प्रवासी मेड्स को समर्पित पहला उपन्यास ‘अरुणिमा’ / रश्मि विभा त्रिपाठी
उपन्यासकार रीता कौशल का 'अरुणिमा' उपन्यास हिन्दी साहित्य का पहला उपन्यास है जो प्रवासी घरेलू सहायिकाओं (मेड्स) के जीवन पर केन्द्रित है। उपन्यासकार ने एक ऐसे विषय पर बहुत ही संवेदनशीलता से लिखा है, जो विषय अब तक अछूता रहा है।
प्रवासी साहित्यकार रीता कौशल हिन्दी साहित्य जगत् में अपने सराहनीय योगदान के लिए जानी जाती हैं। विदेश में रहकर अपनी मातृभाषा हिन्दी की सेवा में लगी रीता कौशल ने सिंगापुर में हिन्दी शिक्षण किया है, वे विभिन्न संस्थाओं में स्वयंसेवक के रूप में सक्रिय हैं, उन्होंने हिन्दी समाज ऑफ वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया की वार्षिक पत्रिका का सम्पादन किया है। ऑस्ट्रेलिया सरकार की लोकल काउंसिल में वित्त अधिकारी के पद पर कार्यरत रह चुकीं रीता कौशल को भारत के वाणिज्य दूतावास पर्थ द्वारा हिन्दी भाषा व साहित्य में उनके योगदान के लिए वर्ष 2023 में सम्मानित किया गया है। साहित्य की विविध विधाओं में उनके गुणात्मक लेखन के लिए उन्हें अनेक पुरस्कार मिले हैं। वे अपने बारे में कहती हैं–"मैं क़लम घिसने में विश्वास नहीं करती। किताबों का ढेर लगाने के बजाय मैं लेखन की गुणवत्ता पर हमेशा ध्यान देती हूँ।"
'अरुणिमा' उपन्यास प्रवासी घरेलू सहायिकाओं की जीवन-यात्रा है, जो विस्थापन की राह पर चलती हैं, जहाँ हर पड़ाव पर संघर्ष है और जिसकी मंज़िल निष्कासन है। नायिका अरुणिमा पुत्र-प्राप्ति की पारंपरिक सोच से त्याग दी जाती है। निःसंतान मास्टर जी उसे गोद ले लेते हैं। उसे गोद लेने के कुछ समय बाद उनकी पत्नी सावित्री के दो जुड़वाँ बेटे पैदा होते हैं और पैदा होता है अरुणिमा का अन्तहीन संघर्ष।
अपने दोनों बेटों के भविष्य के प्रति चिंतित सावित्री को विधवा बेअंत से मिलकर उनके उज्ज्वल भविष्य का रास्ता मिलता है और अरुणिमा को विस्थापन की अंधी गली। सावित्री अपने पुत्रों के भविष्य के लिए बेअंत के सहयोग से अपनी दत्तक पुत्री अरुणिमा को सिंगापुर भेज देती है। पारिवारिक जिम्मेदारियों और सामाजिक अपेक्षाओं के बीच जकड़ी स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती अरुणिमा एक मेड बनकर विदेश जाने के लिए विवश हो जाती है। एक दीन-हीन ट्रेनिंग सेंटर में रह रही अरुणिमा के पास केवल कागजी कार्यवाही की चिंता से आया माँ का पत्र यह प्रमाणित करता है कि पारिवारिक, सामाजिक अपेक्षाएँ व्यक्तिगत सम्बन्धों और मानवीय भावनाओं को कैसे नजरअंदाज कर देती हैं! पारिवारिक कर्तव्य निभाने के लिए अरुणिमा एक अनजान देश में जाती है और अकेलेपन, असुरक्षा के माहौल में अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयास करती है। उसे सिंगापुर