प्रांतीय सरकारों के मुंबइया सपने / जयप्रकाश चौकसे
प्रांतीय सरकारों के मुंबइया सपने
प्रकाशन तिथि : 26 अगस्त 2009
टाईम्स ऑफ इण्डिया में प्रकाशित शर्मिला गणेशन राय के लेख द्वारा ज्ञात हुआ कि इंडिया फाउंडेशन ऑफ आर्टस के आर्थिक सहयोग से शर्ले अब्राहम और फोटोग्राफर अमित मदेशिया महाराष्ट्र में तंबू टॉकीज पर शोध कर रहे हैं। कुछ किसानों और उनके सहयोगियों ने मुंबई के फुटपाथ से पुराना प्रोजेक्टर खरीदकर इधर-उधर से जुटाई आधी-अधूरी फिल्मों का प्रदर्शन कईदशक पहले शुरू किया था।
एक दौर में 300 संस्थाऐं सक्रिय थीं, परंतु आज मात्र 50 संस्थाऐं तंबू टॉकीज को जीवित रखे हैं। कभी मराठी फिल्मों की आय का यह अच्छा-खासा स्त्रोत था। टेंट टॉकीज का पहला स्वरूप टूरिंग टॉकीज था, जिसका प्रारंभ कथा फिल्मों के निर्माण के साथ ही हो गया था और आज भी कम संख्या में जारी है। वीडियो के आने से पहले टूरिंग टॉकीज वाला ग्रामीण भारत के मेलों में फिल्मों का प्रदर्शन करते थे, परंतु वितरकों द्वारा अपना जायज हिस्सा मांगते ही इन्होनें सस्ती अश्लील फिल्मों का प्रदर्शन शुरू किया। उसी दौर में सेंसर द्वारा हटाए हिस्सों को मूल प्रिंट में जोडकर दिखाने का घिनौना काम शुरू कर दिया, जिसमें काटे गए दृश्य के नाम पर कुछ निहायत ही अश्लील हिस्से जो दो नंबर के स्टूडियो में शूट किए थे, जोड दिए गए और टेंट टॉकीज का पूरा वातावरण दूषित हो गया। वितरक व प्रदर्शक संस्थाओं ने इस अवैध गतिविधि को रोकने हेतु कोई काम नहीं किया, क्योंकि वे केवल चुनावी मैदान के सत्तालोलुप लोग रहे हैं।
ज्ञातव्य है कि इतिहास आधारित काल्पनिक फिल्मों के निर्माण में महारत हासिल करने वाले सोहराब मोदी ने भी टूरिंग टॉकीज के व्यवसाय से ही फिल्म उद्योग में प्रवेश किया था। प्रांतीय सरकारों के विचार के लिए कहा जा सकता है कि वे टूरिंग टॉकीज को जीवित करें या खासी आबादी वाले गांवों और कस्बों में छोटे सिनेमाघरों का निर्माण करें। विगत लगभग सौ वर्षों में किसी ने भी हजारों ऐसे केन्द्रों में सस्ती, सुंदर और टिकाऊ सिनेमा श्रृंखला के निर्माण के बारे में नहीं सोचा। कोई बडा कॉरपोरेट भी यह काम कर सकता है। यह आश्चर्य की बात है कि प्रांतीय सरकारें अपने प्रदेश में सिनेमा के छोटे परंतु महत्वपूर्ण काम न करते हुए राजधानी में स्टूडियो स्थापना का गैर व्यवहारिक मुंबइया सपना देखती हैं और उर्जा तथा जनता के पैसे का विनाश करना चाहती हैं। इस तरह के स्टूडियो की स्थापना में लंबा घाटा हो सकता है।
धमेंद्र ने चंढीगढ और जेपी दत्ता ने जयपुर में स्टूडियो स्थापना का विफल प्रयास किया था। नोएडा में स्टूडियो बने, परंतु एक भी मंबइया सितारे ने वहां एक घंटा भी शूटिंग नहीं की। मुंबई के अतिरिक्त कहीं और स्टूडियो के नाम पर कोई चतुर खिलाडी जमीन हडप सकता है। मुंबईया सितारे एक समय में कई काम करते हैं, अत: मुंबई छोडकर भोपाल, जयपुर या जालंधर क्यों आऐंगें। सिताराविहीन फिल्मों के पास बजट ही नहीं होता, अत: 22 करोड की लागत का स्टूडियो चपरासियों का वेतन भी नहीं निकाल सकता। प्रांतीय सरकारें पूणें फिल्म संस्थान की मदद से फिल्म आस्वाद की पुस्तकें तैयार करके अपने स्कूलों में ऐच्छिक विषय के रूप में पढा सकती हैं, ताकि भविष्य में अच्छे दर्शक की नई पीढी बुरे सिनेमा को निरस्त कर सके। दूसरा काम छोटे कस्बों में सिनेमाघर बनाने का और तीसरा काम सिनेमा पर शर्ले अब्राहम जैसे लोगों से शोध कराने का है।