प्राणायाम का पौराणिक एवं वैज्ञानिक विवेचन / कविता भट्ट

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मानव मात्र के जीवन को दुःख से निवृत्त करने हेतु भारतीय वांग्मय में योग को जीवन पद्धति के रूप में विवेचित किया गया। योग एक समग्र जीवन दर्शन है। योग के प्रणेता महर्षि पतंजलि द्वारा अष्टांग योग का विवेचन पातंजलयोगसूत्र नामक ग्रन्थ में किया गया। इसमें उल्लिखित योग के आठ अंग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि हैं। प्रस्तुत आलेख में प्राणायाम की पौराणिकता एवं वैज्ञानिकता को स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे।

प्राणायाम शब्द का सामान्य अर्थ

श्वास-प्रश्वास (साँस लेना- साँस छोड़ना) की गति को रोककर; प्राण शक्ति का शरीर के भीतर विस्तारण ही प्राणायाम है। शाब्दिक दृष्टिकोण से ‘प्राणायाम‘ शब्द दो पदों से व्युत्पन्न है- प्राण एवं आयाम। ‘प्राणस्य आयामः इति प्राणायामः। अर्थात् प्राण का आयाम ही प्राणायाम है। प्राण का अर्थ है- प्राण अर्थात् वह ऊर्जा; जो हमारे शरीर में जीवन का संचार करती है। हठयोग के ग्रन्थों में प्राण का अर्थ आत्मबल भी बताया गया है। आयाम का अर्थ होता है- विस्तार। इस प्रकार प्राणायाम का पूरा अर्थ होता है- प्राण के शरीर में संचार के माध्यम प्राणवायु या ऑक्सीजन वायु को भीतर ग्रहण करके, फिर नासिका को बन्द करके, वायु को भीतर ही रोककर उसका शरीर में विस्तार करना। प्राणायाम को समग्र ढंग से समझने हेतु सर्वप्रथम प्राण शब्द की व्याख्या आवश्यक है।

प्राण की सामान्य एवं योगशास्त्रीय अवधारणा

प्राण का अर्थ है- जीवनीशक्ति या जीवन का मूलतत्त्व। यह वह जीवनी शक्ति है जो मात्र मानव को ही नहीं; अपितु समस्त सृष्टि को संचालित करती है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि सृष्टि में प्रकाष, ऊष्मा, ध्वनि, चुम्बकत्व, गुरुत्व, विद्युत शक्ति, बल, जीवन और जीवनी शक्ति के रूप में जो कुछ भी प्रकट और ध्वनित हो रहा है; वह सब प्राण ही है। इसे एक संयुक्त बहुआयामी ऊर्जा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। यह वही शक्ति है जिसके शरीर से निकल जाने पर शरीर मृत हो जाता है। तब इसे ना तो प्राणवायु या ऑक्सीजन द्वारा जीवित किया सकता है; न ही इसे ग्लूकोज से ऊर्जान्वित किया जा सकता है। अतः स्पष्ट रूप से प्राण जीवनी शक्ति है; यह पर्यावरण से ग्रहण की गई शुद्धवायु है के द्वारा ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को शरीर के भीतर पहुँचाकर व्यक्ति को जीवन प्रदान करती है।

1.प्राण पर्यावरण से ग्रहण की गयी शुद्धवायु है जो ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को शरीर के भीतर प पहुँचाकर व्यक्ति को जीवन प्रदान करती है।

2.विज्ञान मानता है कि जैविक क्रियाओं के संचालन हेतु शरीर ऑक्सीजन को ग्रहण करता है तथा उसके द्वारा शरीर की प्रत्येक कोशिका एक पावर हाउस के रूप में ऊर्जा का निर्माण करती है। यही ऊर्जा व्यक्ति को जीवित बनाये रखती है और समस्त क्रियाओं का संचालन करती है।

3.इनके अतिरिक्त इनके सहयोगी के रूप में शारीरिक क्रियाओं को सम्पन्न करने वाले पाँच उपप्राण भी बताए गए हैं।

