प्रांतों के दौरे / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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शुरू से ही मैं इस बात की पूरी कोशिश करता रहा हूँ कि भारत के सभी प्रांतों में, यहाँ तक कि बर्मा में भी किसान-सभाएँ बनें और उनकासंबंधहमारी अखिल भारतीय सभा से हो। मुझे खुशी है कि इस काम में मुझे सफलता हुई है। प्राय: सभी प्रांतों में किसान-सभाएँ बन गई हैं और कुछ रियासतों में भी। यह ठीक है कि पश्चिमोत्तार-सीमाप्रांत,तमिलनाडु,आसाम,सिंध और महाराष्ट्र तथा महाकोशल की सभाएँ कमजोर हैं और अधिक मुस्तैदी से काम कर नहीं सकती हैं। मगर यह भी ठीक है कि बन जरूर गई हैं। उनने थोड़ा बहुत काम भी किया है। आशा है, अचिर भविष्य में उन्हें चुस्त और मजबूत बनाने में हम सफल होंगे।

बेशक हजार चाहने पर भी मैं सीमा प्रांत,सिंध,तमिलनाडु,केरल,कर्नाटक प्रांतों के दौरे अब तक न कर सका। क्योंकि अवकाश ही न मिल सका। आंधार में भी सिर्फ पलासा ही जा सका। दौरा तो वहाँ भी नहीं ही कर सका। इन सभी प्रांतों के साथी मेरे ऊपर इसीलिए रंज भी हैं कि मैं उनकी उपेक्षा करता हूँ। परंतु मेरी मजबूरी को भी शायद वे समझते हैं। किसानों के संघर्षों के करते बिहार से अब तक फुर्सत ही कम मिलती रही है। फिर जाता कैसे?जब-जब मौका लगा तब-तब फिर भी गया ही। पंजाब में तो दो बार गया। मगर इधर तो सर सिकंदर ने रोक ही लगा दी। पारसाल जून में दिल्ली गया था। पंजाब जाने की बात थी ही नहीं। वहाँ के साथियों ने लिखा जरूर था। पर, मैंने इनकार किया था। फिर भी दिल्ली में ही पंजाब सरकार की नोटिस एक साल वहाँ न जाने के लिए मुझ पर तामिल हो गई! अब अगर जाता भी तो सर सिकंदर पकड़ के फिर पंजाब से बाहर ही कहीं रख देता। तो फिर इस नाटक से क्या मतलब?इसीलिए सीमाप्रांतवालों से क्षमा माँग ली।

यहीं पर प्रसंगवश एक जरूरी बात कह देना चाहता हूँ। जब मैं दिल्ली में ही था तो अखबारों में आश्चर्य के साथ अपने संबंध की बात पढ़ी और मैं दंग रह गया। बिहार के कांग्रेसी अंग्रेजी दैनिक पत्र'सर्चलाइट'ने कलकत्ते से अपने विशेष संवाददाता के द्वारा ऊपर किया गया हुआ बता के एक पत्र छापा। उसके बारे में यह बताया गया कि किसी भूतपूर्व वायसराय ने भारत में किसी के पास लिखा था। उसमें लिखा गया था कि स्वामी सहजानंद सरस्वती के विरोध से कांग्रेस कमजोर हो रही है। सरकार इससे फायदा उठाए। उसका यह भी मतलब था कि मैं सरकार के साथ गुप-चुप संबंध रखता हूँ और जानबूझ कर उसी के इशारे पर कांग्रेस का विरोध करता हूँ! मुझे इस पर हँसी आई। मैंने दिल्ली की खुली सभा में ही ऐसा कहनेवालों को ललकारा। पीछे तो एक वक्तव्य के द्वारा उस जाली पत्र का अक्षरश: भंडाफोड़ किया। फिर स्टेट्समैन ने भी उसे जाली बताया। लेकिन सत्यवादी लोग कहाँ तक जाल करके विरोधी को गिराने के लिए तैयार होते हैं इसका प्रमाण उस पत्र ने दिया। उफ! यह भयंकर सत्य!

गुजरात में तो दो बार घूमा और प्राय: हर जिले में सभाएँ कीं। इस साल तीसरी यात्रा थी और डाकोर के पास प्रांतीय किसान सम्मेलन का सभापतित्व भी करना था, 20-21 अप्रैल को। तब तक 19वीं को ही सरकार ने बंद कर दिया। वहाँ रानीपरज में मैंने सभाएँ की हैं और उन लोगों में जीवन लाने में साथियों का हाथ बँटाया है। मैंने उनका नाच और गान देखा और आतिथ्य स्वीकार किया है। सचमुच किसान-सभा ने उन्हें हाली तथा दुबला आदि को और खेड़ा के धाराला कहे जानेवाले क्षत्रियों को आत्मसम्मान और साहूकारों से त्राण दिया है। रानीपरज की एक गीत की पहली कड़ी का अर्थ ही यह है कि किसान-सभा में जरूर शामिल हो। इसका नतीजा जरूर अच्छा होगा। हमारे स्वागत में लड़के-लड़कियों और स्त्री-पुरुषों को हमने उमंग में पाया था।

युक्त प्रांत में तो तीन-चार बार गया। कुछ ही जिलों को छोड़ बाकी सभी में कई-कई सभाएँ कर चुका हूँ। पचास-पचास हजार किसानों की सभाओं में अवध में भाषण देने का मौका भी मिला है। श्री हर्षदेव मालवीय के साथ ज्यादातर जिलों में गया और उनने तथा उनके साथियों ने मीटिंगों का सुंदर प्रबंध किया। एक दौरे में तो रात में बलिया जिले में मोटर के साथ ही एक कुएँ में गिरते-गिरते बचा था। रास्ता ही भूल गया और सारी रात मोटर भटकती रही!

महाराष्ट्र,बरार,मराठी,मध्यप्रांत और महाकोशल में भी कहीं एक बार और कहीं दो बार जा चुका हूँ और अनेक जिलों में सभाएँ भी हो चुकी हैं। बंगाल की बात पहले कही चुका हूँ। आसाम के ग्वालपाड़ा जिले में इसी साल फरवरी महीने में गया था और जिला किसान सम्मेलन की अध्यक्षता भी की थी। उत्कल में भी दो दौरे हुए हैं। एक का तो वर्णन पहले ही आया है। दूसरी बार सन 1939 ई. के अगस्त में गया था, जब कि कटक में सभा हुई और अकर्मण्य प्रांतीय किसान-सभा को फिर कार्यशील बनाया।

मैंने यह देखा कि किसान सर्वत्र तैयार हैं। मगर हमारे कार्यकर्ता लोगों को या तो उनमें विश्वास नहीं है, या कांग्रेस और दूसरे दलों के कामों में फँसे होने के कारण उन्हें अवकाश ही नहीं है। मैंने आश्चर्य के साथ यह भी अनुभव किया है कि किसान-सभा के काम में सोशलिस्टों से अपेक्षाकृत कहीं ज्यादा दिलचस्पी और मुस्तैदी कम्युनिस्ट विचारवाले रखते हैं। कारण,मैं नहीं कह सकता। मगर इतने दिनों के अनुभव के आधार पर ही मैं यह बात कहता हूँ। मैंने कई बार इसका उलाहना सोशलिस्ट साथियों को दिया भी है।