प्रश्न अनुत्तरित / तेजेन्द्र शर्मा

Gadya Kosh से
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सोनू ने कराह कर करवट बदली और दुष्यंत लपक कर अपने पुत्र के करीब पहुँच गया; उसकी पीठ सहलाई, पुचकारा और नर्स को बुलाने के लिए घण्टी का बटन दबाया। आज हस्पताल में सोनू का तीसरा दिन है। लगभग छत्तीस घण्टे तो वह बेहोश ही रहा था। सोनू के इस एक्सीडेण्ट से दुष्यंत भीतर तक हिल गया था। नर्स आई, ग्लुकोस की मात्रा और उसका टपकना चेक किया और चली गई। दुष्यंत एक बार फिर सोनू के साथ अकेला था। ऊपर छत पर एक बहुत पुराना और मोटा-सा पंखा घुर-घुर की आवाज़ किए चल रहा था। सम्भवत: एक अर्से से उसमें ग्रीस नहीं लगाई गई थी। दुष्यंत के अपने जीवन में भी तो ग्रीस की ही कमी थी। सम्भवत: इसीलिए उसका अपना जीवन भी इसी पंखे की भाँति चल रहा था। पिछले छ: वर्ष से उसका सारा चिन्तन सोनू पर ही केन्द्रित था।...सोनू, उसका इकलौता पुत्र! पंखे की घुर-घुर पर सवार दुष्यंत छ: वर्ष पहले के जीवन में पहुँच गया।...सावित्री...उसकी पत्नी...छोटी-सी उसकी गृहस्थी...सब उसके दिमाग़ पर छाने लगे। उस शाम वह दफ्तर से वापिस लौटा था तो सावित्री छाती पक़डे बैठी थी। सुबह से कई उल्टियाँ कर चुकी थी। दुष्यंत दफ्तर से थककर आया था। कोई विशेष ध्यान नहीं दिया उसने। चार महीने का सोनू सो रहा था। चाय बना कर ले आई थी सावित्री और छाती दबाकर वहीं बैठ गई। वहीं फर्श पर उल्टी भी कर दी। उल्टी में लाल रंग देखकर दुष्यंत के होश ही उड़ गए। चाय वहीं छोड़ी और भागा डॉक्टर को बुलाने। डॉक्टर गुप्ता जैसे उनके घर के ही आदमी थे। तुरन्त साथ हो लिए। आकर उल्टी का रंग देखा; सावित्री की नब्ज़ परखी और स्टैथकोप से उसकी छाती एवं पीठ का मुआयना करने लगे। एक इंजेक्शन लगाया और कुछ गोलियाँ खाने को दीं। दुष्यंत उन्हें बाहर तक छोड़ने भी आया, 'डॉक्टर साहिब, सब ठीक तो है नााँ' "अभी एकदम कुछ कह नहीं सकते दुष्यंत। दवा तो दे दी है। अच्छा ऐसा करो, कल इन्हें अस्पताल में भर्ती करवा दो। खून, थूक और पेशाब के टैस्ट लिख दिए हैं, वे सब करवा लो। पैथॉलॉजी रिपोर्ट आने के बाद ही किसी नतीजे पर पहुँच सकते हैं।...डोण्ट वरी, सब ठीक हो जाएगाा।' डॉक्टर ने डोण्ट वरी तो अवश्य कहा था, परन्तु दुष्यंत को डॉक्टर की भंगिमा और लहजे से लगा कि बात चिन्ता की ही है। रात को दवाई लेकर, सोनू को दूध पिला कर, सावित्री तो सो गई। किन्तु दुष्यंत की ऑंखों में नींद कहाँ? किसी अनहोनी के डर से ऑंखें बन्द नहीं हो पा रही थीं। नींद से लड़ते-लड़ते, वह कब गहरी नींद सो गया, उसे पता ही नहीं चला। नींद खुली भी तो सोनू के रोने से। बाहर सूर्य की रोशनी भी दिखाई देने लगी थी-यानि वह देर तक सोया था। किन्तु सावित्री तो सवेरे उठकर उसे चाय बनाकर पिलाती थी। आज क्या हुआ! सावित्री की तबीयत ठीक नहीं, उसे एकाएक ध्यान आया। सोनू सावित्री की बगल में लेटा कुनमुना रहा था। दुष्यंत ने आवाज़ दी, 'सावित्री! सोनू को भूख लगी है, उसे दूध तो पिला