जाते ही काम दिलाने का आश्वासन दिया गया लेकिन उसे वहाँ एक मेड एजेंसी के हवाले कर दिया गया, जहाँ वह अन्य मेड के साथ एक छोटे-से कमरे में रहती है, ट्रेनिंग के नाम पर उसे मुफ्त की नौकरानी बना दिया जाता है, उसे भरपेट भोजन तक नहीं दिया जाता, उसकी कमाई का अधिकांश हिस्सा एजेंसी द्वारा हड़प लिया जाता है और शेष राशि भी कर्ज़ चुकाने में चली जाती है। वह कर्ज़ के बोझ तले पूरी तरह से दब जाती है।
रीता कौशल ने सिंगापुर में अपने प्रवास के दौरान इन प्रवासी घरेलू सहायिकाओं के जीवन को बहुत करीब से देखा है और यह महसूस किया है कि वे हैं तो सहायिका; लेकिन ख़ुद बहुत असहाय हैं। अपने गृह देश से अपने परिवार का भरण-पोषण करने का मकसद लिए हज़ारों मील दूर विदेशी धरती पर आने वाली प्रवासी घरेलू सहायिकाएँ यानी मेड्स सिंगापुर की अर्थव्यवस्था व सामाजिक क्षेत्र का एक अहम हिस्सा हैं और सिंगापुर के घरेलू क्षेत्र में एक बड़ी भूमिका निभाती हैं। ये मेड्स वहाँ के निवासियों को गृहकार्य से मुक्त करती हैं ताकि वे अपने व्यावसायिक कार्य पर ध्यान दे सकें। घर सँभालकर पारिवारिक, सामाजिक स्थिरता बनाने, आर्थिक और सामाजिक विकास को गति देने में इन मेड्स का बहुत बड़ा योगदान है, फिर भी इन्हें हाशिए पर रखा जाता है। नियोक्ता इनके साथ गुलामों—सा व्यवहार करते हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि हम उनकी सेवाओं के लिए उन्हें भुगतान करते हैं–
"ये सुबह-सुबह उठकर घर चमका दिया तूने तो! ओह... कहीं तू ये सब सर को रिझाने के लिए तो नहीं कर रही?"
उसने कुछ कहना चाहा, तब–
कैथी के शब्द कानों में गूँज गए, 'सहने की आदत डालेगी, तभी दूसरों के घर में वक़्त काट पाएगी'
उसे याद आया–उसका पासपोर्ट... उसका वर्क परमिट, सब मैडम के अधीन है। प्रत्युत्तर का एक शब्द भी महँगा पड़ सकता है।
और वह चुप सुनती है–
"दिख रहे हैं तेरे संस्कार! आज के बाद ये लटके-झटके दिखाने की कोशिश की नऽऽऽ तो उसी वक़्त तेरी एजेंट को बुलाकर तुझे वापस भेज दूँगी। ये ज़मीन पर बैठ-बैठकर अपना सबकुछ दिखा पोंछा लगाने का ढोंग रचती है नऽऽऽ, वह यहाँ नहीं चलेगा। कुछ समझी? ..."
"ये लाइट क्यों बंद कर देती है... यहाँ क्या घोड़े बेचकर सोने आई है?"
घर में कपड़े धोने की मशीन थी, पर अरुणिमा को अपने कपड़े, बिस्तर सब हाथों से धोने होते थे।
मेड्स का वर्क परमिट कभी भी कैंसिल किया जा सकता है, इसलिए अपनी नौकरी खोने के डर से वे सबकुछ सहन करती हैं–अत्यधिक कार्यभार, अपर्याप्त भोजन, वाजिब मेहनताना न मिलना, तनख्वाह में कटौती, निष्कासन की धमकी और उनकी गरिमा को बार-बार ठेस पहुँचाता नियोक्ता का अमानवीय व्यवहार–
"और ये बालों के छल्ले बनाकर माथे पर किसे दिखाने को बिखेर रखे हैं... बहुत पंख निकल आए हैं तेरे!"
