचना का अंत देखें–"नहीं भगवान...नहीं खुदा! ...न खुदा न भगवान...न...भगवान...न खुदा...खुदा न भगवान...भगवान न खुदा...खुदा न भगवान न भगवान न खुदा न भाक्ग्वान।" कान्ता राय की लघुकथा 'सावन की झड़ी' देखने में वर्णनात्मक लगती है, किन्तु एक बच्चे के माध्यम से मोर, जुगनू आदि प्रतीकों का कथात्मक प्रयोग कर (प्रेम के सन्दर्भ में) पुरुष की परम्परागत सोच को कथा के विकास के साथ-साथ कटते हुए देखना बड़ा दिलचस्प है।
मधुदीप की लघुकथा 'समय का पहिया घूम रहा है' लघुकथा में नाट्य शैली का सफल प्रयोग इसलिए है कि यह चार दृश्यों में भारतवर्ष के स्वतंत्रता आन्दोलन का, आशा से लेकर निराशा तक का सफ़र करा देती है, जो अन्यथा संभव नहीं था। मुग़ल काल से संसद भवन तक चार छोटे-छोटे दृश्यों में फैली इस रचना की शक्ति पर गौर करने की जरूरत है, न कि यह कि यह लघुकथा है कि नहीं। विगत कुछ वर्षों से भारतीय राजनीति विभाजन की चालें चल रही है, जबकि हिन्दी साहित्य की विधाएँ, उसके विपरीत, आपस में गलबहियाँ डाले अपनी शक्ति को 'हाईब्रीड' बना रही हैं। इस लघुकथा के चौथे दृश्य में लेखक सच कहने से संकोच कर गया है। भयावह सच यह था कि सत्ता पक्ष ने रक्षा-क्षेत्र में 49 प्रतिशत एफ.डी.आई.को मंज़ूरी दे दी थी। देश ही सबसे ऊपर है; कोई राजनीतिक पार्टी देश का विकल्प नहीं हो सकती।
रचना का मानवेतर धरातल अभिव्यक्ति की नई खिड़कियाँ खोलता है। व्यंग्य-विनोद के प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक जेम्स थर्बर की लघुकथा 'उल्लू' एक तरह से सत्ता की उलूकधर्मिता को व्यक्त करती है। उल्लू को आधी रात के समय दिखाई देता है, यह तथ्य छछूंदर जाकर पक्षियों के मुखिया को बताता है। धीरे-धीरे उल्लू को अपना सरदार बनने को बुलाया; उसे ईश्वर मानने लगे। परिणाम हुआ कि ट्रक के नीचे जानवरों के साथ उल्लू भी मारा गया।
हिंदी में इस धरातल की अनेक श्रेष्ठ लघुकथाएँ उपलब्ध हैं। आनंद हमारे समय के महत्त्वपूर्ण लघुकथा-लेखक हैं, जिन्हें समुचित महत्त्व नहीं मिला। इनकी 'अपनी ही आग' , में नामक रचना, ताने और बाने के जरिए सांप्रदायिक सद्भाव का, फिर संकीर्णता की भयावह परिणति का रूपक रचती हुई सकारात्मकता की ओर अग्रसर होती है–"सुबह जुलाहा आया। गहरे अफ़सोस के साथ उसने उन दोनों की इकट्ठी पड़ी मुट्ठी-भर राख को देखा। ...देर तक निर्जीव-सा बैठा रहा जुलाहा। ...उसने फिर से ताना कसा और बाना बुनने लगा।"
ऐसा ही एक रूपक कांता राय की रचना 'जमात' में अपनी पूर्णता के साथ विद्यमान है। जीभ, बत्तीसी समाज में दो दांतों का गिरना...यहाँ से आरम्भ होकर लघुकथा वर्तमान राजनीति के तमाम छल-छद्म को एक रूपक के द्वारा उघाड़कर रख देती है। जैसे-दूर रहने की हिदायतें, संगठित रहने की बात, बाहर वालों को सपोर्ट देने की बात, बाहरवालों द्वारा गुणगान करने, गोद लेने से पहले जांच-पड़ताल, टर्म और कंडीशंस की बात, अपनी पहचान खोना और अंत में "दिखावे की राजनीति" में बलि चढ़ना–इस प्रकार राजनीति का पूरा परिदृश्य सामने आ जाता है। राजनीति किसे कहते हैं, इसे सुरेन्द्र मंथन की प्रतीकात्मक, मानवेतर लघुकथा 'राजनीति' भी अच्छे से बयान कर जाती है। नदी के बीच संकरी राह में दो बकरियाँ आमने-सामने हैं। रास्ता एक के लिए है। पहली बैठ जाती है और दूसरी ऊपर से जाने लगती है, तो पहली उठकर उसे नीचे गिरा, मुस्कुराती हुई चल देती है।
प्रतीकों की लड़ी देखनी हो तो रत्नेश कुमार की लघुकथा 'अखबार' पढ़नी जरूरी है, जिसमें पत्रकारिता और राजनीति-दोनों क्षेत्रों की उठापटक और सभी प्रमुख विशेषताओं को लोमड़ी, कुत्ते, कौवे, कोयल, सियार आदि पात्रों के द्वारा व्यंजित किया गया है। पशु-समाज अपनी कवरेज के लिए अखबार निकालता है। भेड़िये ने कहा–"रुपया मेरा, किन्तु संपादक मेरी मर्जी का होगा।" सियार की नियुक्ति संपादक के पद पर हुई। बैलों की नियुक्ति उप-संपादक के पद पर हुई। कुछ पंक्तियाँ देखें–"कुत्तों को मुख्य / विशेष संवाददाता बनाया गया, चूँकि कुत्तों में सूँघने की शक्ति अधिक होती है। ...कौओं को भी कार्यालय संवाददाता / स्टिंगर बनाया गया, जिससे आने-जानेवालों, उद्घाटन-समापन करने वालों की सूचना-ऊचना, खबर-उबर मिल सके।" कोयल ने कला, साहित्य और संस्कृति के पन्ने के लिए संपर्क किया तो सियार ने कहा–"मैनेजमेंट म्याऊँ पसंद है। उसे कूक से परहेज़ है।" कुछ इसी प्रकार की रचना, विजय प्रताप की 'सांस्कृतिक विकास' है। जंगल के कानून के अनुसार-"संगीत का सबसे बड़ा खलीफा कौवा हो गया और साहित्य का उल्लू, योग सिखाने का ठेका बन्दर ने ले लिया और कुश्ती सिखाने का काम गीदड़ ने सँभाला।" अब क्योंकि मानदंड भी इन सिखाने वालों ने ही बनाए, इसलिए पुरस्कार, उपाधियाँ और सुविधाएँ भी यही बटोरते रहे। रचना की अंतिम पंक्तियाँ हैं -"मानदंडों के हिसाब से या तो कोयल और हंस काम करते या फिर अपने घर बैठते। कदाचित उन्होंने घर ही बैठना पसंद किया।" कमल गुप्त की 'दावत' में केवल प्रतीक न होकर वस्तु का भी सम्मिश्रण पाठक को सुविधा देने वाला है। उड़ती चील के पंजे में दबा कमजोर चूहा, कौए द्वारा उसका अंश लेने का प्रयास, अंत में छेल द्वारा कुछ अंश दिया जाना–यह इसकी वस्तु है। अर्थगत संकेत इसे उपयोगी बनाते चलते हैं, जैसे–"सामने वाले मकान की ऊँची फाइव स्टार मुँडेर पर एक चील और एक कौवे के बीच पूँजीवादी व्यवस्था के तहत लड़ी जाने वाली सभी प्रकार की मनोवैज्ञानिक, दैहिक और आर्थिक लड़ाई लड़ी जा रही थी।"
रचना-प्रक्रिया में दृष्टिकोण का महत्त्व आरम्भ से अंत तक रहता है। दामोदर दत्त दीक्षित ने 'विकट वन के विचित्र किस्से' लघुकथा-संग्रह में बड़ी रोचक शैली में मानव-जीवन के विद्रूप, कुटिलताओं आदि को वन्य जीवों के माध्यम से व्यक्त किया है। हमारे शासन-प्रशासन का वास्तविक जंगल देखना हो तो इनकी 'जनता गुफाएँ' , 'ऑपरेशन विषज्वरा' , 'न्यायपथ' आदि कितनी ही लघुकथाओं में दिए किस्से हमारी स्मृति में बस जाते हैं। जैसे, 'जनता गुफाएँ' में राजा पीतलोम और चूहे दीर्घोदर के माध्यम से राजनीतिक भ्रष्टाचार और कदाचार तथा जनता की उपेक्षा का चित्रण हुआ है। वन की जनता हेतु चूहे द्वारा बनाई निम्न कोटि की गुफाएँ पावस ऋतु में ही ढह गईं, तो शिकायत पर चूहे का कुटिल उत्तर देखें—"ये गुफा की छत पर धमाचौकड़ी करते थे। वहाँ शिला और शाखा गिराते थे। गुफा की दीवारों से शरीर खुजलाते थे, उन पर सींगें चलाते थे। दीवार पर कीलें गाड़ना, छेद करना आम बात थी।" इसी के साथ कथाकार असग़र वजाहत की रचना 'शेर' पढ़नी चाहिए, जो सत्ता के चेहरे और वास्तविक चरित्र का अंतर बड़े कौशल से उजागर करती है। जंगल में एक जगह शेर मुँह खोलकर बैठा था और छोटे-मोटे जानवर एक लाइन में आकर शेर के मुँह में समाते जा रहे हैं। उस आदमी ने अगले दिन एक गधे, लोमड़ी और उल्लू को शेर के मुँह में जाते देखा तो पूछने पर उन्होंने मुँह के अंदर क्रमशः हरी घास का मैदान, रोज़गार का दफ्तर और स्वर्ग बताया। शेर के स्टाफ से सच जानना चा्हा, तो उसने बताया कि सब ऐसा ही मानते हैं। 