4.नासिका के द्वारा प्राणवायु को ग्रहण किया जाता है तथा व्यक्ति के दो नासिका छिद्र होते है इन्हें ह तथा ठ नाड़ी भी कहा जाता है। हठयोग मानता है कि शरीर में दस प्रकार की प्राणवायु है। मुख्य प्राणवायु हृदय में रहते हुए श्वास एवं निःश्वास का संचालन करती है। यही प्राणवायु हकारात्मक एवं ठकारात्मक भी है; क्योंकि हकार ध्वनि से यह वायु अन्दर आती है तथा ठकार ध्वनि से वायु बाहर जाती है। इसमें हकार को सूर्य नाडी एवं ठकार को चन्द्र नाड़ी कहा जाता है। इन्हीं प्राणों की साधना के द्वारा कैवल्य जैसे साध्य की प्राप्ति होती है।

विज्ञान मानता है कि जैविक क्रियाओं के संचालन हेतु शरीर ऑक्सीजन को ग्रहण करता है तथा उसके द्वारा शरीर की प्रत्येक कोशिका के भीतर उपस्थित माइटोकॉण्ड्रिया एक पावर हाउस के रूप में ऊर्जा का निर्माण करता है। यही ऊर्जा व्यक्ति को जीवित बनाए रखती है और समस्त क्रियाओं का संचालन करती है। यह प्राण की सामान्य व्याख्या थी; प्राण की विशेष योगशास्त्रीय व्याख्या भी है। योगशास्त्र कार्यों की विभाजन की दृष्टि से प्राण नामक जीवनी शक्ति को पाँच मुख्य एवं पाँच उप विभागों में विभाजित करता है; इन्हें इस प्रकार समझा जा सकता है।

योगशास्त्र के अनुसार शरीर में उपस्थित पाँच प्रकार के प्राण- प्राण, अपान, उदान, समान तथा व्यान। योगशास्त्र के अनुसार शरीर में उपस्थित पाँच प्रकार के उपप्राण- नाग, देवदत्त, धनंजय, कूर्म तथा कृंकल या कृंकरक।

प्राणवायु के प्रकारों को लेकर विभिन्न योगग्रन्थों में मतभेद नहीं है; किन्तु शरीर में उनके स्थान तथा कार्यों में पर्याप्त मतभेद है। वसिष्ठसंहिता ‘प्राण के प्रकारों, शरीर में उनके स्थान एवं कार्यांे का यथोचित विवेचन प्रस्तुत करती है; किन्तु इसमें पाँच उपप्राणों के स्थान को अधिक स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया है। प्राण एवं उपप्राण हेतु निर्धारित शरीर के स्थानों के लिए गोरक्षनाथ कृत सिद्धासिद्धान्तपद्धति में प्रस्तुत विवेचन अधिक उचित है। इन दोनों ही पौराणिक ग्रन्थों के आधार पर शरीर में प्राण एवं उपप्राण की स्थिति एवं कार्यों का सारांश एक तालिका के माध्यम से निम्न प्रकार समझा जा सकता है।

1-पाँच मुख्य प्राण- 2-शरीर में इनके स्थान- 3-इनके द्वारा सम्पादित कार्य

1-प्राण - कन्द का निचला भाग, मुख, नासिका, हृदय और नाभिमंडल आदि सहित पैर के अँगूठे तक- श्वास-प्रश्वास, खाँसना

2-अपान।-लिंग/योनि, गुदा, उरु, अण्डकोष, पिण्डली, जानु, कटि तथा नाभिमूल-मल-मूत्र विसर्जन

3-समान -सम्पूर्ण शरीर-वृद्धि, अन्नरस का सम्पूर्ण शरीर में संचरण व पोषण

4-उदान-सभी सन्धियाँ, हाथ-पैर -शरीर का उन्नयन

5-व्यान कान, आँख की मध्यवर्ती घुठ्ठी, नासिका, गला, टखने तथा चक्षु प्रदेश -हान, उपादान एवं चेष्टा आदि

