प्रवासी पक्षियों की आरामगाह चिल्का लेक / संतोष श्रीवास्तव
सफेद बालुई खूबसूरत सागर तटों वाले उड़ीसा राज्य की राजधानी भुवनेश्वर में मैं भोर के धुँधलके में पहुँची थी। पूरब दिशा कुछ-कुछ नारंगी ठहरे हुए सिलेटी बादलों से झांक रही थी। मुंबई से नेचर क्लब की 12वीं कक्षा की 30 छात्राओं का दल साथ में 4 सहायक और टूर मैनेजर संजीव सहित मैं कोणार्क एक्सप्रेस से जब रवाना हो रही थी तो वह दीपावली की छुट्टियों की शुरुआत थी। दीपावली उड़ीसा में ही मनानी थी।
भुवनेश्वर के 3 सितारा होटल केशरी में हमारे ठहरने का इंतजाम था। होटल बेहद खूबसूरत साज-सज्जा वाला आधुनिकतम तो था ही आसपास के दृश्य भी बहुत मनमोहक थे।
अपने अपने कमरों में व्यवस्थित होने के बाद मैं ध्यान से आज की आईटी नरी पढ़ने लगी जिसमें लंच के बाद हमें उड़ीसा स्टेट म्यूजियम और कटक जाना था जो चांदी का सबसे बड़ा केंद्र है।
लड़कियाँ बहुत उत्साह में थी वे। लंच के बाद तैयार होकर वे टूरिस्ट बस में जा बैठी और चहकने लगीं। मैं जीप में हेल्पर्स के साथ बैठी। जीप में घूमने का मजा ही कुछ और है। लगता है जैसे उबड़-खाबड़, ऊंची-नीची राहों पर उड़े चले जा रहे हों। जीप से पूरे शहर का नजारा साफ दिखाई देता है।
थोड़ी देर में हम म्यूजियम पहुँच गए। म्यूजियम में 1892 के ऐतिहासिक शिलालेख हैं। एक कक्ष में खंडित मूर्तियाँ थीं जिन्हें 13वीं शताब्दी में विदेशी लुटेरों ने तोड़ा था। तभी के शिलालेख भी थे जो खुदाई से प्राप्त हुए थे। सभी शिलालेख उड़ीसा की प्राचीन लिपि में थे जिसका नाम मुझे कहीं से पता नहीं चल पाया। प्रागैतिहासिक वस्तुएँ लाख, हाथी दाँत सरई आदि की मूर्तियाँ, राजाओं के कपड़े तथा उड़ीसा के आदिवासियों की जीवन चर्या तथा रहन-सहन बिल्कुल सजीव दिखते मॉडलों झांकियों में संग्रहीत हैं।
कटक जाते हुए संजीव ने बताया कि पहले उड़ीसा की राजधानी कटक ही थी बाद में उसे भुवनेश्वर में स्थानांतरित किया गया। भुवनेश्वर दो नदियों महानदी और काठजोड़ी के बीच में बसा है। इस वक्त हम महानदी के पुल पर से गुजर रहे थे। महानदी मध्य प्रदेश से बहती हुई यहाँ आती है। जिसकी रेत में सोना पाया जाता है और जा रहे हैं हम चांदी के नगर! पुल पार होते ही रास्ते के दोनों ओर तालाब थे जिनमें कमल कुम्हला रहे थे और कुमुदिनी खिल रही थी। कमल सूरज के बिना कुम्हलाते हैं और कुमुदिनी चाँद के निकलते ही खिलने लगती है। मिलन और जुदाई की इस बेला को सन्ध्या के सिंदूरी रंग ने रूमानी बना दिया था। हरे धान के खेत भी इस उत्सव में सुनहरे हो रहे थे। मैंने बैंगनी कमल पहली बार देखे थे। प्रकृति अपने आप में बेहद रंगीन है।
दो प्रहरों का यह मिलन चारों ओर शांति फैला रहा था। कटक हरियाली से युक्त एक छोटा-सा शहर है। जब हम सिल्वर मार्केट आए तब तक शाम पूरी तरह अपने सुहाने रूप में छिटकी पड़ रही थी। कतार से लगी चांदी की दुकानें रजत लोक में प्रवेश हो जाने का एहसास करा रही थीं। एक से बढ़कर एक चाँदी के महीन जालीदार बर्तन, खिलौने, इतनी महीन नक्काशी को बनाने वाले कलाकार सच में प्रशंसा के पात्र हैं। आभूषणों की इतनी किस्में कि दिमाग चकरा गया। फिर भी मैंने एक सेट खरीदा जिसमें खूबसूरत नेकलेस, अंगूठी और कर्णफूल थे। सभी ने कुछ न कुछ खरीदा। बाज़ार में काफी समय लग गया।
भुनेश्वर लौटने की हड़बड़ी में हमारे जीप के ड्राइवर ने कार को ओवरटेक किया जो यहाँ कानूनी अपराध है। पुलिस ने हमारा पीछा करते हुए ड्राइवर को धर दबोचा। काफी बहस के बाद 100 रुपए जुर्माना वसूल कर और मेरे प्रेस कार्ड को देखकर हमें छोड़ा वरना तो जुर्माने में काफी रुपए भरने पडते।
काफी रात हो गई लौटते हुए इसलिए सबसे पहले डिनर ही लिया। खुली छत पर डिनर का इंतजाम किया था जिसमें धनतेरस के उपलक्ष्य में मेवों की खीर भी थी। डिनर के बाद संजीव ने लड़कियों के साथ पटाखे और अनार दाने फोड़े।
आज नंदनकानन यानी कि वन विहार का भरपूर मौका ...बस में हमारे लोकल गाइड उड़िया भाषी महापात्र जी थे। मोटे, नाटे हंसमुख महापात्र जी एक माइक लिए अपनी सीट पर विराजमान थे। थोड़ी देर बाद उन्होंने जानकारी देना आरंभ किया।
" उड़ीसा 30 जिलों में विभक्त है। यहाँ 70% बंगाली, असमिया और उड़िया भाषा के लोग हैं और 30% हिन्दी और तेलुगु बोलने वाले। बंगाल की खाड़ी के किनारे बसा उड़ीसा केरल जैसा ही हरा-भरा और सुंदर है। यहाँ मुख्य रूप से चावल, काजू और नारियल की खेती होती है। आप कलिंग जाएँ तो काजू अवश्य खरीदें। नारियल पानी के स्वाद के तो क्या कहने। भुवनेश्वर में 500 मंदिर हैं। इसी से उड़ीसा की धार्मिक संस्कृति का अंदाज लगाया जा सकता है। यहाँ वर्ष भर में 13 उत्सव होते हैं। मुख्य उत्सव है दुर्गापूजा और जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा। जिसमें पूरे विश्व के कृष्ण भक्त विदेशी शामिल होते हैं। उत्सवों की पूजा में पान चढ़ाने का विशेष महत्त्व है। इसलिए यहाँ पान की खेती भी होती है।
