प्रस्थान / राकेश बिहारी
दीपिका जब स्टेशन पहुँची गाड़ी प्लेटफार्म पर लग चुकी थी - उसका डिब्बा इंजन के ठीक बाद था और वह गार्ड के डब्बे के पास खड़ी थी - उसने अपने कंधों पर दोनों एयर बैग लटकाए और लगभग दौड़ती हुई अपने डब्बे की तरफ भागी - उसका चेहरा पसीने से भर आया था और वह लगातार हाँफ रही थी - उसने किसी तरह अपना सामान दरवाजे तक पटका और खुद भी अंदर घुस गई - जब तक वह अपने बर्थ तक पहुँचती गाड़ी चल चुकी थी - उसने पर्स से रूमाल निकाला, चेहरे का पसीना पोंछा और रेल नीर की बोतल का लगभग आधा हिस्सा वह एक ही साँस में गटक गई -
अब सामान जमाने की बारी थी - चश्मे के पीछे से झाँकती उसकी आँखों ने बर्थ के नीचे खाली जगह तलाशी और पलक झपकते ही उसने अपने सामान को खिड़की की तरफ जंजीर से बाँध दिया - 'थैंक गाड, इतनी देर से आने के बाद भी मुझे सामान रखने के लिए जगह मिल गई।' - कहीं ट्रेन न छूट जाए की हड़बड़ाहट और पसीने की बूँदों से पुते उसके चेहरे पर अब एक खास तरह के सुकून ने अपने पंख पसार दिए थे - उसे तीन महीने पहले का दिन याद हो आया जब ठीक इसी समय यही गाड़ी पकड़ने के लिए वह स्टेशन आई थी - अभी वह टैक्सीवाले को किराया देने के लिए पर्स निकाल ही रही थी कि उसके सुपरवाइजर का फोन आ गया था - 'कम सून, वी आर इन क्राइसिस... बास हैज कैंसिल्ड योर लीव - ' और वह उसी टैक्सी से सीधे अपने आफिस लौट गई थी - सामान रेस्ट रूम में डाला था और अपने आँसू भीतर ही भीतर पी कर हेड फोन कान से लगा कर काल अटेंड करने लगी थी... कितनी अजीब होती है यह काल सेंटर की नौकरी भी - अपनी तमाम पीड़ा व तकलीफों को अपने भीतर जज्ब कर के आपनी आवाज में मुस्कराहट लपेटनी पड़ती है - तन-मन पर पड़े फफोलों को सहलाने के बजाय वाइस माड्युलेशन का ध्यान रखना पड़ता है - वर्ना कौन जाने कब किसी सात समंदर पार बैठा कस्टमर डिससटिस्फैक्शन का फीडबैक भेज दे और दूर किसी कंट्रोल रूम में बैठा आपकी रिकार्डेड काल सुनता कोई क्वालिटी मैनेजर आपके ऊपर बरस पड़े - 'इस रोनी आवाज के साथ काल सेंटर की नौकरी नहीं होती - जितनी जल्दी हो सके अपनी वाइस क्वालिटी सुधार लो वर्ना...'
सचमुच कितनी बदतमीजी से बोलता है वह क्वालिटी मैनेजर, विवेक... लड़कियाँ तो लड़कियाँ, कई बार लड़के तक रो पड़ते हैं उसकी बातों से - लेकिन नई नौकरी खोजना इतना आसान भी तो नहीं है, और फिर कोई दूसरी नौकरी मिल भी जाए तो वहाँ कोई दूसरा विवेक नहीं होगा इसकी क्या गारंटी है... सो सब कुछ सुनते-सहते हुए भी लोग अपना सिर लटकाए अपनी सीट पर आ बैठते हैं -
मुंबई और मुजफ्फरपुर के बीच की दूरी को हर क्षण कुछ और कम करती ट्रेन पूरी रफ्तार में दौड़ रही थी - दीपिका के सोच को भी जैसे पंख लग गए थे - कभी दफ्तर की चखचख तो कभी पापा से मिलने का उछाह, तो कभी मुंबई की भागदौड़... उसका मन कहीं ठहर ही नहीं रहा था... उसे अपनी पिछली यात्रा याद हो आई जब वह मुजफ्फरपुर से मुंबई आ रही थी - पापा स्टेशन छोड़ने आए थे... पवन एक्सप्रेस उस दिन दो घंटे लेट थी - उसने पापा का हाथ अपने हाथ में थाम लिया था - 'पापा, मुझे मुंबई में नौकरी मिल जाएगी न? ...मुझे खाली तो नहीं लौटना पड़ेगा?'
'इतना मत सोचो - तुम अपना काम करती जाओ... जो होना होगा वही होगा।'
'लेकिन पापा, मैं लौटना नहीं चाहती - मुझे अपने पैरों पर खड़ा होना है -'
'अभी तू कौन-सी दूसरों के पैर पर खड़ी है? पिछले पाँच सालों से यहाँ स्कूल में पढ़ा रही हो -'
'लेकिन मेरे साथ की लड़कियाँ दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में नौकरी कर रही हैं और मैं यहीं की यहीं...'
'नौकरी तो नौकरी होती है, शहर बड़ा हो या छोटा उससे क्या फर्क पड़ता है... वहाँ कुछ ढंग का मिल जाए तो अच्छा वर्ना यहाँ तो तुम्हारी नौकरी है ही न?'
दीपिका को आश्चर्य हुआ था - पाँच दशक पहले जन्मे पापा अपने सोच में कहीं से कंजरवेटिव नहीं थे... उन्होंने कभी उसके नौकरी करने पर एतराज नहीं किया - उलटे कभी-कभार वे बंटी-बबलू को ही डाँट देते - 'अगर वह तुम्हारी बहन है तो मैं भी उसका बाप हूँ - उसका बुरा-भला मुझे भी समझ में आता है -' उसने सोचा इतने अच्छे पापा को बिना बताए उसे अपने सर्टिफिकेट्स नहीं रखने चाहिए थे... 'पापा, एक बात बतानी है आपको...'
'बोल बेटा...'
'मैंने आपको नहीं बताया... लेकिन मैं अपने ओरिजिनल सर्टिफिकेट्स साथ ले जा रही हूँ...'
