प्रातिभासिक सत्ता / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
मगर दर हकीकत व्यावहारिक तथा प्रातिभासिक पदार्थ दो नहीं हैं। दोनों ही बराबर ही हैं। यह तो हम सभी सिद्ध कर चुके हैं। दोनों की सत्ता में रत्तीदभर भी अंतर है नहीं। इसलिए दो ही पदार्थ - परमार्थिक एवं प्रातिभासिक - माने जाने योग्य हैं। और दो ही सत्ताएँ भी। लेकिन हम लिखने-पढ़ने और वाद-विवाद में जाग्रत तथा स्वप्न को दो मान के उनकी चीजों को भी दो ढंग की मानते हैं। यों कहिए कि जाग्रत को सत्य मान के सपने को मिथ्या मानते हैं। जाग्रत की चीजें हमारे खयाल में सही और सपने की झूठी हैं। इसीलिए खामख्वाह दोनों की दो सत्ता भी मान बैठते हैं। लेकिन वेदांती तो जाग्रत को सत्य मान सकता नहीं। इसीलिए लोगों के संतोष के लिए उसने व्यावहारिक और प्रातिभासिक ये दो भेद कर दिए। इस प्रकार काम भी चलाया। विचार करने या लिखने-पढ़ने में आसानी भी हो गई। आखिर अद्वैतवादी वेदांती भी जाग्रत और स्वप्न की बात उठा के और स्वप्न का दृष्टांत दे के लोगों को समझाएगा कैसे, यदि दोनों को दो तरह के मान के ही शुरू न करे?