प्रवेश : फिर छिड़ी बात कला-फ़िल्मों की / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
यह किताब भारत के समान्तर सिनेमा आन्दोलन के प्रति अनुराग और अतीत-मोह का परिणाम है। बहुत जन अपने समय में उन फ़िल्मों पर अनुरक्त और मोहाविष्ट रहे हैं, इससे उन पर बातें करना निरा एकालाप नहीं रह जाता, बल्कि एक ऐसी समूह-गोष्ठी बन जाता है, जिसमें ख़ूब रस लेकर आपसदारी की जाए। वैसी चौके में चिमटे की तरह रख भूली चर्चाओं को फिर छेड़ बैठना ही इस पुस्तक का प्रयोजन है।
मुख्यतः 1970-80 के दशक में बनाई गई समान्तर सिनेमा की ये तस्वीरें 'कला फ़िल्में' कहलाती थीं। इस बात पर मुख्यधारा के लोकप्रिय सितारे ऋषि कपूर बहुत बिगड़ते थे। वह कहते थे, "अगर ये 'कला फ़िल्में' हैं, तो हम जो नाचते-गाते, लोगों का मन बहलाते हैं, क्या उसमें कला नहीं है?” बात उनकी सही थी। कला उसमें भी थी। पर कला का मूल्यांकन उसके इरादों और मंसूबों से किया जाता है। जिस कला का व्यवहार जनता का मनोरंजन कर धन कमाने के उपकरण की तरह किया जाता है, वह अपने इसी अभिप्राय के चलते ऊँचे मेयार की कला नहीं बन पाती है। इसके उलट ऐसी कला भी होती है, जो व्यक्ति और समाज के गम्भीर अन्तर्सत्यों का उद्घाटन करती है। वह जानती है कि आमजन को कदाचित् यह बात रुचिकर न लगे या इसमें आर्थिक सफलता न मिले, तब भी वह डिगती नहीं। इससे उसका क़द स्वयमेव ऊँचा हो जाता है।
हुआ यह कि 1980 के दशक के अन्त में जब दूरदर्शन पर हर रविवार को अमिताभ या मिथुन की फ़िल्मों का बेसब्री से इंतज़ार किया जाता था, तब एक बार उन्होंने 'सारांश' चला दी। जिन्हें सप्ताहान्त में मसाले की तलब थी, उन्होंने माथा पीट लिया। पर अनेक संवेदनशील दर्शक ऐसे भी थे, जो उसको टकटकी बाँधे देखते रहे। उनमें से बहुतों को इसे छबिगृह में जाकर देख आने का अवसर नहीं मिला होगा, पर समाचार-पत्रों में इसकी प्रशस्तियाँ उन्होंने पढ़ रखी होंगी। और यक़ीनन, उसे देखकर उन्हें बहुत तीक्ष्णता से यह अनुभव हुआ कि इस फ़िल्म में एक ऐसे तत्त्व को उभारा गया है, जिसे अमूमन वे मुख्यधारा के सिनेमा में नहीं देखते हैं। उसमें मनुष्यता के गहरे आशय थे, यथार्थ का काव्य और कलात्मक उत्कर्ष था।
दूरदर्शन तब ऐसी अनेक 'कला-फ़िल्में' दिखाता था। सामान्यतः माना जाता है कि ऐसी फ़िल्में उबाऊ होती हैं। जबकि वास्तव में वे बहुत रोमांचक और मनोरंजक थीं- अलबत्ता यह आपकी सुरुचि के औज़ारों पर निर्भर करता है। उनकी तुलना बॉलिवुड की मसाला फ़िल्में एकबारगी उबाऊ समझी जा सकती हैं। वही मार-धाड़, वही मेलोड्रामा, वही कानफोड़ू पार्श्वसंगीत, वही घिसे-पिटे संवाद, वही नाच-गाना। ऐसी पचासेक फ़िल्में देखने के बाद आप इन जैसी फ़िल्मों के बारे में पूर्वानुमान लगाने में सक्षम हो जाते हैं कि अगले दृश्य में क्या होगा। जबकि कला-फ़िल्में पूर्णतः अप्रत्याशित होती थीं। उनकी कहानियाँ नई और ताज़ी थीं। उनका फ़िल्मांकन संवेदनशील था। उनमें दिखलाया जाने वाला यथार्थ अपने समय के निम्न-मध्यवर्गीय जीवन के बहुत निकट था। आप उनसे आत्मीयता का अनुभव करते थे।
श्याम बेनेगल की 'जुनून' देखते समय मजाल है, जो आप टस से मस हो जाएँ। या 'मंथन' को ही देख लें, जो पूरे समय आश्चर्य से बाँधे रखती है कि भला गाँव-देहात के दूध-विक्रेताओं पर भी कोई फ़िल्म बना सकता है। 'अंकुर' अत्यंत मनोरंजक थी- मनोरंजन के प्रचलित अर्थों में भले नहीं। 'जाने भी दो यारो' हँसाती है, पर उसके डार्क-ह्यूमर में एक सटीक सोशल कमेंट्री भी है। नसीरुद्दीन शाह कला फ़िल्मों के अमिताभ बच्चन कहे जाते थे। ऐसी कोई कला-फ़िल्म नहीं होती थी, जिसमें वह अवतरित न हों। साथ ही स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी, ओम पुरी, फ़ारूख़ शेख़, पंकज कपूर, अनंत नाग, गिरीश कर्नाड आदि के चेहरे नियमित रूप से उनमें नज़र आते। इन फ़िल्मों की अपनी ही एक दुनिया थी। इन्होंने दर्शकों की सामाजिक चेतना और कलात्मक-रुचियों को जगाया और फ़िल्म-माध्यम से उनकी अपेक्षाओं को उठाया था। 'दामुल', 'चक्र', 'निशान्त', 'पार', 'त्रिकाल', 'गमन', 'अल्बर्ट पिंटो', 'कलयुग', 'आक्रोश', 'मासूम'- यह फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी खिंच सकती है। पर इनमें से किसी फ़िल्म को देखकर संवेदनशील दर्शक यह नहीं कह सकता कि आर्ट फिल्में नीरस होती हैं!