अरुणिमा के समझाने पर मालकिन के शब्द–"बस-बस, बड़ी आई अपना घर समझने वाली! मेरे पति को भी अपना यार मत बना बैठियो तू..." (अध्याय 27) विकसित देशों की असलियत बयान करते हैं कि किस प्रकार वहाँ आज भी शोषण मौजूद है। सिंगापुर में प्रवासी श्रमिकों के लिए कानूनी संसाधन सुलभ होने के बावजूद मेड्स कानून का सहारा नहीं ले पातीं क्योंकि लम्बी कानूनी कार्यवाही के लिए ये आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होतीं। अपने अधिकारों से वंचित चुनौतीपूर्ण जीवन जीती ये प्रवासी सहायिकाएँ उस व्यवस्था की पोल खोलती हैं, जहाँ मेड की घर में तो जगह होती है लेकिन घर के मालिक के मन में उनके लिए कोई जगह नहीं होती। विभिन्न श्रेणियों में बँटी ये प्रवासी घरेलू सहायिकाएँ इतनी असहाय हैं कि इनके पास अपनी व्यक्तिगत पहचान तक नहीं है–
"इंडोनेशियन मेड्स से कुछ भी कहो, वे चुपचाप सहन कर लेती हैं।"
ये प्रवासी मेड्स न केवल श्रेणी विभाजन का चेहरा दिखाती हैं; बल्कि नियोक्ताओं की अपने प्रति सोच और ख़ुद की स्थिति पर विचार करते समय उनकी बदलती सोच के पीछे छिपे उनके दोहरे दृष्टिकोण से भी परिचित कराती हैं कि व्यक्ति जब ख़ुद इस प्रकार की असमानताओं का सामना करता है, तो उसकी मानसिकता में कैसे बदलाव आ जाता है।
सिंगापुर में प्रवासी घरेलू सहायिकाओं की असहाय स्थिति को बेहतर बनाने के लिए सरकार और संगठन के प्रयासरत होने के बाद भी श्रम कानूनों का उल्लंघन कर एक मेड का शोषण उस असमान शक्ति संरचना को दिखाता है, जिसमें उच्च वर्ग अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर निम्न वर्ग को दबाता है। विकसित देशों में भी प्रवासी श्रमिकों का हाल यह है कि सिंगापुर में सवा साल काम करने के बाद भी सिंगापुरी डॉलर को अपने हाथ में देखना अरुणिमा के लिए एक सपना ही था। नियोक्ता अरुणिमा का हिसाब करते समय कई नुकसानों की क़ीमत उसकी तनख्वाह से काट लेती है जबकि यह सिंगापुर के जनशक्ति मंत्रालय (एमओएम) के नियमों के विरुद्ध है। यही नहीं, वह जाते वक़्त उसको दिया सामान भी वापस ले लेती है–
"अच्छा सुन! वह पैकेट भी निकाल।" मैडम ने फिर से आदेश दिया।
कौन-सा पैकेट मैम? "
"पैड का पैकेट, जो पिछले महीने ही मैंने खरीदकर दिया था तुझे... तूने कोई पैसा थोड़े ही दिया था मुझे उसका... और तेरे हिसाब में लिखना भूल गई थी मैं उसे।"
"वो तो पिछले महीने के पीरिएड्स के दौरान मैंने यूज कर लिया था।"
"पूरे 20 पैड का पैकेट थोड़े ही लग गया होगा एक महीने में?" (अध्याय 28)
इस तरह के ओछे व्यवहार और नियोक्ता द्वारा उसके निजी सामान की जाँच करने के असामान्य तरीके से आहत अरुणिमा अपने दर्द को जब कैथी से व्यक्त करती है, तो हर ट्रांसफर पर फीस वसूलने वाली कैथी का संवाद संस्थाओं की स्वार्थपूर्ण नीति व संवेदनहीनता को उजागर करता है-"हम ज़्यादा चूँ-चपड़ करेंगे तो वह हमसे मेड लेना बंद कर देंगे।" (अध्याय 28)
अरुणिमा जिनके भविष्य की खातिर परदेस में दूसरों के घरों में काम करने गई, उन्हीं भाइयों का एक मेड को अपनी बहन के रूप में स्वीकार न करना यह दिखाता है कि एक महिला की पहचान केवल उसके काम के आधार पर तय की जाती है। भले ही एक महिला आर्थिक रूप से परिवार का सहारा बन रही हो, लेकिन जब वह मेड के रूप में काम करती है, तो उसका परिवार ही उसे स्वीकार करने में अपने आपको छोटा महसूस करता है।
