प्रयोग / राजा सिंह
पूर्वी को भरोसा आता है किन्तु टिक नहीं पाता है। उसे लगता है कि वह संदेह करती है परन्तु वह भी संदेह का कोई उपचार नहीं करता है। वह उसे वैसा ही पड़ा रहने देता है। वह विरक्त रहता है, उसकी चाहती के प्रति।
माँ-बाप हैं, उन्होंने मना भी किया था कि वह उससे न मिले। किन्तु उसे उनके कहे पर तसल्ली नहीं थी। उसे उनका फैसला ठीक नहीं लगता था। किन्तु अब उसे क्यों रह-रह कर, वे याद आते हैं। उनकी नसीहतें क्यों सालती है, भिंचती है?
आखिर में! क्यों उसे दीप पर विश्वास नहीं आ रहा है? यद्यपि उसकी दिलचस्पी उसमें कम नहीं हुई थी। उसकी अंतर्दृष्टि में पुराना घर, उसका गाँव, माता पिता का घर, परिवार की दरिद्रता-सम्पन्नता सब कुछ एक धुंधली दृष्टि से गुजर गयी।
तब उसे उस पर पूरी तरह भरोसा था। परन्तु अब क्यों भरोसे की नींव दरक रही थी? । कौन बतायेगा यह? वह झींककर खुद से पूछती है। कोई नहीं बता सकता यह, उसके सिवा।
वह अपना मुंह लेकर आती है, उसके पास, "तुम्हें मालूम है, मुझे क्यों यकीन नहीं होता है। तुम मेरे साथ शादी करोगे?"
"फिर वही पागलपन?" वह उसे अपने में खींच लेता है। उसके गालों और ओठों पर अपना गीलापन दर्ज करता है। उद्दाम यौवन का झूठा और अप्राकृतिक सम्बन्ध...! वह विरक्त अध्येता की तरह प्रभावहीन रहती है।
" निश्चय ही...! ...वह बेतरतीब दोहराने लगता है। उसे तसल्ली नहीं होती। उसका मन असमंजस के दलदल में अब भी अटका है।
"फिर कर लेते है।"
"क्या?"
"शादी।"
"नहीं। अभी नहीं...!"
"अभी क्यों नहीं?"
"तुम समझती क्यों नहीं? । हम पहले भी कह चुके है। तुम्हें याद क्यों नहीं रहता?"
" क्या कह चुके है, एक बार और कहो। अब याद रखूंगी।
हमने आपस में वादा किया था कि साथ रहते हुए, हम एक दूसरे को परखेंगे। जब एक दूसरे पर विश्वास आयेगा, एक दूसरे के बगैर बस नहीं चलेगा और आवश्यक लगेगा, तब ही विवाह करेंगे...वरना अलग हो जायेंगे। अंतिम वाक्य वह गुम कर गया।
वह अभी और क्या परखना चाहता था? उसके मन में आया कि वह कहे, उसे तो आवश्यक लग रहा है। उसे क्यों नहीं? वह क्यों डिग रहा है? वह क्यों पीछे हट रहा है? । कहीं...? दीप ने बहुत ही अन्यमनस्क भाव से उसे देखा। परन्तु जब दृष्टि उसकी नज़रों से टकराई तो उसने अनुभव किया कि वह उसे पहचान रही है, या परख रही है।
दीप के दिल में आया कि अपनी बातें उड़ेल दें कि जब वह उससे मिला था तो सोचा भी नहीं था कि जो उसके बीच हुआ था उसकी परिणति इस तरह से हो जाएगी। वह उसे पाना चाहता था सम्पूर्ण रूप से। वह उसकी कब्जी हो गयी थी। वह समर्पित थी। उस समय उसे उसकी उच्च देह के परे कुछ भी दिखाई नहीं देता था।-'तुम्हें हास्टल में छोड़कर जब मैं अपने कमरे में लौटता था तो तुमसे छुटकारा पाने की सोचता था, जब तक कि पुनः तुम्हारा साथ पाने की याद पीड़ित करने न लग जाती...क्या यह पाप था या अब भी जो है...? उसका साथ उसमें विजेता का भाव भरता था... वह उसके आकर्षण में आबद्ध थी। निश्चय ही प्यार वह भी करता था परन्तु उसका प्यार सशंकित था। लेकिन वह कहता नहीं है। कुछ कहने का मतलब है उसके संदेहों को और पुख्ता करना और उसे पाप के घेरे में लाना, आना। जिससे भयभीत होकर वह कुछ कर सकती थी और अब भी कुछ भी...!'
