प्रस्तावना / कामताप्रसाद गुरू

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प्रस्तावना (1) भाषा भाषा वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली-भाँति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार आप स्पष्टतया समझ सकता है। मनुष्य के कार्य उसके विचारों से उत्पन्न होते हैं और इन कार्यों में दूसरों की सहायता अथवा सम्मति प्राप्त करने के लिए उसे वे विचार दूसरों पर प्रकट करने पड़ते हैं। जगत् का अधिकांश व्यवहार, बोलचाल अथवा लिखा पढ़ी से चलता है, इसलिए भाषा जगत् के व्यवहार का मूल है।

(बहरे और गूँगे मनुष्य अपने विचार संकेतों से प्रकट करते हैं। बच्चा केवल रोकर अपनी इच्छा जनाता है। कभी-कभी केवल मुख की चेष्टा से मनुष्य के विचार प्रकट हो जाते हैं। कोई-कोई बंगाली लोग बिना बोले ही संकेतों के द्वारा बातचीत करते हैं। इन सब संकेतों को लोग ठीक-ठीक नहीं समझ सकते और न इनसे सब विचार ठीक-ठीक प्रकट हो सकते हैं। इस प्रकार की सांकेतिक भाषाओं से शिष्ट समाज का काम नहीं चल सकता।) पशु-पक्षी आदि जो बोली बोलते हैं, उससे दुःख, सुख आदि मनोविकारों के सिवा और कोई बात नहीं जानी जाती। मनुष्य की भाषा से उसके सब विचार भली-भाँति प्रकट होते हैं, इसलिए वह व्यक्त भाषा कहलाती है; दूसरी सब भाषाएँ या बोलियाँ अव्यक्त कहलाती हैं।

व्यक्त भाषा के द्वारा मनुष्य केवल एक दूसरे के विचार ही नहीं जान लेते, वरन् उसकी सहायता से उनके नए विचार भी उत्पन्न होते हैं। किसी विषय को सोचते समय हम एक प्रकार का मानसिक सम्भाषण करते हैं, जिससे हमारे विचार आगे चलकर भाषा के रूप में प्रकट होते हैं। इसके सिवा भाषा से धारणाशक्ति की सहायता मिलती है। यदि हम अपने विचारों को एकत्रा करके लिख लें तो आवश्यकता पड़ने पर हम लेख रूप में उन्हें देख सकते हैं और बहुत समय बीत जाने पर भी हमें उनका स्मरण हो सकता है। भाषा की उन्नत या अवनत अवस्था राष्ट्रीय उन्नति या अवनति का प्रतिबिंब है। प्रत्येक नया शब्द एक नये विचार का चित्रा है और भाषा का इतिहास मानो उसके बोलनेवालों का इतिहास है।

भाषा स्थिर नहीं रहती; उसमें सदा परिवर्तन हुआ करते हैं। विद्वानों का अनुमान है कि कोई भी प्रचलित भाषा एक हजार वर्ष से अधिक समय तक एक सी नहीं रह सकती। जो हिंदी हम लोग आजकल बोलते हैं, वह हमारे प्रपितामह आदि के समय में ठीक इसी रूप में न बोली जाती थी और न उन लोगों की हिंदी वैसी थी, जैसी महाराज पृथ्वीराज के समय में बोली जाती थी। अपने पूर्वजों की भाषा की खोज करते-करते हमें अंत में एक ऐसी हिंदी भाषा का पता लगेगा, जो हमारे लिए एक अपरिचित भाषा के समान कठिन होगी। भाषा में यह परिवर्तन धीरे-धीरे होता हैμइतना धीरे-धीरे कि वह हमको मालूम नहीं होता; पर अंत में, परिवर्तनों के कारण नई-नई भाषाएँ उत्पन्न हो जाती हैं।