'मैं जानता हूँ...' उसने जोर से पापा का हाथ पकड़ लिया था - पापा ने हौले से उसके कंधे पर अपने हाथ रख दिए थे... और तभी पवन एक्सप्रेस के आने की घोषणा हो गई थी... दीपिका ने पापा के पैर छुए थे और बैग उठाने के लिए झुकी थी - पापा ने बैग खुद उठा लिया था - 'बेटा, आगे तो सब खुद ही करना होगा - यहाँ मैं हूँ न -' दीपिका की आँखें भर आई थीं - उसने अपना चेहरा दूसरी तरफ कर लिया था -
'बबलू-रितु को मेरा प्यार कहना... और हाँ, पहुँचते ही फोन कर देना...'
प्लेटफार्म धीरे-धीरे पीछे छूट रहा था और इस शहर से जुड़ी स्मृतियाँ हर कदम उसकी उँगली पकड़ कर खड़ी हो जा रही थी - माड़ीपुर रेलवे क्रासिंग, कालेज से आते-जाते अक्सर यह बंद ही मिलता था और वह लड़कों की तरह बैरियर के नीचे से साइकिल ले कर निकल जाती थी - स्कूल-कालेज की छोटी-बड़ी और कई यादें उसके सोच का सिरा थामे उसके साथ पटरी पर दौड़ रही थीं - अब तक उसे पता ही नहीं चला था कि इस शहर के चप्पे-चप्पे से इतना जुड़ी है वह... उसे तो यह भी नहीं पता चला कि कब, कैसे एक स्कूल जाती बच्ची उसी शहर के स्कूल में टीचर हो गई - उसने स्कूल से तो बस बीस दिनों की छुट्टी ली है... भैया-भाभी के यहाँ जाना है... उसने तो किसी को यह बताया तक नहीं है कि वह भीतर ही भीतर इस शहर को छोड़ने का मन बना चुकी है... कि अब वह शायद ही लौटे यहाँ कभी हमेशा के लिए... अब जब ट्रेन लगातार आगे भाग रही थी उसका मन पीछे छूट गए शहर की तरफ लौट रहा था... उसका शहर उसे अपनी तरफ खींच रहा था और उसके सपने कहीं दूर खड़े उसे आवाज दे रहे थे - अतीत और भविष्य की अभिसंधि पर खडी दीपिका ने भारी मन से ट्रेन की तेज रफ्तार के साथ छूटते शहर को हौले से बाय कहा था और एक बार पुनः मुंबई के आगामी दिनों की कल्पना में आँखें मूँद कर डूब गई थी -
मुंबई में जैसे समय को पंख लग गए थे - एक सप्ताह कैसे बीत गया पता ही नहीं चला - रितु भाभी के साथ रोज देर रात तक जुहू बीच जा कर समंदर की लहरों से खेलना, चौपाटी के भेल खाना, काला खभ चूसना और रोज सुबह खूब देर तक सोना... पूरे सात दिन बिता देने के बाद जब दीपिका ने कैलेंडर पर नजर दौड़ाई तो उसे घबड़ाहट-सी होने लगी - उसने स्कूल से तो सिर्फ बीस दिनों की छुट्टी ली थी... सात दिन उसने यूँ ही गँवा दिए... रितु भाभी ने उसकी हिम्मत बँधाई थी - 'दीपिका, घबड़ाओ नहीं - मुंबई सबको काम दे देती है - यहाँ कोई बेकार नहीं बैठता... बहुत जल्द तुम्हें भी नौकरी मिल जाएगी -'
रितु भाभी की बातों ने उसे कुछ तो आश्वस्त किया ही था तभी तो उसने फोन कर के स्कूल की छुट्टी दस दिन के लिए और बढ़वा ली थी -
रितु भाभी ने उसी दिन अखबारवाले को बुधवार, गुरुवार और शुक्रवार को क्रमशः हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स आफ इंडिया और द हिंदू देने की हिदायत दे दी थी - इस सप्ताह तीनों दिन दीपिका ने उन अखबारों के रोजगार-परिशिष्टों को खँगाल मारा - लेकिन वहाँ उसके जैसों के लिए कोई नौकरी नहीं थी... मुंबई में नौकरी करने के लिए संबंधित क्षेत्रों में पर्याप्त अनुभव चाहिए था और वह उन नौकरियों के लिए अनुभवहीन थी... टीचिंग का अनुभव इन नौकरियों के लिए किसी काम का नहीं था - बहुत जल्दी ही उसने अपना रुख उन विशेष पन्नों से अलग कर के वर्गीकृत विज्ञापनों की ओर कर लिया - अखबार में दिए गए नंबरों पर अब वह फोन भी करने लगी थी - इसी बीच उसे वह विज्ञापन दिख गया था - 'यंग ग्रैजुएट्स की जरूरत है - उसने रुक कर गौर से विज्ञापन देखा था - एक बड़ी टेलीफोन कंपनी, टचवुड को कान्वेंट एजुकेटेड लड़के-लड़कियों की तलाश थी जिन्हें फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना आता हो - दीपिका जिस स्कूल में पढ़ाती थी वह अंग्रेजी मीडियम का स्कूल था... वहाँ वह बच्चों से अंग्रेजी में ही बातें करती थी लेकिन विज्ञापन में छपा फर्राटेदार शब्द उसके मन में एक अनदेखी झिझक भर रहा था... इस बार भी रितु भाभी ने ही उसका हौसला बढ़ाया था - 'एक बार इंटरव्यू तो दे कर आओ... जो होगा देख लेंगे... जब तक बोलने का मौका नहीं मिलता कोई फर्राटेदार कैसे बोल सकता है?' रितु भाभी को नौकरी करने की बहुत इच्छा थी लेकिन बबलू भैया की इच्छा के आगे उन्होंने खुद को घर की जिम्मेदारियों तक ही सीमित कर लिया था... लेकिन दीपिका के लिए तो जैसे उन्होंने एड़ी-चोटी एक कर लेने की ठान ली थी... शायद इसी बहाने वे अपने हिस्से की नौकरी पाने का संतोष भी तलाश रही थीं -