हम जिस रास्ते पर थे वह रास्ता दोनों ओर वृक्षों से घिरा बड़ा ही सुहावना था। इंदिरा गांधी पार्क, उड़ीसा सचिवालय, विधानसभा, रविंद्र मंडप, राज्य अतिथि भवन, आयुर्विज्ञान अनुसंधान केंद्र आदि महत्त्वपूर्ण इमारतों के नजदीक से गुजरते हुए हम गुलमोहर, अमलतास, यूकेलिप्टस और बोगनविला के बीच की बलखाती सड़क पर जैसे ही आए धूप गायब हो गई और बादलों के बीच सूरज आँख मिचौली खेलने लगा। ठंडी हवा ने तन बदन सिहरा दिया। मेरी निगाहें घास के हरे-भरे मैदानों पर बनी झोपड़ियों पर टिक गई जो इतनी दूरी पर थीं कि यहाँ से खिलौने-सी लग रही थीं। कहीं एक मंजिले फ्लैट जिन्हें आधुनिकता छू रही थी। अमीरी गरीबी का यह रूप लगभग हर शहर में देखने मिलता है। मुझे उड़िया स्वभाव से सीधे और धार्मिक प्रवृत्ति के लगे। भले ही वह अमीर हों पर चेहरे से गरीब लगते हैं। दूर झिलमिलाता पानी और बेंत की झाड़ियाँ जैसे सूचना दे रही थीं कि हम भुवनेश्वर से 19 किलोमीटर दूर नंदनकानन पहुँच गए हैं जो 1960 में बना है। नंदनकानन दो भागों में बंटा प्राणी उद्यान है। झील के इस पार जूलॉजिकल पार्क और उस पार बॉटनिकल पार्क। पार्किंग प्लेस से हम प्रवेश द्वार तक आए। पास ही पत्थर पर एक बड़ा-सा नक्शा उद्यान की जगहों की जानकारी इंगित कर रहा था। पूरा उद्यान 12 सेक्टर भूमि पर बसा है। उद्यान में 67 प्रकार के स्तनपायी, 18 प्रकार के सरीसृप और 81 प्रकार के पक्षी पाए जाते हैं। कांजीआ झील 50 हेक्टर इलाके में फैली है।
सबसे पहले हम एक्वेरियम देखने गए। रंग बिरंगी विशाल सागर में विचरण करने वाली मछलियों को छोटे-छोटे कांच के घरों में रखा गया था। नंदी, गोल्डफिश, नन्ही-नन्ही गुलाब की कली जैसी सुर्ख लाल, पीली, नीली, काली, तितली के पर जैसी धब्बेदार। पूरा सागर ही एक्वेरियम में सिमट आया था। सागर दर्शन के बाद अजायबघर ...वैसे तो अजायबघर हर जगह एक जैसे होते हैं लेकिन यहाँ रात्रि में विचरण करने वाले जानवरों को एक गुफा में रखा गया है। जहाँ वे कृत्रिम अंधेरे को रात समझ घूमते रहते हैं। टाइगर सफारी के लिए हमें बस में बैठना पड़ा। जो एक अभूतपूर्व अनुभव था। पूरा सफारी जुरासिक पार्क जैसा दिख रहा था। बड़े से लोहे के गेट एक के बाद एक दो गेट पार कर हम साँस साधे बढ़ रहे थे। अंदाजा था कि टाइगर खुले में विचरण कर रहे होंगे पर झाड़ियों की दीवारों में से झांकती मजबूत लोहे की जाली बता रही थी कि हम टाइगर से सुरक्षित रह कर घूम सकते हैं। भांति-भांति के पेड़ों की छटनारी डालियाँ एक दूसरे में उलझी पड़ रही थीं। जिराफ, चीतल, लोमड़ी और बेहद खूबसूरत सफेद मोर बिना बादलों के ही पंख पसारे था। सफेद मोर मैंने पहली बार देखा। सड़क से थोड़ा हटकर अंदर की तरफ हरी-हरी घास पर धुनकी हुई रुई के ढेर-सा सफेद शेर लेटा था। लड़कियाँ डर कर एक दूसरे से चिपट गई। महापात्र ने बताया डरने की कोई बात नहीं है। यह शेर कभी हमला नहीं करते। एक तो इनके नाखून कटे रहते हैं दूसरे इन का पेट हमेशा भरा रखा जाता है जिससे यह शिकार न करें। एक दूसरा सफेद शेर या शेरनी झाड़ी में आराम फरमा रही थी। कंडक्टर उसे पत्थर मारकर उठाने लगा। लेकिन महापात्र ने मना किया। "इन्हें छेड़ना जुर्म है"
सफेद शेर के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध नंदनकानन में पहला सफेद शेर 1980 में जन्मा था। तब से लेकर अब तक 34 से भी ज्यादा शेर यहाँ पैदा हो चुके हैं। 1964 में जब नर शेर यहाँ लाया गया तो नजदीक के जंगल से एक शेरनी कंक्रीट की दीवार पर चढ़कर उसके पास आई और शेर के रूप पर मोहित हो यही बस गई। शेर का नाम नंदन था, इस शेरनी का कानन रखा गया। इस तरह इस उद्यान का नाम ही नंदनकानन पड़ गया। इन दो बेजुबान प्राणियों के प्रेम और साहचर्य का ही नतीजा है उद्यान में इतनी अधिक संख्या में शेरों का होना। यहाँ चंपा, बांस, शीशम और सागवान के पेड़ों के नीचे इन के झुंड देखे जा सकते हैं।
टाइगर सफारी के अलावा यहाँ लायन सफारी भी है जिसका उद्घाटन राजीव गांधी ने किया था। यह भी टाइगर सफारी जैसा ही है। 3 किलोमीटर से भी अधिक लंबे मोटर मार्ग से गुजरते हुए हमें बस के शीशे चढ़ा लेने पड़े। यहाँ सिंह खुले में जंगल के समान ही विचरण करते हैं। सड़क के किनारे एक सिंह सिंहनी मिले। ड्राइवर ने बस रोक दी। मैंने खिड़की में से उनकी फोटो खींची। सिंह का पैर घायल था। वह वैसा ही पसरा पड़ा रहा। लड़कियाँ इस कदर उत्तेजित थीं कि उनका बस चलता तो बस से उतर पड़तीं।