भाषा पर स्थान, जलवायु और सभ्यता का बड़ा प्रभाव पड़ता है। बहुत से शब्द जो एक देश के लोग बोल सकते हैं, दूसरे देश के लोग तद्वत् नहीं बोल सकते। जलवायु में हेर-फेर होने से लोगों के उच्चारण में अंतर पड़ जाता है। इसी प्रकार सभ्यता की उन्नति के कारण नए-नए विचारों के लिए नए-नए शब्द बनाने पड़ते हैं; जिससे भाषा का शब्दकोश बढ़ता जाता है। इसके साथ ही बहुत सी जातियाँ अवनत होती जाती हैं और उच्च भावों के अभाव में उनके वाचक शब्द लुप्त होते जाते हैं।

विद्वान् और ग्रामीण मनुष्यों की भाषा में कुछ अंतर रहता है। किसी शब्द का जैसा शुद्ध उच्चारण विद्वान् पंडित करते हैं, वैसा सर्वसाधारण लोग नहीं कर सकते। इससे प्रधान भाषा बिगड़कर उसकी शाखारूप नई-नई बोलियाँ बन जाती हैं। भिन्न-भिन्न दो भाषाओं के पास-पास बोले जाने के कारण भी उन दोनों के मेल से एक नई बोली उत्पन्न हो जाती है।

भाषागत विचार प्रकट करने में एक विचार के प्रायः कई अंश प्रकट करने पड़ते हैं। उन सभी अंशों के प्रकट करने पर उस समस्त विचार का मतलब अच्छी तरह समझ में आता है। प्रत्येक पूरी बात को वाक्य कहते हैं। प्रत्येक वाक्य में प्रायः कई शब्द रहते हैं। प्रत्येक शब्द एक सार्थक ध्वनि है जो कई मूल ध्वनियों के योग से बनती है। जब हम बोलते हैं तब शब्दों का उपयोग करते हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार के विचारों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के शब्दों को काम में लाते हैं। यदि हम शब्द का ठीक-ठीक उपयोग न करें तो हमारी भाषा में बड़ी गड़बड़ी पड़ जाय और संभवतः कोई हमारी बात न समझ सके। हाँ, भाषा में जिन शब्दों का उपयोग किया जाता है; वे किसी न किसी कारण से कल्पित किए गए हैं, तो भी जो शब्द जिस वस्तु का सूचक है उसका इससे, प्रत्यक्ष में, कोई संबंध नहीं। हाँ, शब्दों ने अपने वाच्य पदार्थादि की भावना को अपने में बाँध-सा लिया है, जिससे शब्दों का उच्चारण करते ही, उन पदार्थों का बोध तत्काल हो जाता है। कोई-कोई शब्द केवल अनुकरणवाचक होते हैं; पर जिन सार्थक शब्दों से भाषा बनती है; उनके आगे ये शब्द बहुत थोड़े रहते हैं।

जब हम उपस्थित लोगों पर अपने विचार प्रकट करते हैं, तब बहुधा कथित भाषा काम में लाते हैं; पर जब हमें अपने विचार दूरवर्ती मनुष्य के पास पहुँचाने का काम पड़ता है; अथवा भावी संतति के लिए उनके संग्रह की आवश्यकता होती है; तब हम लिखित भाषा का उपयोग करते हैं। लिखी हुई भाषा में शब्द की एक-एक मूल ध्वनि को पहचानने के लिए एक-एक चिद्द नियत कर लिया जाता है, जिसे वर्ण कहते हैं। ध्वनि कानों का विषय है; पर वर्ण आँखों का, और ध्वनि का प्रतिनिधि है। पहले पहल केवल बोली हुई भाषा का प्रचार था, पर पीछे से विचारों को स्थायी रूप देने के लिए कई प्रकार की लिपियाँ निकाली गईं। वर्णलिपि निकालने के बहुत समय पहले तक लोगों में चित्रालिपि का प्रचार था जो आजकल भी पृथ्वी के कई भागों के जंगली लोगों में प्रचलित है। मिस्र के पुराने खंडहरों और गुफाओं आदि में पुरानी चित्रालिपि के अनेक नमूने पाए गए हैं, और इन्हीं से वहाँ की वर्णमाला निकली है। इस देश में भी कहीं-कहीं ऐसी पुरानी वस्तुएँ मिली हैं जिन पर चित्रालिपि के चिद्द मालूम पड़ते हैं। कोई-कोई विद्वान् यह अनुमान करते हैं कि प्राचीन समय के चित्रालेख के किसी-किसी अवयव के कुछ लक्षण वर्तमान वर्णों के आकार में मिलते हैंμजैसे ‘ह’ में हाथ और ‘ग’ में गाय के आकार का कुछ न कुछ अनुकरण पाया जाता है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न भाषाओं में एक ही विचार के लिए बहुधा भिन्न-भिन्न शब्द होते हैं; उसी प्रकार एक ही मूल ध्वनि के लिए उनमें भिन्न-भिन्न अक्षर भी होते हैं।