दीपिका पाँचवीं जगह इंटरव्यू देने जा रही थी - 'अपने बारे में बताइए' से शुरू हो कर 'वी विल लेट यू नो' तक का यह सफर अब उसे जुबानी याद हो गया था - आज का इंटरव्यू हीरानंदानी में था... एक दिन रितु भाभी ने कहा था कि मुंबई में दुबई देखना हो तो हीरानंदानी जाओ... और सचमुच यहाँ आते ही उसके होश उड़ गए थे... उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि हिंदुस्तान में ऐसी जगहें भी हैं... और जब वह इंटरव्यू के वेन्यू पर पहुँची उसकी अक्ल ने तो जैसे काम करना ही बंद कर दिया - यह एक फाइव स्टार होटल था - उसके जैसे कई लड़के-लड़कियाँ वहाँ पहले से ही मौजूद थे - रिसेप्शन पर अपना नाम-पता नोट करा कर जब वह अपना रेज्यूमे जमा कर रही थी तो उसे पता चला कि अमेरिका की एक मशहूर एमएनसी टचवुड अपने टेलीकाम डिवीजन हेतु कस्टमर सर्विस एक्जेक्यूटिव के पद के लिए इंटरव्यू कर रही है - अपना नाम दर्ज कराने के बाद जब वह सामने लगे सोफानुमे कुर्सी पर अपनी बारी के इंतजार में बैठी उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था... थोड़ी देर बाद सारे कैंडिडेट्स को कॉफी सर्व की गई - होटल का एसी कुछ ज्यादा ही ठंडा था या फिर वह डर के मारे बर्फ हुई जा रही थी, उसे कॉफी पीने की बड़ी तेज इच्छा हो रही थी लेकिन पता नहीं क्यों उसे आशंका हुई कि कहीं बाद में वे कॉफी की कीमत माँग बैठे तो...? पता नहीं इतने बड़े होटल में कॉफी कितनी महँगी हो और उसके भीतर बैठी छोटे शहर से आई लड़की ने उसके लगभग बढ़ चुके हाथ को वापस खींच लिया और उसने हौले से मुस्करा कर कहा था - 'नो थैंक्स' -
करीब एक घंटे के बाद जब उसकी बारी आई उसने खुद को तैयार कर लिया था - उसे यह नौकरी हर हालत में चाहिए थी - जब वह इंटरव्यू देने के लिए कमरे में घुसी उसने नमस्ते करने से ज्यादा ध्यान मुस्कराने पर दिया था - रितु भाभी के कहे हुए शब्द जैसे उसके कानों में ठहर-से गए थे - 'लड़कियों की सफलता का रास्ता उनकी मुस्कराहट से हो कर जाता है -' एक बार फिर से वैसे ही सवाल और उनके वैसे ही जवाब - लेकिन आज उसने मुस्कराना सीख लिया था - आत्मविश्वास जैसे उसके शब्द-शब्द से टपक रहा था - जाते हुए जब इंटरव्यू लेनेवाले उस आदमी ने उससे मुस्करा कर कहा 'यू हैव गाट अ वेरी प्लीजिंग पर्सनैलिटी' तो उसे पता नहीं क्यों विश्वास हो गया था कि यह नौकरी तो उसे मिलनी ही है... और सचमुच उस दिन उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा था जब उसे फोन पर इंटरव्यू में चुन लिए जाने की सूचना मिली थी... उसने रितु भाभी को गले से लगा लिया था... और पहला फोन पापा को किया था -
दीपिका जब पहले दिन नौकरी के लिए घर से निकली, उसका मन बल्लियों उछल रहा था, कदम जमीन पर नहीं पड़ रहे थे - लेकिन अप्वांयटमेंट ऑफर पढ़ने के बाद उसका उत्साह ठंडा पड़ गया - जिसे वह नौकरी समझ कर आई थी वह तो अभी एक महीने से भी ज्यादा दूर थी - पहले एक महीने की ट्रेनिंग, फिर क्लास टेस्ट, उसके बाद एक सप्ताह की फ्लोर ट्रेनिंग और उसके बाद फाइनल प्लेसमेंट - ट्रेनिंग पीरियड में कोई तन्ख्वाह भी नहीं... दीपिका ने सोचा - कहाँ तो वह नौकरी खोजने आई थी और कहाँ यह फिर से पढ़ने-लिखने का चक्कर - लेकिन रितु भाभी की बात उसे उचित लगी थी - 'नया फील्ड है, ट्रेनिंग तो करनी होगी न... और फिर एक महीने की ही तो बात है... यहाँ कौन तुम्हें होटल का बिल चुकाना है कि तन्ख्वाह की बात सोच रही हो...' और उसने वह ऑफर स्वीकार कर लिया था -
कम्यूनिकेशन की थियरी, अंग्रेजी बोलने का अभ्यास, कंपनी के प्राडक्ट्स की जानकारी और माक काल्स - दो-दो घंटे के चार क्लास, दोपहर में आधे घंटे का लंच ब्रेक - शुक्र है कि लंच ले कर नहीं आना होता था, वे खुद अरेंज कर देते थे... शुरू के तीन क्लास दीपिका को बहुत बोरिंग लगते लेकिन माक काल्स अटेंड करने में उसे बहुत मजा आता - पच्चीस लोगों के बैच में अठारह लड़कियाँ ही थीं... लड़के बेचारे माइनारिटी में थे - ट्रेनिंग चाहे जितना थकाऊ हो, माहौल बिल्कुल खुला-खुला था - न सीनियर-जूनियर का कोई भेद ...न ही सर- मैडम का कोई चक्कर - सब एक दूसरे को उसके नाम से ही बुलाते थे - कभी संयोगवश तो कभी सायास वह और धीरज हमेशा क्लास में साथ-साथ बैठते - धीरज जितना खूबसूरत था व्यवहार में भी उतना ही सलीकेदार - माक क्लास में कस्टमर और एक्जेक्यूटिव दोनों के रोल उन में से ही किसी को करना होता था - ऐसे ही किसी क्लास में उसने एक दिन दूसरे कमरे से कस्टमर बन कर फोन किया था - काल पर दीपिका थी - फोन रखते हुए उसने जो बातें कही थीं वह तो जैसे हमेशा के लिए दीपिका के कानों में आ कर रुक-सी गई थीं - वह उसे जब कभी देखती उसका वही वाक्य उसके कानों में गूँज जाता - 'आपकी आवाज इतनी खूबसूरत है तो आप कितनी खूबसूरत होंगी -' माक काल पर्यवेक्षक असीम ने उससे जान- बूझ कर ऐसा कहवाया था... 'देखो इस तरह के काल्स को वह कैसे हैंडल करती है...' क्षण भर को जैसे दीपिका का खुद पर से नियंत्रण जाता रहा था लेकिन अगले ही पल क्लास में कही गई असीम की बातें उसे याद हो आई थीं - 'काल अटेंड करते हुए आपको अपनी फीलिंग्स... - अपने इमोशंस सब से ऊपर उठ जाना होगा -' इस जाब में सब कुछ प्रोफेशनल होता है, पर्सनल कुछ भी नहीं...' और दीपिका ने हौले से लेकिन बहुत ही सधे शब्दों में कहा था - 'क्या आप मेरे द्वारा दी गई जानकारी से संतुष्ट हैं?'