लो।' सावित्री अब भी मीठी-मीठी नींद में सोई थी। दुष्यंत गुस्से में उठा; फिर एकाएक मन में शंका ने न उठाया। आसमान की ओर देखा, मन-ही-मन भगवान शंकर को याद किया और सावित्री के सिरहाने जा खड़ा हुआ। मन हुआ कि उसे झिंझोड़ कर उठा दे। फिर एकाएक उसके नाक के सामने अपनी हथेली रखकर उसका साँस महसूस करने की कोशिश करने लगा। कुछ समझ नहीं पाया। पत्नी की छाती और पेट देखने लगा- हिल रहे हैं या नहीं। अन्तत: डरते-डरते उसने सावित्री का बदन छुआ। साथ ही सोनू जोर से चिल्लाया। सहम गया दुष्यंत। बर्पँ सा ठण्डा शरीर। दिमाग़ सुन्न हो गया। भाग कर कुर्ता उठाया। पहनते-पहनते कुर्ते की सीवन उधड़ गई। दरवाज़े की ओर भागा। सोनू फिर चिल्लाया। दुष्यंत पल्टा, एक बार फिर पत्नी के शरीर को छुआ, सोनू को गोदी में उठाया और डॉक्टर गुप्ता के घर की ओर भागा। डॉ. गुप्ता अभी दाँत साफ कर रहे थे। उन्होंने दुष्यंत का उतरा हुआ चेहरा देखा, जल्दी से कुल्ला किया और दुष्यंत के निकट आ गए। दुष्यंत का शरीर काँप रहा था। शब्द उसके गले में ही अटक गए थे। स्थिति को समझ कर, डॉ. गुप्ता बिना कुछ कहे, दुष्यंत के साथ हो लिए। सोनू भूख के कारण बिलबिलाए जा रहा था। डॉ. गुप्ता ने सावित्री की नाड़ी का परीक्षण किया। दुष्यंत की ऑंखें डॉ. गुप्ता के चेहरे पर अटकी थीं। वह उनके चेहरे पर सावित्री की तबीयत की रपट पढ़ लेना चाहता था। डॉ. गुप्ता स्टैथस्कोप कानों पर चढ़ा कर सावित्री के दिल की धड़कन सुनने का प्रयत्न कर रहे थे। दुष्यंत का धैर्य टूटने लगा था। 'आय एम सॉरी दुष्यंत!' डॉक्टर गुप्ता के शब्द दुष्यंत को हथौड़े की मार से लगे थे। वह वहीं धम्म से पास पड़ी कुर्सी पर गिर पड़ा। रोते हुए सोनू को उसने बिस्तर पर लिटा दिया। वहीं बैठा रहा वह काी देर तक। ऑंखों में आई नमी को उसने रोका नहीं, पर सच्चाई का सामना तो करना ही था। उसकी पत्नी चार महीने का सोनू उसकी गोदी में छोड़ स्वयं उड़ गई थी। अब घर में केवल दो ही जीवित इन्सान थे और दोनों ही रो रहे थे-एक सावित्री की मौत पर और दूसरा दूध के लिए। रुदन सुनकर पड़ोसी भी वहाँ पहुँच गए। सब दुष्यंत को अपनी ओर से दिलासा दे रहे थे, पर इतने लोगों के बीच भी दुष्यंत स्वयं को बहुत अकेला महसूस कर रहा था। उसकी ऑंखों के सामने एक काला भयानक अन्धेरा छाता जा रहा था। शोभा और रामलाल भी शीघ्र ही वहाँ पहुँच गए। शोभा-सावित्री की छोटी बहन। शोभ के चेहरे पर भी हवाइयाँ उड़ रही थीं। शोभा ने शीघ्र ही स्वयं को सम्भाला और सोनू को गोदी में उठा लिया। शोभा के मिंकू और सावित्री के सोनू के जन्म में केवल दस दिन का अन्तर था। शोभा ने सोनू को अपनी छातियों में छुपा लिया और मिंकू के हिस्से का दूध सोनू को मिलने लगा। दूसरी पड़ोसनों के साथ मिल कर शोभा ने सावित्री के शव को स्नान करवाया। दुल्हन की भाँति सजाया और उस पर कन चढ़ाया। दुष्यंत बेसुध सा शून्य में ताक रहा था। उसे कुछ सुझाई नहीं दे रहा था। अर्थी उठी, रामलाल ने उसे सहारा दिया और दुष्यंत भी यन्त्रवत् अर्थी के पीछे श्मशान की ओर चल दिया। सारी रीतियाँ और रस्में पूरी करके सावित्री को अग्नि के हवाले कर दिया गया। चिता में से लपटें उठने लगीं, ऊँची...और ऊँची। दुष्यंत की ऑंखें ठीक लपटों के ऊपर टिकी थीं। सम्भवत: अपनी पत्नी की आत्मा उसे दिखाई दे जाए। किन्तु ऐसा हुआ नहीं। और सावित्री अपने पति और पुत्र के लिए बिना कोई सन्देश छोड़े अनन्त में विलीन हो गई।