लायन सफारी से हम केबल कार स्टेशन आए और केबल कार से बॉटनिकल गार्डन गए। रोपवे मार्ग बेहद खूबसूरत जंगल और झील पर से गुजरता है। झील का सौंदर्य पागल कर देने वाला था। झील पर कहीं-कहीं इक्का-दुक्का खिले कमल और दूर ऊंचाई पर जंगल जैसे आव्हान देता से लगा। बुरुंसनुमा बैंगनी फूलों का घना विस्तार जैसे कह रहा हो हमें खिलना है और यही हमारा लक्ष्य है। फिर चाहे हमारे फूलों का कुछ भी उपयोग हो। वनस्पतियों से भरे उद्यान में घूमना कितनी सारी जड़ी बूटियों की जानकारी से भरा था। इन जड़ी-बूटियों से न केवल आयुर्वेदिक बल्कि एलोपैथिक दवाईयाँ भी बनती हैं।
रोपवे से लौटकर झील के विहंगम दृश्य ने मन मोह लिया। बोटिंग करने का समय नहीं था इसलिए झील पर तैरती बत्तख को देखते हुए हमने एक बांस से बना पुल पार किया। जिस पर एक सुंदर-सी छतरी से घिरा मचान जैसा था। जिन्हें हम बांस समझ रहे थे वे सीमेंट के थे जो हूबहू बांस जैसे थे। इस मचान से झील फैली हुई टोकरी के आकार की नजर आ रही थी। नंदनकानन से पार होते-होते सफेद मोर ने फिर दर्शन दे दिए कि लो जाते हुए हमारी छबि आंखों में भर लो। डालियों पर रंग-बिरंगे पक्षी और एक हंस का जोड़ा बैठा था।
नंदनकानन से हम उदयगिरि और खांडगिरि की गुफाएँ देखने गए। उदयगिरी का सूर्योदय अपने अतुलनीय सौंदर्य के कारण पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। गनीमत है हम सूर्योदय के समय यहाँ नहीं आए वरना पैर रखने को जगह नहीं मिलती। बस ने हमें जहाँ छोडा वहाँ से फर्लांग भर की दूरी पर उदयगिरी है। उदयगिरि की गुफा शेर के खुले मुंह जैसी है। जैसे हम खुद ही शेर के मुख में समाए चले जा रहे हों। एक दूसरी गुफा का नाम कोबरा गुफा था। बाप रे कहीं अंदर कोबरा तो नहीं। हाथी गुफा भी है उदयगिरि और खांडगिरि की गुफाएँ मिलाकर यहाँ कुल 92 गुफाएँ हैं। खांडगिरि गुफा खारावेला कलिंगा ने दूसरी सदी में बनवाई थी। कहते हैं जिस समय हनुमान जी संजीवनी बूटी के लिए पर्वत लेकर उड़ रहे थे तो पर्वत का एक खंड यहाँ आकर गिरा था। इसलिए इसका नाम खांडगिरी की गुफाएँ है। इस गुफा की चढ़ाई चढ़ने से पहले पादुका आश्रम है। शायद वहाँ पादुकाएँ उतारनी पड़ती हैं। है। मैंने सोचा।
ऊपर चढ़कर राजा रानी गुफा है जो गर्मियों में भी ठंडी रहती है। उड़ीसा के महाराज और महारानी ग्रीष्मावकाश में यहाँ निवास करते थे। गुफा की दीवारों पर विभिन्न धर्मों का उल्लेख करने वाले भित्ति चित्र बने हैं। शायद विश्व मंदिर (सभी धर्मों की एक साथ उपासना होती हो जहाँ) की परिकल्पना तब की गई हो जो दुनिया को एक सूत्रता का पाठ पढ़ाती हो। उदयगिरी गुफा के सामने काफी ऊंचाई पर लाल रंग का जैनियों का मंदिर है जो 1972 में एक मारवाड़ी ने बनवाया था। इसमें पूरे 24 तीर्थंकर मंदिर हैं। हनुमान मंदिर भी है। जहाँ बरगद के पेड़ों पर ढेर सारे लँगूर यात्रियों की दी हुई मूंगफली खा रहे थे।
लंच का समय हो चला था। होटल की ओर लौटते हुए लड़कियाँ अंत्याक्षरी खेलने में जुट गईं। अब हमारे साथ गलीसी नाम की हंसमुख ईसाई लड़की भी थी जो पूरे टूर के दौरान हमारे साथ ही रहेगी। वह हेल्पर्स ग्रुप की थी।
लंच के बाद आराम करके तरोताजा हो हम 3: 00 बजे विभिन्न मंदिरों को देखने निकले। लिंगराज मंदिर में प्रवेश करते ही उसकी भव्यता ने जता दिया कि यह भुवनेश्वर का सबसे बड़ा मंदिर है। इसे लालादेन्दुकेसरी राजा ने 11 वीं सदी में बनवाया था। वास्तव में इस मंदिर को 3 राजाओं ने बनवाया। पहले राजा ने नींव बनाई और आगे के निर्माण से पहले ही वह स्वर्ग सिधार गया। जब दूसरा राजा सिंहासन पर बैठा तो वह मंदिर की दीवारें ही बनवा पाया। तीसरे राजा ने बुर्ज बनाकर कलश स्थापना की। यह मंदिर विशाल भू-भाग में बना है और पूरा मंदिर सेंड स्टोन से बनाया गया है। विशाल प्रांगण में ढेर सारे मंदिर हैं। मेरे विचार से छोटे बड़े यह सभी मंदिरों के समूह में सारे देवी-देवता पुजते होंगे। सबसे बड़ा मंदिर स्वयंभू लिंगराज का है जो डिश एंटीना से भी बड़ा गोल प्लेट जैसा जमीन पर रखा है। यही स्वयंभू है। मैं प्रवेश द्वार पर नन्दी और गरुड़ को एक साथ देख कर चौंक पड़ी। यह कैसे संभव है! नन्दी शिव जी और गरुड़ विष्णु का वाहन है। मंदिर के अंदर जाते ही अद्भुत दृश्य देखा। लिंगराज पर विष्णु और शिव के चांदी के मुख स्थापित हैं। मैंने ऐसा मंदिर पहली बार देखा था। अभी मैं मंदिर के विचित्र रस में डूबी ही थी कि पंडितों की चिड़ियाचौन्थन ने मूड खराब कर दिया। जितने देवता उससे पाँचगुना पंडित। सभी यात्रियों से पैसा ऐंठने के चक्कर में उन्हें बरगलाते हुए। वहाँ से निकलकर हम केदारगौरी मंदिर, मुक्तेश्वर मंदिर, सिद्धेश्वर मंदिर के दर्शन के लिए गए। तीनों एक ही स्थान पर हैं। यह भी सेंड स्टोन से बने हैं और काफी खूबसूरत हैं। इनके द्वार गोपुर जैसे हैं नक्काशी दार। वैसे यहाँ मंदिर के द्वार को गोपुर ही कहते हैं। तीनों मंदिर एक हज़ार वर्ष पुराने हैं। "अब आप मात्र आकृति वाला मंदिर राजारानी मंदिर देखेंगे।" महापात्र ने तेजी से कदम बढ़ाते हुए कहा।