1-पाँच उपप्राण 2-शरीर में इनके स्थान 3-इनके द्वारा सम्पादित कार्य

1-नाग -त्वचा, हड्डी एवं सारा शरीर-अंग-प्रत्यंग संचालन

2-कूर्म -त्वचा एवं हड्डी आदि -पलकों को खोलना-बन्द करना

3-कृकल/कृकरक -त्वचा एवं हड्डी आदि-छींकना, डकार लेना तथा भूख बढ़ाना

4-देवदत्त -त्वचा एवं हड्डी आदि- तन्द्रा में जम्हाई लेना

5-धनंजय -त्वचा, हड्डी तथा समस्त शरीर-समस्त शरीर में नाद, -शुष्कता

इस प्रकार शरीर की क्रियाओं के संचालन का उत्तरदायित्त्व पाँच मुख्य प्राणों एवं पांचों उपप्राणों का है। योग शास्त्र में माना गया है कि जो साधक प्राण की साधना करते हैं; वे ब्रह्मरूप को साक्षात् ध्याते हैं। अर्थात् प्राण ब्रह्ममय है। जो मनुष्य प्राणतत्त्व को जानकर प्राणायाम (प्राण का नियन्त्रण एवं विस्तारण) आदि योगांगों का अभ्यास करते हैं; वे अमर हो जाते हैं। अमर होने का अर्थ है- व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से मुक्ति होकर; उसका पूर्णतः स्वस्थ होना।

प्राण प्राणवायु या ऑक्सीजन की सहायता से सम्पूर्ण शरीर में प्रवाहित होते हैं। ऑक्सीजन श्वसन तन्त्र के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर अभिक्रियाएँ करती है। इसको समझने हेतु श्वसन तन्त्र के मुख्य अंगों एवं उनकी कार्यविधि को हम अलग से दूसरे आलेख में स्पष्ट करेंगे। अतः अब प्राणायाम पर ही अपना ध्यान एकाग्र करेंगे; जिससे उसके मूल में निहित वैज्ञानिक आधारों एवं मनोशारीरिक तथा आध्यात्मिक प्रभावों को भी समझा जा सके; इस हेतु प्राणायाम की परिभाषा को जानना पूर्वापेक्षा है; अतः प्राणायाम की परिभाषा को समझेंगे।

प्राणायाम की परिभाषा

1.आसन के सिद्ध होने पर श्वास एवं प्रश्वास की गति को यथोचित रीति से रोकना प्राणायाम है। शरीर की नाड़ियों में प्राण-वायु के प्रवाह को स्थिर रखने की प्रक्रिया प्राणायाम कही जाती है।

2.श्वसन की सामान्य क्रिया को अभ्यास के द्वारा धीरे-धीरे धीमा करते जाना अर्थात् श्वास शीघ्रता से भरने-छोड़ने के स्थान पर लम्बे और गहर को बने ढंग से भरना-छोड़ना। गहरी श्वास के साथ इसकी सहजता और लय को बनाए रखते हुए; सम्पूर्ण, शान्त एवं सतत् स्वरूप की ओर बढ़ना। 3.श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित करके ही हम उसे शरीर के भीतर स्थिर कर सकते हैं। इस प्रकार प्राणायाम को बाहर से अन्दर लेकर फिर उसे नियन्त्रित करते हुए शरीर के भीतर विस्तारित करना ही प्राणायाम है। उपर्युक्त तीनों ही परिभाषाओं में प्राण को शरीर के भीतर स्थिर करने सम्बन्धी अर्थ में प्रायायाम को परिभाषित किया गया है। अब हम प्राणायाम की पौराणिकता को स्पष्ट करेंगे।

