प्रश्नोत्तर / एक्वेरियम / ममता व्यास
सदियों से हम सभी अपने-अपने उत्तर की खोज में ही हैं। कौन जाने कब से 'कोई' आपके मन की तलहटी में छिप के बैठा होता है। रोज हम उसके साथ ही होते हैं। वह सिर्फ़ महसूस होता है दिखता नहीं और एक दिन जब दुनिया के हजारों चेहरों के बीच कोई एक चेहरा आपको उस अपने भीतर के 'कोई' से मिलता-जुलता-सा दिखता है तो हम हैरान होते हैं कि अरे...ये तो वही है। प्रतिबिम्ब ही सही, भीतर का प्रतिबिम्ब ही तो बाहर चमकता है। हमारी प्यास, हमारी खोज, हमारी तलाश के आसपास ही होता है वो। अजीब विरोधाभास है। पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में, लेकिन ना जाने क्यों सदियों से नाम साथ-साथ ही लिए जाते हैं। खुद को छलने के लिए, तसल्ली देने के झुनझुने हैं ये। ज़िन्दगी की नोटबुक पर हम सभी खाली प्रश्न हैं। हम सभी अपने-अपने उत्तर खोजते हैं। नोटबुक के अंत में जो उत्तरमाला है ना, उसे देखना मना है।
मौन के भी अजीब रहस्य हैं, जो बातें हजारों हजार शब्दों में कही गयीं। दरअसल वह बातें बेकार थीं। ज़िन्दगी की सबसे सुन्दर बात तो आज भी होंठों की कैद में है। वह इतनी पवित्र है कि बाहर आने पर मैली होने का डर है, शायद इसीलिए वह नहीं कही गयी, जैसे दुनिया का सबसे सुन्दरतम प्रेम अभी व्यक्त होने को है। असली प्रेम प्रश्न और उत्तर के बीच ही होता है। जब सारी दुनिया सो जाती है, तब ज़िन्दगी की नोटबुक में से निकल कर सभी उत्तर चुपके से अपने प्रश्नों के गले लग जाते होंगे। उनके इस प्रेम को देख कर तारों की आंखें भर आती होंगी। चांद छुप जाता होगा। मछली, तैरना भूल कर गहरी तलहटी में समा जाती होगी।
कोई दूरी, कभी किसी को दूर नहीं कर सकती। उलटा पास ही करती है। सही बात-कोई भी चीज इक ही तरीके से खत्म नहीं होती। सौ तरीके हैं साहब, खत्म करने के, मिटाने के. कभी कह-कह कर या कभी कुछ भी ना कह कर, कभी इक जैसे होकर या कभी इक होकर। मिटना-मिटाना दोनों सूरतों में होगा ही। रोम जल रहा था। बांसुरी बज रही थी। कौन जाने रोम के रोम-रोम जलने से बांसुरी के मधुर सुर बनते थे या बांसुरी के बजने से रोम जलता था।
हम सभी शीर्षकहीन देह ही हैं। हम शब्दों से रोज बनते हैं और रोज ही शब्दों की वजह से मर जाते हैं, फिर कोई शब्द हमें जिन्दा करता है, फिर कल कोई शब्द हमें मार देगा। हम फिर इस देह को उतार फेकेंगे और अपने भाव के साथ अपने उत्तर को तलाश लेंगे। खत्म नहीं होता है तो बस वह 'कोई' ।
"कोई भी लम्हा ऐसा नहीं है जिसमें मेरे वह होता नहीं है। मैं सो भी जाऊँ रातों को लेकिन वह है कि मुझ में सोता नहीं है..."