(2) भाषा और व्याकरण

किसी भाषा की रचना को ध्यानपूर्वक देखने से जान पड़ता है कि उसमें जितने शब्दों का उपयोग होता है; वे सभी बहुधा भिन्न-भिन्न प्रकार के विचार प्रकट करते हैं और अपने उपयोग के अनुसार कोई अधिक और कोई कम आवश्यक होते हैं। फिर, एक ही विचार को कई रूपों में प्रकट करने के लिए शब्दों के भी कई रूपांतर हो जाते हैं। भाषा में यह भी देखा जाता है कि कई शब्द दूसरे शब्दों से बनते हैं, और उनमें एक नया ही अर्थ पाया जाता है। वाक्य में शब्दों का उपयोग किसी विशेष क्रम से होता है और उनमें रूप अथवा अर्थ के अनुसार परस्पर संबंध रहता है। इस अवस्था में आवश्यक है कि पूर्णता और स्पष्टतापूर्वक विचार प्रकट करने के लिए शब्दों के रूपों तथा प्रयोगों में स्थिरता और समानता हो। जिस शास्त्रा में शब्दों के शुद्ध रूप और प्रयोग के नियमों का निरूपण होता है उसे व्याकरण कहते हैं। व्याकरण के नियम बहुधा लिखी हुई भाषा के आधार पर निश्चित किए जाते हैं; क्योंकि उनमें शब्दों का प्रयोग बोली हुई भाषा की अपेक्षा अधिक सावधानी से किया जाता है। व्याकरण (वि़आ़करण) शब्द का अर्थ ‘भली-भाँति समझाना’ है। व्याकरण में वे नियम समझाए जाते हैं जो शिष्ट जनों के द्वारा स्वीकृत शब्दों के रूपों और प्रयोगों में दिखाई देते हैं।

व्याकरण भाषा के आधीन है और भाषा ही के अनुसार बदलता रहता है। वैयाकरण का काम यह नहीं कि वह अपनी ओर से नए नियम बनाकर भाषा को बदल दे। वह इतना ही कह सकता है कि अमुक प्रयोग अधिक शुद्ध है, अथवा अधिकता से किया जाता है; पर उसकी सम्मति मानना या न मानना सभ्य लोगों की इच्छा पर निर्भर है। व्याकरण के संबंध में यह बात स्मरण रखने योग्य है कि भाषा को नियमबद्ध करने के लिए व्याकरण नहीं बनाया जाता, वरन् भाषा पहले बोली जाती है, और उसके आधार पर व्याकरण की उत्पत्ति होती है। व्याकरण और छन्दशास्त्र निर्माण करने के बरसों पहले से भाषा बोली जाती है और कविता रची जाती है।