'मैं' पात्र ने इसे झूठ कहकर मुँह में जाने से इनकार किया तो–"मेरे यह कहते ही गौतम बुद्ध की मुद्रा में बैठा शेर दहाड़कर खड़ा हो गया और मेरी तरफ झपट पड़ा।" इसी सन्दर्भ में युगल की 'मुँह लगा खून' भी पठनीय प्रयोगात्मक रचना है। हाथी पानी में अपना बड़ा कद देखकर जंगल के जानवरों को इकठ्ठा कर शेर पर हमला बोल दिया। जब हाथी ऊँचे टीले पर ताजपोशी के लिए चला तो भेड़िया वहाँ पहले से अकड़ा बैठा था। अंत की कुछ पंक्तियाँ हैं–"भेड़ियों के गोल ने हाथी के दावे का आक्रामक विरोध किया। अगले दिन से भेड़िये निडर होकर अपने आहार के लिए जंगल के पशु मारने लगे। ...शेर को घायल कर जब उनके मुँह खून लग गया था। ...हाथी तभी से अपने माथे पर धूल फेंक रहा है।" प्रेमकुमार मणि की लघुकथा 'कैरम' तीन रंगों की गोटियों के माध्यम से बहुत-कुछ कह जाती है-"काली दुनिया के मुकाबले गोरी दुनिया दूनी और गुलाबी दुनिया पाँच गुनी कीमती है। रंग-भेद का यह पहला पाठ है।"
गुणों की दृष्टि से दो समान दृश्यों में क्रियात्मक लय और गति को देखना हो तो जसबीर चावला की 'लस्से' लघुकथा स्मृतियों में बस जाने वाली रचना है। कथ्य दूसरे दृश्य में है, इसलिए वह विस्तार से चित्रित है। लेकिन पहला दृश्य दूसरे को अधिक सान्द्र बना देता है। पहले के कुछ वाक्य-"लस्सा डाल दिया बहेलिए ने। बहुत-सी कैल (विलुप्तप्राय चिड़िया) मुनियाँ उतरीं। उतरीं तो पंख चिपक गए और उड़ना नहीं हो पाया। ' अब दूसरे दृश्य से–" लस्सा डाला गया। आदिवासियाँ उतरीं महुआ बीनने। पंख चिपक गए और उड़ना नहीं हो पाया। ठेकेदार ने गाड़ी में बैठाया। साड़ियाँ दे गर्दन मरोड़ी, थाने को रुपये दे चाँप दिया।"
बलराम अग्रवाल की रचना 'बिना नाल का घोड़ा' में दफ्तर के कर्मचारी को बिना नाल के घोड़े के रूपक में बाँधकर लघुकथा निर्मित की गई है। यह रूपक पहले वाक्य-"उसने देखा कि ऑफिस के लिए तैयार होते-होते वह चारों हाथ-पैरों पर चलने लगा है" से लेकर अंत तक निर्बाध रूप से बना रहता है। दफ्तर में अपने पुट्ठे पर हंटर पड़ता महसूस करता है। फाइलों के बीच दौड़ लगाता सहसा जाग उठता है। माँ ग्रह-दशा सुधारने के लिए काले घोड़े की नाल से बनी अँगूठी पहनने की बात करती है, तो बेटे का कथन है–"हंटरों और चाबुकों के बल पर अब तो मालिक लोग बिना नाल ठोंके ही घोड़ों को घिसे जा रहे हैं।" यह कहते हुए अपने दोनों पैर चादर से निकालकर उसने माँ के आगे फैला दिए-"लो देख लो।"
कई बार बिना प्रतीकों के भी, रचनात्मक कल्पना के बल पर बड़े फलक पर सफल लघुकथा लिखी जा सकती है। 'अब यह शहर नहीं बसेगा' (2021) लघुकथा-संग्रह के लेखक सुरेश बरनवाल की अनेक रचनाएँ 'कल्पना के रथ पर सवार' होकर विषय से पूरा न्याय करती हैं। 'बर्बर आदमी' लघुकथा में कल्पना और तर्क-शैली की जुगलबंदी से अद्भुत निष्कर्ष निकाला गया है। नवपाषाण काल के मानव और आधुनिक मानव को आमने-सामने कर आधुनिक मानव द्वारा लगाए गए तमाम आरोपों का उसे तार्किक उत्तर मिलता है। सुन्दरता, संसाधन, विज्ञान और साहित्य और इतिहास, धर्म और अध्यात्म–सब क्षेत्रों में आधुनिक मानव को उत्तर मिलता है, जैसे–"हमारा साहित्य गीतों और नृत्य के माध्यम से हमारे जीवन का अंग है।" और "हमारा अध्यात्म हमारे कबीले, हमारे पर्यावरण, हमारी प्रार्थनाओं में है।" पर आधुनिक मानव ने अपनी उन्नति का कथित प्रमाण देते हुए "सारी की सारी गोलियाँ अपने पूर्वज के शरीर में उतार दीं।" कथित उन्नति का इधर एक और आयाम विकसित हुआ है। 'आज़ादी की फसल' (2009) लघुकथा-संग्रह के लेखक अमरीक सिंह दीप की रचना 'आग के हवाले' का आरम्भ देखें–"उसमें कूट-कूटकर धार्मिक उन्माद भर दिया गया था। पहले उसने सभ्यता के सारे वस्त्र उतारकर एक ओर फेंक दिए, फिर सड़क पर उतर आया।" यहाँ कुछ-कुछ अतिरंजित चित्रण हुआ है, जिसमें वह पहले विधर्मी का घर, फिर उसके मालिक के पिल्लों आदि को आग के हवाले कर देता है। उसका 'सांप्रदायिक अनुष्ठान' पूरा होने पर उसकी आत्मा भीतर से बाहर निकलती है- "वह गुस्से से भर उठा और उसने उठाकर अपनी आत्मा को भी आग के हवाले कर दिया।"
वास्तव में विभिन्न शैलियों में लिखना प्रयोग का सामान्य स्तर कहा जाएगा। वह विशिष्ट तब बनेगा, जब उस शैली के माध्यम से रचना की अंतर्वस्तु के भीतर से विशिष्ट अर्थ की व्यंजना अथवा संवेदना अथवा वैचारिकता को उभारा जा सकेगा। प्रयोग किसी शैली-विशेष के प्रयोग के बिना भी हो सकता है। रचनाकार का दृष्टिकोण, रचना की वस्तु को अपेक्षित पूर्णता और सामर्थ्य के साथ अभिव्यक्त करने की ललक और तड़प, फिर इस प्रक्रिया से गुजरते हुए रचनाकार द्वारा शैल्पिक युक्तियों को मानसिक स्तर पर परखना और उपयुक्त विधि का चयन करना–इस प्रक्रिया में परम्परागत शैली का ही चुनाव जरूरी नहीं। इस सन्दर्भ में आप कार्ल सैंडबर्ग की 'रंग-भेद' लघुकथा का पाठ कर सकते हैं। गोरे आदमी द्वारा रेत पर दो दायरे खींचने की प्रक्रिया क्रमशः उसकी घृणा और अहंकार को दिखाती है, जबकि काले आदमी द्वारा खींचा बड़ा दायरा विवेक का प्रतीक बन जाता है। आपातकाल में इंसान की घुटन को बिम्ब और प्रतीक-दोनों रूपों में व्यक्त करती, लक्ष्मीकांत वैष्णव की रचना 'लोग' किसी शैली में नहीं बँधती। देखने में साधारण वर्णन लगता है, किन्तु इसका अर्थ पाठक को बेंध देता है। आदमी का घर के बाहर बैठना, काम करना, हँसना, खड़े होना–कुछ भी बर्दाश्त नहीं; बस उसका मर जाना ही स्वीकार है आपको! आदमी जब घर में घुस जाता है, तो लेखक उसकी स्थिति को बृहत्तर आयाम देते हुए लिखता है-"आदमी नहीं निकला। साल-भर हो गया। दो साल हो गए। सौ साल हो गए। हजार साल हो गए। आदमियों के ठट्ठ के ठट्ठ उसके मकान के सामने जुटते रहे। लोग पत्थर मारते रहे। गालियाँ देते रहे। ताने कसते रहे। आदमी नहीं निकला।"
अंग्रेजी के विख्यात कहानीकार ओ'हेनरी की कहानियाँ अपने अप्रत्याशित अंत के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी लघुकथा 'ईसा का चित्र' भी इसी कोटि की है। बच्चे में ईश्वरीय रूप देख उसका चित्र बनाने वाला कलाकार आदमी में शैतान को खोज उसका चित्र बनाने के लिए बड़ा भटकता है। चौदह वर्ष बाद जेल से निकले आदमी को शराब की बोतल देकर उसे शैतान के रूप में चित्रित कर लेता है। दरअसल यह वही व्यक्ति है, जिसके ईश्वरीय रूप को उसने चौदह साल पहले उकेरा था।