... अपने प्यार, प्रेम, मुहब्बत के गहनतम और गंभीर होते समय में, उसने उसे एक स्थायी रूप देने की कोशिश की थी। उसने स्वभावगत हया और शर्म का त्याग करते हुए विवाह कर लेने का प्रस्ताव खुद रख दिया था। स्त्री जब किसी को स्वेच्छया से अपना शरीर दे चुकी होती है तो उस व्यक्ति के सिवा, उसे किसी बात की परवाह नहीं होती है। उसे उसके अलावा सब गौण नज़र आते है।
"मेरे विषय में कुछ जानती भी हो?" उसके मन में खटका था।
"हम तीन साल से एक दूसरे को जान ही तो रहे है। क्या यह नाकाफी है?"
"माफ कीजिये," उसने कहा। ' वह हम व्यक्तिगत स्वभावगत परिचय से रूबरू हो रहे थे। हमारा सामाजिक परिचय भी होना आवश्यक नहीं है क्या? " उसने दृष्टिकोण स्पष्ट किया। वह बिलकुल उसके सामने कौतुक भरी निगाहों से उसे देखने लगी।
"जी!" अब क्या? उसकी जिज्ञासा चरम पर आ गयी थी।
"मैं... दीपक पराशर...पराशर...मतलब... एस-सी यानी कि दलित। और तुम पूर्वी दुबे...मतलब ब्राह्मण। निम्न और उच्च का संयोग। चल सकेगा? ..."
"क्या फर्क पड़ता है?" उसने बिना किसी हिचक के जवाब दिया।
"यह विचित्र है!"
"क्यों?"
"मुझे लगता अगर तुम्हें पहले से आभास होता, तब हमारे बीच इस तरह का प्यार नहीं पनपता। तुम मेरी तुलना एक ऐसे आदमी से करती जो मैं नहीं होता और जो मैं हूँ वह तुमसे बचने की कोशिश करता।"
"आप को तो पता था? फिर...?" उसकी आँखें उस पर जमी हुई थीं।
"मेरी बात अलग है।"
"चलिए मैं मान लेती हूँ, अब भी मैं आपके बारे में कुछ नहीं जानती-इसलिए शुरू और आखिर का कोई फर्क नहीं पड़ता।"
"आप शादी करना नहीं चाहते?" उसके प्रश्नों से तंग आकर उसने कहा,
"मैंने ऐसा कब कहा? ...ऐसा करते है, कुछ दिन बिना विवाह के साथ रहते हैं...यदि बिना वाद-विवाद और कटुता के एक दूसरे के सामंजस्य बैठ गया और बिना एक दूसरे के हम रह नहीं पायेंगे, अधूरे है, एक दूसरे के लिए आवश्यक है तो हम शादी कर लेंगे...अगर नहीं निभी तो पश्चाताप करने से बेहतर है... हम अलग हो जाये...विवाह के बाद यह दुरूह कठिन और अपमानजनक होगा।"
उसे उस पर गुस्सा, नाराजगी, शोक एक साथ उमड़ आया था। फिर भी उसने कहा, "ठीक है, ऐसा ही सही!" जैसे कोई आसन्न विपदा (अस्वीकार) सामने आते अचानक आँखों से ओझल हो गयी हो। उसकी पूर्ण स्वीकरोक्ति न मिली थी परन्तु एक तसल्ली जरूर मिली थी कि शायद इसी में उसके साथ विवाह का भविष्य छिपा हो।
दीप को डर के साथ एक राहत मिली थी, जैसे कि विवाह की बला टलते ही किसी अप्रत्याशित खतरे से छुटकारा मिल गया हो। 'मुश्किल है तुम्हारी ब्राह्मण वादी सोच पूर्णतया मुझ में एकात्म होकर मेरे में तिरोहित हो पायेगी... तुम्हारी जातिगत श्रेष्ठता का दंभ कचोटने न लगेगी...' उसने विजय दर्प से मुस्कराते हुए सोचा।
वह जरूरत से ज्यादा जल्दी कर बैठी? वह अकसर यही सोचती। उसका मन पढ़ने में नाकामयाब रही?