(3) व्याकरण की सीमा

लोग बहुधा यह समझते हैं कि व्याकरण पढ़कर वे शुद्ध-शुद्ध बोलने और लिखने की रीति सीख लेते हैं। ऐसा समझना पूर्ण रूप से ठीक नहीं। यह धारणा अधिकांश में मृत (अप्रचलित) भाषाओं के संबंध में ठीक कही जा सकती है जिनके अध्ययन में व्याकरण से बहुत कुछ सहायता मिलती है। यह सच है कि शब्दों की बनावट और उनके संबंध की खोज में भाषा के प्रयोग में शुद्धता आ जाती है; पर यह बात गौण है। व्याकरण न पढ़कर भी लोग शुद्ध-शुद्ध बोलना और लिखना सीख सकते हैं। कई अच्छे लेखक व्याकरण नहीं जानते अथवा व्याकरण जानकर भी लेख लिखने में उसका विशेष उपयोग नहीं करते। उन्होंने अपनी मातृभाषा का लिखना अभ्यास से सीखा है। शिक्षित लोगों के लड़के बिना व्याकरण जाने शुद्ध भाषा सुनकर ही शुद्ध बोलना सीख लेते हैं; पर अशिक्षित लोगों के लड़के व्याकरण पढ़ लेने पर भी प्रायः अशुद्ध ही बोलते हैं। यदि छोटा लड़का कोई वाक्य शुद्ध नहीं बोल सकता तो उसकी माँ उसे व्याकरण का नियम नहीं समझाती, वरन् शुद्ध वाक्य बता देती है और लड़का वैसा ही बोलने लगता है।

केवल व्याकरण पढ़ने से मनुष्य अच्छा लेखक या वक्ता नहीं हो सकता। विचारों की सत्यता अथवा असत्यता से भी व्याकरण का कोई संबंध नहीं। भाषा में व्याकरण की भूल न होने पर भी विचारों की भूल हो सकती है और रोचकता का अभाव रह सकता है। व्याकरण की सहायता से हम केवल शब्दों का शुद्ध प्रयोग जानकर अपने विचार स्पष्टता से प्रकट कर सकते हैं जिससे किसी भी विचारवान् मनुष्य को उनके समझने में कठिनाई अथवा सन्देह न हो।

(4) व्याकरण से लाभ

यहाँ अब यह प्रश्न हो सकता है कि यदि भाषा व्याकरण के आश्रित नहीं और यदि व्याकरण की सहायता पाकर हमारी भाषा शुद्ध, रोचक और प्रामाणिक नहीं हो सकती; तो उसका निर्माण करने और उसे पढ़ने से क्या लाभ? कुछ लोगों का यह भी आक्षेप है कि व्याकरण एक शुष्क और निरुपयोगी विषय है। इन प्रश्नों का उत्तर यह है कि भाषा से व्याकरण का प्रायः वही संबंध है, जो प्राकृतिक विकारों से विज्ञान का है। वैज्ञानिक लोग ध्यानपूर्वक सृष्टिक्रम का निरीक्षण करते हैं और जिन नियमों का प्रभाव वे प्राकृतिक विकारों में देखते हैं, उन्हीं को बहुधा सिद्धांतवत् ग्रहण कर लेते हैं। जिस प्रकार संसार में कोई भी प्राकृतिक घटना नियम-विरुद्ध नहीं होती; उसी प्रकार भाषा भी नियम-विरुद्ध नहीं बोली जाती। वैयाकरण इन्हीं नियमों का पता लगाकर सिद्धांत स्थिर करते हैं। व्याकरण में भाषा की रचना, शब्दों की व्युत्पत्ति, और स्पष्टतापूर्वक विचार प्रगट करने के लिए, उनका शुद्ध प्रयोग बताया जाता है, जिनको जानकर हम भाषा के नियम जान सकते हैं; और उन भूलों का कारण समझ सकते हैं, जो कभी-कभी नियमों का ज्ञान न होने के कारण अथवा असावधानी से, बोलने या लिखने में हो जाती है। किसी भाषा का पूर्ण ज्ञान होने के लिए उसका व्याकरण जानना भी आवश्यक है। कभी-कभी तो कठिन अथवा संदिग्ध भाषा का अर्थ केवल व्याकरण की सहायता से ही जाना जा सकता है। इसके सिवा व्याकरण के ज्ञान से विदेशी भाषा सीखना भी बहुधा सहज हो जाता है।