शाम को घर लौटते हुए धीरज की वह बात लगातार उसका पीछा करती रही और उसे खुद अपनी काल हैंडलिंग स्किल पर आश्चर्य होता रहा... आखिर कैसे खुद को सँभाल लिया उसने उस क्षण... उसके बाद ऐसे छोटे-मोटे किस्से तो होते ही रहते थे वहाँ... उसके बैचमेट्स कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप से छेड़ते भी रहते थे उसे लेकिन उसने अपने आस-पास सेल्फ-डिसिप्लीन का सख्त आवरण लपेट रखा था...
उस दिन जब सब आइनाक्स में 'जब वी मेट' देखने का प्लान बना रहे थे उसने सिरदर्द का बहाना किया था... धीरज ने जब रास्ते में केमिस्ट की शाप से दवा ले कर चलने की बात की तो क्षण भर को उसका मन हिला था... 'करीना-शाहिद' की करिज्मैटिक जोड़ी को देखने का मन तो उसका भी था लेकिन उसे खुद से किए उन वादों की रक्षा करनी थी... पहला वादा यह कि जब तक उसे तन्ख्वाह नहीं मिलने लगती वह एक पैसा भी फालतू खर्च नहीं करेगी - और दूसरा यह कि वह किसी लड़के से ज्यादा नहीं जुड़ेगी, पापा उस पर भरोसा करते हैं, उसे उनका विश्वास कभी नहीं तोड़ना है...
महीने के अंत में हुए टेस्ट में वह पास कर गई थी - आन द जाब ट्रेनिंग भी ठीक ही रही थी - अब उनका बैच फ्लोर पर भेज दिया गया था - एक-एक व्यक्ति को महीने में पच्चीस कनेक्शन बेचने का टार्गेट दिया गया था - कस्टमर्स आस्ट्रेलियन थे और उसे उनका उच्चारण समझने में काफी दिक्कत हो रही थी - दो हफ्ते में वह पाँच कनेक्शन ही बेच पाई थी - सुपरवाइजर का चीखना-चिल्लाना शुरू हो गया था... उनकी परेशानियाँ अचानक से निजी हो गई थीं और कंपनी को सिर्फ टार्गेट से मतलब था...
तीसरे हफ्ते में दीपिका ने तीन और कनेक्शन जोड़े - धीरज का महानगरीय कान्वेंट एजुकेशन काम आया था... उसने टार्गेट से कहीं ज्यादा अचीव किया था - उसने दीपिका की तरफ मदद का हाथ बढ़ाया - 'दीपिका, तुम मेरे हिस्से के सरप्लस कस्टमर्स को अपनी क्लाइंट लिस्ट में शामिल कर लो,' लेकिन, दीपिका ने धीरज के बढ़े हाथ को पूरी विनम्रता से रोक दिया था... 'शुक्रिया, लेकिन इस तरह मैं अपनी आदत खराब करना नहीं चाहती - इस महीने टार्गेट नहीं पूरा हुआ तो क्या, देखना मैं अगले महीने तुम से भी ज्यादा कनेक्शन इन्स्टाल करवाऊँगी...' लेकिन दीपिका को इन नौकरियों में दिए जानेवाले टार्गेट के महत्व का पता नहीं था - न अगला महीना आया और न टार्गेट अचीव करने की बात हुई - टार्गेट पूरा नहीं कर पाने के कारण उसके सहित कुल दस लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया था... उन्हें उनकी तन्ख्वाह भी नहीं दी गई थी - वृक्ष में फल लगने से पहले ही उसके सूख जाने की-सी यह घटना दीपिका के लिए किसी सदमे से कम नहीं थी... अन्य नौ लोगों ने तो चुपचाप अपने घर की राह पकड़ ली लेकिन दीपिका को अपने श्रम की कीमत चाहिए थी - वह देर शाम तक पर्सनल मैनेजर के मीटिंग से वापस आने का इंतजार करती रही... लेकिन उसे नहीं आना था और वह नहीं आया - जब धुँधलका पसरने लगा उसने भी अपना बैग उठा लिया - धीरज की शिफ्ट दो घंटे और चलनी थी - उसने एसएमएस किया - 'डोंट गो अलोन... प्लीज वेट फार मी -' दीपिका के भीतर एक चक्रवात चल रहा था और उसकी रफ्तार इतनी तेज थी कि वह न तो धीरज का इंतजार कर सकी और ना ही उसके मेसेज का जवाब ही दिया - उसके भीतर आँसुओं का सैलाब उमड़ रहा था और वह किसी भी तरह अपनी पलकों पर बाँध बना लेना चाहती थी... घर पहुँचने तक यह तटबंध तो किसी तरह बचा रहा लेकिन रितु भाभी के दरवाजा खोलते ही जैसे उसके भीतर का सारा संचित जल उसकी हिचकियों के सहारे बाहर निकलने लगा - उसे अपने स्कूल और पापा की बेतरह याद आ रही थी... रितु भाभी अवाक थीं - वे किसी अनिष्ट की आशंका से जड़वत-सी हो गई थीं लेकिन जब हिचकियों के बीच दीपिका के शब्दों ने अपनी टूटी-फूटी उपस्थिति दर्ज कराई तो उन्होंने मन ही मन राहत की साँस ली... 'भाभी, टार्गेट... पू...रा नहीं... होने के कारण उन्हों...ने निकाल दिया...' रितु भाभी ने उसे सहारा दिया था... उन्हें बोलने को कोई शब्द नहीं मिल रहे थे या कि वे ऐसे में सहानुभूति के दो बोल बोल कर उसे और तोड़ना नहीं चाह रही थी... उनकी गर्म हथेलियाँ जैसे बिना कुछ बोले ही दीपिका से बहुत कुछ कह रही थीं... 'भाभी, मैं हारना नहीं चाहती... मुझे लौट कर नहीं जाना... मैं हर कीमत पर यहीं नौकरी करूँगी...' रितु भाभी ने अब भी कुछ नहीं बोला था बस उसे अपने कलेजे तक जोर से भींच लिया था मानो कह रही हों मुझे तुम से यही उम्मीद थी -
देर शाम धीरज ने फिर से मेसेज किया था - 'मे आई काल यू प्लीज?' दीपिका ने संक्षिप्त-सा जवाब भेजा था - 'मैं कल दस बजे पर्सनल मैनेजर से मिलने जाऊँगी... वहीं बात होगी -'
पर्सनल मैनेजर से मिल कर कोई फायदा नहीं हुआ - 'इतना कम है कि हम इतनी छोटी-सी अवधि के लिए भी एक्स्पीरिएंस सर्टिफिकेट दे रहे हैं, वह भी बिना टार्गेट...'