उसका भरोसा रखने को ही वह साथ रहने को राजी हुई थी।
... अकेली। वह अकेली ही चली आई थी। वह कुछ देर जड़ बना बैठा रहा था। फिर हड़बड़ा-हट में वह ठीक से उसका स्वागत भी नहीं कर पाया था। वह सोचती थी कि साथ रहने से वह मजबूर हो जायेगा विवाह के लिए. यह उसका निर्णय था ठंडा, कठोर, अविचलित जिसे बदला नहीं जा सकता था।
परंतु वह आश्वस्त नहीं था कि उसकी उच्चता उसके नीचे आयेगी।
"यह कैसे चलेगा?" वह सशंकित थी।
"इसकी चिंता मत करो। हम संयम रखेंगे।"
वह उसका हाथ पकड़ता है जो हल्का-सा ठंडा है। उसे लगा उसे सर्दी है परन्तु ऐसा नहीं था। वह नरम था एकदम निर्जीव सा। किन्तु वह जिद में थी। एक पथरीली जिद।
"सब ठीक होगा।" उसने अपने दोनों हाथों से उसके चेहरे को सहलाया। वे रात भर बाते करते रहे थे। उसी समय अलिखित, अविश्वसनीय और अकल्पनीय समझौते हुए.
उसके प्रश्न उसे विचलित कर देते थे। उसे कोई उत्तर नहीं सूझता था। वह उसे विश्वास करने को कहता था। उसका रवैया उसे हैरान करता। कई बार वह उत्तर देने के बजाय हंसकर टाल जाता।
"क्या तुम हमेशा अध्यापिकी करना ही पसंद करोगी?" यह बात उसने जब पूछी थी जब वह भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी कर रहा था।
' यही क्या कम है? । फिर मेरे पास तुम्हारी जैसी सुविधा नहीं है" वह मुस्करायी थी।
"क्या मतलब?" वह चिढ़ गया।
वह बहुत कुछ कहना चाहती थी परन्तु चुप रही। उसमें बहुत कुछ भरा था।
पता नहीं क्यों उसे कुछ ऐसा लगता था कि कुछ होने वाला है, जैसे दूर से कोई सन्देश उसे आगाह करता हुआ कि कुछ अघटित होने वाला है, जिसके लिए उसे तैयार रहना है। स्पष्ट कुछ भी नहीं था परन्तु ऐसा लगता कि यह परिस्थिति ज्यादा दिन नहीं रहने वाली है। उसकी स्वप्निल निगाहों में यह दृश्य अकसर आता रहता कि वह तेज कदमों से आगे जा रहा होता है। वह पीछा करती है किन्तु उसकी दूरी बढती जाती है। कुछ देर बाद, कुछ दूर जाने के बाद वह एक मोड़ पर, वह सिर्फ मुड़ते हुए दिखाई देता, उसके बाद अदृश्य हो जाता।
पूर्वी को मालूम नहीं था कि उसकी चाहत के रास्ते की परिणति इतने दूरुह और कष्टप्रद होगी। वह जैसे उसके डर को भांप लेता और आश्वस्त करता था, अनवरत प्रेम, प्यार और वासना के प्रसंगों से। उसके लिए इससे बड़ी शर्म की बात कोई नहीं हो सकती, जिस विवाह के लिए वह साथ रहने को राजी हुई थी और उसकी प्रतीक्षा वह विगत तीन साल से कर रही थी, वह संदेह के घेरे में आता जा रहा है... नहीं... ... यह नहीं, उसे ये सब बेकार की बातें नहीं सोचनी चाहिए. बहुत जल्दी हम सामाजिक रूप से भी वैवाहिक होगे।
कुछेक लोगों को छोड़कर अधिकांश को यही पता है कि वे पति-पत्नी हैं। वे उस जगह रहते थे जहाँ उनके जान पहचान के लोगों की संख्या अत्यधिक सीमित थी।
दीप को रह-रह कर पिता की यह बात कोचती, धिक्कारती रहती थी कि 'उसे अपने जाति समाज की लड़की का उद्धार करना चाहिए, हमारे समाज के लड़के जो ऊँची स्थिति में आ जाते है, उन्हें उच्च समाज वाले हथिया लेते है। हमारे समाज की लड़की का क्या होगा, जब...?' वह चकरघिन्नी की तरह घूम जाता। वह उन्हें कैसे बताये कि वह उच्च में उलझ गया है। उसके स्वभाव में तेजी, उपेक्षा, उद्दंडता के तीव्र उतार चढ़ाव और हृदय में छाये हुए उदासी के घने बादल को स्पष्ट देखा जा सकता था। किन्तु उसमें कोई स्पष्ट अवधारणा नहीं थी। अगर थी भी तो अनियमित-सी और समय विशेष के परिस्थिति के अनुरूप थी।