केवल आकृति वाला कैसा मंदिर? सोचते हुए राजारानी मंदिर के नजदीक पहुँचे। यह मंदिर तो नहीं है पर मंदिर की आकृति जैसा स्थापत्य है जो दो रंगों के पत्थरों से बना है। इस पत्थर को राजा रानी पत्थर कहते हैं। गुलाबी पत्थर राजा पत्थर कहलाता है और पीला पत्थर रानी पत्थर कहलाता है। यह 11वीं शताब्दी में बनाया गया था। यह एक विशाल पुष्प उद्यान से घिरा है जिसमें वैजयंती के छींटदार पीले फूलों और गुलाबी मुसन्डा के फूलों ने मेरा मन मोह लिया। मुसन्डा ऐसा खिलता है कि पत्ते शरमाकर फूलों के गुच्छे के नीचे छिप जाते हैं।
जब लौटने लगे तो महापात्र ने बैजू बावरा फिल्म का गीत 'ओ दुनिया के रखवाले' उड़िया भाषा में गाकर सुनाया।
सुनहली भोर में हम आठ बजे सुबह जगन्नाथपुरी के लिए रवाना हुए। चार धामों में पुरी पूर्व का धाम है जो भुवनेश्वर से 62 किलोमीटर दूर स्थित है। उड़ीसा में भुवनेश्वर, कोणार्क और जगन्नाथपुरी जैसे विशिष्ट स्थल होने के कारण इसे स्वर्ण त्रिभुज कहते हैं। पुरी तक का रास्ता अपनी विशेषताओं के कारण मुझे अति विशिष्ट लगा। सड़क से 200 फीट अंदर की तरफ एक हरी-भरी बाउंड्री दिखी जो शिशुपाल गढ़ कहलाता है। सामने ही सफेद पगोडा धौलागिरी पर्वत पर दिखाई दिया। इस पगोडा में भगवान बुद्ध की विशाल मूर्तियाँ विभिन्न अवस्थाओं में रखी हैं। कहीं बोधिसत्व वृक्ष के नीचे बुद्ध को खीर खिलाती स्त्रियाँ तो कहीं शयन मुद्रा में निर्वाण प्राप्त बुद्ध कहीं शांति, अहिंसा, दया, क्षमा और सत्य का संदेश देते बुद्ध। इन्हीं भावों से युक्त छह छतरियाँ शांति स्तूप यानी पगोडा के ऊपर बनी हैं। इस स्तूप को 1972 में जापानी बुद्ध संघ ने बनवाया। मुझे बुद्ध ने कभी प्रभावित नहीं किया। माना दुनिया के एक बहुत बड़े भूभाग पर वे भगवान के रूप में पूजे जाते हैं पर सोती हुई अपनी पत्नी यशोधरा का त्याग मेरी नजर में गृहस्थ धर्म में धोखा है। स्त्री इतनी कमजोर तो नहीं की वह पुरुष के लक्ष्य में बाधक हो। क्या उर्मिला ने लक्ष्मण को रोका था लेकिन धार्मिक ग्रंथों में चित्रित पुरुषों ने स्त्री के प्रति अपनी कायरता का परिचय दिया है।
शांति स्तूप के बाजू में गेरू के रंग का धवलेश्वर मंदिर है जो शंकर जी का है और जहाँ द्वार पर तुलसी चौरा है। मंदिर की परंपरा अनुसार तुलसी को पहले प्रणाम करना पड़ता है फिर मंदिर में प्रवेश। तुलसी और शिव जी की केमिस्ट्री मेरी समझ में नहीं आई। तुलसी का नाम तो कृष्ण से जुड़ा है। पगोडा के चबूतरे से देखने पर दूर विस्तृत मैदान में हरे भरे धान के खेत और काजू के बाग हैं। बीचों बीच दया नदी बहती है। इस नदी का नाम मैंने पहली बार सुना। नदी के उस पार ही वह इतिहास मैदान है जहाँ सम्राट अशोक ने कलिंग का ऐतिहासिक हजारों सैनिक मारे गए थे। नदी का पानी खून से रंग गया था। इस हिंसा से अशोक का ह्रदय परिवर्तन हुआ और उसने धवलगिरी पर्वत पर बुद्ध की शरण गही। इसीलिए यहाँ शांति और अहिंसा का संदेश देता यह पगोडा स्थित है। काजू के पेड़ पगोडा की सड़क पर भी थे जिन पर लाल-लाल का काजूफल लटक रहे थे। वहीं लाइन से काजू और नारियल की दुकानें थी। एक नारियल पानी ₹2 में दाम सुनकर कानों पर विश्वास नहीं हुआ। संजीव ने सभी को नारियल पानी पिलाया। हमने काजू के पैकेट खरीदे जो मुंबई के दामों से काफी सस्ते थे।
कलिंग के काजू से लदे बगीचे देखते हुए हम पीपली गए जो एप्लिक वर्क के लिए प्रसिद्ध है। आठ दस रंग बिरंगी दुकानें हैं जिसमें बैग, वॉल हैंगिंग, कुशन कवर, बेडशीट आदि बिकते हैं। सभी ने यहाँ शॉपिंग की पर मैंने नहीं। एप्लिक वर्क की मेरे हाथ से बनी ढेरों चीजें हैं मेरे पास। कभी-कभी लगता है इतने सरल कशीदाकारी के काम पर भी लोग लाखों का बिजनेस खड़ा कर लेते हैं।
हम लोग कोणार्क मार्ग पर थे। दोनों ओर प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा पड़ा था। नारियल केले के कुंजों से घिरे धान के इठलाते खेत। मौसम भीगा-भीगा सा, धूप आँख मिचोली खेल रही थी। कुमुदिनी से भरे पोखर सड़क के किनारे-किनारे बैंगनी आभा बिखेर रहे थे। कहीं-कहीं सड़क के दोनों ओर के पेड़ दूरी की सीमा तोड़ आपस में गुँथे जा रहे थे जिससे सड़क पर सिलसिलेवार मंडप-सा तन गया था। नीम्पाड़ा गाँव से संजीव ने दिवाली की मिठाई खरीदी। गोपपुरा गाँव में भी कुछ दुकानें थीं। बस जहाँ रुकी वहाँ से कोणार्क मंदिर का भव्य दृश्य सामने था। कोणार्क मंदिर को सूर्य मंदिर कहते हैं। असल में कोणार्क उस जगह का नाम है जिस पर सूर्य मंदिर बना है। । इसे राजा नरसिंह देव ने 1285 में बनवाया था। 