कोई-कोई वैयाकरण व्याकरण को शास्त्रा मानते हैं और कोई-कोई उसे केवल कला समझते हैं; पर यथार्थ में उसका समावेश दोनों भेदों में होता है। शास्त्र से हमें किसी विषय का ज्ञान विधिपूर्वक होता है और कला से हम उस विषय का उपयोग सीखते हैं। व्याकरण को शास्त्र इसलिए कहते हैं कि उसके द्वारा हम भाषा के उन नियमों को खोज सकते हैं जिन पर शब्दों का शुद्ध प्रयोग अवलम्बित है और वह कला इसलिए है कि हम शुद्ध भाषा बोलने के लिए उन नियमों का पालन करते हैं।

विचारों की शुद्धता तर्कशास्त्रा के ज्ञान से और भाषा की रोचकता साहित्य-शास्त्र के ज्ञान से आती है।

हिंदी व्याकरण में प्रचलित साहित्यिक हिंदी के रूपांतर और रचना के बहुजन मान्य नियमों का क्रमपूर्ण संग्रह रहता है। इसमें प्रसंगवश प्रांतीय और प्राचीन भाषाओं का भी यत्र-तत्र विचार किया जाता है, पर वह केवल गौण रूप में और तुलना की दृष्टि से।

(5) व्याकरण के विभाग

व्याकरण भाषा संबंधी शास्त्र है, और जैसा अन्यत्र कहा गया है, भाषा का मुख्य अंग वाक्य है। वाक्य शब्दों से बनता है, और शब्द प्रायः मूल ध्वनियों से। लिखी हुई भाषा में एक मूल ध्वनि के लिए प्रायः एक चिद्द रहता है जिसे वर्ण कहते हैं। वर्ण, शब्द और वाक्य के विचार से व्याकरण के मुख्य तीन विभाग होते हैं : (1) वर्णविचार, (2) शब्दसाधन और (3) वाक्यविन्यास।

(1) वर्णविचार व्याकरण का वह विभाग है जिसमें वर्णों के आकार, उच्चारण और उनके मेल से शब्द बनाने के नियम दिए जाते हैं।

(2) शब्दसाधन व्याकरण के उस विधान को कहते हैं जिसमें शब्दों के भेद, रूपान्तर और व्युत्पत्ति का वर्णन रहता है।

(3) वाक्यविन्यास व्याकरण के उस विभाग का नाम है जिसमें वाक्यों के अवयवों का परस्पर संबंध बताया जाता है और शब्दों से वाक्य बनाने के नियम दिए जाते हैं।

सू. : कोई-कोई लेखक गद्य के समान पद्य को भाषा का एक भेद मानकर व्याकरण में उसके अंग छंद, रस और अलंकार का विवेचन करते हैं। पर ये विषय यथार्थ में साहित्यशास्त्र के अंग हैं जो भाषा को रोचक और प्रभावशालिनी बनाने के काम आते हैं। व्याकरण से इनका कोई संबंध नहीं है, इसलिए इस पुस्तक में इनका विवेचन नहीं किया गया है। इसी प्रकार कहावतें और मुहावरे भी जो बहुधा व्याकरण की पुस्तकों में भाषा ज्ञान के लिए दिए जाते हैं, व्याकरण के विषय नहीं हैं। केवल कविता की भाषा और काव्य स्वतंत्रता का परोक्ष संबंध व्याकरण से है, अतएव ये विषय प्रस्तुत पुस्तक के परिशिष्ट में दिए जाएँगे।