दूरदर्शन पर 'थोड़ा-सा रूमानी हो जाएँ' देखते समय ज़रूर कई निष्ठावान दर्शक भी डोले होंगे। उसकी नाटकीय संवाद अदायगी से स्वयं को जोड़ नहीं पाए होंगे कि तभी दृश्य में नाना पाटेकर नमूदार होते हैं और अपने तल्लीन अभिनय से फ़िल्म को जीवन्त बना देते हैं। कला-फ़िल्मों में डगमगाया विश्वास पुनः प्रतिष्ठित हो जाता है। 1997 में स्वतंत्रता की 50वीं वर्षगाँठ के अवसर पर दूरदर्शन पर 'मेसी साहब' दिखाई गई थी और दर्शक उसके आस्वाद को कभी भूल नहीं पाए। न ही वे भूले रमेश बक्षी के उपन्यास 'अठारह सूरज के पौधे' पर आधारित अवतार कृष्ण कौल की फ़िल्म '27 डाउन' को, जिसमें रेलयात्राओं का रूपक जीवन के साथ-साथ चलता है- खड्डे-खाइयों को लाँघता हुआ।
क्या एम.के. रैना सरीखे दढ़ियल भी हीरो हो सकते थे? क्या 'स्पर्श' के सींकिया मोहन गोखले भी लड़कियों के चहेते हो सकते थे या 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' के बनियानधारी रजित कपूर? भला ओम पुरी का खुरदुरा चेहरा किसी फ़िल्म में ख़ुद को नायक की तरह कैसे प्रस्तुत कर सकता था? इन सब सवालों का जवाब हाँ था और यही कला फ़िल्मों का आश्चर्यलोक था- यथार्थ में सना होने के बावजूद।
1990 का दशक आते-आते हिन्दी समान्तर फ़िल्म-आन्दोलन की धार क्षीण हो गई थी, जो 1970 के दशक से ही उर्वर रही आई थी। अब तो वह लुप्तप्राय ही है। क्योंकि सिनेमा अपने समय को प्रतिकृत करता है और जिस पूर्व-भूमण्डलीकृत, नियति-वंचित भारत का चित्र उन फ़िल्मों में उभरा था, उसका गुणसूत्र ही अब बदल चुका है। नया भारत चाहकर भी वह सिनेमा अब नहीं बना सकता, क्योंकि उसके पास अब वैसा यथार्थ नहीं और न ही वैसी धीरज-भरी सौंदर्यदृष्टि है, जो गम्भीर होने से संकोच नहीं करती और दर्शकों को लुभाने के लिए व्याकुल नहीं है। ओ.टी.टी. पर ज़रूर आज भी चमन के दीदावरों के लिए जब-तब कोई समान्तर फ़िल्म नज़र आ जाया करती है- उजाड़ बयाबाँ में नरगिस के फूल की तरह।
यह पुस्तक उसी भूले-बिसरे समान्तर-सिनेमा के प्रति एक आदरांजलि है। उसकी भावभीनी याद आज भी अनेक फ़िल्म-प्रेमियों के मन में बसी होगी, इसमें संशय नहीं। वैसे जन इस किताब से बहुत आनन्द पाएँगे और इसे खोजकर पढ़ेंगे, यह विश्वास मुझे है। आशा है उन्हें यह यात्रा मार्मिक, सुन्दर, अन्तर्दृष्टिपूर्ण और संतोषकारी लगेगी।