पूरन मुद्गल के लघुकथा-संग्रह 'निरंतर इतिहास' (1982) की इसी नाम की रचना अपनी संवेदना और श्रमिक वर्ग के प्रति प्रतिबद्धता के कारण विशिष्ट बन गई है। खुदाई में चार हजार साल पुरानी मूर्ति मिलने पर अधिकारी कहता है-"इससे पता चलता है कि उस समय समाज तीन श्रेणियों में बँटा हुआ था-राजा, मध्यवर्ग जिसमें कर्मचारी-व्यापारी-कृषक सम्मिलित था और निम्नवर्ग में दास-दासियाँ एवं श्रमिक।" मूर्ति का कुछ भाग खंडित होने पर भी राजा, अधिकारी और राजा के चरण धोती हुई दासी साफ़ दीख रहे थे। रचना यहाँ से वर्तमान की ओर मुड़ती है। एक मजदूर लड़की अधिकारी को मजदूरी कम मिलने की व्यथा कहती है। रचना की अंतिम पंक्तियाँ यह बताने में सफल रही हैं कि आज, चार हजार साल बाद भी, बदले हुए रूप में ही सही, दास-प्रथा समाज में कायम है–"लड़की ने अपने चेहरे पर जमी हजारों वर्ष पुरानी धूल को दुपट्टे से पोंछने की चेष्टा की। अधिकारी के उदासीन भाव को देखकर वह हाथ जोड़ने लगी और अपनी विनती दोहराती हुई अधिकारी के पाँव पर झुक गई। लगा कि मूर्ति जीवित हो गई।"
कम में अधिक कहने के संतुलित प्रयास लघुकथा को अधिक स्वीकार्य बनाएँगे। हड़ताल के सभी पक्ष क्या लघुकथा में समेटे जा सकते हैं? भगीरथ की लघुकथा 'हड़ताल' इसका सकारात्मक जवाब देती है। इसमें प्रत्येक वाक्य एक, अधिक-से-अधिक दो शब्दों का है। तब जाकर हड़ताल की सारी प्रक्रिया, संघर्ष और खींच-तान, चालें, सफलताएँ-विफलताएँ और परिणति आदि का अंकन हो पाया है। इसके पीछे रचनाकार द्वारा हड़ताल के पक्षों को पाठकों तक पहुँचाने की अनिवार्यता अनुभव किए जाने पर ही सब कवायद हो पाई। आरम्भ की पंक्ति इस प्रकार है–"मांगपत्र। सभा। आमसभा। मैनेजमेंट। बातचीत। खत्म। लेबर कमिश्नर। बातचीत। बीचबचाव।"
और अंत है–" समझौता। विजय। ख़ुशी। मजदूर। संग्रामी। कोर्ट। कचहरी। बहस। तारिख-दर-तारिख। साल-दर-साल।
कम में अधिक कहने की कवायद 'स्त्री कुछ नहीं करती!' (अशोक भाटिया) में भी मिलती है। इसमें बिना पूर्ण विराम लगाए, देहाती औरत के द्वारा सुबह से रात तक निरन्तर पच्चीस के करीब काम किए जाने को चित्रित किया गया है। स्त्री के जीवन में भी आराम का पूर्ण विराम कहाँ है? इसमें शाम से रात तक के स्त्री-जीवन की झलक देखें- "(खेत से) वापसी में भैंस के लिए चारा सिर पर लेकर आई, आकर खाना बनाया और बच्चों व सास-ससुर को खिलाया, फिर से बर्तन साफ़ किए, फिर सबको गर्म दूध पिलाया, बच्चों को सुलाया, फिर चौपाल में ताश खेलने के बाद शराब पीकर आ धमके डगमगाते पति को सँभाला, उसकी गालियाँ सुनीं, उसे खाना खिलाकर चैन की नींद सुलाया, फिर सन्नाटे में बचा-खुचा खाया और थकान के साथ सो गई... फिर सवेरे सबसे पहले उठी...
विगत कुछ वर्षों में प्रयोग के नाम पर डायरी में लिखी लघुकथाओं की अचानक बाढ़ आ गई है। बाहर से चमकीली बनाने से कोई रचना प्रयोगात्मक नहीं हो जाती। ऐसी लघुकथाओं में से अनेक को वर्णनात्मक शिल्प में बेहतर ढंग से कहा जा सकता था। डायरी शैली में लिखते हुए व्यर्थ और असम्बद्ध लेखन से पूरी तरह छुटकारा मिल सकता है, बशर्ते रचनाकार सजग हो। माधव नागदा की, इसी शैली में लिखी लघुकथा 'मुझे जिंदगी देने वाले' इसी प्रकार की कसी हुई संरचना लिये हुए है। कथावाचक अस्पताल में उलटी गिनती गिन रहा है। हेतल को याद करता है, तो वह अचानक नमूदार होती है। उसके प्यार को 'धोखा' कह बैठता है। वह होठों पर होंठ रख कथावाचक को नई जिंदगी देती है, पर खुद स्वाइन फ्लू की शिकार होकर मर जाती है। योगराज प्रभाकर की रचना 'एक अफ़गानी की डायरी' वैश्विक धरातल की राजनीतिक चौधराहटऔर उठापटक को अफगानिस्तान के चालीस वर्ष के इतिहास के माध्यम से उभारती है। किसी बड़े देश को अमन से कोई लेना-देना नहीं। इस अवधि में न कोई अल्लाह आया शांतिदूत बनकर, न ही कोई वैश्विक संस्था। इतने बड़े आशय को सामने लाने के लिए लेखक ने नौ फ्रेम इस्तेमाल किए हैं। इस प्रकार की रचनाओं में स्नेह गोस्वामी की लघुकथा 'वह जो नहीं कहा' विशिष्ट कोटि की रचना है। पत्नी अनेकानेक कारणों से मन की जो बात पति से नहीं कह पाती, उसे डायरी में बेहतरीन तरीके और सलीके से यहाँ कह दिया गया है। सुबह पति के बाहर जाने पर छह बजे से रात दो बजे तक छह टुकड़ों में मन की बात कही है। इन टुकड़ों में एक क्रम और तारतम्यता है, समयानुसरिता है, जिससे मध्यवर्गीय परम्परागत पति को उसकी जगह बता दी गई है। कुछ पंक्तियाँ देखें...
सुबह 6 बजे
मैं आज सच्चे अर्थों में घरवाली हूँ, वरना तो शाम के समय पूरे घर में तुम्हारी ही आवाजें सुनाई देती हैं...आज मैंने शादी के बाद पहली बार अदरक डली चाय बनाई है।
सुबह 10 बजे
...मन्नू भंडारी का 'आपका बंटी' खत्म कर लिया। बेचारा बंटी। बंटी को बेचारा होने से बचाने के चक्कर में कितनी शकुन रोज़ बेचारी होती हैं। तुम मर्द कैसे समझोगे। ...मैंने आज अपने लिए सैंडविच और पोहा बनाया...रोज-रोज आलू के परांठे खा के ऊब गई थी।
दोपहर 3 बजे
आज मैंने कई दिनों बाद फिल्म देखी। लगा था, जिन्दगी मशीन हो गई है। पर नहीं, दिल अभी धड़क रहा है। पुरानी फिल्म थी, साहब बीबी और गुलाम। ...सुनो! ये हसबैंड लोगों को बाहर वालियाँ क्यों अच्छी लगती हैं?
रात 11 बजे
तुम्हारे चीखने-चिल्लाने की आवाजें सुबह से अब तक नहीं सुनीं। तुमसे पूरी तरह न जुड़ पाने के बावजूद तुम्हारे बिना नींद नहीं आ रही। पर तुम यह सब कैसे जानोगे।
डायरी में ही अनघा जोगलेकर ने एक नया प्रयोग किया है। अपनी रचना 'तीन डायरी के पन्ने' में स्त्री के साथ हो रही घरेलू हिंसा को लेकर तीनों वर्गों की तीन डायरियों का एक-एक भाग चुनकर रचनात्मकता का एक नूतन आयाम उभारा गया है। लेखिका के संवेदना इस रचना के एक-एक शब्द से फूट रही है। तीनों वर्गों की भाषा और व्यवहार की सूक्ष्मता इस रचना की वयस्कता की तस्दीक करती है। अंतर देखें–मिसेस सिंघानिया की डायरी का पन्ना। श्रीमती वर्मा की डायरी का पन्ना। सखु बाई की डायरी का पन्ना।" सम्बोधन में अंतर देखें-डियर डायरी, प्रिय डायरी, डायरी रे। "रचना का अंत लेखिका की चिंता और सरोकारों को दर्शाता है–" ऐसी डायरियाँ रोज़ लिखी जा रही हैं...अनवरत...क्या बदलाव की जरूरत नहीं? " मीनू खरे की रचना 'कई मौसमों की स्त्री' में डायरी शैली का रचनात्मक उपयोग, स्त्री में एक बड़े बदलाव से पहले, उसकी पृष्ठभूमि को उभारकर किया गया है। बारह वर्षों तक फैले तेरह पन्नों में एक स्त्री की मोहब्बत और लिव-इन में परिणति, अपने को माँ और दीदी की नीरस जिंदगी से भिन्न धरातल पर जीने वाली मानती है...डिफरेंट एंड ऐडवेंचरस...नई तकनीक की सभी वस्तुएँ उसके पास हैं...जरूरतों के मुताबिक ब्वायफ्रेंड्स हैं...पति अथर्व भी कम नहीं...एक वेलेंटाइन डे पर अपने सभी ब्वायफ्रेंड्स को बुलाने पर पति से 'कई मौसमों की स्त्री' का खिताब एक बार फिर पाती है। यहाँ से उसकी सोच पर लगाम लगती है। छह दिन बाद की डायरी में लिखा है–" जाने मुझे क्या होता जा रहा...उचाट लगता है...सब व्यर्थ! ऋतु वसंत है पर मुझमें उग आया है एक पतझर...मेरे अन्दर बसी स्त्री बदली-बदली-सी है ...फिर पड़ोस में बच्चे को देखकर बदलाव...कुछ दिन बाद डायरी में बार-बार लिखना–"मुझे माँ बनना है।" अंत में दीदी की बेटी की शादी में जाने पर सोचती है–"एक बेटी का विदा होकर पति के घर जाना मेरे अन्दर की स्त्री को रोमांच से भर रहा है...जाने क्यूँ...।"