लौटते हुए धीरज ने उसे बताया कि इंडो-अमेरिकन बैंक में वैकेन्सी आई है और कल ही वाक-इन इंटरव्यू है -
अगले दिन दीपिका ने एक बार फिर से अपने को नए सिरे से समेटा और अपनी रिकार्ड फाइल ले कर इंटरव्यू देने निकल गई - लाख मना करने के बावजूद धीरज को पहले से ही गोरेगाँव स्टेशन पर खड़ा देख पहली बार वह उसके आगे भावुक हुई थी - 'तुम आखिर क्यूँ मेरी जिंदगी के हर मोड़ मुझ से पहले खड़े मिलते हो... -'
'इसलिए कि मैं जिंदगी के सफर में तुम्हारा साथ चाहता हूँ, हर दम... हर पल,' धीरज ने बड़ी संजीदगी से कहा था यह सब, अपनी उसी मुस्कराहट के साथ... दीपिका हँस नहीं सकी थी, हमेशा की तरह... और ट्रेन स्टेशन पर आ गई थी -
इस बार प्रश्न नई तरह के थे... 'आप अपनी वर्तमान नौकरी क्यों छोड़ना चाहती हैं?' दीपिका ने धीरज की सलाह पर नौकरी छूटने की बात को छुपा लिया था -
'इंडो-अमेरिकन जैसी रेप्यूटेड और बड़ी कंपनी में कैरियर सँवारने का अवसर मिले तो भला कौन नहीं नौकरी बदलना चाहेगा -'
'क्या आप शिफ्टों में ड्यूटी कर सकती हैं?' क्षण भर को जैसे इस प्रश्न ने दीपिका को डरा दिया था, इसलिए नहीं कि उसे रात में ड्यूटी करनी होगी, बल्कि इसलिए कि नाइट शिफ्ट के लिए बबलू भैया तैयार नहीं होंगे - लेकिन अगले ही पल उसने अपनी आशंका पर आत्मविश्वास का चमचमाता हुआ आवरण लपेटा था - 'मुझे शिफ्ट ड्यूटी से कोई परेशानी नहीं है - लेकिन कभी कोई तात्कालिक या पारिवारिक दिक्कतें हों तो मुझे उम्मीद है, पिछले चर वर्षों से लगातार बेस्ट इंप्लायर का खिताब जीतनेवाली यह कंपनी अपने इम्प्लाई को किसी अनावश्यक परेशानी में नहीं डालेगी -'
'आपकी एक्स्पेक्टेशन?'
'एक बेहतर और प्रोफेशनल माहौल जो अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरता हो -'
'आप कितनी तन्ख्वाह की उम्मीद करती हैं?'
'मेरी योग्यता, मेरे अनुभव और इंडस्ट्री के पे पैटर्न को देखते हुए इंडो-अमेरिकन बैंक जो तन्ख्वाह मुझे ऑफर करेगी, मुझे विश्वास है वह हम दोनों के लिए सम्मानजनक होगा -'
दीपिका के आत्मविश्वास और उसकी वाक्पटुता ने सब को प्रभावित किया था - उसे अगले महीने की एक तारीख तक ज्वाइन करना था - एक हफ्ते की इनीशियल ट्रेनिंग और उसके बाद आन द जाब प्लेसमेंट - पहले तीन महीने कोई टार्गेट नही... तन्ख्वाह बीस हजार रुपए प्रति माह और वह भी पहले ही दिन से -
'तीन महीने के बाद टार्गेट दिए जाएँगे और आपका पे पैटर्न भी चेंज हो जाएगा... तब आपकी तन्ख्वाह का एक हिस्सा आपके परफार्मेंस से जोड़ दिया जाएगा जिसे हम रिस्क पे कहते हैं... टार्गेट अचीव करने पर आकर्षक इन्सेंटिव अलग - वेलकम टू इंडो-अमेरिकन फैमिली एंड विश यू ऐन एक्साइटिंग करियर -' पर्सनल मैनेजर ने जब इंप्लायमेंट ऑफर देते हुए दीपिका से हाथ मिलाया तो उसकी आवाज अतिरिक्त लार से सनी हुई थी, 'और हाँ, कोई दिक्कत हो तो प्लीज फील कंफर्टेबल टू टेल मी -'
दीपिका ने दो इंच लंबी स्माइल में लपेट कर सिर्फ दो ही वाक्य कहे थे - 'सो नाइस आफ यू... थैंक यू वेरी मच -' और मन ही मन सोचा था इसके पास फिर न आना पड़े यही बेहतर है -
एक सप्ताह की ट्रेनिंग के बाद बैंक के विभिन्न लोन्स और डिपोजिट स्कीम्स की खूबियों, जमा और ब्याज दरों की नवीनतम स्थिति, बैंक के दूसरे प्राडक्ट्स की जानकारियों और छोटे-बड़े कई काल हैंडलिंग टिप्स से लैस हो कर जब दीपिका फ्लोर पर आई तो उसे टचवुड और इंडो-अमेरिकन बैंक के आफिस वातावरण में कोई बड़ा अंतर नहीं दिखा - बैठने के लिए वैसे ही क्यूबिकल्स, गोदरेज की लगभग वैसी ही रिवाल्विंग कुर्सियाँ, सामने कंप्यूटर का फ्लैट मानिटर, कान में चिपके रहनेवाले वैसे ही हेडफोन्स, हर एक्जेक्यूटिव की बाईं ओर लगे नोटिस बोर्ड पर झूलते नए प्राडक्ट्स के आकर्षक कैटलाग्स और सामने की दीवार पर अमरीका, इंग्लैंड और भारत का समय बतलाती सफेद डायल और काली सूइयोंवाली तीन-तीन घड़ियाँ... कस्टमर्स के वैसे ही लरजते-बरसते कांप्लैंट्स, उनकी वैसी ही टेढ़ी-मेढ़ी क्वेरीज और उनके वैसे ही शांत, संयमित और मुस्कराते हुए जवाब...
