प्रवासी कवयित्रियों की मनोभूमि / अनीता कपूर
परिवेश कोई भी हो....देसी या परदेशी, संवेदनशील मन की छटपटाहट, जिंदगी का कभी मुसकुराना और कभी रूठना, जीवन की लकीरें - कभी पूर्णविराम और कभी अर्धविराम, कभी प्रश्नवाचक, सभी को कलम की नोक से भावनाओं की स्याही में डुबोकर कवितायें लिखी जाती रही हैं। अच्छी कविता वही है, जो पाठक से सीधा संवाद करे। रचनाकार की पूरी मासूमियत को प्रमाता तक सम्प्रेषित कर दे। ऐसी ही रचनाओं के द्वारा अमरीका में बसी कवयित्रियों की कवितायें साहित्य की यात्रा करने-कराने का एक अनायास माध्यम बनती रही है।
देश से विदेश तक कविता का हमेशा एक अपना ही क्षितिज रहा है। ऐसा ही एक क्षितिज बनाया, १९४२ लाहौर अविभाजित भारत में जन्मी, 1982 से अमरीका, ओहायो, में रह रही, हिन्दी परिषद टोरंटो कनाडा महादेवी पुरस्कार सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से सम्मानित, सुदर्शन प्रियदर्शिनी की कविताओं ने। उसी क्षितिज पर, उनकी एक प्रतिनिधि कविता ‘चांद’ ने कथ्य और शिल्प के सहारे संवेदना और अपने परिवेश से दूर किसी बिछुड़े को याद करते नारी मन को बखूबी दर्शाया है-
खिडकी के रास्ते/उस दिन/चाँद मेरी देहली पर/मीलों की दूरी नापता
तुम्हें छू कर आया/बैठा/मेरी मुंडेर पर/मैंने हथेली में भीच कर/माथे से लगा लिया।
कविता की आत्मा की पहचान, उसकी अभिव्यक्ति से होती है। कवयित्री की एक और कविता ‘कण’, इसी बात को सार्थक करती दिखती है-
एक कण/आकाश से/आर्द्र नमी का/गिरा /अटका रह या/निस्तब्थ/पलक पर -/सामने चार कहार/चार हताहतों/की लाश /ढो रहे थे ...
अमरीका की नार्थ कैरोलाईना में रहने वाली जानी मानी प्रतिष्ठित कवयित्री, सुधा ओम ढींगरा जी, अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति (अमेरिका) के कवि सम्मेलनों की राष्ट्रीय संयोजक हैं। जालंधर, पंजाब, भारत से अमरीका में अरसे से बसी, सुधा जी ने रचनात्मक सृष्टि का भव्य निर्माण किया है। अमेरिका में हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं सामाजिक कार्यों के लिए वाशिंगटन डी.सी में तत्कालीन राजदूत श्री नरेश चंदर द्वारा सम्मानित, सुधा ओम धींगरा जी की हर कविता एक तजुर्बा है, एक ख़्वाब है, एक भाव है। जब दिल के भीतर मनोभावों का तहलका मचता है, तब श्रेट्ठ रचना जन्म लेती है। अपनी देश-परदेश की भूली-बिसरी यादों को जीवंत करती, जानी मानी प्रवासी रचनाकार सुधा ओम ढींगरा जी की कविता, देस की छाँव’, एक परिपक्व मन की संवेदना भरी अभिव्यक्ति का नमूना है...जो कवयित्री को कला की कसौटी पर खरा उतारता है-
साजन मोरे नैना भर-भर हैं आवें/देस की याद में छलक-छलक हैं जावें
याद आवे/वो मन्दिर/वो गुरुद्वारा/वो धर्मशाला/वो पुराना पीपल का पेड़
सुधा जी विदेश में रहते हुए भी अपनी मिट्टी से जुड़ी हुई संवेशनशील रचनाकार है, जो परिवार, सम्बन्धों और परिवेश को विषय-वस्तु बनाकर अपनी रचनाओं द्वारा पाठक को अनुभव सागर से जोड़ लेती हैं। सुधा जी एक कविता ,यह वादा करो में ऐसे ही भाव दिखते है-
यह वादा करो/ कभी ना उदास होंगे/ सृष्टि के कष्ट चाहे सब साथ होंगे
प्रसन्नता के क्षणों को/एकांत से ना सजाना/ हम ना सही, कुछ लोग खास होंगे
