प्राचीन और नवीन / जया झा
प्राचीन
“भानुमति। क्या विचार है तुम्हारा? अब हमारी पुत्री के विवाह का समय आ गया है? जल्दी ही हमें तय कर देना चाहिए।”
“सही कह रहे हैं आप। किन्तु क्या कोई सुयोग्य वर है आपके मन में?”
“मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ भानुमति। सूर्यवदन बहुत ही योग्य लड़का है।”
“हाँ। उसकी और रक्षिता की अच्छी बनती भी है। किन्तु…”
“मुझे पता है तुम्हे क्या दुविधा हो रही है। मेरे मन में भी वही एक प्रश्न है।”
“इस दुविधा को दूर करने का तो एक ही उपाय दिखता है मुझे।”
“क्या?”
“आप एक बार मयूर वन में जाकर पिताजी से बात क्यों नहीं करते। जब से उन्होंने वानप्रस्थ आश्रम के लिए प्रस्थान किया है, आप उनसे मिले भी तो नहीं हैं? मुझे विश्वास है कि वे हमारी दुविधा के लिए कोई समाधान अवश्य बताएँगे।”
“सही कह रही हो भानुमति। प्रातःकाल की पूजा और समाधि तो हो ही चुकी है। मैं अभी ही प्रस्थान करता हूँ। अभी निकल गया तो अँधेरा होने से पहले लौट भी आऊँगा।”
“जी। मैं राह के लिए पाथ्य दे देती हूँ। दोपहर की वेला में कही रुक कर ग्रहण कर लीजिएगा।”
“ठीक है।” और पंडित लक्ष्मीपति ने वन की ओर प्रस्थान किया।
–
“प्रणाम पिताजी।”
“चिरंजीवी भव। कैसे हो पुत्र?”
“सब कुशल है पिताजी।”
“क्या बात है, कोई चिन्ता है क्या?”
“कुछ बड़ी बात नहीं है पिताजी। किन्तु एक दुविधा थी।”
“बताओ मुझे।”
“पिताजी रक्षिता के विवाह के विषय में सोच रहा था।”
“यह तो बहुत अच्छा सोचा पुत्र। यही सही समय है उसके विवाह का। दुविधा की क्या बात है?”
“पिताजी। मुझे और भानुमति को लगता है कि सूर्यवदन एक योग्य वर है। आपने भी उसे देखा ही है। और ऐसा लगता है कि वह और रक्षिता एक-दूसरे को स्वीकार भी कर लेंगे।”
“दुविधा क्या है पुत्र?”
“पिताजी। सूर्यवदन के पिता शूद्र थे। तो ब्राह्मण होते हुए उससे अपनी पुत्री का विवाह करने में दुविधा हो रही है।”
“सूर्यवदन एक विद्वान् नौजवान है ना पुत्र?”
“जी पिताजी। शास्त्रों का अध्ययन तो उसने कई ब्राह्मण पुत्रों से भी अच्छा किया है। बहुत प्रतिभाशाली कवि है। राज-दरबार में उसे पुरस्कार और सम्मान भी मिला है।”
“फिर क्या समस्या है लक्ष्मीपति? जानते हो ब्राह्मण की परिभाषा क्या है?”
“क्या पिताजी?”
“जो ईश्वर को जानता है वह ब्राह्मण है। इसका कुल और पूर्वजों से कोई लेना-देना नहीं है।”
“किन्तु पिताजी, हमने तो हमेशा लोगों को कुल देखकर विवाह करते देखा है। मेरे सारे मित्र भी यह सलाह देते हैं।”
“इसलिए नहीं पुत्र कि ईश्वर ने किसी से कहा है कि ऐसा करना चाहिए।”
“फिर ऐसा क्यों करते हैं पिताजी? कोई तो कारण होगा। इतने लोग असत्य का साथ तो नहीं दे सकते।”
“विवाह के पश्चात् कन्या एक नए परिवार में जाती है। यदि उस परिवार का रहन-सहन कन्या के मायके से बहुत भिन्न हुआ तो कन्या और परिवार वालों, दोनो के लिए समस्या का कारण बन जाएगा।”
“बात तो सत्य है पिताजी।”
“इसीलिए हमारे समझदार पूर्वजों ने व्यावहारिक तौर पर एक ही जाति के अंदर और परिवार को देखकर विवाह करने की सलाह दी है। किन्तु रक्षिता का विवाह यदि सूर्यवदन के साथ होता है तो ऐसी कोई समस्या नहीं होगी। वह एक ब्राह्मण पिता की दिनचर्या को देखते हुए बड़ी हुई है। और सूर्यवदन भी एक ब्राह्मण की तरह ही जीवन-यापन करेगा।”
“जी पिताजी। आपने हमारी दुविधा का समाधान कर दिया है।”
नवीन
“अरे, बेटा प्रवीण। संजय के लिए बड़ा ही अच्छा रिश्ता आया है। बहुत अच्छा कुल है। और लड़की भी बहुत सुंदर है। देख फोटो देख लड़की की।” भवानी शंकर ने अपने बेटे को एक फोटो देते हुए कहा।
प्रवीण ने फोटो अपने हाथ में ली।
“मैं तो सोच रहा हूँ कि हाँ कर दूँ।”
“लेकिन पापा। ऐसे कैसे हाँ कर सकते हैं? संजय से तो बात कर लें। मुझे तो लगता है कि उसे कोई और लड़की पसंद है।”
“अरे होगी। लेकिन शादी-ब्याह तो ऐसे नहीं किए जाते ना। और जो भी लड़की हो, ये उससे कम नहीं है। ये लो संजय भी आ गया। संजय बेटा!”