दुष्यंत को घर श्मशान से भी अधिक सुनसान लग रहा था। घर की प्रत्येक वस्तु रह-रह कर सावित्री की याद दिला रही थी। सूना घर काटने को दौड़ रहा था। सोनू को तो शोभा अपने साथ ले गई थी अपने घर और सावित्री...? रात के अकेले में दुष्यंत जी भर कर रोया। ऑंसू भी उसे अकेला छोड़ कर स्वयं सूख गए। शोक का स्थान चिन्ता ने ले लिया। रात भर सोचता रहा कि सोनू का क्या होगा। सुबह होते ही वह शोभा के घर पहॅुंच गया। वहाँ सोनू मिंकू के झूले में मीठी-मीठी नींद में सोया था। दुष्यंत का जी चाहा कि अपने बेटे को गोद मे ले ले और जी भर कर प्यार करे। कुछ देर वह उसके मासूम चेहरे को देखता रहा। रामलाल ने पास आकर उसके कन्धों पर हाथ रखा तो उसके धैर्य का बाँध टूट गया और वह रामलाल के कन्धे पर सिर रख कर फूट-फूट कर रोने लगा। रामलाल उसे हर तरह से सान्त्वना देने का प्रयत्न कर रहा था। 'दुष्यंत, भगवान पर भरोसा रखो। वह एक राह बन्द करता है तो दस रास्ते खोल देता है। वही सब कुछ ठीक करेगा।' "क्या ठीक कर देगा? क्या अब भी कुछ बचा है ठीक होने को... तुम ही सोचो अब सोनू का क्या होगा?' और उसने अपना आक्रोश रामलाल पर ही निकाल दिया। शोभा की ऑंखें भी रो-रोकर सूज गई थीं। रात भर वह और रामलाल भी सोनू के बारे में सोचते-विचारते रहे थे। निर्णय तो वह ले चुकी थी, किन्तु निर्णय सुनाने के लिए जैसे हिम्मद संजो रही थी। उसकी निगाहें अपने पति की ओर उठीं और रामलाल ने जैसे स्वीकृति में सिर हिलाया। "जीजाजी', शोभा ने दुष्यंत को अपना निर्णय सुनाया, 'सोनू अब मेरे पास रहेगा। मिंकू के साथ-साथ अब यह भी इसी घर में पलेगा। इसकी चिन्ता अब आप न करें।' दुष्यंत को एकाएक विश्वास नहीं हुआ, 'शोभा, कोई भी बात कह देने में और कर पाने में बहुत अन्तर होता है। यह सब इतना आसान नहीं।' "ना हुआ करे! यहाँ किसे परवाह है। मैंने सब कुछ सोचकर ही यह निर्णय लिया है। हाँ, आपको तो कोई एतराज़ नहीं है ना?...और...अगर हार भी गई, तो भी आपकी समस्या इस समय तो सुलझ ही जाएगी।' दुष्यंत कुछ तय नहीं कर पा रहा था। क्या निर्णय ले। सोनू इतने में कुनमुनाने लगा था। शेभा ने उठकर उसका जाँघिया बदला और गोद में उठाकर दूध पिलाने लगी। दुष्यंत ने कुछ कहना चाहा, परन्तु उसका गला भर आया, ऑंखें भी नम हो आईं। यह सब दु:ख के कारण था या शोभा के प्रति कृतज्ञता के कारण, वह समझ नहीं पाया। सावित्री के क्रियाकर्म पर सभी सगे-सम्बन्धी इकट्ठे हुए। मौत के तेरहवें दिन दुष्यंत के दूसरे विवाह की बात होने लगी। माँ तो उसकी थी नहीं, बड़ी बुआ ही सब ताना-बाना बुन रही थी। भड़क उठा दुष्यंत, 'बुआ, अगर मेरी जगह आज सावित्री बैठी होती, तो क्या आप उसे भी यही सलाह देतीं कि वह दूसरी शादी कर ले।...