मनोबल में सकारात्मक संचार कराती सुधा जी की कवितायें, ‘मैं दीप बाँटती हूँ’, में, कवि मन के भाव कहते हैं-
मैं दीप बाँटती हूँ / इनमें तेल है मुहब्बत का/ बाती है प्यार की/और यह वादा करो/यह वादा करो/कभी ना उदास होंगे/सृष्टि के कष्ट चाहे सब साथ होंगे।
सुधा जी की कवितायें, नारी के विशाल हृदय और दायित्व को भी दर्शाती है।
कराची, पाकिस्तान में जन्मी कवयित्री देवी नागरानी जी मूलत: सिंधी भाषी है। देवी जी, काफी अरसे से अमरीका के न्यू जर्सी शहर में रह रही है। ‘काव्य-रत्न’ ,एवं काव्य-मणि से पुरस्कृत, देवी जी हिन्दी के साथ-साथ सिंधी साहित्य में भी लेखन कर रही हैं। देवी जी को हिन्दी में गज़ल लिखने की भी महारत हासिल है। किसी भी बात को अपनी निजी शैली में, नए अंदाज से कहने का उनका अपना ही सलीका है। देवी जी की कविता “चक्रव्यूह” में नारी शक्ति और सोच के निराले तेवर दिखाई देते हैं-
लड़ाई लड़ रही हूँ/मैं भी अपनी/शस्त्र उठाये बिन/खुद को मारकर
जीवन चिता पर लेटे लेटे/ चक्रव्यूह को छेदकर/पार जा सकती हूँ
जीवन और रिश्तों को बहुत करीब से देख चुकी देवी की के अनुभव उनकी रचनाओं में साफ उजागर होते है। उनकी एक और कविता, ’जिंदगी एक रिश्ता, एक फासला’ में जिंदगी की आहट साफ सुनाई देती है-
कागज़ के कोरे पन्ने/जिंदगी तो नहीं/न ही काले रंग की पूतन/का नाम है जिंदगी/जिंदगी है एक रिश्ता/रात का दिन से
कहते है की अगर किसी रचनाकार को जानना हो, तो उसकी लिखी कवितायें पढ़ लें। एक ऐसी ही कवयित्री है मेरीलेंड, अमरीका की जानी-मानी रेखा मैत्र जी। जो देस-परदेस के जीवन के बीच में एक संधि पूर्ण पहलू से हमारा परिचय कराती है। रेखा जी की कविता ‘अपरिचित अनुभूति’, की पंक्तियाँ-
आज अपरिचित शहर में/अपरिचित-सी अनुभूति भी हुई थी।
इसी भाव को सहजता से दर्शाती हैं। उनकी कवितायें मानव संपर्क में भी, रूमानियत तलाशती दिखती हैं। वे ‘बेनाम रिश्ते’ में लिखती है-
मिटने के डर से/उंगलियाँ कहाँ थमती है/उन्हें रौशनाई मयस्सर न हो/तो भी वे लिखती हैं/लिखना उनकी फितरत है
राँची, झारखण्ड में जन्मी, ह्यूस्टन, अमरीका में अध्यापनरत, इला प्रसाद जी मानती है की, जब कल्पना यथार्थ में परिवर्तित होती है तब कहीं अपने वजूद से परिचित होने की अनुभूति का आभास होता है। अपनी कविता ‘दरार’ में कवयित्री कहती है-
सच की ज़मीन पर खड़ी/ विश्वास की इमारत तो/ कब की ढह गई
अब तो नज़र आने लगी है/ बीच में उग आई / औपचारिकता की दरार
इला जी की कविता के शब्दों की गहराई में एक सच अपने प्रवासी दर्द की पीढ़ा अभिव्यक्त करता है, जब वे “दूरियाँ” में लिखती है-
सब कुछ बड़ा है यहाँ/आकार में/इस देश की तरह/असुरक्षा, अकेलापन और डर भी/तब भी लौटना नहीं होता/अपने देश में।
दिल्ली से कैलिफोर्निया में गत पंद्रह वर्षों से रह रही डॉ अनिता कपूर एक कवयित्री होने के साथ एक पत्रकार भी है और अनेकों पुरस्कार और सम्मान प्राप्त कर चुकी है। वे कहती है की कविता मेरे अंदर खुलने वाली खिड़की रही....जिसके आर-पार झाँककर मैंने भीतर-बाहर की दुनिया को देखा, परखा, समझा और कागज़ों पर शब्दों के द्वारा खुद को जोड़ा। मैंने कविता कभी बनाई नहीं, वो तो बनती ही चली गई अनायास...कभी पिरामिड -सी तो कभी ताजमहल- सी। मेरी हर कविता का अपना एक आकाश होता है और शब्द उस आकाश के सितारे, संवेदना चाँद और पाठक सूरज। उनकी कविता ‘सीधी बात’ में वे कविता से सीधी बात करती हैं-