पूर्वी के लिए यह अप्रत्याशित था-दीपक का विमुख होना। एक बड़ी विपत्ति बनकर आई थी। वह विपत्ति स्थायी थी। जिसने उसके जीवन की दिशा और दशा बदल कर रख दी थी। वह हतप्रभ किंकर्तव्यविमूढ़ थी। चौकाने से भी परे यदि कुछ था तो यही था। सब कुछ हिल गया। उसकी कल्पना से परे की बात थी। वह जार-बेजार रो रही थी। उसने उसे अंतरात्मा से चाहा था।
दीपक उसे छोड़कर जा चुका था। उसने अपनी जाति के मंत्री की लड़की से विवाह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। उसने उसे खबर नहीं लगने दी थी। यह विश्वासघात था, किन्तु उसके लिए अनुकूल था। यहाँ तक कि वह उससे पैदा हुए आतंक तथा गांभीर्य के वातावरण से पूर्णतया आवेष्टित हो सकता था किन्तु उसे ऐसा प्रतीत होता कि मानो उसने अपने समाज के प्रत्येक प्रताड़ित, अपमानित, पीड़ित और व्यथित समाज को राहत देने का कार्य किया है। इसलिए पूर्वी की व्यथा, कथा अथवा चीख से कोई मतलब न हो। पूर्वी के विशेष गुण समर्पित व्यक्तित्व, प्यार की उच्चता तथा उसके कृत्य से उत्पन्न विविध अव्यवस्था का आकलन उसके लिए अत्यंत कठिन एवं दुरूह था।
फिर वह चुप हो गयी। भीतर बाहर सब स्थिर हो गया। दरों-दीवार और वातावरण में छाई काली छाया ने उसे पूर्णतया गिरफ्त में ले लिया। पहली बार उसके उदासीन। निराश और निस्पंद चेहरे पर क्लेश की कालिमा उतर आई थी। शायद वही क्षण था जब उसने सोचा था कि उसे भी चले जाना चाहिए था। क्योंकि उसके परे उनके प्रेम का भविष्य नहीं था और शायद जीवन भी। परन्तु पलायन की जबरदस्त आकांक्षा ने उसके भीतर पनप रहे भ्रूण ने रोक लिया।
उसने पागलों की तरह उसे पीटना शुरू कर दिया। उसे अपनी ही चीख सुनाई दी, तेज चमकीली और रहस्यमय जो उसके देह में आकर बैठ गयी। फिर कुछ नहीं दिखाई दिया, सिवा उस चीख के जो अंतर्मन के अँधेरे में कौंध रही थी।
वह बेहोश हो गयी। एक अंतहीन बेहोशी के चंगुल में। वह आँख मूंदे बैठी रहती। बैठकर हवा में ताका करती। उसकी आकृति पर कठोर चिह्न अंकित हो गए थे।
-उसकी आँखों पर माँ का दुःख उतर आता। माँ कितनी आतुर है, कितनी बेबस, बेकस और कितनी भयभीत-सी फिर भी कितनी जागृत और तनी हुई! उनकी डरी हुई धडकनों की एक धुंध आती है और उसमें धुकधुकी मचाती है। माँ का मन उमड़ने लगता है कि उसे रोक ले बाँध ले किसी जादूगर की तरह, उसे अपने कब्जे में कर ले और उससे दूर कर दे। नहीं मानती है... वह फिर भी कड़ी हिदायतें देती है। -उसकी भटकी आँखों में बाबू का गर्जन, गुस्सा और तड़पन बेतरह छीलने लगते। -श्रद्धा का अभाव पाप का दुखद परिणाम होता है...माँ के आवेशपूर्ण कथन में नैतिक जीवन की किरणें मिली थीं। परन्तु उसमें जाने कहाँ से अपूर्व क्षमता विकसित हो गयी थी कि वह अपने दायित्व की अवहेलना कर सकी।
