प्रवासी मानसिकता, भाषा और सृजन / कृष्ण किशोर
प्रवासी अहसास की कई परते हैं। कहीं न कहीं अतीत की बची-खुची ऐतिहासिक निजता बनी ही रहती है जो अपने कहीं और होने के एहसास को जीवित रखती है। ठीक अपने घर में न होकर कहीं और होने का एहसास ही प्रवासी एहसास है। अपनी परम्परा और पहचान से जुड़े रहना एक बात है, वहां बैठ कर एक ही ओर देखते रहने का नास्टेलजिया दूसरी बात।
अकिंचन होकर, मजबूर होकर, सभी सुविधाओं से वंचित होकर पराये देश में रहने की मजबूरी उन्हें थी जो गिरमिटिया होकर मारिशस, त्रिनिदाद या फिजी जैसे द्वीपों में डेढ़ सौ साल पहले रामायण की पोथी और हनुमान चालीसा लेकर चले आए थे। वे स्मृति कूप में भी थे और संघर्ष की कठोर धरती पर भी। अभिमन्यु अनत सिर्फ़ लाल पसीना से ही नहीं, बाकी रचनाओं से भी इस दोहरे संघर्ष की बात करते हैं।
आज के प्रवास में एक द्वन्द्व की स्थिति है। मान्यताएं टकराती हैं और निजी संघर्ष पैदा होते हैं। इन्हीं टकराहटों और निजी संघर्षों का प्रवासी साहित्य अधिक है। निजी संघर्षों से बाहर आकर प्रवास की स्थितियों में वहां के जीवन में झांकने के उत्सुक प्रयास भी हैं, लेकिन बहुत कम। इन दोनों से ऊपर उठकर, व्यापक सामाजिक, राजनीतिक, मानसिक संघर्षों और उथल-पुथल के साहित्य की अनुपस्थिति खटकती है। वृहत्तर मानवीय मूल्यों, सरोकारों और उन संघर्षों की निर्ममताओं का साहित्य नहीं है, जो हर ऊंचे साहित्य की पहली शर्त बनती है।
निरे बचपन में आकर, यहीं पले, बड़े होने वालों की मानसिकता अलग है। वे हिन्दी में नहीं लिखते। ज़्यादातर अंग्रेज़ी में लिखते हैं। भाषा बदल जाने पर भी कहीं न कहीं अपनी ही पहचान और मूल से जुड़ कर लिख रहे हैं। लेकिन संघर्षों की व्यापकता उनमें अधिक है। अपने आसपास की या निजी स्थितियों से उपर उठने का प्रयास भी अधिक। उपनिवेशिक मानसिकताओं और उन से पैदा हुए आंतरिक संघर्षों के ऐसे ही कथाकार सर विदिया हैं - यानी नायपाल। और अपने मूल देशों यानी भारत और पाकिस्तान में राजनीतिक और धार्मिक कुंठाओं, वर्जनाओं और क्षुद्रताओं के चितेरे सर सलमान यानी रश्दी। लम्बी कतार है अंग्रेज़ी में लिखने वालों की, लेकिन उनका ज़िक्र और उन की ऊंच-नीच अभी नहीं।
प्रवास में दो अलग संस्कृतियों के वृत्त एक दूसरे की परिधि को छूते भर हैं। कोई बड़ी सांझी जगह नहीं बनाते। किसी न किसी तरह मौजूदा परिवेश के, मौजूदा जीवन के साहसिक अनुभव अगर हमारी ज़िन्दगी का हिस्सा नहीं बनते, हम उस स्थान की पूर्णता को आत्मसात नहीं कर सकते। Adventure यानी साहसिकता अपने परिवेश से बाहर जाने की स्थिति का नाम है, जोखिम चाहे हो या न हो। एक सीमित सा, केवल कामकाजी क्षेत्र तक ही सीमित जीवन, अपनी आर्थिक प्रगति और बच्चों के भविष्य तक या तीज-त्योहारी शौक पूरे कर लेने तक का जीवन प्रवास को असली प्रवास भी नहीं रहने देता। बाहर आ कर बाहरी ज़िन्दगी को शामिल करने वाला प्रवासी सृजन हिन्दी में बहुत कम है। निर्मल वर्मा जैसे अपवाद ही रहे। लेकिन जब भी कहीं, एक टुकड़ा भी अगर उस साहसिक छलांग या adventure का मिलता है, वह साफ़, अलग खड़ा दिखाई देता है।