थोड़े में बहुत कहने की सहज कला का यह श्रेष्ठ उदाहरण है। वास्तव में सीधे-सीधे कथा-प्रसंग कहते जाने की प्रवृत्ति कई बार बड़ी नीरस लगने लगती है। इसलिए बने-बनाए वर्णनात्मक ढाँचे में भी कुछ तोड़-फोड़, कुछ नवीनता की ज़रूरत रहती है। यह स्वयं में चुनौती भी है। संध्या तिवारी ने 'डायरी' लघुकथा में एक नया प्रयोग किया है। डायरी पति और पत्नी की सोच और व्यवहार का जीवंत और कलात्मक आकलन करके पाठकों पर गहरा प्रभाव डालने में सक्षम सिद्ध होती है। सन 2000 में पत्नी ने लिखा कि उनकी तबीयत बहुत खराब है। जीभ की अकड़न और पत्नी से दुःख न देखा जाना–"मैं उनके लिए क्या कर-गुजरूँ जो वह ठीक हो जाएँ...इतना लिखते-लिखते वह मेरे सीने पर सिर रखकर बिलख पड़ी।" डायरी कोई बीस साल पहले की एक घटना बारे बताती है–"तब उसने लिखा था दिनांक 06 / 08 / 1981 आज उसने मुझे बहुत मारा। वह मेरी जीभ ही काटकर फेंक देना चाह रहा था, इसके लिए उसने चिमटा तक उठा लिया था। मेरा कसूर केवल इतना था कि मैंने उन्हें उनकी गलती याद दिला दी थी।" डायरी निष्कर्ष देती है–"एक जीभ काट रहा था, एक जीभ बचा रही है।" यहाँ डायरी के नायाब प्रयोग से रचना अधिक प्रखर और मारक बन गई है।
विजयानंद विजय की लघुकथा 'देशद्रोही' एकतरफा संवादों को रखकर एक प्रकार की सोच को रेखांकित करती है और निष्कर्ष देती है कि वर्तमान दौर में असहमति ओर आलोचना का स्वर 'देशद्रोही' कहलाने के लिए काफी है। महंगाई, भुखमरी इंडेक्स में बांग्लादेश से भी नीचे आ जाना, मंदिर बनाम स्कूल-अस्पताल आदि की बात करने के बाद यही तमगा मिलता है। कथानायक अंत में कहता है–"अगर प्रजातंत्र में सवाल पूछना देशद्रोह है, तो मों देशद्रोही हूँ।" एकपक्षीय संवादों की प्रस्तुति से तर्क अधिक शक्तिशाली रूप में उभरकर आए हैं और रचना का प्रभाव बढ़ गया है। शिव कुमार शिव की लघुकथा 'कमला' (हंस, जून 1987) में रेलवे प्लेटफार्म के दृश्य को कहीं एक-एक शब्द, तो कहीं दो शब्दों या बहुत छोटे वाक्यों द्वारा कहने का प्रयास किया गया है। इस बीच कमला की पारिवारिक दयनीय स्थिति, उसके साथ हुई ट्रेजेडी के बीच उसका दैहिक शोषण आदि बहुत कुछ समेट लिया गया है इस लघुकथा में। यह भी लघुकथा की समाहार शक्ति को बढ़ाने का एक उपक्रम है। अंतिम कुछ पंक्तियाँ देखें–" स्नेह। सांत्वना। ढाढ़स। उसके बदन पर फिरता हुआ हाथ। चिपचिपाहट...
गंगापुल की माँग के साइनबोर्ड पर थूकती कमला!
भूख। लाचारी। बेबसी। बिलखता लल्लन। परेशानी। मजबूरी। बाज़ार में खड़ी है कमला!
दुकानें। शोकेस। ग्राहक। दुकानदार। मोलभाव। खरीद बिक्री। किसी के साथ जा रही है कमला!
मालगाड़ी का खाली डब्बा। दस का नोट। जानदार लाश। रेंगता कीड़ा। लल्लन की रोटी।
डब्बे में उघड़ी हुई टाँगों को लिये पड़ी है कमला!
वरदी। हवलदार। डंडा। गाली गलौज।
दो का नोट दे रही है कमला।
डॉ.पुरुषोत्तम दुबे का कथन है-"डायरी-शैली की लघुकथा में हद से हद सात दिन में लिखा जाने वाला 'कथा-विन्यास' होना चाहिए।" यह कथन व्यावहारिक नहीं है। लघुकथा पहले ही व्यर्थ की जकड़बंदियों से घिरी रही है। ऐसी बाहर से थोपी शर्तें लघुकथा या किसी भी विधा की रचनात्मकता को सीमित करती हैं। प्रत्येक साहित्यिक विधा की प्रतिनिधि रचनाएँ ही उसके काव्यशास्त्र का आधार बनती हैं। यहाँ सुकेश साहनी की, डायरी-शैली में लिखी गई, चालीस वर्षों के अंतराल में फैली श्रेष्ठ लघुकथा 'उतार' की चर्चा करना आवश्यक है। रघुवीर सहाय का एक महत्त्वपूर्ण लेख है–यथार्थ यथास्थिति नहीं। 'यथार्थ के अनेक आयामों को, ऐतिहासिक निरंतरता से देखने पर ही खोजा जा सकता है।' उतार'केवल जल-प्रबंधन पर केन्द्रित न होकर व्यापक धरातल की रचना है। समाज और तकनीक किस तरह बदलते रहे हैं–इसका रोचक अध्ययन 'उतार' लघुकथा से किया जा सकता है। जो कुआँ सन 66 में 14 फीट पर पानी देता था, चालीस साल बाद 160 फीट तक बोरिंग करके भी पानी का कोई अता-पता नहीं। सन 66 से 76 तक आते-आते गाँव-भर के कुएँ जाति-विशेष के होकर रह गए। धीरे-धीरे हैण्डपम्पों का लगना और कुओं का इस्तेमाल खत्म होना, फिर ठेकेदार द्वारा पंप लगाने में शोषण, फिर हर खेत में अलग-अलग पंप की जरूरत समाज और परिवार की संवेदना के उतार को भी ध्वनित करती है। कुआँ खोदने वाले मिस्त्री की डायरी के ये पाँच सार्थक भाग उसकी निरंतर कठिन होती आर्थिक स्थिति की भी व्यथा-कथा कहते हैं।
युगल की लघुकथा 'हादसा' (हंस, अप्रैल 1992) की बनावट सात बरस की पाँच अखबारी कतरनों से हुई है। सन 1984 में डाकेजनी और हत्या का अपराधी उदवा पुलिस कब्जे से फरार हो जाता है। दो साल बाद बूथ कब्जाकर बेलेट छापने और बक्सा लूटने का अपराधी उदैया, सरकारी गवाह अनुपस्थित रहने पर, रिहा कर दिया जाता है। जिसने उदवा को बूथ कब्जाने को तैनात किया था, वह सरकार में उपमंत्री पद पर हैं। सर पाँच साल बाद वही अपराधी उदयराज नाम से चुनाव में खड़े होकर धमक और धमकियों के साथ जीत जाते हैं। वे अब गृह विभाग में उपमंत्री बन गए हैं।
सुषमा गुप्ता की लघुकथा 'पूरी तरह तैयार' प्रशासन में हावी रेड टेपिज्म और उसके सामने आम आदमी की विवशता को प्रतीकात्मक धरातल पर उकेरती है। एक व्यक्ति दफ्तर में नौकरी शुरू करने जाता है। पूछने पर भीतर जो हो रहा है, उस विकृति को देख-सुनकर हूबहू बता देता है। व्यवस्था कहती है–"कान निकाल दोनों और यहाँ रख दहलीज़ पर। ये अंदर के माहौल के लायक नहीं हैं।" इसी तरह आँखों की जगह बटन और टांगों की जगह 'रेड टेपिज्म' ब्रांड की बैसाखियाँ ही अंदर जा सकती हैं। लड़के ने पैर भी काटकर दे दिए, तो–"गरीबी मुस्कुराते हुए दफ्तर के द्वार से हट गई और बोली, "जा अब तू पूरी तरह तैयार है। "इस प्रकार यह बड़े आशय की रचना प्रशासन-तंत्र की भीतरी सच्चाइयों को उजागर कर देती है। शासन और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार को अहद 'प्रकाश' की लघुकथा 'एक कुएँ की कहानी' (सारिका, फरवरी 1983) में सुंदर तरीके से उठाया गया है। एक गाँव में दो कुएँ बने, पर कुछ अरसे बाद गाँव के सरपंच ने स्थानीय थाने में रिपोर्ट लिखवाई कि उनके गाँव का एक कुआँ चोरी चला गया है। पता चला कि सबने मिलकर कुएँ की चोरी की है–" उसने सबके पास थोड़ा-थोड़ा कुआँ देखा। "इसी प्रकार घनश्याम अग्रवाल की लघुकथा 'आज़ादी की दुम' (सारिका, जुलाई 1975) में अयोध्या और हनुमान के बहाने भ्रष्ट तंत्र को उघाड़ा गया है। पेंशन हेतु आवेदन करने के बावजूद हनुमान को पेंशन नहीं मिलती। जाकर पता चलता है कि उनका तो आवेदन ही नहीं है। फिर 'वज़न' रखने की प्रक्रिया में वह पूँछ को थोड़ा-थोड़ा काटकर देता जाता है। बिना दुम का होकर हनुमान धमकी देता है। अंतिम पंक्तियाँ हैं-" अगले दिन जालसाजी के आरोप में वे गिरफ्तार हो गए-"सबूत में बताया गया कि हनुमान के एक लम्बी दुम थी और इस बन्दर के दुम नहीं है। अतएव यह हनुमान नहीं है। यह लघुकथा रचनात्मक कल्पना का अच्छा उदाहरण है। इसी प्रकार बलबीर त्यागी की लघुकथा 'थैलों में बंद आवाज़' को पाठकों के सम्मुख लाया गया है। दुखीदास नामक एक क्लर्क ने थैलों पर छुट्टियों की अर्जियाँ लिखी हुई थीं। उनका ही सारांश यह लघुकथा है। कोयला न मिलना, राशन ख़त्म होना, मिट्टी का तेल मिलने में दिक्कत होना, वनस्पति खत्म होना आदि के छह लिफाफे खोले जाते हैं। इन चीज़ों के इंतजाम में उसका आधे महीने का वेतन कट जाता है। अंतिम पंक्ति है-" हम तड़प उठे, मनो हम ही वह दुखीदास हैं, जिसकी दर्दीली आवाज़ कागज़ के थैलों में कैद है।