विश्वास नहीं होता कि यह उसके साथ भी हो सकता है? उसके बाद जो दिन आये वे एक झिलमिल सत्य थे। उसके विवाह की मनौती टूट गयी। भारतीय प्रशासनिक सेवा में उसका चयन हो गया था। वह कोलकाता चला गया... वह वही कारमेल स्कूल में टीचर बनी रही। गनीमत यह रही उसे वहाँ से निकाला नहीं गया, हालाँकि उनका प्रकरण काफी चर्चित था। -वह अपनी बीवी के साथ लेटा होगा! उसे लगता है कि वह कब्र में साबुत चली जा रही है। जिन्दा लेटी है उसकी देह को कीड़े-मकोड़े खा रहे है। न चीखन, न चिलकन, न बदबू। उसे कोई कष्ट क्यों नहीं होता? कोई दर्द क्यों नहीं हो रहा है? ...कभी ऐसा लगता कि उसकी देह धूं...धूं... कर जल रही है। ताज्जुब है कि न धुवां उठ रहा है न चिरचिराहट की आवाज न जलन न दर्द। यह कैसा करिश्मा है?
यह सिर्फ संयोग ही रहा होगा कि वह वापस अपने में लौट आई थी। सब कुछ वैसा ही था सिर्फ वह नहीं था। क्या यह एक तरह की हार थी जब हम नियति के सामने घुटने टेकने को मजबूर हो जाते है? उसके अरमानों पर कुठाराघात हुआ था... उसके माँ बाप को कैसे आभास था... ऐसा ही कुछ होगा ...!
पूर्वी का दिमाग मथता हैं...'शुरू में हम कितना दौड़ना चाहते है हार-जीत का कोई सम्बन्ध, परिणाम जाने बगैर। हम अपने निर्णयों के साथ प्रसन्न थे। यह हमारी बनायीं दुनिया है और यही हमारी जीत है। इसमें किसी दूसरे का दखल बर्दाश्त नहीं है। किन्तु कभी एक ठोकर इतनी घातक, जटिल और दुसाध्य होती है कि वह लाइलाज बीमारी इस तरह चिपक जाती है कि अपनी बनायीं दुनिया भरभराकर गिर पड़ती है, ढह जाती है। जिसके नीचे दबे हम सिर्फ जिन्दा रहते है और एक अनजाने डर, भाव से जिन्दा रहते है कि शायद कोई हमें इस ढूह से निकालने वाला नहीं है और अब यही हमारी नियति है। समाज के संपर्क और व्यवहार में नहीं थी, जिससे वह अनुभव करती कि वह भी समाज का एक हिस्सा है।'
यह उसका जीवन था... एक रिहर्सल... एक प्रयोग जिसे उसने करना चाहा था। लेकिन यह रिहर्सल या प्रयोग नहीं रहा था। यह जिंदगी की एक स्थायी पड़ाव बन गया था। इस पड़ाव से वापस लौटना असम्भव था। वह असफल रही थी।
अकसर वह यहाँ आ जाती थी यहाँ के शांत, निःशब्द और पवित्र वातावरण में एक अजीब-सा सुकून महसूस होता था। उसे यहाँ माँ की कलंक तृप्त आवाज से पीछा छुटा लगता था। उसने कभी वहाँ के भगवान से कुछ माँगा नहीं। उसे शायद अब किसी चीज की जरूरत भी नहीं रही थी। वह अपना मन बदलने से ज्यादा अंशु को खेलाने यहाँ मंदिर में आ जाती थी। अपना प्रतिबिम्ब निहारते और परिहास पूर्ण मुस्कान बिखेरते अपनी स्थापना की धज्जियाँ उड़ते देखना भी कम प्रायश्चित नहीं था। क्योंकि उस जैसी व्यथित का इसी में सुखद भुलावा था। मंदिर के प्रांगण में टहलते हुए, बैठते, ऊँघते, बतियाते और खेलते हुए वह खो जाती थी, जैसे कोई पुरानी फिल्म आँखों के सामने चलती रहती, घूमती रहती। इस जगह उसका कोई अस्तित्व है।
कभी दुखदायी जीवन में दिल दिमाग को राहत देने वाले कुछ ऐसे वाकये घटित होते है कि वह किसी चमत्कार से कम नहीं होते है।
"दीदी...दीदी...!" का स्वर उसके कानों में जा रहा था। परन्तु वह बहता हुआ उसकी यादों की तन्द्रा में प्रवेश नहीं कर पा रहा था... "पूर्वी.।, ...दीदी...!" अबकी बार अभद्रता के हद तक चीखती हुई आवाज गूंजी.