प्राणायाम की पौराणिकता

यद्यपि आधुनिक विचारकों के अनुसार प्राणायाम का पौराणिक उल्लेख अनुमानतः 1500 ईस्वी पूर्व मिलता है; तथापि यह उतनी ही प्राचीन विधा है; जितना कि भारतीय सभ्यता का वैदिक साहित्य आदि। कहा जा सकता है कि यह भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में अत्यंत प्राचीन समय से नित्यकर्म का एक अभ्यास था; क्योंकि इसका प्रयोग धार्मिक अनुष्ठानों में मंत्रोच्चार के साथ किया जाता था। प्रत्येक नित्यकर्म-पूजा एवं अनुष्ठान से पूर्व प्राणायाम करने का निर्देश प्राप्त होता है। मानसिक मंत्र का उच्चारण करते हुए सांस को रोककर मन को स्थिर किया जाता था; जिससे पूजा करते हुए एकाग्रता बढ़ती थी। समय बीतता रहा यह विधा ऐसे ही चलती रही; किन्तु प्राणायाम का विधिवत् सैद्धान्तिक एवं सूत्रात्मक प्रस्तुतीकरण लगभग द्वितीय शताब्दि ईस्वी पूर्व महर्षि पतंजलि ने अपने ग्रन्थ पातंजलयोगसूत्र में किया। पातंजलयोगसूत्र सूत्रात्मक था; इसलिए उसमें भी यह प्रायोगिक रूप से अधिक स्पष्ट नहीं हो सका। कालांतर में स्वामी स्वात्माराम, घेरण्ड मुनि एवं वसिष्ठ ने अपने हठयोग ग्रन्थों में प्राणायाम तथा इसके विभिन्न भेदों का तकनीकी विवेचन किया। आज भी प्राणायाम में वही विधाएँ अपनाई जाती हैं। लगभग 100 ईस्वी से 1700 ईस्वी तक के समय में प्राणायाम हठयोग के मुख्य अभ्यास के रूप में प्रतिष्ठापित हो गई। वर्तमान में प्राणायाम जनसामान्य द्वारा भी स्वास्थ्य लाभ हेतु निरन्तर अपनाया जा रहा है। अब पाष्चात्य जगत् में इस विधा पर निरन्तर अनेक वैज्ञानिक शोध किए जा रहे हैं।

प्राणायाम-अभ्यास के चरण

पातंजलयोगसूत्र में निर्देश है कि रेचक, पूरक, कुम्भक एवं संगट्टन इन चार चरणों के अनुसार वायु का नियमन होना ही प्राणायाम के लक्षण हैं। यद्यपि प्राणायाम के चार चरणों का उल्लेख किया गया है; जो अग्रिम साधना में साधक के निपुण होने पर ही सम्भव है, तथापि सामान्य साधना में मुख्यतः प्राणायाम के तीन चरण हैं-

1.रेचक- श्वास छोड़ते हुए अशुद्ध वायु (कार्बन डाइ ऑक्साइड) को शरीर से बाहर छोड़ना रेचक कहलाता है। अशुद्ध वायु सामान्य रूप से भी हमेशा ही बाहर निकलती रहती है; जिसे निःश्वसन कहते हैं। सामान्य निःश्वसन और रेचक में अन्तर है। पहला अन्तर- सामान्य निःश्वसन तो स्वयं ही होता ही रहता है; किन्तु रेचक में अधिकाधिक अशुद्ध वायु को फेफड़ों से बाहर निकालने हेतु फेफड़ों एवं पेट की पेशियों पर पूर्ण नियन्त्रण का प्रयोग किया जाता है। दूसरा अन्तर- सामान्य प्रश्वास अपनी ही गति से चलता है; इसका समय निर्धारित नहीं होता; जबकि रेचक हेतु समय निर्धारित होता है। यह समय पूरक या श्वास लेने के समय से दो गुना होता है। ऐसा करने से शरीर में उपस्थित अशुद्ध वायु (कार्बन-डाइ-ऑक्साइड) अधिक मात्रा में बाहर निकलती है। ऐसा होने पर पूरक के समय अधिक मात्रा में शुद्ध वायु (ऑक्सीजन) ग्रहण की जा सकती है; जिससे सम्पूर्ण शरीर में अधिक जीवनी शक्ति का संचार होता है।