मैं यहां उन प्रवासियों का ज़िक्र कर रहा हूं जो अपनी शिक्षा की आखिरी सीढ़ी पर या आजीविका के लिए यहां आए। अपने ही जीवन, परिस्थितियों, मान्यताओं का संघर्ष इसलिए उन के जीवन में अधिक है। एक द्वन्द्व है, एक conflict, एक लड़ते जाने की जिजीवषा या टिक कर बैठ जाने का एहसास एक प्रवासी एहसास ज़रूर है। लेकिन स्मृति दंश भी ऐसा नही कि लौट जाने की छटपटाहट बनी रहे। अस्थाई भावुक क्षणों का उद्गार नास्टेलजिया की सृजन भूमि नहीं बनती।
इस संदर्भ में पहले उस मानसिकता का जायज़ा लेना ज़रूरी है जिस के तहत अपनी भाषाओं और संस्कृतियों की मौलिकता को बचा कर रखना मुश्किल हो जाता है। अपनी भाषाओं में प्रवासी सृजन केवल एक ही पीढ़ी के व्यस्कों तक सीमित रह जाता है। अगली पीढ़ी में अपनी भाषा का अज्ञान या कृत्रिमता ही बच जाती है। ऐसे में अपनी भाषा में सृजन की संभावना समाप्त हो जाती है। बच्चों की स्थिति उन माता-पिता से बिल्कुल भिन्न होती है जो अपना देश छोड़ कर विदेशों में जा बसे। ऐसे वातावरण में बड़ों के और बच्चों के भाषाई संघर्ष को आंकना बड़ा ज़रूरी है।
हिन्दी और विदेशी मानसिकता : जो भाषा औपचारिक और अनौपचारिक दोनों रूप से प्रयोग की स्थिति में नहीं आती, उस का प्रसार जनमानस और जनसंस्कृति के भीतरी कोष्ठों तक नहीं पहुंचता। अनऔपचारिक प्रयोग की स्थिति हिन्दी भाषा को भारत से बाहर रहने वालों की ज़िन्दगी में कभी नहीं मिली। उपयोगिता का सिद्धांत ही हमेशा इस भाषा पर लागू होता रहा, घर में भी और बाहर भी। किसी शैक्षिक, व्यवसायिक या प्रोफैशनल क्षेत्र में लाभप्रद होने की स्थिति में हिन्दी बाहर के देशों में तो क्या, अपने देश में भी नहीं बन सकी। यही कारण रहा है कि हमारा युवा वर्ग, ख़ासतौर से भारत से बाहर रहने वाला युवा वर्ग इस भाषा की अनुपयोगिता की स्थिति से जूझता रहता है।
कहीं न कहीं सभी प्रवासी अपनी मूल संस्कृति, मूल परम्परा और मानस से स्वभावतः या प्रकृतिजन्य रूप से जुड़े रहते हैं। यह जुड़ा रहना अवसरों, कुअवसरों पर बाहर भी झांकने लगता है। परम्परायें, रीति-रिवाज़, लोक जीवन में रची-बसी गहरी आकृतियां, मौसम-बेमौसम हमारे व्यवहार, हमारी स्मृति और हमारी पहचान को उकेरती रहती हैं। भाषा का इस एहसास से बड़ा सीमित सा रिश्ता रह जाता है। सिर्फ़ उन लोगों में भाषा इस एहसास का अहम् हिस्सा बनती है जो काफी देर से, परिपक्वास्था में अपना परिवेश छोड़ कर यहां आ बसे। जिन का बचपन अपने भाषायी परिवेश में बीता, जिनकी शिक्षा अपने ही वातावरण में हुई, चाहे किसी भी भाषा में हुई हो, उन का जुड़ाव अपने भाषायी एहसास से भी बड़ा घना बना रहता है। बचपन से ही जो अपने वातावरण से कट कर बाहर चले गये, उन्हें 'कहीं और' होने के एहसास के इलावा दूसरा कोई विच्छेदन कोंचता नहीं रहता। अपनी भाषा से टूटना उनके लिये औपचारिक या अनौपचारिक रूप से नगण्य बन जाता है।