1200 कारीगरों ने 40 करोड़ की लागत से यह मंदिर बनाया। पूरा मंदिर सूर्य के रथ के आकार का है। जिसमें सात घोड़े जुते हैं और 25 पहिए हैं। इस रथ के जिन्हें कोणार्क भी कहते हैं इन पहियों का प्रतिरूप कलाकार लकड़ी से बनाते हैं। यह वॉल हैंगिंग कोणार्क व्हील पर्यटक सोविनियर के रूप में खरीदते हैं जो उनके घरों की दीवार की शोभा बढ़ाते हैं। पूरा मंदिर सेंड स्टोन से बना है जो पिघले हुए लोहे से जुड़ा है क्योंकि उस जमाने में सीमेंट का चलन नहीं था। मंदिर चार भागों में है। पहला नृत्य भाग दूसरा दर्शक भाग तीसरा छाया मंदिर और चौथा मुख्य भाग कहलाता है। सूर्य की पत्नी छाया का मंदिर अब नष्ट हो चुका है। कुछ खंडहरों के अवशेष हैं जो बीते युग की कहानी सुनाते हैं। पहले इस मंदिर की सीढ़ियों को बंगाल की खाड़ी का पानी अपनी लहरों से धोता था। परंतु अब 3 किलोमीटर पीछे हट गया है। यह मंदिर 227 फीट ऊंचा है। इस मंदिर को पुर्तगाली, मुगल तथा प्राकृतिक विपदाओं का सामना करना पड़ा। इसलिए यह जगह-जगह से खण्डित है। पूरा मंदिर और मंदिर की बाहरी और भीतरी दीवारें देव प्रतिमाओं से जड़ित हैं। खासकर विश्वामित्र और मेनका की काम क्रीड़ाओं में लीन मूर्तियों का शिल्प देखते ही बनता है। थोड़ा ऊपर चढ़ने पर सूर्य का सिंहासन है। यहाँ हर वर्ष दिसम्बर माह में उड़ीसा सरकार द्वारा नृत्य का आयोजन किया जाता है जैसे हमारी मुंबई की एलीफेंटा गुफाओं में नृत्य का आयोजन होता है। लगता है यहाँ समुद्र में मूंगे की चट्टानें हैं क्योंकि यहाँ मूंगा बहुतायत से मिलता है। मोती भी मिलते हैं। मूंगे मोती के खजाने से भरे सागर तट पर लगे नारियल काफी बड़े और मीठे पानी से भरे होते हैं।
घूमते घूमते भूख लग आई थी। लंच का समय भी हो गया था। लिहाजा गेस्ट हाउस के बगीचे में पेड़ों की छांव तले हमने ब्रेड, भाजी और उड़िया मिठाई छेनापूरी का लंच लिया। लंच के बाद हम चंद्रभागा बीच पर गए। सागर जल नीला, आमंत्रण देती धवल लहरें, ठंडी भीगी सफेद बालू और दूर-दूर तक सन्नाटे में गूँजती सागर गर्जना। मैं मंत्रमुग्ध-सी तट से परे झाऊ के जंगलों के अद्भुत सौंदर्य में खो गई। मन लहरों के संग डूबता, उतराता स्वर्गिक पलों को जी रहा था। न समय का भान था न थकान का। संजीव ग्लीसीऔर लड़कियाँ बीच में दूर तक सैर को निकल गए लेकिन मैं तट के किनारे घुटनों को छूती, भागती लहरों के बीच खड़ी रही ...तनहा।
झाऊ के पेड़ पुरी के रास्ते काफी दूर तक मिले। एक रमणीक स्थल पर उड़िया फिल्म की शूटिंग चल रही थी। जंगल बहुत लुभावना था।
जगन्नाथपुरी में पार्किंग प्लेस से मंदिर तक नंगे पांव जाना था। सभी के जूते चप्पल बस में रखे गए। मंदिर काफी दूर गली का चौराहा पार करके था। कच्चे पक्के रास्ते पर नंगे पांव चलना मेरे लिए जानलेवा था। मैं तो घर में भी चप्पल पहनती हूँ। खैर दर्शन करना है तो कष्ट तो सहना ही पड़ेगा।
जगन्नाथ पुरी भगवान विष्णु का मंदिर है जो 12वीं सदी में बनाया गया था। यह भारत का पहला मंदिर है। जहाँ विष्णु के अवतार योगेश्वर श्रीकृष्ण अपने अग्रज बलराम तथा बहन सुभद्रा के साथ विराजमान हैं। मूर्तियाँ नीम की लकड़ी से बनी हैं जो अधूरी ही बनाई जाती हैं। सिर, धड़ और हाथ। प्रत्येक 4 वर्ष के बाद जब अधिक मास आता है तो पुरानी मूर्तियों की समाधि बनाकर नई मूर्तियाँ स्थापित की जाती हैं। संजीव को तो जैसे इस अद्भुत प्रसंग की कथा रटी हुई थी। मंदिर के रास्ते की नंगे पैर यात्रा में वह कहानी बहुत रोचक लग रही थी। बताने लगा-"एक बार पुरी के राजा इंद्रद्युम्न को सपना आया जिसमें भगवान विष्णु ने कहा कि तुम्हारे राज्य के सरोवर में नीम की लकड़ी का टुकड़ा तैर रहा है। उसे निकाल कर मेरी मूर्ति बनाओ। सुबह हजार कोशिशों के बावजूद सेवकों, हाथी आदि के द्वारा भी राजा टुकड़ा नहीं निकाल पाया तब भगवान विष्णु विश्वकर्मा के रूप में आए। उन्होंने टुकड़ा निकालकर मूर्ति बना देने का वचन दिया पर उनकी एक शर्त थी कि उनके 3 दिन तक चलने वाले कार्य में कोई बाधा न डाले। राजा मान तो गया पर अज्ञानता वश दूसरे ही दिन विश्वकर्मा का दरवाजा खटखटा दिया। द्वार नहीं खुला तो दीवार तोड़कर अंदर घुस गया। अंदर विश्वकर्मा नहीं थे लेकिन मूर्तियाँ अधूरी बनी पड़ी थीं। तब से अधूरी बनी मूर्तियाँ ही पूजी जाती हैं और तीन अलग-अलग रथों में विराजमान कर रथयात्रा निकाली जाती है।"
लड़कियाँ बड़े गौर से कहानी सुन रही थीं। उन्हें वह सरोवर देखना था जहाँ नीम का टुकड़ा था और यह जानना था कि विश्वकर्मा कौन है।
"सरोवर तो सूख चुका है। बात भी तो 12वीं सदी की है। विश्वकर्मा देवताओं का कारपेंटर है।" संजीव के कहने पर लड़कियाँ चौंक पड़ीं।
"क्या देवताओं के भी कारपेंटर होते हैं?"