और फिर मेरे पास तो सावित्री की निशानी भी है सोनू। भला मुझे क्या ज़रूरत है दूसरी शादी की!' बुआ कहाँ चुप रहने वाली थी, 'हम तो वही कह रहे हैं जो जग में होता है। अब तुम सी न्यारी बातें तो हमको आती नहीं।' सावित्री और शोभा की माँ भी सोनू को अपने साथ ले जाने के लिए तैयार होकर आई थी। किन्तु शोभा के सम्मुख किसी एक की भी दाल नहीं गली और फिर सम्भवत: दुष्यंत भी यही चाहता था कि सोनू शोभा के साथ ही रहे। इस तरह वह दुष्यंत की ऑंखों के सामने भी रहेगा। क्रिया के बाद सब चले गए। दुष्यंत एकदम अकेला पड़ गया। सोनू अपनी नई माँ के घर चला गया था। शोभा ने अपने नाम की मर्यादा रख ली थी। नाम उसने सोनू का भी स्वयं ही रखा था। सावित्री की याद में उसकी यादगार-उसका 'प्रतीक'। प्रतीक नाम दुष्यंत को भी पसन्द आया था। अब प्रतीक और अक्षय दोनों इकट्ठे बड़े हो रहे थे। दुष्यंत ने हर महीने कुछ पैसे देने की पेशकश की। शोभा की ममता को तीव्र ठेस लगी। बस रो पड़ी। रामलाल ने ही दुष्यंत को समझाया, 'देख यार, शोभा सोनू को भी अपना ही बेटा मानती है। और उसके बेटे की परवरिश के लिए पैसे देने की बात करके उसका दिल ना दुखाओ। और फिर वह प्रतीक की सगी मौसी है।' दुष्यंत चुप रह गया। वह जब भी रामलाल के घर जाता, कुछ ना कुछ दोनों बच्चों के लिए ले जाया करता था। अक्षय की देखा देखी, प्रतीक भी दुष्यंत को मौसा कहने लगा था। किन्तु दुष्यंत को कभी भी बुरा नहीं लगा। शोभा जिस तरह से प्रतीक की परवरिश कर रही थी, दुष्यंत को लगने लगा था कि सम्भवत: सावित्री स्वयं भी सोनू को इतना प्यार ना दे पाती। जब सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा हो तो समय बीतने में देर नहीं लगती। घण्टे, दिन, महीने और वर्ष सब शीघ्रता से बीत जाते हैं। और यही हुआ भी। साढ़े चार वर्ष बीत गए। सामलाल का तबादला हो गया। इसका एक ही अर्थ था कि रामलाल और शोभा को यह शहर छोड़कर जाना होगा। तो सोनू! सोनू कहाँ रहेगा? सोनू को अब वह अपने साथ रख सकता है। चाहे शोभा इतने लम्बे अर्से से सोनू को माँ का प्यार दे रही थी, परन्तु सोनू आखिर है तो दुष्यंत का अपन पुत्र! उसने जब अपना इरादा शोभा को बताया तो वह नई-नई दलीलें पेश करने लगी, 'जीजाजी, सोनू अभी बच्चा है, उसकी देखभाल कौन करेगा। आप जब दफ्तर चले जाएँगे, तो पीछे से वह बेचारा अकेला, क्या दीवारों से बातें करेगा।' दुष्यंत को लगा कि इस तरह तो वह अपने बेटे से हाथ धो बैठेगा। जब वह उसके पास रहेगा ही नहीं तो उसके प्रति उसके मन में कोई भावना पैदा ही कैसे होगी। मन में कहीं डर भी था-'कहीं मेरी अनुपस्थिति में शोभा सोनू से दर्ुव्यवहार ना करे।' भूल गया था कि इतने लम्बे अर्से से सोनू को अपना बेटा बनाए हुए है। एक डर अकेला हो जाने का भी था-निपट अकेला। उट्ठेश्यहीन जीवन का क्या करता। अपने मन की बात शोभा से फिर की। शोभा ने अपने अन्तिम अस्त्र का प्रयोग किया। सोनू को अपनी गोद में लेकर और ऑंखों में ऑंसू भरकर बोली, 'सोनू अब मेरा पुत्र है, उसे मुझसे कोई भी अलग नहीं कर सकता। उस पर केवल मेरा अधिकार है...