विदेशों में हिन्दी भाषा के प्रयोग की एक बड़ी कृत्रिम स्थिति है। जो अपनी परिपक्वास्था में भारत छोड़ कर आये हैं, वे अपने घर में, अपनी पीढ़ी के लोगों के साथ अपनी भाषा का प्रयोग करते सुने जाते हैं। लेकिन उन के बच्चे चाहे किसी भी उम्र के हों, अपनी भाषा का प्रयोग नहीं करते। घर का वातावरण इतना प्रभावहीन होता है कि सारा दिन अपनी भाषा बोलने वाले माता-पिता अपने बच्चों को व्यवहारिक हिन्दी का प्रयोग करने की स्थिति में लाने में अक्षम रहते हैं। वे अपने उसी उपयोगियता सिद्धांत के शिकार बने रहते हैं या अपने बच्चों के पूरे विदेशीकरण में लगे रहते हैं, ताकि उन्हें बाहर के समाज, स्कूलों तथा अन्य गतिविधियों में पूरा भागीदार बनने का मौका मिल सके। बच्चे इस अलगाव का भीषण रूप से शिकार हो सकते हैं, यह बात यहां आते ही समझ आने लगती है। ठीक एक जैसा व्यवहार, बोलचाल, खान-पान के अतिरिक्त एक भीतरी बुनावट होती है जो हमारी पहचान बनती है। बड़ों से भी अधिक बच्चे उस पहचान से जुड़ते हैं। थोड़ा सा भी भिन्न होने पर उन्हें दूसरे बच्चों की अवहेलना मिल सकती है। सांस्कृतिक मानसिकता ऊपरी औपचारिक एकता से बहुत अधिक भीतरी और सत्तात्मक पहचान बनाती है। वही कुछ यहाँ के माता-पिता अपने बच्चों में पैदा करने की कोशिश करते रहते हैं। बाहर का माहौल, स्कूल, टेलिविज़न, रेडियो और फ़िल्में वह सांस्कृतिक मानसिकता पैदा करने में सब से अधिक सहायक होते हैं। भाषा का विकास भी उन्हीं माध्यमों से होता है। इसीलिए बच्चे स्वतः ही उस वातावरण को आत्मसात करते हैं। वे अपने माता-पिता का दूसरों से अलग होना खूब समझते हैं। लेकिन एक भीतरी तर्क उन्हें अनायास और प्रयासहीन रूप से उस विकास सिद्धांत से जोड़े रखता है। उन के अस्तित्व और विकास के स्त्रोत जहां हैं, उन का अर्न्तमन उधर स्वतः प्रेरित होता है। बाहरी प्रयत्न चाहे किसी भी प्रकार का हो, वह दूसरे दर्जे का ही बन कर रहेगा। प्राथमिकता का आधार सांसारिक अस्तित्व और विकास के स्त्रोत ही बने रहेंगे।
इस कृत्रिम स्थिति का एक और आयाम भी है। यह आयाम ज़्यादा संघाती है। वे प्रवासी लोग जो दिन-रात घरों में अपनी भाषा का प्रयोग करते हैं, घर से बाहर निकलते ही, अपने ही भाषायी मूल के लोगों से, जरा भी अपरिचय की स्थिति में सिर्फ़ अंग्रेज़ी या अन्य प्रवासी भाषा बोलना शुरू कर देते हैं। अपरिचय को और घना बना देती है यह स्थिति। अपना स्वरूप सामने आता ही नहीं। खुलने के लिए एक पूर्ण और स्वतन्त्र अभिव्यक्ति की आवश्यकता होती है। वह इन लोगों