" बस एक ही है विश्वकर्मा। रथ यात्रा के बारे में तो आप जानती हैं। कृष्ण भक्तों की संस्था इस्कॉन ने यह आरंभ की है। यह आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की द्वितीया के दिन निकाली जाती है। इस महत्त्वपूर्ण दिन को हिंदुस्तान ही नहीं विदेशों में भी धूमधाम से मनाया जाता है। इसका आयोजन बहुत विशाल रूप में किया जाता है। यह पुरी का प्रधान महोत्सव है। जब कृष्ण (जगन्नाथ) बलभद्र और देवी सुभद्रा के रथ पूरे शहर की परिक्रमा के लिए निकलते हैं तब विशाल रथों को भक्तजन श्रद्धा भाव से खींचते हैं।
रथों के आगे भक्तगण सोने, चांदी की बुहारी लगाते चलते हैं। शाम तक तीनों रथ गुंडिचा मंदिर पहुँचते हैं। दूसरे दिन भगवान रथ से उतरकर मंदिर में पधार ते हैं तथा 7 दिनों तक वही विश्राम करते हैं। दशमी तिथि को उन्हीं रथों में बैठाकर उन्हें मंदिर वापस लाया जाता है। इन 7 दिनों के दर्शनों को आड़प दर्शन कहते हैं। इस रथयात्रा का इतिहास बहुत प्राचीन है। चीनी यात्री फाहियान तक ने इसका विराट वर्णन किया है।
" संजीव तुमने यह तो बताया नहीं कि रथयात्रा क्यों निकाली जाती है। आज से 5000 साल पहले महाभारत के युद्ध के पश्चात कृष्ण बलभद्र और सुभद्रा गोपियों से मिलने आए थे। वही मिलन हर वर्ष रथ यात्रा के रूप में याद किया जाता है। आज पूरे विश्व में कृष्ण भक्ति की धारा प्रवाहित है। विदेशी संस्था इस्कॉन के पूरे विश्व में फैले केंद्रों से रथयात्रा निकाली जाती है। देसी विदेशी भक्त माथे पर त्रिपुंड लगाए केसरिया वस्त्र पहने सड़कों पर ढोल, मजीरे बजाकर हरे रामा हरे कृष्णा कीर्तन करते हुए झूमते गाते चलते हैं। 10 दिन की इस रथयात्रा के दौरान जगन्नाथपुरी में चावल से बने पकवान चढ़ाए जाते हैं। चावलों का भोग लगाकर श्रद्धालु चावल का एक-एक दाना अपनी तिजोरी और रसोई में रखते हैं ताकि धंधे में बरकत रहे।
सुनकर लड़कियाँ भी झूम-झूम कर हरे रामा हरे कृष्णा गाने लगीं। मंदिर आ चुका था। मंदिर के विशाल प्रांगण में प्रवेश करते ही ऐसा लगा जैसे यह पूरा नगर मंदिरों का ही है। पूरे प्रांगण में 100 मंदिर थे। यह मंदिर 4 भागों में बंटा है। प्रसाद मंडप जिसे आदि गुरु शंकराचार्य ने बनवाया है। नाट्य मंडप, जगन्नाथ मंडप और मुख्य मंडप। मुख्य मंदिर में श्री कृष्ण, बलभद्र और सुभद्रा के अर्ध निर्मित पुतले हैं। प्रवेश द्वार के एक ओर मंदिर ट्रस्ट के लोग प्रसाद लिख रहे थे। पूछने पर पता चला कि प्रसाद हमें चढ़ाने के लिए दिया नहीं जाएगा। जब हम दर्शन करके लौटेंगे तो बिल की पर्ची दिखाकर प्रसाद ले सकते हैं। लंबी कतार थी। जब मेरा नंबर आया तो मैंने ₹41 का प्रसाद लिखवाया। लड़कियाँ हेल्पर्स के बनाए घेरे में चल रही थीं ताकि कोई दुर्घटना न हो। कुंभ के मेले जैसी भीड़ में हम जा रहे थे। मंदिर का फर्श भी मिट्टी पानी से फिसलन भरा हो गया था। बेहद अव्यवस्थित दशा थी। जैसे तैसे दर्शन तो हुए पर पूजा करने नहीं मिली। सुभद्रा की आंखें आश्चर्य से विस्फारित थीं। कृष्ण बलभद्र से महाभारत का वृत्तांत जो सुना था सुभद्रा ने।
पर उमड़ती भीड़ ने मेरी सोच में भी लगाम लगा दी। जैसे तैसे मंदिर से निकले तो प्रांगण में किनारे पर पंक्तिबद्ध लोग बैठे दाल चावल हब्शियों की तरह खा रहे थे। मेरा तो दम घुट गया। समाधि तक पहुँचना भी मेरे लिए कष्टप्रद हो गया। वहाँ छोटे-छोटे प्लास्टिक के पैकेट में समाधि की मिट्टी ₹2 में मिल रही थी। मिट्टी खरीद कर हम बाहर आए। बिल की पर्ची दिखाकर प्रसाद लिया और मायूस हो आगे बढ़े। क्या प्रथा है... ऐसा लगा जैसे दुकान से मिठाई खरीदी हो। कहने को चौथा धाम पर न पूजा, न अर्चना, न स्पर्श, न प्रसाद। कुछ भी तो करने नहीं मिला। उड़ीसा सरकार को इस भव्य मंदिर की व्यवस्था पर ध्यान देना चाहिए। मन खिन्न था। राह के कंकरों से तलुओं में छाले पड़ गए थे।
राह के कांटे मत गिन, छाले मत सहला... पंक्ति को स्मरण कर कदम तेजी से बस की ओर बढ़े जा रहे थे। हमारे मूड को ठीक करने के उद्देश्य से संजीव ने रास्ते में एक होटल में तली जा रही गर्मागर्म भजिया और कॉफी का ऑर्डर दे डाला।