वो...वो मेरे बिना जी नहीं पाएगा, मैं ऐसा नहीं होने दूँगी।' और सोनू को उसने अपने सीने से और भी जोर से भींच लिया। बालक सोनू मासूम ऑंखों में अनेक प्रश्न लिए माँ के चेहरे की ओर ताक रहा था। रामलाल के स्थान पर नया कर्मचारी आ गया। चौथे दिन रामलाल को भी चार्ज देने के उपरान्त प्रस्थान करना था। शोभा कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी। दुष्यंत सभी तरीके अपना चुका था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अपनी बात शोभा को कैसे समझाए। 'शोभा, मैं तुम्हारे अधिकार को चुनौती नहीं दे रहा। तुम केवल इतना सोचो कि तुम तो अक्षय से दिल बहला लोगी किन्तु मैं तो यहाँ बिल्कुल अकेला हो जाऊँगा।' "मैं भूल गई थी जीजाजी, सोनू बेटा तो आपका ही है। मैं तो बस उसे दूध पिलाने वाली ही हूँ। लीजिए मैं ही अपनी ममता का गला घोंट देती हूँ।' दुष्यंत शोभा का सामना नहीं कर पा रहा था। मन में एक विचित्र-सा ताून उमड़ रहा था। उसके स्वार्थ और शोभा के प्यार में जैसे एक द्वन्द्व-सा चल रहा था। शोभा की हालत देख कर रामलाल ने दुष्यंत को अपने यहाँ आने से मना कर दिया था। मन में एक बार आया भी कि जब शोभा सोनू से इतना प्यार करती है तो क्या हर्ज है यदि वह सोनू को उसके साथ ही जाने दे। घर पहुँचने के बाद भी अपने आप से लड़ता रहा। मन के किसी कोने से यह आवाज़ भी आई, 'सोच मूर्ख! यदि सावित्री की मृत्यु के बाद शोभा सोनू को ना संभालती तो सोनू आज कहाँ होता।' घर पहुँचने के बाद भी अपने आप से लड़ता रहा। मन के किसी कोने से यह आवाज़ भी आई, 'सोच मूर्ख! यदि सावित्री की मृत्यु के बाद शोभा सोनू को ना संभालती तो सोनू आज कहाँ होता।' मन कहीं चैन भी तो नहीं लेने देता। चंचल हो उठता है, परेशान करता है। त प्रस्तुत करता है, वित प्रस्तुत करता है। मन फिर बोला, 'किन्तु सोनू तो मेरी सावित्री की निशानी है, मैं सावित्री की निशानी किसी और को कैसे दे दूँ।...नहीं...नहीं...सोनू सावित्री का प्रतीक है...और उस प्रतीक पर मुझसे अधिक किसी का हक नहीं।...और फिर इतनी दूर रहकर वह सोनू को देखने के लिए तरस जाएगा। नहीं...वह सोनू को अपने पास ही रखेगा। शोभा बुरा मानती है तो मान ले...वह भी अपने बेटे के बिना नही रह सकता।' रामलाल और शोभा के जाने की पूर्व सन्ध्या। दुष्यंत के लिए एक-एक पल भारी पड़ रहा था। सोनू आज आएगा या कल? गाड़ी तो कल शाम की है। उसे बहुत बेचैनी हो रही थी। उसने सिगरेट सुलगा ली। परेशानी में सिगरेट ही साथ देती है। अकेलेपन का और कोई इलाज भी नहीं सूझ रहा था।...'यदि दूसरा विवाह कर लेता तो कम से कम इस दुविधा से तो बच जाता।...