के पास सिर्फ़ अपनी भाषा में संभव हो सकती है। इन्हें सिर्फ़ ऊपरी व्यवहारिक क्रियाकलापों को ज़ाहिर करने वाली विदेशी भाषा ही आती है। मानसिक, सांस्कृतिक और सभी अन्तस्थलों को छूने, जोड़ने वाली अंतरंग विदेशी भाषा इन के पास नहीं होती। इन्हें मालूम है कि अपनी भाषा का एक ही वाक्य उस अपरिचय की दीवार को गिरा सकता है। केवल किताबें पढ़ कर सीखी हुई विदेशी भाषा किसी तरह के शक्तिदायक और विश्वासपूर्ण सम्बन्ध का आधार नहीं बन सकती, एकात्मकता पैदा नहीं कर सकती। लेकिन यह उसी औपनिवेशिक मानसिकता का हिस्सा है जो भारत में रहते हुए लोगों को भी अपंग बनाए हुए है।
घरों से बाहर भारतीय समूह अधिकतर जिन स्थलों पर इक्ट्ठा होते हैं, उन का सम्बन्ध किसी न किसी प्रकार उनके धर्म से जुड़ा रहता है। हिन्दू धर्म वाले अपने अलग-अलग मन्दिरों में इक्ट्ठा होते हैं, सिख अलग, मुसलमान अलग और थोड़े से ईसाई अपने अलग धर्मस्थलों पर। शादी-ब्याह या विशेष समारोहों की बात अलग है। होली, दीवाली जैसे सामाजिक पर्व भी धर्मस्थलों पर ही मनाए जाते हैं। सांस्कृतिक तथा अन्य सामाजिक, पारिवारिक समारोह सब धर्मस्थलों पर ही आयोजित होते हैं। वहां धर्म जैसी नितान्त निजी और सांस्कृतिक पद्धतियां अंग्रेज़ी या विदेशी भाषा में ही निभाई जाती हैं। धार्मिक ग्रन्थों का पठन-पाठन भी विदेशी भाषा में होता है। गीता का कृष्ण विदेशी भाषा में बोलता है। भारतीय उपनिषदिक दर्शन विदेशी भाषा में व्याख्यायित होता है। ऐसा नहीं है कि वहां के अधिकतर लोगों को सिर्फ़ दूसरी भाषा बोलने और सुनने की आदत होती है। ठीक इस के विपरीत इन श्रोताओं और श्रद्धालुओं में सिर्फ़ विदेशी भाषा बोलने-सुनने वाले हमारे युवक-युवतियां कम ही होते हैं। प्रवासी भाषा में उड़ेला गया गीता का व्याख्यान या अन्य धार्मिक प्रवचन कितने लोगों के कानों से आगे प्रवेश करता है, यह भी कोई जानने लायक चीज़ नहीं है। अंग्रेज़ी या किसी अन्य विदेशी भाषा में होने वाले सारे वार्तालाप एक बिल्कुल सतही, असम्बद्ध, एक तरफ़ा वाक्य विसर्जन के अतिरिक्त ऐसे अवसरों पर कोई अर्थ नहीं रखते। थोड़ी बहुत निजता का अवसर जो अपनी भाषा में वार्तालाप करने से स्थापित हो सकता है, जो सांस्कृतिक एकता का एहसास पैदा हो सकता है, जो थोड़ा बहुत धर्म में अच्छा देने के लिए है, उस सब से ये मानवसमूह वंचित रह कर आऊटिंग के रोमांच से भरकर अपने घरों को लौट जाते हैं। अफसोस इस बात का है कि सिर्फ़ अपनी भाषा का प्रयोग करने मात्र से इस तरह के सम्मेलन उन लोगों को कुछ देर के लिए ही सही, एक ऐसे रस से भर सकते हैं, ऐसी तृप्ति दे सकते हैं जो सज-संवर कर अपने आईने के सामने खड़ा होने में मिलती है। प्रवासी भाषा का तिड़का हुआ आईना थाम कर ये लोग न अपना रूप देख सकते हैं, न अपने सामने वाले का।