भुवनेश्वर तक आते-आते हमारे मन में दीपावली की खुशियाँ जगह बनाने लगी थीं। संजीव का इंतजाम भी लाजवाब था। ऊपर टेरिस पर बुफे डिनर वह भी बिल्कुल दीपावली की रात जैसा पकवानों, मिठाइयों वाला। लड़कियों ने इस दिन के लिए लाई खास पोशाक पहनी और फुलझड़ी, पटाखे छोड़ते हुए भरपूर आनन्द लेने लगीं।
सुबह की ताजगी में रात को छोड़े गए पटाखों के बारूद की गंध शामिल थी। हम गोपालपुर की दिशा में बढ़ रहे थे। थोड़ी ही देर में हम रास्ते में पड़ने वाले बीरूपारवेश्वर मंदिर पहुँच गए। मंदिर का स्थापत्य टेढ़ा यानी एक ओर झुका हुआ था। मंदिर में शिवजी और सोने-चांदी के ढेर सारे नाग थे जो दीवार पर चिपके थे। अद्भुत मंदिर था। कहते हैं कैलाश से महाबली रावण शंकर को उठाकर लंका ले जा रहा था। इस स्थान पर वह सन्ध्या पूजन के लिए रुका। तभी एक ब्राह्मण वहाँ आया। रावण ने ब्राह्मण से शिवलिंग की सुरक्षा की प्रार्थना की ताकि वह सांध्य पूजन कर सके। ब्राह्मण ने कहा
"अगर देर हुई तो वह तीन बार उसे पुकारेगा और वह तब भी नहीं आया तो लिंग वहीं छोड़कर चला जाएगा।" रावण प्रार्थना में देर तक लीन रहा और ब्राह्मण की पुकार नहीं सुन सका। ब्राह्मण जो स्वयं शिवजी ही थे वहीं लिंग छोड़ कर चले गए। रावण ने पूजा निपटा कर लिंग को उठाना चाहा पर मैं उससे हिला तक नहीं। हाथी भी लगवाए पर कामयाबी नहीं मिली। निराश रावण लौट गया। क्योंकि लिंग टेढ़ा रखा था अतः मंदिर भी टेढ़ा ही बना। बहुत जागृत मंदिर माना जाता है। जिसकी मन्नत पूरी हो जाती है वह नाग चढ़ाता है।
मंदिर दर्शन के पश्चात मेरी जीप फिर गोपालपुर मार्ग पर आगे बढ़ने लगी। रास्ते में कलिंग घाटी पड़ी। बेहद खूबसूरत लेकिन खतरनाक घाटी पार करने में घुमावदार अंधे पहाड़ी मोड़ पडते हैं। ड्राइवर सधा न हो तो पहुँच जाएँ ऊपर। हवा भी ठंडी मगर खुशगवार थी। ढलान आते ही हमने एक छोटे से गाँव के टप्पर वाले होटल में चाय पी। खाने को कुछ था नहीं। गोपालपुर पहुँचते-पहुँचते रात के 10: 00 बज गए। हम होटल मोटेल ममेड में रुके। जिसमें समुद्री वस्तुओं से बड़ी ही खूबसूरत सजावट की गई थी। होटल के पीछे बंगाल की खाड़ी का दूर-दूर तक लहराता समंदर था। मेरी खिड़की से समंदर भी दिख रहा था और उसकी हहराती गर्जना भी सुनाई दे रही थी। इस जगह का पूरा नाम गोपालपुर ऑन द-सी है। डिनर के बाद ऐसी गहरी नींद आई कि एक ही करवट में सवेरा हो गया।
सुबह 6: 00 बजे होटल के वेटर ने बेड टी के लिए बेल बजाई। इस पूरे टूर में पहली बार बेड टी मिल रही है। थोड़ी देर में तरोताजा होकर मैं कमरे से बाहर आई तो होटल की पीछे की खूबसूरती ने मन मोह लिया। सुंदर उद्यान में रंग-बिरंगे फूल ...लाल बजरी की सड़क जो नीचे मेन सड़क तक गई थी। गेट के नजदीक टीन के शेड के पीछे तीन चार कुत्ते के पिल्ले एक के ऊपर एक लदे सो रहे थे। चौकीदार ने बताया इनका जन्म रात को हुआ है। मैंने पिल्लों को छूना चाहा तो कुतिया गुर्राने लगी। नाश्ते के बाद हम समुद्र तट पर गए। तट पर काली रेत थी। इसमें थरेनियम मिला है जो दर्द, लकवा की दवा है। पीड़ित इंसान को गर्दन तक रेत के अंदर बैठना पड़ता है। प्रकृति खुद कितनी बड़ी डॉक्टर है। समंदर नीले पानी से छलक रहा था। इस समय पूर्णिमा की वजह से समंदर में ज्वार था। लहरें तीन चार फीट तक उछल रही थीं। संजीव ने नाविकों की चेन-सी बनाकर पानी में खेलती लड़कियों के लिए सुरक्षा दीवार खड़ी की थी। सभी लहरों से खेल रहे थे, भीग रहे थे। मैं गार्डन अंब्रेला के नीचे आराम से बैठी सागर की मचलती तरंगों पर हिचकोले खाती पालदार नौकाएँ देख रही थी कि तभी संजीव और ग्लीसी चुपके से मेरे पीछे आए और मुझे अधर उठाकर लहरों में ला पटका। उफ सारे कपड़े तरबतर। मन की खिन्नता उनकी हंसी देखकर खत्म हो गई। ठंडे पानी में भीगना सचमुच रोमांचक था।