दीपिका जब कभी काल पर होती और कोई ग्राहक थोड़ा रूमानी हो कर उसकी आवाज की तारीफ करता, उसे धीरज के माक काल की याद आ जाती... उसके भीतर गर्म लोहे के पिघलने जैसा कुछ होता... अपने चेहरे पर वह एक उष्ण तनाव महसूस करती और बड़ी मुश्किल से खुद पर नियंत्रण करते हुए बिल्कुल उसी अंदाज में उस कालर से पूछती - 'क्या आप मेरे द्वारा दी गई जानकारी से संतुष्ट हैं?' वैसे तो हर काल के आखिर में हर एक्जेक्यूटिव को यही प्रश्न पूछना होता था लेकिन उस समय उसके चेहरे पर पसर आई अंगूरी रंगत को देख उसके कूलिग्स को यह समझते देर नहीं लगती कि सामनेवाला उससे फ्लर्ट कर रहा है ...
टचवुड में लगी ठोकर ने उसे काफी सुर्खरू बना दिया था - वह दूध के जले की तरह मम भी फूँक-फूँक कर पी रही थी...
दीपिका अपनी मेहनत और लगन से कामयाब हो रही थी - तीन महीने की शुरुआती डीओजे (डायरेक्ट आन जाब) के बाद जारी किए गए रिपोर्ट कार्ड में वह फ्लोर पर सबसे अव्वल थी - क्वालिटीवालों ने रिकार्डेड काल्स के मूल्यांकन के बाद उसे 'एक्जिक्यूटिव विथ बेस्ट वाइस माड्युलेशन' के पुरस्कार के लिए नामांकित किया था -
धीरज ने हमेशा की तरह आफिस से निकलते हुए जब उसे फोन किया तो वह काफी खुश थी - 'इस संडे वाटर किंग्डम चलोगे?'
'अचानक वाटर किंग्डम?' धीरज की आवाज में प्रश्न के साथ खुशी भी थी -
दरअसल पिछले महीने के दस बेस्ट परफार्मर्स को वाटर किंग्डम के दो-दो कांप्लीमेंट्री पास मिले हैं... रितु भाभी प्रेग्नेंट हैं, जा नहीं पाएँगी, सो मैंने सोचा कि क्यूँ न तुम से पूछूँ -?'
अंधा क्या चाहे दो आँखें... धीरज ने खुशी-खुशी हामी भर दी थी -
रितु भाभी ने धीरज के साथ वाटर किंग्डम जाने के नाम पर उसे हल्की-सी चिकोटी काटी थी, लाड़ और चुहल से भरी हुई...'बबलू को बता दूँ क्या?' और उसके चेहरे की बनती-बिगड़ती रेखाओं को देख कर अगले ही पल कहा था - 'डोंट वरी... मैं सब सँभाल लूँगी -'
गोराई बीच पर जब वह धीरज के साथ फेरी में सवार हुई उसके भीतर के मोर ने अपने सतरंगी पर फैला लिए थे - पहली बार किसी पुरुष मित्र के साथ घर से बाहर कदम रखते हुए उसने अपने भीतर कौतूहल, आकर्षण और आशंका के कई-कई त्रिभुजों का बनना-मिटना भी बड़ी शिद्दत से महसूस किया था...
दीपिका को पानी में उतरना, उससे खेलना बहुत पसंद था - किसी नदी, तालाब या समंदर की छोटी से छोटी स्मृति भी उसे एक अनोखे पुलक से भर देती थी... और आज तो जैसे वह किसी जल-प्रदेश के सैर पर ही थी - पहले 'रशिंग-गशिंग' फिर 'राक एन राक' और अब 'एलीफैंट सफारी' ...रस, रोमांच और भय से लरजते अनगिनत राइड्स उन्हें पागल किए दे रहे थे - 'ब्लैक डेमान' तो जैसे एक खौफनाक सुरंग ही था... एकदम घुप्प अँधेरा... लेकिन पानी की उपस्थिति ने भय और अंधकार को एक थ्रिल में बदल दिया था - धीरज पूरे दिन दीपिका के और करीब आने की कोशिश करता रहा और वह सँभल-सँभल कर उससे एक दूरी बनाती रही... लेकिन 'अक्वाड्रोम' के डांस फ्लोर पर जब तेज फुहारों में भीगते धीरज की गर्म साँसें उसके नथुनों से टकराईं उसके भीतर का शीशा तेजी से पिघला था... बेचैन कर देनेवाली एक अजीब-सी तप्त नमी ने उसे दीवाना कर दिया था और उसने खुद को उसके साथ थिरकने के लिए छोड़ दिया था, बेपरवाह...
शाम को घर लौटते हुए धीरज ने उससे पूछा था - 'दीपू, तुम हमेशा से मेरा वह सवाल टाल जाती हो, कुछ कहती ही नहीं - आज भी तुमने कोई जवाब नहीं दिया...?'
दीपिका चुप थी - जब कभी धीरज उससे ऐसे प्रश्न करता है, उसे पापा की कही वह बात याद आती है... 'बेटा, एक बात हमेशा याद रखना ...जीवन में सफलता के लिए एकाग्रता बहुत जरूरी है...' ...धीरज शायद उसके कैरियर में बाधा नहीं बने... लेकिन उसका परिवार... शादी के बाद की प्राथमिकताएँ... नहीं, वह जिन सपनों की खातिर यहाँ तक आई है उन्हें इस तरह बीच राह नहीं छोड़ सकती... पापा की बातें उसके ख्वाबों को सींचती हैं... - अपने प्रति उनका अटूट भरोसा उसे कमजोर नहीं पड़ने देता और वह ऐसे में अक्सर एक चुप्पी ओढ़ लेती है या फिर बातचीत की दिशा बदल देती है... लेकिन उस दिन उसने अपनी चुप्पी को धकेला था... वह उसे अँधेरे में नहीं रखना चाहती थी...'धीरज, मैं जानती हूँ तुम मुझे बहुत प्यार करते हो और मुझे भी तुम्हारे साथ बहुत अच्छा लगता है... लेकिन मैं शादी के लिए हाँ नहीं कह सकती...'
'क्या मैं इसका कारण पूछ सकता हूँ?' धीरज का धैर्य जैसे टूटा जा रहा था -
'मैंने खुद से एक वादा किया है कि कभी पापा का भरोसा नहीं तोड़ूँगी -'
'क्या अंकल मुझे पसंद नहीं करते?'
'वो तो तुम्हे जानते भी नहीं है - फिर पसंद-नापसंद की तो बात ही नहीं उठती है -'
'तो फिर यह कौन-सा वादा - कैसा वादा...?'
'यह वादा मैंने खुद से किया है, धीरज, अपने आप से...'
'यदि ऐसा है तो फिर हमारा यह रिश्ता...?'