सोनू को लेने जाए या ना जाए' इसी उहापोह में रात बीत गई। अगले दिन दुष्यंत ने कार्यालय से अवकाश ले लिया था। गाड़ी शाम को पाँच बजे रवाना होनी थी। मन-ही-मन पक्का निश्चय कर वह दोपहर को ही रामलाल के घर पहुँच गया। शोभा की ऑंखें रोने के कारण अभी भी सूजी हुई थीं। उसने दुष्यंत से कोई बात नहीं की। नाराज़गी प्रकट करने का सम्भवत: यही एक तरीका था उसके पास। दुष्यंत मन-ही-मन सोचने लगा, 'नारी होने का भी कितना सुख है। जब जी चाहे रो लो, मन का उबाल ठण्डा कर लो। पुरुष तो हर बात सहे फिर भी कुछ ना कह पाए।' सोनू का सूटकेस एक ओर पड़ा था। शोभा ने उसके कपड़े भी सूटकेस में नहीं रखे थे। लड़ाई की पूरी तैयारी। दोस्ती और शोभा की ममता के बीच पँसे रामलाल की स्थिति बड़ी विकट थी। एक विचित्र-सी चुप्पी ओढ़ रखी थी उसने भी। दुष्यंत ने स्वयं ही सोनू के कपड़े सूटकेस में रखे और सोनू को चलने के लिए कहने लगा। यह तो उसने सोचा ही नहीं था कि सोनू कहाँ रहना चाहता है। सोनू के लिए तो वह मौसा ही था जैसा कि मिंकू के लिए। उसके नन्हें से मस्तिष्क में यह बात नहीं समा रही थी कि उसे मौसा के पास क्यों रहना है। उसे तो अपनी माँ और भाई का साथ ही चाहिए था। किसी भी तरह सच-झूठ बोलकर सोनू को बहलाता फुसलाता रहा। सोनू को रसगुल्ले बहुत अच्छे लगते थे। रसगुल्लों का लालच दिया। सोनू साथ हो लिया। मिंकू आग्नेय नेत्रों से दुष्यंत को ताके जा रहा था। एक ओर रामलाल, शोभा और अक्षय रेलवे स्टेशन पर गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे तो दूसरी ओर दुष्यंत सोनू को गोकुल हलवाई की दुकान पर रसगुल्लों से बहलाने का प्रयत्न कर रहा था। थोड़े समय तो सोनू बहला रहा। फिर जी भर रसगुल्ले खा लेने के पश्चात उसने माँ के पास जाने की इच्छा प्रकट की, 'मौसा, मैं माँ के पास आऊँगा।' दुष्यंत परेशान हो उठा। सोनू अब रोने और मचलने लगा था। क्या करे दुष्यंत! अब तक तो गाड़ी स्टेशन छोड़कर जा चुकी होगी। सोनू के कारण ही तो वह रामलाल के परिवार को विदा करने स्टेशन नहीं गया था। उसने रास्ते में सोनू को कई खिलौने दिलाये और उसे घर ले आया। रोते-रोते थक कर सोनू सो गया और दुष्यंत को थोड़ी राहत महसूस हुई।

समय सब घावों को भरने की क्षमता रखता है। इसीलिए सोनू का भोजन त्यागना और गुमसुम रहना समय के साथ-साथ ठीक हो गया। वह नन्हीं-सी जान अपने आपको वातावरण के अनुकूल ढालने का प्रयत्न करने लगाा। सम्भवत: उसने भी हालात से समझौता कर लिया था। दुष्यंत भी इसी चेष्टा में रहता कि सोनू, उसका प्रतीक, सावित्री और शोभा का प्रतीक, माँ की कमी ना महसूस करे। माँ बन तो नहीं सकता था-कौन बन सकता है? फिर भी बनने का प्रयत्न तो करना ही था। कभी शोभा और रामलाल सोनू को देखने आ जाते तो कभी दुष्यंत स्वयं सोनू को उनसे मिलवा लाता। समय ने शोभा के गुस्से को भी ठण्डा कर डाला था। इसी तरह एक वर्ष बीत गया और सोनू स्कूल जाने लगा। सुबह उठ कर अपने बेटे को स्नान करवाना, तैयार करना, उसके नन्हें-नन्हें पैरों में जुराब चढ़ाना और जूते पहनाना, अपने हाथों से नाश्ता बना कर खिलाना-एक अजीब-सा नशा मिलता था दुष्यंत को इन सब बातों से। किन्तु सोनू कहता उसे अब भी मौसा ही था। माँ मो उसके लिए शोभा ही थी और 'डैडी' रामलाल।