कुमारसंभव जोशी की लघुकथा 'स्लीपर सेल' एक बड़े फलक को कौशल से बुनने के कारण ध्यान खींचती है। स्त्री के प्रति तीन पुरुष-पीढ़ियों (पिता, पति, पुत्र) का व्यवहार पहले बेहतर, फिर बदतर क्यों हो जाता है-लेखक इसका कसा हुआ चित्रण कर पाठक को सोचने पर विवश करता है। तीनों पीढ़ियों द्वारा स्त्री को एक-सा टोकने, क्रोध और संदेह करने वाले देखकर स्त्री सोचती है कि–"पुरुषों की भी कोई स्लीपर सेल होती है। कभी पता ही नहीं चलता कि ये भी कभी उन देखे-सुने जालिम पुरुषों जैसे निकलेंगे। मगर एक दिन अचानक मर्दाना सोच रूपी 'आका' का सन्देश आता है और ये गुपचुप पड़ी स्लीपर सेल जागृत हो जाती है, समस्त बेगुनाह स्त्री-जाति के विरुद्ध।"
कई बार सामान्य यथार्थ भी, तुकबंदी के प्रयोग से पाठक का ध्यान खींचने में सफल हो जाता है। यह सजगता जरूर रखनी होती है कि तुक की खातिर कहीं वस्तु उपेक्षित न हो जाए या उसका सहज प्रवाह बाधित न हो। दिव्या शर्मा की रचना '...पा रक्षणे...' में इसका ध्यान रखा गया है। परिवार को जोड़ने वाली यह लघुकथा वाक्य-विन्यास की दृष्टि से फिल्म 'हीर राँझा' की याद दिला देती है। तुकबंदी का इससे भी बड़ा और दिलचस्प उदाहरण देखना हो तो योगराज प्रभाकर की रचना 'आत्मकथा से बेदखल पन्ना' पढ़ना जरूरी है। लगता है, लघुकथा में ग़ज़ल के खूबसूरत अशार लिखे गए हैं। 'नई राहें कहाँ मिलतीं, अगर मंजिल पर रुक जाता? मैं तूफानों से क्या लड़ता, अगर साहिल पर रुक जाता?'-यह इस लघुकथा का केन्द्रीय भाव है।
असग़र वज़ाहत ने भी इस तरह की तुकबंदियों में कुछ लघुकथाएँ लिखी हैं। 'कवि का एलान' ।'कवि और लोटा' , 'कवि के दिन फिरे' ऐसी ही रचनाएँ हैं। 'कवि के दिन फिरे' से अंतिम पंक्तियाँ देखें-"आत्मकथा घोड़ा बनकर धाम-धाम हो आई। गधा बनी, दोलत्ती झाड़ी। कहीं बनी तलवार, गिरी दुश्मन के सिर पर। कहीं बनी वह फूल, बिछी नेता के पथ पर। कहीं बनी वह साँड, मथा मैदान घास का...कवि ने अपनी आत्मकथा से जो इच्छा थी वह सब पाया।"
स्त्री के भाव-परिबोध और प्रतिरोध को प्रयोगात्मक धरातल पर संध्या तिवारी ने दो लघुकथाओं में उकेरा है। इनकी 'कविता' लघुकथा मानो कविताई करती हुई बता जाती है कि स्त्री घर के हर कोने में मौजूद है-घर की साँकल तक। लेकिन बस नेमप्लेट पर उसका नाम नहीं है। दूसरी लघुकथा 'प्रायश्चित' भी पुरुष-समाज के सामने चुनौती की मुद्रा में खड़ी होकर प्रकारांतर से सवाल करती है। स्त्री का वात्सल्य-भाव आजीवन बना रहता है, चाहे उसके पति को 'बागवानी' का कोई शौक न हो और पाच कन्या-भ्रूणों को गिरा दे। इस रचना में अपराध पुरुष करता है, लेकिन प्रायश्चित स्त्री का मातृत्व कर रहा है। साठ वर्षीया स्त्री अपनी बगीची से किसीको भी खाद, फूल, पौधे आदि दे देती हैं, पर कन्या भ्रूण के प्रतीक पाँच पौधों को छूने भी नहीं देतीं। कारण बताती हैं–"कभी जे पाँचों मेरे गरभ में थीं।" क्रूर समाज के बीच इस कोमल भावना को एक रूपक द्वारा उभारने का प्रयोग रचना की मार्मिकता को अंत तक कमतर नहीं होने देता।
प्रतिभा पांडे की रचना 'कहानी फ़िल्मी है' एक पक्ष के संवादों द्वारा कुछ कहने के प्रयोग में सफल रही हैं। एक पीड़िता सीमा का वकील उसके आरोपी से फिल्म-मेकर के रूप में फोन करता है और कुछ जानना चाहता है। इन संवादों में अनेक संकेत छिपे हैं, जो वकील द्वारा अपना रूप बदले बिना सामने नहीं आ सकते थे। अंत में वकील के शब्द हैं–"औरतों के बारे में आपकी सोच और नीयत आज भी उतनी ही गन्दी और छोटी है जैसी दस साल पहले थी। तो सर, फिर कल मिलते हैं, नमस्ते।"
रवि प्रभाकर की 'विसर्जन' लघुकथा का पाठ बताता है कि लघुकथा में प्रयोग उसे कैसे प्राणवान बनाता है। जो स्त्री घर की बेहतरी में अपनी सारी शक्ति संजो देती है, उसीको हम, अवसर आते ही, तमाम परम्परागत स्तुतियों के बावजूद, उपेक्षित कर देते हैं। नवरात्रों की पृष्ठभूमि रचना को नई ऊँचाइयों पर ले जाती है। फाइनेंस की कमी के चलते असीम का बिज़नेस दाँव पर लगा, तो मालिनी अपने पिता को फोन कर दस लाख मंगाकर देती है–"(पापा ने) कहा है कि अगर और चाहिए निस्संकोच बता देना।" यह द्वितीय शरद् नवरात्र पर जगदम्बा द्वारा असुरों के पल-भर में नष्ट होने का प्रतीक है। बिज़नेस की गाड़ी लाइन पर आने लगती है, तो विजयदशमी के दिन असीम से मिलने आए ऑफिसरों को कुछ टेंशन में देख मालिनी पूछती है–"बताओ तो सही...शायद मैं कुछ मदद।" जवाब मिलता है–"यह तुम्हारे कॉलेज की कोई इकोनॉमिक्स की क्लास नहीं है।" रचना की परिणति भी यहीं है और यही है–"नौ दिन पूजने के बाद भक्तजन पूरे उल्लास के साथ माँ दुर्गा की मूर्तियाँ विसर्जन के लिये ले जा रहे थे।" 'दुर्गा' और 'विसर्जन' का प्रयुक्त प्रतीकार्थ इस प्रयोग को नई शक्ति प्रदान करता है।
दृष्टिकोण ही यथार्थ को देखने का आधार देता है, जिसमें यथावश्यक कल्पना का प्रयोग रचना को विशेष बनाने में कारगर हो सकता है। । 'तीसरा चित्र' (अशोक भाटिया) वर्ग-चेतना पर आधारित है, जिसमें कलाकार द्वारा बनाए तीन चित्रों के माध्यम से तीनों वर्गों की प्रमुख विशेषताओं को उजागर किया गया है। निम्न-वर्ग का हर जगह तीसरा क्रम ही रहता आया है—इसे रचना का अंतिम भाग व्यक्त करता है। पिता द्वारा पूछने पर कि–"पहले दोनों चित्र तो तुमने गीले रंगों से बनाए हैं, लेकिन इस चित्र को काली पेंसिल से क्यों बनाया है?" कलाकार-पुत्र का जवाब है–"इसकी बारी आई, तो सब रंग ख़त्म हो चुके थे।" इसी प्रकार 'चौथा चित्र' (अशोक भाटिया) में परिवार के तीन सदस्यों के बीच चल रही राजनीति को कुल सात वाक्यों में उजागर किया गया है। अपना-अपना प्रभाव बनाने के चक्कर में माँ, पिता और बेटा जो-जो चाल चलते हैं, उसकी चरम परिणति यही होनी थी–"माँ, पिता और बेटा, तीनों चुप बैठे, चोरी-चोरी एक-दूसरे का चेहरा देख रहे हैं।" शोभा रस्तोगी की रचना 'कैनवस' अपने कलात्मक संकेत के कारण चारों चित्रों से भी सुंदर बन गई है। चित्रकार पहले तीन चित्र फसलविहीन खेतों के बीच पेड़ों पर लटकी किसानों की लाशों, सामूहिक बलात्कार उपरांत खून के आँसू बहाती, कटी-फटी युवती और निर्दोष लोगों के कत्लेआम का बनाता है। चौथा चित्र गरिमामयी संसद के भीतर लड़ते नेताओं का है। अंतिम पंक्ति देखें–"पहले के तीन चित्रों को इस चित्र के पीछे सेट करना उसे ठीक लगा।" यहाँ कवि धूमिल की कविता की पंक्ति–'मेरे देश की संसद मौन है' को जोड़कर अर्थ निकाले जा सकते हैं।