'धीरज, मैंने कहा ना कि तुम्हारा साथ मुझे अच्छा लगता है... यदि तुम्हें पसंद नहीं है यह सब तो मैं मजबूर नहीं करूँगी... तुम अपनी माँ की बात मान लो... पुणेवाली लड़की से शादी कर लो... खुश रहोगे...'
धीरज चुप हो गया था - हमेशा की तरह वह उसके साथ उसके घर तक आया था... लेकिन पहली बार इस तरह संवादहीन... उसने दीपिका के बाय का भी कोई जवाब नहीं दिया -
देर रात धीरज ने एसएमएस किया था - 'दीपू, इज इट योर फाइनल डिसीजन?'
'यस डीयर'
'आर यू श्योर?'
'यस - 100% -'
जब बहुत देर तक उसका कोई जवाब नहीं आया दीपिका ने हमेशा की तरह उसे गुड नाइट मेसेज भेजा।
थोड़ी देर बाद दीपिका के मोबाइल का स्क्रीन एक बार फिर रोशनी से थरथरा उठा था - हमेशा की तरह रात को उसका मोबाइल वायब्रेटिंग मोड पर था - 'कल मैं हमेशा के लिए नासिक जा रहा हूँ... पापा का बिजनेस सँभालूँगा... लव यू डियर... टेक केयर...'
लोगों की भीड़ से भरे मुंबई शहर में दीपिका जैसे अचानक अकेली हो गई थी... उसने जवाब टाइप किया था - 'विश यू आल द बेस्ट...' वह लिखना चाहती थी 'बी इन टच' लेकिन पता नहीं क्यूँ लिख न सकी... उसने नम आँखों और भारी मन से धीरज और उस पुणेवाली लड़की के लिए दुआ माँगी - लेकिन यह सब जैसे बहुत कृत्रिम था... बहुत ही बनावटी... बेचैनी लगातार बढ़ रही थी... उसने एसी का टेंपरेचर 17 पर सेट कर दिया... लेकिन सब बेकार... वह पसीने से तर-ब-तर थी -
सामान्य ग्राहक विभाग में काम करते हुए दीपिका ने खूब नाम कमाया - उसकी इंसेंटिव अब उसके वेतन से ज्यादा रहने लगी थी - टार्गेट कितना भी कठिन हो दीपिका के आगे आसान हो जाता - काल हैंडलिंग टाइम के अच्छे औसत और बेहतर काल हैंडलिंग स्किल्स के कारण उसे एनआरआई डिपार्टमेंट में शिफ्ट होने का ऑफर मिला था - एनआरआई डिपार्टमेंट यानी वैल्युएबल कस्टमर डिपार्टमेंट - वर्षों की मेहनत के बाद भी लोग यहाँ तक नहीं पहुँच पाते और यह अवसर उसे महज छह महीने में ही मिल रहा था और वह भी बिना माँगे... वह इस मौके को हाथ से नहीं निकलने देना चाहती थी... लेकिन यहाँ एक ही दिक्कत थी, महीने में दस दिन की नाइट होगी... बबलू भैया तैयार नहीं होंगे...
उसने यह बात रितु भाभी को बताई थी -
'दीपू को एनआरआई डिपार्टमेंट में जाने का मौका मिल रहा है - लेकिन वह नाइट शिफ्ट से डर के वहाँ नहीं जाना चाहती... तुम क्या कहते हो?'
बबलू भैया ने उम्मीद के विपरीत कहा था - 'वाह, नौकरी भी करेंगी और मेहनत से भी भागेंगी... लोग इस डिपार्टमेंट में जाने के लिए तरसते हैं और इन्हें दिन-रात की सूझ रही है...'
दीपिका एक बार फिर रितु भाभी की कायल हो गई थी... और उसने दूसरे ही दिन एनआरआई डिपार्टमेंट के लिए अपानी सहमति दे दी थी - वह बहुत खुश थी - उसे अनायास ही धीरज की याद हो आई - वह होता तो अभी इस खुशी के मौके पर पेस्ट्री खिलाने को कहता - उसने सोचा अब तो उसकी शादी भी हो गई होगी... इतना नाराज था वह कि उसे बुलाया तक नहीं...
एन आर आई डिपार्टमेंट में काम कम था और आराम ज्यादा - लेकिन रात्रि जागरण उसके लिए बहुत मुश्किल था - उस दिन वह पहली बार नाइट शिफ्ट में आई थी - उसकी आँखें लाल हो रही थीं - पलकें इतनी भारी कि अब गिरीं, तब गिरीं... लेकिन उन्हें जबरन खुला रखना था, पता नहीं कब किस ग्राहक की घंटी बज जाए... निशा ने उस पर तरस खा कर कहा था - 'बाहर चल तुम्हें फ्रेश करा लाऊँ -'
'तुम्हें नींद नहीं आती?'
'आती है यार, लेकिन एक सुट्टा लगाओ और देखो वह कितनी दूर चली जाती है -' और उसने साहिल के हाथ से सिगरेट ले लिया था - हर टेबल पर धुएँ का गुबार था और हर प्याली से कहवे की महक भाप बन कर उड़ रही थी - उस रात निशा के लाख कहने के बाद भी उसने सिगरेट को हाथ भी नहीं लगाया लेकिन वह नींद से कब तक निहत्थे लड़ती, चौथी रात खाँसते-खाँसते उसने भी उस श्वेत दंडिका को अपनी जिंदगी में शामिल हो जाने दिया था -
ऐसी ही एक रात जब वह कैफेटेरिया में निशा के साथ नींद से लड़ रही थी अचानक एफएम पर खबर आई थी - 'अभी-अभी खबर मिली है कि नासिक के मशहूर व्यवसायी राजीव सावंत के पुत्र धीरज सावंत ने आत्महत्या कर ली है - आत्महत्या के कारणों का अभी पता नहीं चल पाया है... ' दीपिका को जैसे बिजली का झटका लगा था... सिगरेट की कश जैसे उसकी छाती में कहीं अटक-सी गई थी और वह बेतरह खाँस उठी थी... उसकी खाँसी रुक नहीं रही थी या कि वह जान-बूझ कर खाँसे जा रही थी ताकि उसकी आँखों से बह रहे आँसू उस खाँसी में घुल-मिल जाएँ... उसे धीरज का आखिरी एसएमएस याद हो आया था - 'मैं कल हमेशा के लिए नासिक जा रहा हूँ... लव यू डियर... टेक केयर...' रितु भाभी मैके गई थीं, यह उनका नवाँ महीना था... वह उन्हें फोन कर के परेशान नहीं करना चाहती थी... उसे पापा की बेतरह याद हो आई... और उसने फोन मिलाया - 'हैलो... पापा -'
'दीपू... इस समय? सब ठीक तो है न?'