2.पूरक- पूरक का अर्थ है श्वास लेते हुए प्राणवायु को शरीर के भीतर ग्रहण करना। पूरक व सामान्य श्वास में अन्तर है। सामान्य श्वास जीवनपर्यन्त स्वयं ही चलती रहती है; जबकि पूरक में पेशीय निन्त्रण के द्वारा अधिक प्राणवायु (ऑक्सीजन) को शरीर के भीतर ग्रहण किया जाता है।

3.कुम्भक-कुम्भक का अर्थ है प्राणवायु (ऑक्सीजन) को शरीर के भीतर रोककर उसका शरीर में विस्तार करना। सामान्य स्थिति में ऑक्सीजन थोड़ी देर ही शरीर के भीतर रहती है; किसी का ध्यान भी उस ओर नहीं जाता; किन्तु प्राणायाम में किए जाने वाले कुम्भक में ऑक्सीजन को भीतर ही रोककर रखा जाता है। रोकने का यह समय श्वास ग्रहण करने के समय का चार गुना रखा जाता है। ऐसा करने से शरीर की प्रत्येक कोशिका में स्थित ऊर्जा-केन्द्रों में अधिक जीवनी शक्ति का संचार होता है।

पूरक, कुम्भक एवं रेचक में नियत अनुपात- उच्च साधकों के लिए यह 1: 4: 2 माना गया है। अर्थात् जितने समय में साँस भीतर ली जाए; उससे चार गुना समय तक साँंस को भीतर रोककर रखा जाए; और भीतर भरने के समय के दो गुना समय तक साँंस को बाहर छोड़ा जाए। यह अभ्यास उच्चस्तरीय साधकों के लिए है; किन्तु नये साधकों के लिए यह समय उनकी क्षमता के अनुसार ही रखा जाना चाहिए। गुरु के निर्देशानुसार ही कुम्भक का समय एवं आवृत्तियाँ निर्धारित होना चाहिए।

प्राणायाम के मूल में निहित वैज्ञानिक सिद्धान्त एवं आधार

प्राणायाम के वैज्ञानिक आधार गहन श्वसन की प्रक्रिया के धरातल पर स्थित है। ऑक्सीजन को ग्रहण करने और कार्बन डाइ ऑक्साइड के निष्कासन हेतु ही व्यक्ति सांस लेता है। फेफड़े में पहुंची शिराओं का शिरागत रक्त जब कार्बन डाइ ऑक्साइड को छोड़ता है; एवं ऑक्सीजन को ग्रहण करता है; तो इसे धमनीभूत रक्त कहते हैं। प्राणायाम के द्वारा व्यक्ति अधिकतम ऑक्सीजन को ग्रहण एवं अवशोषित करता है तथा उससे भी अधिक कार्बन डाइ ऑक्साइड को बाहर छोड़ता है। ऐसा होने से रक्त अधिक शुद्ध होता है; जिससे व्यक्ति स्वस्थता एवं प्रसन्नता प्राप्त करता है। इसके मुख्य आधार निम्नांकित हैं-

1.श्वास की गति को कम करना जिससे दीर्घ श्वसन हो सके। वास्तविक प्राणायाम का एक फेरा कम से कम एक मिनट का होना चाहिए। स्वाभाविक श्वसन में सामान्य रूप से व्यक्ति एक बार में 7000 मिली के लगभग वायु भीतर खींचता है। वही व्यक्ति प्राणायाम में करते समय एक मिनट में अधिक से अधिक 3700 मिली वायु ही खींचता है। इस प्रकार ग्रहण की गयी वायु का आयतन घट जाता है; इसका अर्थ यह है कि वायु का अवशोषण भी कम होता है। इसलिए यह अवधारणा गलत है कि प्राणायाम द्वारा ऑक्सीजन का अवशोषण आधिक मात्रा में होता है। वास्तविकता यह है कि यद्यपि ऑक्सीजन का अवशोषण कम होता है; किन्तु प्राणायाम के द्वारा श्वसन तन्त्र सामान्य स्थिति के लिए इतना प्रशिक्षित हो जाता है कि यह सामान्य स्थिति में दिन-रात अधिकतम ऑक्सीजन अवशोषित करता है।