बनफूल बांला के सर्वप्रमुख लघुकथाकार हैं। कला ओर पाठक–दोनों धरातलों पर आपकी रचनाएँ बहुत सफल होती हैं। इनकी लघुकथा 'नीम का पेड़' का आरम्भ देखें–
कोई छाल निकालकर उबाल रहा है।
कोई पत्तों को सिल में पीस रहा है।
कोई गर्म तेल में तल रहा है। ...आदि-आदि।
एक दिन एक कवि ने इस सब की जगह पेड़ का गुणगान किया। अब रचना की अंतिम पंक्तियाँ देखें–"नीम के पेड़ की इच्छा हुई उस आदमी के साथ चला जाए। पर ऐसा न कर सका। मिट्टी के नीचे बहुत दूर तक जड़ें चली गई थीं। घर के पिछवाड़े कूड़े के ढेर के बीच वह खड़ा रहा। उनके घर की गृहकार्य में निपुण लक्ष्मी जैसी बहू की भी यही दशा है। ठीक ऐसी ही।" यहाँ से पाठक रचना का पुनर्पाठ करेगा तो नये और वास्तविक अर्थों के मोती हाथ लगेंगे। जड़ों के नीचे बहुत दूर तक जाने का, कूड़े के ढेर के बीच खड़े रहने का, या लोगों द्वारा पेड़ के अनेकविध लाभ उठाने का अर्थ जब लक्ष्मी जैसी बहू पर लगाएँगे, तो रचना का सौन्दर्य सामने आ जाएगा।
छोटी-छोटी अस्मिताओं के लिए जूझते हुए आदमी को बलराम की लघुकथा 'आदमी की घोषणा' तमाम संकीर्ण अवधारणाओं से बाहर निकलकर सोचने पर विवश करती है। अन्तरिक्ष मानव धरती के आदमी का अध्ययन करने आता है, तो उसे कोई आदमी न मिलकर सम्प्रदायों में घिरे लोग ही मिलते हैं। एक युवक-युवती को, जाति-धर्म के मुखौटे उतारकर शादी करने के जुर्म में 'चांडाल से भी नीच' कहकर घर से बाहर निकाल दिया जाता है, जिसे देखकर अन्तरिक्ष मानव विस्मित होकर कह उठता है–"आदमी होने की घोषणा करने वालों का धरती पर यह हाल!" रचना के पूर्वार्ध में श्वेताम्बर महात्मा के आश्रम का साभिप्राय वर्णन आदमी होने की पहचान बताता है–"आश्रम की इमारत में न कोई गुम्बद, न कोई मेहराब। न तो कोई चिह्न, न ही कोई निशान। न कोई प्रतिमा, न कोई प्रतीक। न मंदिर लगता, न मस्जिद, न गिरजाघर, न गुरुद्वारा।" एक तरह से हमारे बीमार समाज के लक्षण इस वर्णन में बता दिए गए हैं।
इसी धरातल की दो और लघुकथाएँ हैं। नेतराम भारती की 'उड़न-तश्तरी' लघुकथा द्विआयामी रचना है। एक अनजाने ग्रह हियो से एक मरणासन्न व्यक्ति की चिकित्सा हेतु पृथ्वी पर आते हैं। यहाँ की संकीर्णताओं को, बिना किसी देश का नाम लिए, सधे हुए रूप में व्यक्त किया गया है। एक पंक्ति देखें–"वहीँ दूसरी तरफ उन्होंने देखा, वन रो रहे हैं, पानी आँसू बहा रहा है, हवा खाँस रही है।" तमाम नकारात्मक संकेतों के बाद उनके यंत्रों पर हरी रोशनी टिमटिमाने लगती है। दुर्लभ वाइब्रेशन मिलने की आशा बलवती होती है। वे देखते हैं कि एक छोटा बच्चा पौधे को पानी दे रहा है। पौधा मुस्करा रहा है। साथ ही तेज हवा होने पर वह अपने छोटे-छोटे हाथों से पौधे की सुरक्षा भी कर रहा है। हरी रोशनी इसी बच्चे में से निकल रही थी। उन्हें प्राप्य मिल जाता है। इसी संदर्भ की रचना 'सूत्रधार' (अशोक भाटिया) में कोई सौ फुट प्रतिमा जैसा विचित्र व्यक्ति आसमान से नीचे उतारकर लोगों को हज़ारों सालों की हिंसा और नफरत के दुष्परिणाम दिखाता है। अपनी आँखों को क्षितिज तक विस्तार देने पर–"कई देशों के करोड़ों लोगों की कब्रों की एक विशाल रील उस फकीर की आँखों से गुज़र रही थी।" इस तरह नाक को दूर तक फैलाकर जमीन पर लगाते हुए वह अजनबी जोर से साँस छोड़ता है-"यह हज़ारों सालों से धर्म और मजहब के नाम पर जो मारकाट होती रही, उसकी बदबू है।" अंत में उन लड़ाकों को अपनी राह बदलने को कहा जाता है- "अब भी सोच लो, वरना यह पृथ्वी इंसानों के रहने लायक नहीं रह जाएगी।" ऐसी ही बड़े आशय की रचना अनिल मकरिया की 'सभ्यताएँ' है, जो चट्टानों और घोंघों के माध्यम से स्पष्ट करती है कि मनुष्य और मनुष्यता–सभी समयों में एक रही है। रचना का अंत देखें–"पानी उतरने के बाद यह स्पष्ट दिख रहा है कि वे दोनों चट्टानें एक ही धरातल का हिस्सा हैं जिसे पानी ने बाँट रखा था।" इस सन्दर्भ में कुंवरनारायण की कविता 'ट्यूनीशिया का कुआँ' पठनीय है–
ट्यूनीशिया में एक कुआँ है
कहते हैं उसका पानी
धरती के अन्दर ही अन्दर
उस पवित्र कुएँ से जुड़ा है
जो मक्का में है।
मैंने तो यह भी सुना है
कि धरती के अन्दर ही अन्दर
हर कुएँ का पानी
हर कुएँ से जुड़ा है।
कुछ और प्रयोगात्मक लघुकथाओं की चर्चा करें। साठ के दशक के उत्तरार्ध में 'अ-कहानी' आन्दोलन का बोलबाला था। सन बासठ में चीनी आक्रमण के कारण हुए मोहभंग का प्रभाव अकहानी-आन्दोलन के अस्वीकार-बोध पर पड़ा। इसमें कहानी के 'शिल्पहीन शिल्प' तथा रूप पर अधिक बल रहा। यह मुख्यतः काम-सम्बंधों के वर्जनाहीन वर्णन पर केन्द्रित रहा। इसी के सन्दर्भ में कहानीकार दिनेश पालीवाल ने 'अ-प्रेम' (सारिका, मई 1969) लघुकथा में इस आन्दोलन के विवेकहीन अस्वीकार-बोध का उपहास किया है। इसके आरम्भ और अंत से दो उदाहरण–
"एक अ-नायक था। अचानक एक अ-दिन उसे अपने अ-नुपयुक्त अ-नायिका मिल गयी। वह बड़ा अ-प्रसन्न हुआ।"
"अ-प्रेमिका ने अ-प्रेमी के सिर पर अपने अ-धर धर दिये–'तुम्हारा सिर कितना अ-सिर है!'
अ-प्रेमी अ-क्रोध से अकबका उठा–'चुम्बन प्रेमी-प्रेमिका लेते हैं। हम लोग अ-प्रेमी हैं। हमें अ-चुम्बन लेना चाहिए।' अ-प्रेमिका ने अपनी अ-भूल अ-स्वीकार की, ' तुम ठीक कहते हो! अ-चुम्बन कैसे लिया जाये...? "
यहाँ कथाकार ने केवल 'अ' के दनादन प्रयोग से 'अ' आन्दोलन की विवेकहीनता और शिल्प व भाषा के नाम पर विकृत प्रयोग करने की प्रवृत्ति पर सटीक व्यंग्य किया है।
सन्तोष सुपेकर की लघुकथा 'एक पत्र अपने नाम' भिन्न धरातल की रचना है। लेखक स्वयं को कटघरे में खड़ा कर अपने लिखे साहित्य का मूल्यांकन कर अपनी विफलताओं और कमजोरियों का बेबाक वर्णन करता है। रचनाओं के पात्र लेखक को घूर रहे हैं। यह रचना प्रत्येक लेखक, विशेष रूप से लघुकथाकार के लिए प्रेरक और उत्प्रेरक का काम कर सकती है। इस स्वीकार-बोध के कुछ वाक्य देखें–
"टकराहट और संघर्ष रहे हैं मेरी रचनाओं में, पर वे उनके केंद्र-बिंदु नहीं बन सके।"
"मैंने शोषक को देखा, पर उतार नहीं सका रोष को अपने में। मैंने शोषित को देखा, तब भी बस देखा ही।"
"मेरे द्वारा रचित टकरावों, तनावों, द्वन्द्वों में विस्फोट नहीं रहा।"
"मैं भूत से तो मुक्त रहा पर वर्तमान को जी नहीं सका पूरी तरह।"
और अंतिम पंक्ति है–
"क्या कभी मुझे माफ़ कर सकोगे मेरे स्व?"