'हाँ पापा... बस यूँ ही... नाइट शिफ्ट है, मन नहीं लग रहा था और आपकी याद आ रही थी... पापा... कभी-कभी बहुत अकेलापन लगता है...'
'इस तरह उदास नहीं होते, बेटा... बस कुछ दिनों की ही बात है, रितु भी वापस आ जाएगी - और इस बार तो तुम्हारा दिल बहलाने की खातिर एक नन्हा खिलौना भी होगा उसके साथ - हाँ, तुम्हारे मामाजी का फोन आया था... दुबई में एक लड़का है... तू कहे तो बात करूँ...'
'अभी नहीं, पापा...' उसकी आँखों में धीरज का चेहरा कौंधा था और आगे एक उदास-सी चुप्पी थी -
'तुम्हें कोई और पसंद है -?' पापा ने हौले से दीपू को टटोला था -
'नहीं पापा, ऐसा कुछ भी नही... क्या आपको मुझ में भरोसा नहीं है?'
'नहीं बेटा, तुम पे भरोसा है तभी तो पूछ रहा हूँ... यदि मेरी बेटी को कोई पसंद आया तो वह जरूर कुछ खास होगा... संकोच मत करना... कोई हो तो बताना... मैं हमेशा की तरह तुम्हारे साथ हूँ -'
दीपिका को जैसे काठ मार गया था... उसे लगा वह पापा से और बात नहीं कर पाएगी... उसने बहाना बनाया - 'पापा, एक काल है... फिर फोन करूँगी...
निशा फ्लोर पर चली गई थी - दीपिका उदास मन से वाशरूम की तरफ बढ़ी - भीतर जैसे कुछ मरोड़ रहा था उसे, बेतरह... बेपनाह... उसने पापा को अब तक नहीं समझा... उसके भीतर अपराधबोध जैसा रिसने लगा कुछ... और धीरज से हुई आखिरी बातचीत उसकी आँखों के रास्ते उसकी हिचकियों में उतरने लगी...
'क्या अंकल मुझे पसंद नहीं करते?'
'वे तो तुम्हें जानते भी नहीं हैं -'
वह बार-बार वाश बेसिन के आगे अपना चेहरा धो रही थी - अपने चेहरे पर अचानक ही उग आए इस चेहरे को वह धो-धो कर मिटा देना चाहती थी... लेकिन उसकी हर कोशिश नाकाम... उसने पानी की धार तेज कर दी थी... वह अब भी अपना चेहरा धोए जा रही थी... लगातार... अविराम...
दीपिका की जिंदगी थम-सी गई थी - अमरीकी अर्थव्यवस्था मंदी की गिरफ्त में थी - राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय बाजारों के सेन्सेक्स लगातार लुढ़कने लगे थे... अखबारों के रोजगारवाले परिशिष्टों में नई नौकरियों के विज्ञापन से ज्यादा एचआर कंसल्टेन्ट्स के साक्षात्कार और आर्टिकल्स दिखने लगे थे... भारत में सबसे ज्यादा इसका असर काल सेंटर व्यवसाय पर पड़ा था - नए कस्टमर्स मिलने बंद हो गए थे... पुराने कस्टमर्स की व्यावसायिक करारों के नवीकरण में दिलचस्पी कमने लगी थी... छोटे-मझोले कद के सेंटर्स बंद होने लगे थे...
इंडो-अमेरिकन बैंक ने इन्सेंटिव देना बंद कर दिया था... इसके बावजूद यहाँ काम करनेवालों मे इस बात का संतोष था कि उनकी नौकरी अभी सुरक्षित थी -
दीपिका का टीम लीडर माधव जो पिछले पाँच वर्षों से बेस्ट परफार्मर था अपनी एक मामूली-सी भूल के लिए नौकरी से निकाल दिया गया था - लोग एक-एक काल अटेंड करने में जरूरत से ज्यादा सतर्क हो गए थे... काल हैंडलिंग टाइम का औसत ठीक रखने के लिए की जानेवाली काल ड्रापिंग जैसे बीते जमाने की बात हो गई थी - कंपनी का बिजनेस घट रहा था...
इंसेंटिव तो पहले ही बंद कर दिया गया था लेकिन कंपनी छँटनी कर के बाजार में अपना रेपुटेशन नहीं खराब करना चाहती थी - पिछले चार वर्षों से मिल रहे बेस्ट इंप्लायर के अवार्ड को उसे इस साल भी बचा कर रखना था... ऐसे में एचआर डिपार्टमेंट ने इस परिस्थिति से निकलने का नया तरीका खोज निकाला था... बिना वेतन के लंबे स्वैच्छिक अवकाश पर जाने की एक नई योजना शुरू की गई थी... दीपिका को लगा क्यों न वह इस मौके का लाभ उठा कर पापा से मिल आए... - और उसने एक महीने के वेतनरहित अवकाश के लिए आवेदन कर दिया था -
पवन एक्सप्रेस जलगाँव स्टेशन पर आ रुकी थी - जलगाँव स्टेशन से उसे याद आया उसका टीम लीडर माधव यशवंत जलगाँवकर यहीं का तो था... जिस दिन उसे नौकरी से निकाला गया सब हतप्रभ थे... डरे-सहमे भी... यदि उसके जैसे डेडिकेटेड आदमी की नौकरी जा सकती है तो औरों का क्या भरोसा... दीपिका के भीतर एक नई आशंका ने अपना सिर उठाया था... क्या छुट्टी से लौटने तक उसकी नौकरी सुरक्षित रहेगी -? तभी उसे अप्वायंटमेंट ऑफर देते उस पर्सनल मैनेजर की वह बात याद हो आई - 'यदि कोई दिक्कत हो तो...' - उसे लगा वह काम का आदमी है, उससे कांटैक्ट बनाए रखना चाहिए... और उसने गुड इवनिंग का एक खूबसूरत-सा मेसेज उसे फारवर्ड कर दिया था... लेकिन आशंकाएँ थमती कहाँ हैं... मेसेज भेजते हुए उसने सोचा यदि उसकी छुट्टी के दौरान कहीं उस पर्सनल मैनेजर की ही नौकरी चली गई तो...? उसे लगा वह आशंकाओं के घने जंगल मे घिर गई है... - उसे पापा की बहुत याद आ रही थी और अपने स्कूल की भी...