" वह चौक गयी उसने नजरे उठाकर देखा तो रोते हुए अंशु को पकडे एक लड़की खड़ी थी। उसने लपककर अंशु को पकड़ा और अपने छोटे से रूमाल से उसका नाक, मुंह और माथा पोंछा और सीने से चिपका लिया। फिर उसका ध्यान लड़की पर गया और वह आश्चर्यचकित रह गयी। वह विदी, विदिता थी, उसके बचपन की पड़ोसिन लड़की।
"आपका बेबी है?" वह उसे पहचान चुकी थी।
"हाँ...हाँ...एस.। हाँ और क्या?" उसके स्वर में बेताबी झलक रही थी।
"मैं... तो देखते ही समझ गयी थी। ।अरे... आपके पास गिरा था और आपको होश नहीं था? कहाँ खोयीं थी दीदी?" उसे बड़ी शर्मन्दगी महसूस हुई परन्तु उसने कोई सफाई नहीं दी। फिर हलकी-सी कृतज्ञता की मुस्कराहट से पूछा।
"अरे।! तू यहाँ कैसे?" वह कुछ अनिश्चित भाव से उसे ढंग से देखते हुए कहती है।
"मेरी इसी शहर में नौकरी लग गयी है। समाज कल्याण विभाग में...फिर कुछ रूक कर कहा," यहाँ पास में मंदिर देखा तो भगवान का शुक्रिया अदा करने आ गयी।"
"अच्छा, वैरी गुड।" वह उठकर खड़ी हुई और उसे आलिंगन में जकड़ लिया। अंशु देखता रह गया। उसे देखकर उसके चेहरे पर एक गहरी उत्पत्ति जिज्ञासा झलक आई.
वे वर्षों बाद मिली थीं। वस्तुतः जब से वह दीपक के संपर्क में आई थी उसका घर जाना ही समाप्त था। वह एक बार अपने घर गयी भी थी तो दीपक के विषय में बताने। माँ कितनी आतुर थीं, कितनी जागृत और फिर कितनी डरी हुई कि वह बाबू जी के बताये किसी रिश्ते को हाँ कर दे। परन्तु उसने तो दीपक राग छेड़ दिया था। उनका मन उमड़ने लगा था कि उसे रोक ले बाँध ले किसी जादूगरनी की तरह उसे अपने कब्जे में कर ले और उससे दूर कर दें। परन्तु असफल रही थी फिर भी कड़ी हिदायत दी थी उससे दूर रहने की। किन्तु वह दूर क्या रहती, उसके साथ सह जीवन अपना लिया था।
वे पुरानी यादों में खो गयी थीं, अपने गृह नगर बरेली की गलियों-रास्तों, स्कूल-कॉलेज और घर-पड़ोस और नाते-रिश्तेदारों और जान-पहचान वालों की भूलभुलैया में। फिर उसने हलके से अपने माँ-बाप और घर के विषय में पूछकर तसल्ली करनी चाही कि सब कुछ ठीक है।
उसके शुरू के वाक्य इतने धूमिल थे कि उसे संशय हुआ कि वह क्या कह रही है? कहते हुए चेहरे पर विस्मय का भाव था, मानो उसे खुद मालूम न हो? उसके स्वर में कुछ ऐसा था जो उसे उपहास करता जान पड़ा। किन्तु वह वेदना उपजा रही थी...वह शायद जरूरत से ज्यादा जल्दी कर बैठी थी। उसकी डबडबाई आँखों पर माँ की एक परछाई उतर आई थी। उसने उसे जल्दी से पोंछ डाला।