चन्द्रेश कुमार छतलानी ने 'टेबल के बाद...' लघुकथा में नया प्रयोग किया है, जो किसी शैली में नहीं बँधता। दो के पहाड़े (टेबल) का प्रयोग करते हुए बच्ची से युवाकाल तक लड़की के विकास के विभिन्न चरणों का सूक्ष्म चित्रण देखते ही बनता है। इसका दुखांत आज का कतु यथार्थ है। अठारह की उम्र में–"वयस्क होकर अपने किसी दोस्त के साथ लिव-इन में चली गई, माता-पिता देखते रह गए।" और पहाड़ा दस तक पूरा होने पर बेटी जिसके साथ रह रही थी, वह किसी और लड़की के साथ चला गया। रचना का त्रासद अंत है–"माता-पिता की आँखें पत्थर जैसी हो गई हैं और गुड़िया...वह अब आगे गिनने के लिए नहीं है।" कथा को रोचकता और प्रभावान्विति के साथ कहने के कारण यह सफल प्रयोगात्मक लघुकथा है।
वास्तविक समय और कथा का समय प्रायः भिन्न होते हैं। अशोक राय चौधरी की बांग्ला लघुकथा 'कोई एक अनागत संध्या' बड़े वितान की प्रयोगात्मक रचना है, जो पचपन हजार दो सौ वर्षों के इधर और उधर के अंतर का सजग चित्रण (क्लोन की हुई एक उद्विग्न युवती के माध्यम से) करती है। रचना में चित्रित विविधवर्णी प्रफुल्लित व्यतीत पुनः कैसे उसके कृत्रिम वर्तमान में लौटे–इसकी युक्ति की खोज आँसू में की गई है। धरती को रहने लायक बनाने की रचनात्मक कल्पना का यह भव्य निदर्शन है। अंत में–" फूल खिले। चिड़ियाँ चहकीं। तितलियाँ उड़ने लगीं। पोखर, नदी, अरण्य, पहाड़ बनने लगे। अश्रु-जल से समुद्र की सृष्टि हुई। स्पेस-शटल से अचानक आ पहुँचा एक अनिन्द्य सुंदर अनन्य युवक। आते ही उसने लड़की का हाथ पकड़कर सीने से लगा लिया। स्पेस-शटल अन्य ग्रह पर चला गया। और अंत में रचना हुई महान चुम्बन की।
इसी प्रकार राहुल राजेश की लघुकथा 'तकिया' (कथादेश, अगस्त 2000) तकिये द्वारा एक संघर्षशील और दुखी आदमी के सन्दर्भ में अपनी सोच को वाणी देती है। आदमी आकर, तकिए को सीने से भींचकर खूब रोता है। तकिया सोचता है–"आखिर सब लोग तकिए को ही अपना हमराज़ क्यों बनाते हैं? क्या आदमी पर से आदमी का विश्वास उठ गया?" रचना का अंत है-...तकिए ने सोचा, "क्या आदमी नहीं बन सकता तकिया आदमी के लिए?"
कुछ और लघुकथाओं पर चर्चा करें। लघुकथा में प्रयोग हमें छोटे आकार में व्यापक अर्थ की प्रतीति करा देता है। आशा भाटी की रचना 'मीठी नीम कड़वी नीम' अपनी शैल्पिक बुनावट में प्रतीक का आधार लेकर इस विडंबना को सघन रूप में उभारती है कि निम्न वर्ग और उच्च वर्ग के काम उनके आर्थिक धरातल के विपरीत हैं। मीठी नीम के पत्ते ख़ुशी-ख़ुशी बाँटना और कड़वी नीम लेने वालों को भगा देना, मीठी नीम को चुपके से कटवा देना आदि क्रियाओं के द्वारा निम्न वर्ग की उदारता और विनम्रता तथा उच्च वर्ग की ईर्ष्या और अहंकार को रेखांकित किया गया है। इस रचनात्मक कल्पना में रोचकता का तत्त्व स्वतः ही आ गया है। देखें–"एक दिन सूनी झोपड़ी देखकर महल ने मीठी नीम काट डाली और अपने आँगन में रोप दी। न प्यार था, न पानी; मीठी नीम सूखकर ठूँठ हो गई. उधर झोपड़ी में खड़ा ठूँठ पुनः लहलहाने लगा। उसके तन को प्यार से सींचा जा रहा था।"
कमलेश भारतीय की रचना 'सात ताले और चाबी' में स्त्री-जीवन की घुटन को जीवन के सात चरणों में रूपायित किया गया है। विन्यास में पुरुष-सत्ता के दबाव और उसके अहंकार को बेहतर ढंग से उभारा गया है। ये ताले-"जिसका भी बस चला उसने लगा दिए." कसाव इस रचना की खूबसूरती को बढ़ाता है, जैसे पत्नी रूप में ताले का चित्रण देखें–"यह नहीं करोगी, वह नहीं करोगी। मेरे पंखों और सपनों पर ताले। कोई उड़ान नहीं भर सकती। पाबंदी ही पाबंदी।"
शोभना श्याम की रचना 'आखिरी पन्ना' मानवेतर पात्र 'घर' के ज़रिए पुरानी पीढ़ी को समयानुसार अपनी सोच बदलने को प्रेरित करती है। गाँव का बुज़ुर्ग तीनों शहरी बेटों की जरूरतों से बेखबर, गाँव के जर्जर घर और पैसा–दोनों से चिपका है। घर उसे मध्यमार्ग सुझाता है—"खुद भी अपने भरे-पूरे परिवार के साथ रहो और मुझे भी नयी जिंदगी पाने दो यार, व्यावहारिकता से काम लो न!" संवाद शैली में रचित इसके अंत में घर बुज़ुर्ग की अंतिम चिंता भी दूर कर देता है–"थोड़ा अपने लिए भी रखो और जतला दो कि ज्यादा सेवा करने वाले को मिलेगा तुम्हारे बाद।"
कहानी की भाँति लघुकथा में भी 'घटित' और 'कहन' में रचना की आवश्यकतानुसार संतुलन होना चाहिए। जानकी बिष्ट वाही की रचना 'सुनहरी मछली से रेशम के कीड़े तक का सफर' में कहन पर बल रचना की जरूरत था। इसी कारण यथार्थ से स्वप्न और फिर स्वप्न से यथार्थ की परतों द्वारा 'अन्नपूर्णा' के जीवन-संघर्ष को तहदार परतों में प्रस्तुत किया जा सका है। सुनहरी मछली, स्त्री का सपना है–खुशदिल और आज़ाद और 'थकान का मकड़जाल' स्त्री-जीवन की सच्चाई है, जहाँ रेशम के कीड़े-सी वह मोह के धागों में कैद हो जाती है।रचनात्मक भाषा से रचना और समृद्ध हो गई है। देखें–"घर की हर दीवार, हर कोना, हर कमरा, आवाजों को मधुमक्खियों की भिनभिनाहट में बदलकर हवा में घोलने लगा।"
वर्णनात्मक से इतर किसी शैली में लिखने से ही प्रयोग नहीं हो जाता।प्रश्न प्रयोग की आवश्यकता का भी है। ज्योत्स्ना कपिल की रचना 'अपेक्षाओं के दंश' एक किशोर की डायरी पर केन्द्रित है। माता-पिता उससे इतनी अधिक अपेक्षाएँ रखते हैं कि वह किसी पर खरा नहीं उतर पाता, न उनसे कह ही पाता है। उसका एकमात्र सहारा डायरी है। 'अपनी इच्छाओं का गला घोंटते और अपेक्षाओं का बोझ ढोते' जाने की उसकी व्यथा डायरी की पंक्तियों द्वारा ही कही जा सकती थी।
शील कौशिक की रचना 'उत्सवबोध' में विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों से काल्पनिक बातचीत द्वारा यह तथ्य उभारा गया है कि स्वतंत्रता-दिवस अब राष्ट्र-बोध के स्थान पर 'उत्सवबोध' में परिणत हो गया है। प्रत्येक वर्ग में इसका अर्थ-अपकर्ष हो चुका है।
वास्तव में प्रयोग, रचना की भीतरी जरूरत और तज्जन्य प्रक्रिया से उपजने पर ही सार्थक होते हैं। इसके बिना उनकी सार्थकता बन नहीं पाती। सत्यवीर मानव की लघुकथा 'किसकी माँ' तमाम कसावट के बावजूद, किसी भीतरी जरूरत से न उपजकर, सजावट तक सिमटकर रह गई है। यह केवल एक उदाहरण है। इसी प्रकार लता अग्रवाल की 'युगों की पीड़ा: दो दृश्य' सतही दृष्टि से देखने पर दो युगों की एक-सी व्यथा-कथा लगते हैं; किन्तु वास्तव में वे दृश्य जुड़ते नहीं। वर्तमान के दृश्य में एक योग्य व्यक्ति को रिश्वत देकर आए अफसर के अधीन काम करना होगा। दूसरा प्राचीन दृश्य है, जहाँ एकलव्य को महाराज के अधीन काम करना पड़ता है; किन्तु महाराज न तो अयोग्य हैं, न रिश्वतखोर, न ही महाराज ने एकलव्य का पद छीना है। वैसे भी पहले घटित दृश्य को पहले देना अधिक तार्किक होता। (सन्दर्भ: 66 प्रयोगधर्मी लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल, संपादक मधुदीप, 2023) ।