आज मन में आया है/न बनाऊँ तुम्हें माध्यम/करूँ मैं सीधी बात तुमसे
उस साहचर्य की करूँ बात /रहा है मेरा तुम्हारा/ सृष्टि के प्रस्फुटन के प्रथम क्षण से
अनिता जी चिंतनशील कवयित्री है। उनकी कविता, साँसो के हस्ताक्षर’में उनका चिंतन पारदर्शी है-
कल को कहीं हमारी आगामी पीढ़ी/भुला न दे हमारी चिन्मयता
चेतना लिपियाँ/प्रतिलिपियाँ/भौतिक आकार मूर्तियां मिट जाने पर भी/जीवित रहे हमारे हस्ताक्षर
अनिता कपूर को कविताओं के साथ-साथ क्षणिकाएँ और हाइकु लिखने में भी काफी रूचि है।
भारत के लखनऊ नगर से कैलिफोर्निया में बसी, एक और कवयित्री मंजु मिश्रा जी भी कविताओं के साथ -साथ हाइकु और क्षणिकाएँ लिखना पसंद करती हैं। मंजु जी की कवितायें और क्षणिकाएँ जैसे शब्दों से परे खुद से ही बात करती सी प्रतीत होती हैं। उनकी एक क्षणिका में वे लिखती है-
आँखों की कोर दलदली लब कांपते हुए/अंतर के जख्म अपना बदन ढांपते हुए
बजती रही सितार सी ता-उम्र ज़िंदगी/सपनों के सुर लगे भी तो कांपते हुए
विदेश में रहते हुई भी उनकी नज़र अपने देश की गतिविधियों पर रहती है। वो उनकी कविता ‘भ्रष्टाचार का ख़ात्मा’ में दिखाई भी देता है जब वे लिखती हैं-
आज हर तरफ/भ्रष्टाचार को/जड़ से उखाड़ फेंकने की/मुहिम शुरू हुई है/अच्छा है/बहुत अच्छा है!!!
मंजु जी की कवितायें काव्य-शिल्प, और काव्य-भाव की समस्त भूमिका ईमानदारी से निभाती हैं।
लखनऊ, उत्तर प्रदेश, भारत में जन्मी, अमरीका के डैलस शहर की जानी मानी रेडियो कवयित्री, रचना श्रीवात्सव जी, अपनी लेखनी की रौ से शब्द-शिल्प सौंदर्य और अपनी रचनात्मक लय-ताल से पाठक को बांधे रखती है। उनकी कविता ‘अभिलाषा’ उसी सौंदर्य का उधाहरण प्रस्तुत करती है-
अभिलाषा है/तेरे खुश्क होते शब्दों पे/बादल रख दूँ/तुम थोड़ा भीग जाओ
विदेश में रहने के बावजूद अपनी संस्कृति से जुड़ाव की मिसाल पेश करती, रचना जी की कविता, ’बेटियाँ’ दिल को छू लेती है-
तुलसी के बीरे-सी पवित्र/संस्कार में पिरोई बेटियाँ/पतझर या सावन की हवाओं में/चिड़िया-सी उड़ जाती हैं
कवयित्री की कवितायें, दिल से निकल कर, सीधे दिल में पहुँचती हैं। रचना जी को भी हाइकु, क्षणिकाएँ लिखने में महारत हासिल है।
डा॰ किशोर काबरा ने एक जगह लिखा है- “सच्ची कविता की पहली शर्त यह है कि हमें उसका कोई भार नहीं लगता. जिस प्रकार पक्षी अपने परों से स्वच्छंद आकाश में विचरण करता है, उसी प्रकार कवि “स्वान्तः सुखाय” और “लोक हिताय” के दो पंखों पर अपना काव्य यात्रा का गणित बिठाता है”।
कुछ ऐसे ही जिंदगी के रंग, स्वाद, पुलक, सिहरन, बुद्धिजीवी स्त्री का विविध रंगों भरा संसार, देश प्रेम, देश से दूर रहने की पीढ़ा, और नारी सुलभ भावनाओं का गणित, प्रवासी कवयित्रियाँ, अपनी-अपनी मनोभूमि पर करती-बिठाती रही हैं, और प्रवासी रचनाकारों की कवितायें इस बात पर हमेशा खरी ही उतरी है। एवं उनका साहित्य में योगदान सराहनीय है।