जब अरुणिमा पालतू लुहान मछली से अपने दुख साझा करती है, तब उसके अकल्पनीय अकेलेपन की पीड़ा हृदय को द्रवित कर देती है। जीवन भर अपनत्व को तरसती अरुणिमा का अकेलापन बलविंदर नामक व्यक्ति भाँपता है और उसका साथ निभाने का वादा कर उसके साथ आत्मीयता जोड़ लेता है; लेकिन अरुणिमा को क्या पता था कि उसके जीवन में पहली बार एक उम्मीद जगाने वाला बलविंदर उसके जीवन की त्रासदी है। बलविंदर उसका यौन शोषण कर भाग जाता है और उसकी इकलौती उम्मीद क्या, उसे ही तोड़ देता है। अरुणिमा गर्भवती हो जाती है।
सिंगापुर का कानून एक मेड को वहाँ गर्भधारण करने, बच्चा पैदा करने की अनुमति नहीं देता। यदि मेड गर्भधारण करती है तो नियोक्ता की सहमति से गर्भपात कराकर ही वह आगे काम कर सकती है, अन्यथा उसे ब्लैकलिस्टेड कर उसके देश वापस भेज दिया जाएगा। यह न्याय है या अन्याय? घरेलू सहायिकाओं का यौन उत्पीड़न करने वाले अपराधी पुरुष को सजा देने के बजाय यौन उत्पीड़न की शिकार महिला को ही सजा क्यों? आख़िरकार अरुणिमा जीने के अधिकार के तहत अपने बच्चे को जन्म देने का निर्णय लेकर वापस लौट आती है उस समाज में, जिसके लिए बिन ब्याही माँ बनना एक पाप है; लेकिन यौन उत्पीड़न नहीं।
उपन्यास में अलग-अलग देशों में प्रवासी श्रमिकों की स्थिति में अंतर, अंतर्राष्ट्रीय श्रम कानून से सम्बन्धित सटीक जानकारी के अतिरिक्त सिंगापुर की भौगोलिक स्थिति, सामाजिक संरचना, कार्य-संस्कृति और जीवनशैली का भी वर्णन किया गया है। उपन्यास की सरल, सहज, सजीव तथा प्रवाहमय भाषा पात्रों की भावनाओं को प्रभावी ढंग से व्यक्त कर पाठक का उनके साथ भावनात्मक जुड़ाव महसूस कराती है। उपन्यास आदि से अंत तक पाठक में जिज्ञासा जगाए रखता है और उसे विषय से बाँधे रखता है।
'अरुणिमा' उपन्यास एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपन्यास है क्योंकि यह चर्चा से बाहर रहे समाज के एक उपेक्षित वर्ग के जीवन की सच्चाई को सामने लाता है, जो घरों में काम करते हुए भी समाज की मुख्यधारा से बाहर रहता है।
नोबेल विजेता उपन्यासकार अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने कहा है-लेखक का काम सच बोलना है। उपन्यासकार ने लेखकीय दायित्व का भली-भाँति निर्वाह करते हुए अपने इस उपन्यास में वैश्विक स्तर पर प्रवासी घरेलू श्रमिकों की वास्तविक स्थिति का व्यापक विश्लेषण किया है और विश्व के देशों की सरकारी नीतियों, कानून में अपेक्षित बदलाव, समाज में सुधार तथा व्यक्ति में मानवीय चेतना की जागृति की आवश्यकता को रेखांकित किया है ताकि वहाँ श्रम कर रहे श्रमिकों का जीवन बेहतर हो सके। प्रवासी मेड्स की यह जीवन-यात्रा अँधेरी राह पर चलते श्रमिक वर्ग के लिए समाज, देश व विश्व को प्रकाश पुंज बनकर उनका मार्ग प्रशस्त करने की प्रेरणा देती है तथा मानव को मानव समझने का मानवता का संदेश देती है।
प्रवासी घरेलू सहायिकाओं को समर्पित पहला उपन्यास 'अरुणिमा' साहित्य जगत् में सदैव चर्चित रहेगा और पाठक वर्ग के बीच अपनी पैठ बनाए रखेगा।
उपन्यासकार रीता कौशल को हार्दिक बधाई, साधुवाद।
'अरुणिमा' (उपन्यास) : रीता कौशल पृष्ठ: 196, मूल्य: 450 रुपये, ISBN: 978-93-92013-06-5, प्रथम संस्करण: 2022, प्रकाशक: ग्रंथ अकादमी, भवन संख्या-19, पहली मंजिल, 2, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
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