हिन्दी में ऐसी कथित प्रयोगों वाली लघुकथाओं का अम्बार लगा हुआ है। इधर हुए ऐसे प्रयोगों में बाहरी लटके-झटके ज्यादा हैं, भीतरी हलचल कम है। । विक्रम और बैताल तथा डायरी शैली में कुछ टुकड़ों में यथार्थ को बाँट देने से या नाम की जगह 'क' 'ख' लिख देने से ही प्रयोग नहीं हो जाते। यह 'गार्निश' के अलावा कुछ नहीं। यह बिलकुल वैसा है, जैसे दोहे की तुकें भिड़ाकर इधर हज़ारों नीरस दोहों का उत्पादन किया गया। सामाजिक यथार्थ को लेकर अगर तड़प और बेचैनी होगी, फिर यथार्थ के किसी एक तंतु को रचना में पूर्णता के साथ उभारने का प्रयास होगा, तो प्रक्रिया में कुछ नए तरीके से कहने की युक्ति भी जेहन में आएगी। फिर उसे साधने की जद्दोजहद की भी जरूरत होगी। इस प्रक्रिया को कितना भी समय लग सकता है। इससे गुजरने के बाद भी रचना पाठक तक अपनी पूरी सामर्थ्य और ताप के साथ जा रही है कि नहीं, इसे देखना-परखना होता है।
अन्य प्रयोगात्मक लघुकथाओं में 'सूअर' (रमेश बत्तरा) , 'आँगन में नया पेड़' (जकारिया तोमर), 'जिह्वा का वर्चस्व रहेगा' (हरि जोशी) , 'देश' , 'पीढ़ी-दर-पीढ़ी' और 'समय' (अशोक भाटिया) , 'कुआँ खोदने वाला' (सुकेश साहनी) , 'घूसभत्ता' (दामोदर दत्त दीक्षित) , 'वर्ग-भेद' (सतीशराज पुष्करणा) , 'और कौवा रो पड़ा' (रामकुमार आत्रेय) , 'जीवन' (चैतन्य त्रिवेदी) 'खुशगवार मौसम' (श्यामसुंदर दीप्ति) , 'भयानक बीमारी' (सुरिंदर कैले), 'चौथी आवाज़' (योगराज प्रभाकर) , 'लव इज माय सिन' और 'पच्चीसवीं कहानी' (कुमार संभव जोशी) , 'सन्नाटा' (सविता इन्द्र गुप्ता) , 'योग्यता' (रश्मि बड़थ्वाल) , 'एक बिखरता टुकड़ा' (चंद्रेश कुमार छतलानी) , 'गाँव की आग' (ओम नीरव) , 'नेताजी के साथ एक दिन' (जगदीश कुलरियाँ) , 'पलटवार' (कल्पना भट्ट) , 'तालाब सूख गया' (वंदना गुप्ता) , ' न माने कुछ नहीं' (सोनाली) आदि का अध्ययन किया जा सकता है।
प्रयोग का दूसरा धरातल भाषायी प्रयोग का है। भाषायी प्रयोग रचना की शक्ति और सौन्दर्य–दोनों के विस्तारक की भूमिका वहन करते हैं। इनमें काव्यात्मक उपकरणों का प्रयोग सबसे अधिक होता हैं।
किसी भी कथा-रचना में काव्य के उपकरणों का प्रयोग उसे गहराई और ऊँचाई–दोनों रूपों में अर्थ-संवाहक बनाता है। हिन्दी लघुकथाओं में ऐसी अनेक रचनाएँ ध्यान खींचती हैं। सुशांत सुप्रिय की 'सबके लिए' , अमर गोस्वामी की 'हाय मालिक' , रघुनन्दन त्रिवेदी की 'स्मृतियों में पिता' , अशोक भाटिया की 'जिंदगी' , चैतन्य त्रिवेदी की 'जूते और कालीन' , 'टूटते हुए सच' , 'पवित्र नदी का सच' आदि अनेकानेक लघुकथाएँ, उर्मिल कुमार थपलियाल की 'समाजवाद' , अनेक लघुकथाएँ इसी कोटि की हैं। 'सबके लिए' (सुशांत सुप्रिय) लघुकथा भाषा के काव्यात्मक प्रयोग का विशिष्ट उदाहरण बन गयी है। स्त्री की व्यथा-कथा, त्याग और स्त्री के सन्दर्भ में पुरुष की संकीर्ण मानसिकता-तीनों पक्षों को इस लघुकथा में बड़ी खूबसूरती से इस तरह उभारा गया है कि पाठक एक पक्ष का असर दूसरे पक्ष तक भी ले जाता है। कुछ पंक्तियाँ देखें–"वह माँ थी, तो मकान घर था। वह बहन थी, तो भाइयों की कलाई पर राखी थी। वह बेटी थी तो घर मों रौनक थी। वह पत्नी थी, तो थाली में भोजन था, जीवन में प्रयोजन था।" कई बार तथ्यों को सरल भाषा में नहीं कहा जा सकता, वह स्थिति लेखक की रचनात्मक भाषा की परीक्षा लेती है। इस रचना के काव्यात्मक व्यवहार ने इसे विशिष्ट कोटि की रचना बना दिया है। ऐसी ही विशिष्ट कोटि की लघुकथा अमर गोस्वामी की 'हाय मालिक' है। सारा जीवन उलटे-सीधे काम कर दुनियावी सफलता हासिल करने वाले के जीवन का चित्रण करना इसलिए भी कठिन है कि वहाँ कोई एक प्रसंग नहीं है। अमूर्तता के कारण भाव, विचार, वृत्तियों, प्रवृत्तियों आदि पर कलम चलाना अपेक्षाकृत कठिन होता है। इस रचना की कुछ पंक्तियाँ देखें–
"उसने दूसरों की गर्दन काटकर अपनी गर्दन ऊँची की। उसने सफेदपोशों के साथ कालाबाजारी की और काले धन से काले बादलों को छूने वाले भवन बनाए। ...उसने भोजन में रुचि नहीं ली। उसने मैथुन में रुचि नहीं ली। उसने सम्बंधों में रुचि नहीं ली। वह इन सबसे आँख मूँदकर स्वार्थ की विशाल वेदी के सामने बैठकर अपनी संवेदना, कोमल भावना, परमार्थ साधना, सबको स्वाहा करता हुआ अपना वित्तलोक सुधारता रहा। उसने लाइसेंस पाने के लिए, विदेशी पूँजी के लिए, कारोबार में नंगे क्षितिज ढूँढ निकलने के लिए, नेताओं, अफसरों और माफिया-नरेशों के आगे पलक-पाँवड़े बिछाए, ईमान बिछाया, यहाँ तक कि खुद के साथ बीवी को भी! जब बीवी ने साथ नहीं दिया, तो उसने बाकायदा हरम बनाया, जो हराम के काम आया। ...उसने हर दिल से व्यापार किया और हर बिल से लाभ कमाया। हर डील में गोलमाल किया और हर बार मालामाल हुआ। इस तरह तस्कर, अफसर और मिनिस्टर–इन तीनों शक्तियों की उसने तन-मन-धन से पूजा की। ..." इस रचना का अंत इसकी खूबी को और भी निखार देता है–"जब उसकी अर्थी उठ रही थी, तो उसके मूँछों वाले मुस्तैद दरबान ने उसकी मिट्टी को हाथ जोड़ते हुए मन ही मन कहा,"हाय मालिक, क्या इसी दिन के लिए तुमने इतना दंद-फंद किया था? आखिर मरना तुम्हें भी हम गरीबों की तरह ही पड़ा।"
चैतन्य त्रिवेदी अपनी लघुकथाओं में अनिवार्य रूप से काव्य-उपकरणों का प्रयोग करते हैं। कुछ उदाहरण देखें। 'जूते और कालीन' रचना में ग्राहक को सम्बोधित–"उसके (कालीन के) रेशे-रेशे में पल-पल के कई अफ़सोस भी बुने हुए हैं, जिसे आप नहीं जानते।" "इस कालीन के रेशे-रेशे में नन्हीं लड़कियों की हथेलियों की कोमलता भी छिपी है। स्त्रियों की हथेलियों के वे तमाम स्पर्श, जिनसे भरी ठण्ड में उनके बच्चे वंचित रह गए।" दरअसल चैतन्य त्रिवेदी भाषा से कई तरह का काम लेते हैं। एक तो अर्थ की गहनता और व्यंजना और दूसरे, संवेदना का विस्तार और तीसरे, चिंतन की गहराई। इस तरह के दो उदाहरण इनकी रचना 'पवित्र नदी का सच' से देखें–
1.पंचतंत्र और हितोपदेश के पन्ने पलट डाले, लेकिन जान बचाने का कोई उपाय नहीं सूझा।
2.इस नदी का गणराज्य जिन्दगी को बोलने ही नहीं देता।
कहानीकार सुशांत सुप्रिय ने 'सबके लिए' नामक रचना में सादृश्य-विधान के द्वारा स्त्री-जीवन पर प्रकाश डाला है। कुछ पंक्तियाँ देखें–"वह जैसे दूध के ऊपर जमी हुई मलाई थी। वह जैसे मुँह में घुल गई मिठाई थी। वह जैसे सितारों को थामने वाली आकाश-गंगा थी। वह जैसे खजाने से लदा एक जहाज थी, जिसकी चाहत में समुद्री डाकू पागल हो जाते थे।"
उर्मिल कुमार थपलियाल की 'समाजवाद' में भी ऐसे प्रयोग मिलते हैं–"घर जाकर उसने बड़ी दिक्कत से अपनी दोनों टांगें फेंक दीं। ...अपने दर्दीले कंधे उचकाकर उसने दोनों हाथों से अपना भारी सर अलग किया। ...अपने दोनों हाथ उसने झटके से अलग किए। ...उसका धड़ बिस्तर के बीचो-बीच जाकर अटक गया। अब वह कमरे में कहीं नहीं था।"
दिव्या शर्मा की लघुकथा 'सिलौटा' का केन्द्रीय वाक्य है–"माँ अपने दर्द को मसाले के साथ रगड़कर पीस देती थी।"
प्रयोग असफल भी हो सकते हैं। किन्तु प्रयोग यदि रचना की अभिव्यंजना-शक्ति को समृद्ध करने के लिए किए जा रहे हैं, तो इस दिशा में कदम अवश्य बढ़ाने चाहिएँ। इसके लिए यथार्थ से विचलन (deviation) का जोखिम उठाना होगा। ज़रूरत पड़ने पर अपना 'सॉफ्टवेयर' भी बदलना होगा।
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