2.प्राणायाम में प्रश्वास में अधिक कार्बन डाइ ऑक्साइड बाहर निकलने से रक्त की अशुद्धियाँ दूर होती हैं।

3.पूर्णरूप से श्वास ग्रहण करना और ऑक्सीजन के द्वारा रक्त शुद्धीकरण।

4.श्वासों को बिना श्रम के रोककर रखना और ऑक्सीजन को भीतर अधिक से अधिक कोशिकाओं तक पहुँचाना।

5.श्वासों को लयबद्ध एवं संतुलित करना; जिससे चयापचय भी संतुलित एवं नियमित हो जाता है।

6.श्वासों के द्वारा अधिक जागरूकता उत्पन्न करना, जिससे शारीरिक एवं मानसिक प्रबलता प्राप्त होती है।

7.संवेदी एवं परासंवेदी तन्त्रिका तन्त्र में संतुलन स्थापित करना; जिससे भावनाओं का नियमन व संयमन होता है तथा व्यक्ति अवसाद से मुक्ति पाता है।

8.हाइपोथेलैमस के विशेष स्राव द्वारा अन्य हॉर्मोन्स का नियमन एवं संतुलन होने से समस्त मनोशारीरिक गतिविधियों का नियमन होता है।

9.प्राणवायु हकारात्मक एवं ठकारात्मक भी है; क्योंकि हकार ध्वनि से यह वायु अन्दर जाती है तथा ठकार ध्वनि से वायु बाहर आती है। इस प्रकार शरीर के तापमान को निममित करने का कार्य भी इन नाड़ियों के द्वारा किया जाता है। ह या सूर्य नाड़ी शरीर में उष्णता का संचालन करती है; एवं ठ नाड़ी शरीर में शीतलता का संचालन करती है। इन नाड़ियों के द्वारा शरीर की आवश्यकतानुसार उष्णता एवं शीतलता का प्रसार होता रहता है। इस प्रकार ये नाड़ियाँ प्राण धारण करने के साथ ही तापमान का नियमन भी करती हैं।

10.जब प्राणायाम आदि के द्वारा इन नाड़ियों का शुद्धीकरण किया जाता है; तो नाड़ी गुच्छकों या चक्रों (सोलर प्लेक्सेज) की क्रियाओं में सकारात्मक परिवर्तन होता है। वस्तुतः चक्र तंत्रिका तन्त्र एवं अन्तःस्रावी तन्त्र के बीच एक संवाद स्थापित करके व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं व्यावहारिक क्रियाओं को संतुलित करने हेतु उत्तरदायी होते हैं। इसीलिए स्वस्थता की दृष्टि से प्राणायाम द्वारा इनकी क्रियाशीलता में वृद्धि अत्यंत महत्त्वपूर्ण है; इससे व्यक्ति की क्षमताओं में वृद्धि होती है।

11.साररूप में प्राणायाम द्वारा नाड़ियों का शुद्धीकरण, प्राण का विस्तारण एवं यथोचित ऊर्जा का संचालन आदि कार्य सुनियोजित हो जाते हैं।

प्राणायाम के अनेक शारीरिक एवं मानसिक प्रभाव हैं; इनको जानने हेतु प्राणायाम की उपयोगिता को शरीर तन्त्रों के अनुसार को समझना आवश्यक है; इसलिए अब प्राणायाम के प्रभावों को शरीर तन्त्रों के अनुसार विवेचित करेंगे।

शारीरिक उपयोगिता

शरीर-तन्त्रीय उपयोगिताएँ

श्वसन तन्त्र को लाभ- प्राणायाम के अभ्यास द्वारा फेफड़ों का लचीलापन, श्वसन पेशियों का पुष्टीकरण, गैसों का आदान-प्रदान, श्वसन गति का धीमा होना एवं श्वसन का सहजीकरण जैसे लाभ होते हैं। साथ ही सांसों से सम्बन्धी रोग अस्थमा या ब्रोंकायटिस आदि की चिकित्सा भी होती है।