“हाँ बाबा।”
“बेटा, ज़रा यह फोटो तो देख।” भवानी शंकर ने प्रवीण के हाथ से फोटो लेकर संजय को देते हुए कहा।
संजय ने फोटो हाथ में ली और थोड़ा गंभीर होकर बोला, “अच्छी है बाबा, पर किसकी है?”
“लता। तेरे लिए रिश्ता आया है इसका।”
“मेरे लिए रिश्ता?”
“हाँ। क्यों पसंद नहीं आई?”
“बाबा। ऐसे फोटो देख कर पसंद-नापसंद का क्या मतलब है? पर मेरे लिए रिश्ते ढूँढ़ने की ज़रूरत नहीं है।”
“क्यों? हम नहीं ढूँढ़ेंगे तो कौन ढूँढ़ेगा? और अब तो तुझे जॉब में लगे भी तीन साल होने को आए। अब तो शादी कर के घर बसाना ही चाहिए तुझे।”
“वो ठीक है बाबा। लेकिन मैंने मम्मी को बताया था। मोनिका के बारे में। वह आप लोगों से बात करने भी वाली थीं।”
“मोनिका? यह कैसा नाम है? ईसाई है क्या?”
“नहीं बाबा। ईसाई तो नहीं है। हिन्दू ही है।”
“ब्राह्मण तो नहीं हो सकती?”
“हाँ। ब्राह्मण नहीं है बाबा। पर उससे क्या फ़र्क पड़ता है?”
“क्या फ़र्क पड़ता है? अरे किसी दूसरी जात की बहू को घर में लाएगा? हम सबकी जाति भ्रष्ट करेगा। बच्चों की कोई जात रह ही नहीं जाएगी।”
प्रवीण ने बीच में बोलने की कोशिश की, “पापा। आजकल के बच्चे…”
लेकिन भवानी शंकर ने उसे चुप करवा दिया।
“प्रवीण! तू ऐसी बेतुकी बातों में इसका साथ मत दे।”
“बाबा। आजकल सच में फ़र्क नहीं पड़ता। मैं और मोनिका एक दूसरे को अच्छी तरह समझते हैं। यह ज़्यादा ज़रूरी है।”
“अरे तो अच्छी ब्राह्मण लड़कियाँ नहीं है क्या? लता ने भी एम. बी. ए. किया हुआ है।”
“बाबा। मुझे नहीं पता कि मैं आपको समझा पाउँगा कि नहीं। लेकिन आपके ज़माने में बात और थी। लोग ज्वाइन्ट फैमिली में रहते थे। औरतों और मर्दों के अपने-अपने दायरे और काम थे। जब तक सब लोग अपना काम कर रहे हैं, फ़र्क नहीं पड़ता था। लेकिन आजकल वैसा नहीं होता। पति-पत्नी अक्सर ही बस एक दूसरे के साथ रहते हैं। उनकी ज़िंदग़ी चलाने के लिए कोई और नहीं आता। पति-पत्नी का एक-दूसरे को समझना और एक दूसरे का दोस्त होना पहले ज़रूरी होता है। कोई भी और बात बाद में आती है।”
“अब तू अपने दादा को जीवन के सत्य समझाएगा।”
“ऐसा कुछ नहीं है बाबा। और वैसे भी जाति क्या होती है? हिस्ट्री तो आपने भी पढ़ी है और मुझे भी आपने ही पढ़ाई है। जाति-प्रथा कोई हमेशा से तो रही नहीं है। यह तो हम सबको पता है ना कि पहले जाति लोगों के प्रोफ़ेशन से जुड़ी होती थी। उसका कुल, ख़ानदान या शादी के मामलों से कोई संबंध नहीं था।”
“देख। पढ़-लिख लेने से कोई समाज और उसके क़ायदों से बड़ा नहीं हो जाता। तेरे पापा ने भी क़ायदों के अनुसार शादी की थी।”
“बाबा। ऐसे ग़लत और दकियानूसी क़ायदों को मानने का कोई मतलब नहीं है। मेरी ज़िंदगी आपकी या पापा की ज़िंदग़ी से अलग तरह की है। मुझे जिसके साथ ज़िंदग़ी भर रहना है उसको मैं फोटो, सूरत, डिग्री या जाति देख कर नहीं चुन सकता। आई एम सॉरी, लेकिन इस बारे में और बहस करना बेकार है।”
संजय अपने कमरे में चला गया।
भवानी शंकर अपना सामान बाँध कर निकल गए और जाते जाते प्रवीण को बोल गए कि उनके श्राद्ध पर संजय, उसकी पत्नी या बच्चे बिलकुल नहीं होने चाहिए।