कुछ दिनों बाद ही सोनू के व्यवहार में कुछ परिवर्तन दिखाई देने लगा। दूध पीने के लिए मना कर देना, खाने को जी नहीं चाह रहा और उसे कपड़े भी प्रेस किए से लगते थे। दुष्यंत हैरान! दफ्तर की ाइलों से थका-हारा वह स्वयं इन बातों की खोजबीन नहीं कर पा रहा था। कोई ना कोई खिचड़ी पक अवश्य रही थी- इस बात से वह अपरिचित नहीं था। सोचते-सोचते सिर में दर्द होने लगा। सोचा चलो घर चलते हैं। सोने को कहीं घुमा लाएँगे। घर के द्वार पर दस्तक देने ही वाला था कि ठिठक गया। अन्दर से किसी नारी के खिलखिलाने की आवाज़ आ रही थी, '...अरे...अरे इस तरह नहीं खींचो...मेरी साड़ी खुल जाएगी।' धक् रह गया। आवाज़ फिर बोली, 'अब ज्यादा शरारत नहीं।' और उसके साथ ही चुम्बन की आवाज़ हुई। दुष्यंत को लगा जैसे वह गधा है। उसके घर में इतना बड़ा प्रेम काण्ड चल रहा है और उसे खबर भी नहीं। किन्तु सोनू कहाँ गया? भाग कर खिड़की की ओर लपका दुष्यंत। वहाँ परदे चढ़े हुए थे। दोबारा दरवाज़े की ओर लौटा-कहीं प्रेमी भाग ना जाएँ। किवाड़ खटखटाया। अन्दर खुसुर-पुसुर हुई और फिर खामोशी। झल्लाहट में चिल्लाया, 'अन्दर कौन है?...दरवाज़ा खोलो...सालों को मेरा ही घर मिला है...सोनू! तुम कहाँ हो...खोलो दरवाज़ा।' और फिर से दरवाज़ा पीटने लगा। हाँफ भी रहा था। दरवाज़ा खुला और वहाँ एक गोरी, पतली और लम्बी-सी लड़की खड़ी थी। मुस्कुराते हुए बोली, 'नमस्ते जी!' "कौन है आप? यहाँ मेरे घर में क्या कर रही हैं? आपके साथ दूसरा कौन है? मेरा बेटा सोनू कहाँ है?' इतने सारे प्रश्न करने के बाद वह कमरे के अन्दर घुस कर इधर-उधर देखने लगा। वह केवल मुस्कुराती रही। कोई उत्तर नहीं दिया। दुष्यंत के चेहरे पर झल्लाहट और खीज दोनों ही दिखाई दे रहे थे। अचानक उसकी निगाह चारपाई के नीचे गई। वहाँ उसे सोनू की कमीज़ दिखाई दी थी। 'चल निकल बाहर! शैतान कहीं का!' "नहीं आप मुझे मालेंगे।' दुष्यंत के होठों पर मुस्कुराहट उभर पड़ी। "टीचर, टीचर, पापा ने आपको मारा तो नहीं?' सोनू बाहर निकल आया। "नहीं बेटे, आपके पापा भला मुझे क्यों मारने लगे।' दुष्यंत खिसिया-सा गया। लज्जित होते हुए कह उठा, 'अरे, आप सोनू की टीचर हैं? पहले क्यों नहीं बताया?' "आपने अवसर ही कहाँ दिया?' अब वातावरण में तनाव कम हुआ। और अचानक दुष्यंत को अपना सिर दर्द याद हो आया। चाय बनाने के बारे में सोचा। फिर टीचर से पूछा, 'आप चाय पिएँगी?...आपका नाम...?' ज़ी मेरा नाम गायत्री है और मैं चाय नहीं पीती।' "मुझे तो चाय की सख्त ज़रूरत है। सिर में काी दर्द महसूस हो रहा है।' "तो आप बैठिए। मैं आपके लिए चाय बना लाती हूँ। अब तो आपकी किचन में सब चीजें कहाँ रखी हैं, मुझे मालूम है।' गायत्री चाय बना लाई। बातचीत का सिलसिला चलता रहा। दुष्यंत भी इच्छुक था जानने को कि गायत्री उसके पुत्र से इतना प्यार कैसे करने लगी। गायत्री भी बेझिझक बतला रही थी, 'प्रतीक की ऑंखों में मैंने पहले दिन से ही एक अजीब-सा सूनापन महसूस किया। सदा ही कुछ बुझा-बुझा-सा रहता था। हमेशा चुप। कोई बातचीत नहीं, कोई शरारत नहीं। एक दिन मैंने कह ही दिया कि बेटा तुम्हारे कपड़े ना तो ठीक से सा होते हैं और ना ही ढंग से इस्त्री किए होते हैं। अपनी माँ से कहो कि तुम्हें ठीक तरीके से स्कूल भेजा करें।' प्रतीक ने बहुत भोलेपन से उत्तर दिया था, 'माँ तो चली गई।' "कहाँ चली कई?' "उसकी बदली हो गई है।...