पाचन तन्त्र को लाभ- अभ्यास करते हुए प्राणायाम से डायफ्राम आदि उदरीय पेशियों की मालिश होने से पाचन तन्त्र स्वस्थ होता है; जिससे समस्त तन्त्रों को भी लाभ होता है; क्योंकि पाचन तन्त्र की स्वस्थता पर समस्त अन्य तन्त्रों की स्वस्थता भी निर्भर है। इसके साथ ही कब्ज, गैस, अग्निमांद्य, अपच एवं अम्लता आदि रोगों की चिकित्सा भी होती है।

उत्सर्जन तन्त्र को लाभ- प्राणायाम का अभ्यास करते हुए चयापचय सुचारु होता है; अतः उत्सर्जन भी सुचारु होता है। प्राणायाम के समय पसीना छूटने से शारीरिक अशुद्धियाँ दूर होती हैं।

तन्त्रिका तन्त्र को लाभ- प्राणायाम के अभ्यास से सी एन एस के बड़े कार्यों जैसे- चिंतन, योजना, सीखना एवं स्मृति आदि क्रिया-कलापों में गुणात्मक परिवर्तन होते हैं। स्पाइनल तन्त्रिकाओं में परिवहन के उन्नत होने से पी एन एस को भी विशेष लाभ प्राप्त होता है। क्रोधाधिक्य, तनाव, सिरदर्द, अवसाद, निराशा, अनिद्रा आदि समस्त मानसिक समस्याओं तथा गम्भीर मानसिक रोगों में भी लाभ प्राप्त होता है।

रक्त परिसंचरण तन्त्र को लाभ- प्राणायाम अभ्यास के समय डायफ्रॉम की गति से हृद्य पेशियों की मालिश होती है; जिससे इसकी कार्य क्षमता बढती है एवं धड़कनों की गति भी कम हो जाती है। ऐसा होने रक्त परिसंचरण के सुचारु होने से उच्च एवं निम्न रक्त चाप दोनों ही सामान्य हो जाते हैं।

अन्तःस्रावी तन्त्र- उच्चस्तरीय तन्त्रिका केन्द्रों के सुचारु क्रियान्वयन एवं नियमन के परिणामस्वरूप सभी अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की कार्यक्षमता बढती है। ऐसा होने से अधिक या कम स्राव से उपजने वाले अनेक रोगों का भी निदान होता है। पेशी तन्त्र को लाभ- डायफ्रॉम एवं उदरीय पेशियाँ स्वस्थ हो जाती हैं। प्रजनन तन्त्र को लाभ- हॉर्मोन्स का संतुलन होने से प्रजनन तन्त्र को भी विशेष लाभ होते हैं। हाइपो एवं हाइपर थॉयरॉयड आदि में विशेष लाभ होने से मासिक धर्म की अनियमितता, प्रदर तथा बांझपन आदि अनेक स्त्री-रोग भी ठीक होते हैं। पुरुषों की पौरुष क्षमता सम्बन्धी अनेक रोगों में भी लाभ प्राप्त होता है।


मानसिक उपयोगिता

मानसिक स्थिरता, प्रसन्नता तथा दीर्घकालीन सुख प्राप्त होते हैं; जिससे समस्त मानसिक रोग; यथा- अवसाद, चिंता तथा निराशा आदि दूर हो जाते हैं।

आध्यात्मिक उपयोगिता

कुम्भक के समय अंतर्मुखी होने से असीम शान्ति एवं सुख प्राप्त होता है। प्राणायाम में पारंगत होने पर ही ध्यान आदि किया जा सकता है। इसके साथ ही प्राणायाम से अनेक आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होते हैं।

प्राणायाम अभ्यास के मूल में शरीर के भीतर प्राण के विस्तारीकरण का वैज्ञानिक सिद्धान्त है। सामान्य शब्दों में यह ऐसा सिद्धान्त है जो स्वास्थ्य जैसी प्राथमिक आवश्यकता के साथ ही मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर भी व्यक्ति को लाभ प्रदान करता है। इसके लिए नियमित रूप से अपनी दिनचर्या में प्राणायाम को अपनाना आवश्यक है।