शाम के धुंधलके में लाइट हाउस देखना अपने आप में रोमांचक था। यहाँ से रात को समंदर के चारों तरफ रोशनी फेंकी जाती है ताकि कोई भटके न। यानी कि यह कुतुबनुमा का काम करता है। समुद्र तट इस रोशनी के दायरे में बेहद रहस्यमय दिखाई दे रहा था। लड़कियाँ जिद कर रही थीं कि उन्हें दोबारा समुद्र तक जाना है। लेकिन यह संभव नहीं था। होटल लौटकर डिनर के बाद हम टेरेस पर गए जहाँ रखी बड़ी दूरबीन से हमने गुरु, शनि, मंगल आदि ग्रह देखे। शनि बिल्कुल हीरे जड़ी अंगूठी-सा दिख रहा था। गुरु में तीन रंग दिख रहे थे। नारंगी, पीला और हरा। वृश्चिक राशि ने पूरा आसमान घेर लिया था। इतनी विशाल आकृति। कृत्तिका नक्षत्र जैसे छिटके हुए ढेर सारे हीरे। आसमान की खूबसूरती से आंखें हट ही नहीं रही थीं। रात 1: 00 बजे हम सोने चले गए क्योंकि अधिक जागने से कल का कार्यक्रम डिस्टर्ब होता। तारों नक्षत्रों की दुनिया बिस्तर पर भी मेरा पीछा करती रही।
सुबह जल्दी उठना पड़ा। फिर भी आलस नहीं था। कुल 3 घंटे की नींद के बावजूद मैं तरोताजा थी। सामान पैक करके हेल्पर्स के हवाले किया और नाश्ते के बाद हम पैदल ही गोपालपुर सिटी भ्रमण के लिए निकले। शांत और व्यस्त माहौल था। अधिकतर विदेशी सैलानियों की भीड़ थी। वे यहाँ हफ्तों रहते हैं और समंदर के बदलते रूपों का भरपूर आनंद लेते हैं। ऐसी यात्राएँ मुझे पसंद हैं। जल्दी-जल्दी में बहुत कुछ छूट जाता है। गोपाल मंदिर कृष्ण जी का मंदिर है। मंदिर में बांसुरी बजाते एकदम काले रंग के कृष्ण जी की मूर्ति है। इतने काले जैसे काली माँ हों। सामने थाली में रखे जलते दीपक की रोशनी और ताजे चढ़े फूलों की खुशबू के बीच मैंने मन ही मन उन्हें नमन किया। चलते-चलते मुख्य सड़क पर आने पर हमने अपनी जीपों को वहाँ खड़े पाया। जीप पर सवार हो हम चिलका लेक के लिए रवाना हुए। पहला हॉल्ट बहरामपुर था। जो लगभग 2 घंटे बाद आया। संजीव ने वहाँ बिस्किट और कोल्ड ड्रिंक का जलपान कराया। चिल्का लेक पहुँचते-पहुँचते दोपहर के 2: 00 बज चुके थे। विशाल झील पर तैरती नौकाओं पर पर्यटक दूर दिखते आयरलैंड और पक्षी विहार की सैर के लिए जा रहे थे। काउंटर के पूछताछ विभाग से नक्शा और पूरी जानकारी लेकर हम अमराई में पेड़ों तले बैठकर लंच लेने लगे। मेरा ध्यान ऊपर मंडरा रही चीलों पर नहीं था क्योंकि मैं खाते हुए मार्गदर्शिका पुस्तिका को भी पढ़ रही थी। तभी मेरी प्लेट पर एक चील ने झपट्टा मारा। सारा खाना बिखर गया। गनीमत थी कि उसकी चोंच नहीं लगी वरना घाव हो जाता। सुस्ताने का समय नहीं था। आज रात ही भुवनेश्वर पहुँचकर मुंबई के लिए ट्रेन लेनी थी। इसलिए लंच के फौरन बाद हमने बोट किराए पर ली। काफी बड़ी बोट थी। एक ही बोट में सब आ गए। बोट हमें दीवारों से घिरे एक कुंड में ले गई। कुछ चिड़ियाँ वहाँ तैर रही थीं और पर्यटक उन्हें चारा खिला रहे थे, पेडेस्टल नावों में बैठकर आनंद उठा रहे थे। फिर हम एक द्वीप में आए जो झील में काफी दूरी पर था। इस द्वीप पर काली माँ का मंदिर और मंदिर में चढ़ाने वाले शृंगार की वस्तुएँ फूल माला प्रसाद बिक रहे थे। दर्शन के बाद हम बर्ड सेंगचुरी देखने गए जो बहुत बड़े आयरलैंड पर बसे घने जंगल में है। इक्का-दुक्का पक्षी ही दिखे। विदेशी पक्षी यहाँ दिसम्बर में आकर बसेरा करते हैं और बसंत ऋतु में अपने देश वापस लौट जाते हैं। लौटते हुए झील में हवा के दबाव के कारण विशाल लहरें उठ रही थीं। ऐसा लग रहा था जैसे झील न हो समंदर हो। चारों ओर जल ही जल। किनारा एक पतली काली रेखा-सा दिख रहा था। चिल्का लेक से भुवनेश्वर लौटते हुए एंपोरियम से हम सब ने खरीदारी की। भुवनेश्वर लौटना केशरी होटल में कुछ घंटों का विश्राम और फिर डिनर के बाद रेलवे स्टेशन सब कुछ पहले से तयशुदा था। पर जाने क्यों मैं उदास थी, उड़ीसा को छोड़ते हुए मेरे अंदर कुछ पिघल रहा था। शायद यह मेरे पर्यटक मन की कमजोरी भी हो सकती है। हर एक जगह को शिद्दत से महसूस करना। उसे अपने अंदर उतार लेना।
विदा सफेद रेतीले किनारों से टकराते समंदर की लहरों ...विदा।