एक और विरोध : निरे बचपन में अधिकतर माता-पिता अपने बच्चों को भाषा और अन्य स्थितियों में बिल्कुल विदेशी बने देखना चाहते हैं। वे चाहते हैं उन के अधिक मित्र गोरे हों, उनके टीचर गोरे हों। उन को यहां की सब कहानियां पता हों, यहां के बच्चों के लिए ही जो किताबें लिखी गई हैं, बस वही किताबें उन के बच्चे पढ़ें। गर्व से कहते सभी सुनाई दे जाते हैं कि उन के बच्चों को अपनी भाषा भूलती जा रही है। क्या करें हम तो उन के साथ हिन्दी में ही बात करते हैं मगर वे जवाब अंग्रेज़ी में देते हैं। हम तो चाहते हैं कि उन्हें अपनी भाषा भी आनी चाहिये। लेकिन अधिकतर माता-पिता जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं।
वे नहीं चाहते कि उनके बच्चे हिन्दी में बात करें। वे नहीं चाहते कि वे बच्चे कोई भी हिन्दी की किताब पढ़ें। वे नहीं चाहते कि उन के अपने भारतीय मित्रों के साथ भी हिन्दी में बात करें। शुरू की स्थिति उन की सुरक्षात्मक भावना से और अस्तित्व के संघर्ष से तो जुड़ी होती ही है, इसके अलावा उस गुलाम मानसिकता से भी जुड़ी होती है जो भारत से वे अपने सामान के साथ बांध लाते हैं। जो कुछ अंग्रेज़ी या विदेशी है वह श्रेष्ठ है। बच्चे उसे ही अपनायें - गोरों जैसे दिखें, उन्हीं जैसा आचरण करें। भाषा तो बिल्कुल उन्हीं जैसी होनी ही चाहिये। अपनी भाषा सीखने के लिए सारी उम्र पड़ी है। बड़ा होकर सीख ही लेंगे।
संघर्ष का अर्न्तविरोध : सम्पन्नता की स्थिति में स्मृति-विस्मृति की धूप-छांव का खेल चलता रहता है। अपनी भाषा अपने रीति-रिवाज़ अपना पहनावा, अपने तीज त्यौहार, होली-दीवाली एक अनिवार्य ऊर्जा की तरह अपने देश से जुड़े होने की लौ को जगाये रखते हैं। इन पर्वों में हमारे बच्चे भी खूब शौक से शामिल होते हैं लेकिन यहां भी लोग उसी छद्म से बाहर निकल कर नहीं आते। घरों में हिन्दी बोलने वाले भी यहां समूह का हिस्सा बनते ही अंग्रेज़ी बोलने लगते हैं। अपने बच्चों को हिन्दी सिखाने और अपनी संस्कृति से जोड़ कर रखने की बात वे ठेठ हिन्दुस्तानी अंग्रेज़ी में करते हैं। अपनी पहचान का ढोल पीटना कानों को अच्छा लगता है। रिक्तता की गूंज थोड़ी देर के लिए उस शोर के नीचे दब जाती है। हर मन्दिर में (जो लगभग हर शहर में हैं) पूजा भवन के साथ जुड़े कुछ कमरे ज़रूर होते हैं जो बच्चों को हिन्दी भाषा या अपनी-अपनी भाषा सिखाने के लिए प्रयोग होते हैं। जब माता पिता विदेशी भाषा में पूजा-पाठ कर रहे होते हैं तो बच्चे उन कमरों में हिन्दी का ज्ञान प्राप्त कर रहे होते हैं। गर्व का विषय होती है यह चर्चा कि हम अपने बच्चे को हिन्दी सीखने भेजते हैं। यह बातें भी हिन्दुस्तानी अंग्रेज़ी में ही कही जाती हैं। इसी तरह भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन, नृत्य-संगीत का आयोजन लगभग सभी जगह किया जाता है। भरतनाट्यम और राग जयजयवन्ती हिन्दुस्तानी अंग्रेज़ी में सिखाया जाता है। नृत्य के बाद बजने वाली तालियों की कोई भाषा नहीं होती। बस वहीं लगता है कि मेकअप उतर गया है। ऐसे माहौल में बच्चे हिन्दी सीख कर भी जितनी हिन्दी याद रखेंगे या कभी भी प्रयोग करेंगे, इस बात का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है।