वे कुछ देर चुपचाप बैठी रही। एक दूसरे की प्रतीक्षा करते रहे कि कोई कुछ बोले या पूछे। उफ़! दीदी कितने विपत्ति-ग्रस्त है, उसकी आँखें भर आयीं। विदिता उठ खड़ी हुई. वह बैठी रही। उठते हुए उसने उसके कंधे पर हाथ रखा जैसे वह उसे दिलासा दे रही हो। फिर यकायक वह पूछ बैठी, "दीदी कोई किराये का कमरा खाली हो तो बताना? मैं कई दिनों से होटल में रह रही हूँ। काफी खर्चा आ रहा है। लगता है कि हॉस्टल-नुमा दड़बे में जाना पड़ेगा।" दुःख की गहराई में डूबते हुए अत्यंत गंभीर वाणी में कहा।
वह कुछ सोच में पड़ गयी। पांच मिनट या सात मिनट ऐसे ही रहे, क्या यह ठीक रहेगा? वह जानती है कुछ चीजें ऐसी है जो देखने में नहीं आती परन्तु वह विद्यमान होती है। जैसे उसकी रची बसी अदृश्य गंध जो हर समय उसे प्रताड़ित पश्च-तापित करती रहती है। विदी साथ रहेगी तो...? उसकी कोई बात नहीं।
"तू ऐसा कर मेरे साथ रह ले...? जब मेरे से मन भर जाये या कोई और मिल जाये तो चली जाना।"
"क्या कह रही हो दीदी? वह संकोच में पड़ गयी...," आपके मिस्टर को एतराज नहीं होगा?
"नहीं। अब वे नहीं है।"
" क्या...? ...नहीं रहे...?
' ऐसा नहीं है परन्तु साथ नहीं रहते है।"
" डिवोर्स...?
"जब शादी नहीं की तो डिवोर्स कैसा?"
"क्या मतलब?" वह उत्सुक और चिंताग्रस्त थी..., "फिर अंशू?"
"यह हमारे सह जीवन का प्रतिफल है...!" वह हंसने लगी। एक मारक हंसी जो दूसरों से ज्यादा खुद को घायल करती थी। "हम विवाह करने का निर्णय नहीं कर पाए थे।" उसने एक लम्बी साँस ली। उसकी निराशा की अभिव्यक्ति में भी एक ओजस्विता थी। उनमें लज्जित नारी का कोई भाव नहीं था। कितनी विचित्र बात है कि प्रेम और घृणा में ज्यादा अंतर नहीं है। दोनों भावों में मनुष्य की स्थितियाँ असामान्य रहती है।अत्याधिक प्यार और अत्यधिक घृणा में लक्षित बिंदु यदि न रहे तो व्यक्ति निराश और वंचित प्राणी बनकर रह जाता है। जीवन में अब कोई स्वार्थ नहीं था, न ही किसी लाभ और सुख भोग के लालसा थी।
अंशू उनकी गोद में लुढ़क कर सो गया था। वह सोचती है कि वह परित्यक्त तथा बच्चे पर पितातुल्य प्यार दर्शाए परन्तु उसे यह अनुपयुक्त लगा। उसके भीतर एक रूआंसी जिज्ञासा उठी थी...कब क्यों...कैसे...? कुछ देर तक वह इंतजार करती रही। उसने सोचा दीदी उसके प्रश्नों से आहत हैं। सब कुछ शांत और स्थिर था। कुछ हिलता नज़र नहीं आ रहा था सिवा दिल के जो शरीर से बाहर पड़ा कराह रहा था।
विदिता चलने के लिए उठ खड़ी हुई. लेकिन दोनों में से किसी ने एक भी शब्द नहीं कहा किन्तु अव्यक्त भाव से परस्पर सहमति प्रगट की। उसने अपना मृतक-सा ठंडा हाथ उसे विदा के रूप में दिया। इस विदाई मिलन की औपचारिकता में उसे महसूस हुआ कि एक ठंडी-सी लहर गुजरी जो उसे भी बर्फ कर गयी। उसे भी यह अनुभव हुआ था वे दोनों एक ही क्षेत्र के वासी है। वह तेजी से कदम बढ़ाती हुई लॉन की दूसरी तरफ जहाँ गेट था चली गयी। उसने उसके साथ रहने का फैसला कर लिया था।
वह वही मूर्तिवत खड़ी रही।