और...' प्रतीक रोने लगा। 'मैं तो अपने मौसा के पास रहता हूँ।' "बस इसी तरह मैं सोनू के करीब आ गई। दरअसल मेरे जीवन में भी एक विचित्र-सा खालीपन है, अकेलापन और शायद इसीलिए प्रतीक का अकेलापन मुझे अधिक समझ में आ गया।' "पर आपके अकेलेपन का क्या करण है?' दुष्यंत अपनी जिज्ञासा को दबा नहीं पाया। "अभी विवाह को दो वर्ष ही हुए थे। पति छब्बीस जनवरी की परेड देखने दिल्ली गए हुए थे। वापसी में मोहरी के रेलवे स्टेशन की दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। ससुराज वालों ने अभागिन कह कर दुत्कार दिया। मेरे माता-पिता भी इस सदमे को सहन नहीं कर पाए। बस अब तो यह नौकरी है और प्रतीक का प्यार!' दुष्यंत को महसूस हुआ कि आज तक वह स्वयं को व्यर्थ ही अभागा समझता रहा। उसका दर्द तो बहुत छोटा है। उसके पास तो कई सहारे हैं-सावित्री की याद है, प्रतीक है, शोभा-सी साली है, रामलाल जैसा दोस्तनुमा साडू है। किन्तु गायत्री तो एकदम अकेली है, निपट अकेली।' अब गायत्री कभी भी प्रतीक को मिलने आ जाती। सोनू भी अपनी टीचर से मिलकर प्रसन्न रहने लगा था। शोभा अब भी अपने प्रतीक को मिलने आ जाती थी-रामलाल और अक्षय भी। गाड़ी एक बार फिर पटरी पर चलने लगी थी।

दुष्यंत दफ्तर में कम कर रहा था। उसका पड़ोसी मुरलीधर भागता हुआ वहाँ पहुँचा। वह हाँफ रहा था। दुष्यंत ने उसे देखा। मुरलीधर की बदहवासी ने उसे भी चौकन्ना कर दिया, 'क्या बात है मुरली, इतने घबराए हुए क्यों हो?' "दुष्यंत भैया!...वो...वो सोनू अस्पताल में है। स्कूल से घर आते समय उसका एक्सीडेंट हो गया। काी चोटें लगी हैं।...उसकी टीचर उसके साथ ही हैं।' दुष्यंत मुरलीधर के साथ अस्पताल की ओर लपका। सोनू ऑपरेशन थियेटर में था। उसे गायत्री का खून चढ़ाया जा रहा था। दुष्यंत बाहर बेचैनी से प्रतीक्षा करने लगा। गायत्री बाहर आई, 'दुष्यंत जी, माफ कीजिएगा। आपसे बिना पूछे ही सब निर्णय लेने पड़े।' दुष्यंत उसे कृतार्थ नज़रों से ताके जा रहा था।

ग्लुकोस बूँद-बूँद टकप कर सोनू के रक्त में मिलता जा रहा था। दुश्यंत एकटक अपने पुत्र को देखे जा रहा था। सोनू के चेहरे पर उसे बारी-बारी सावित्री, शोभा और गायत्री के चेहरे दिखाई देने लगे। सावित्री का प्रतीक जिसने उसे जन्म दिया था। शोभा का प्रतीक जिसने उसे दूध पिला कर पाला था, गायत्री का प्रतीक जिसने उसे अविरल स्नेह के साथ-साथ अपना रक्त तक दे दिया। इन तीनों का पवित्र रक्त प्रतीक के शरीर में संचार कर रहा है। इनमें से किसे उसकी वास्तविक माँ माना आए! और जीवन के इस नाटक में उसका अपना स्थान क्या है?