जब तक हमारे बच्चों में अपनी भाषा के प्रति सम्मान और आत्मविश्वास की स्थिति पैदा नहीं होती, अगली पीढ़ी में अपनी भाषा में सृजन की संभावना नहीं है। बड़ी शोचनीय बात है कि हिन्दी में किसी भी तरह का सृजन एक ही पीढ़ी तक सीमित रहता है। और उस पीढ़ी में अपने आप को विदेशी धरती पर स्थापित करने का संघर्ष अधिक होता है, अन्य सृजनात्मक संघर्ष कम। फिर भी आत्म-अभिव्यक्ति की ललक और आंतरिक विवशता उस पीढ़ी में है, उन्होंने भरपूर अपने आप को हर विधा में व्यक्त किया है। मुख्यतः कहानी और कविता ही प्रिय रही। कुछ एक रोचक उपन्यास भी रचे गए हैं। जिस भी द्वन्द्व, निजी परिवेश के संघर्ष की स्थितियां, समस्याएं प्रवासी सृजन में व्यक्त हुई हैं और लगातार हो रही हैं, उन्हें विशिष्ट दृष्टि सम्पन्न और पठनीय साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है।
लगभग सभी देशों में बेशुमार साहित्य आज हिन्दी में लिखा जा रहा है। उस में बहुत कम भारत की पत्रिकाओं में प्रकाशन पाता है। इसके कई कारण हो सकते हैं। संपर्क की कमी तथा रचना और समय की मांग का अन्तर भी आड़े आता है। फिर भी बहुत से लोग हैं जिन के नाम अपने परिवेश के बाहर जाने जाते हैं। वहां की रचनाओं पर टिप्पणी करने का इस संक्षिप्त लेख में अवसर नहीं है। यही कहा जा सकता है कि अपने परिवेश और भारतीय गंध को अपने लेखन में इन सभी ने खूब संवारा-बटोरा है।
जो है और जो नहीं है, के ब्योरे से ऊपर उठ कर एक बात जो निश्चित रूप से हैरान भी कर देती है और गर्व का कारण भी बनती है, वह है इतने बड़े पैमाने पर अपनी भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त करने की ललक और प्रयास। यह प्रयास एकतरफ़ा, बने बनाये पैमानों पर मूल्यांकन का मोहताज नहीं है। जिस जीवन की शर्त यह अभिव्यक्ति बनी हुई है, उस परिवेश को वृहत्तर हिन्दी आलोचना में शामिल करके एक नयी समीक्षा दृष्टि विकसित करने की आवश्यकता है। भारत में रह कर जो साहित्यिक महत्वाकांक्षाओं का घमासान है, वह यहां नहीं है। यहां है बस एक शुद्ध प्रयास और उससे मिलने वाला संतोष। ऐसे ही प्रयास में लगी हुई हैं बेशुमार प्रवासी हिन्दी सस्थाएं, पत्रिकाएं और वेबसाईटस। उदाहरण भी दिये जा सकते हैं - कथा यू.के., अनुभूति, अभिव्यक्ति, संगम, पुरवई, विश्व, विवेक दर्पण और अन्यथा। नाम भी इतने कि गिनाए नहीं जा सकते। एक भरा-पूरा संसार है प्रवासी साहित्य का, अपने-आप में संपूर्ण दुनिया - अपनी पहचान खुद बनाती हुई, अपनी मंज़िलें अपनी रफ्तार से तय करती हुई।