प्राथमिक शिक्षा में बाल साहित्य की भूमिका / मनोहर चमोली 'मनु'
शैक्षिक जगत से जुड़ा हर संवेदनशील व्यक्ति परिचित है कि किसी भी बच्चे की पाठशाला का पहला दिन कोरा नहीं होता। वह न तो कोरी स्लेट-सा स्कूल आता है। वह कच्चा घड़ा-सा भी नहीं होता और न ही मिट्टी का लौंदा होता है। बच्चा स्वयं में अपना वजूद रखता है। ठीक वैसे ही जैसे हवा का,पानी का, सूरज का, आपका और हमारा वजूद है।
स्कूल के पहले दिन से पूर्व ही औसतन हर बच्चा लगभग चार से पांच हजार शब्दों से परिचित होता है। इन शब्दों की अपने अनुभव से जानी गई समझ और परिभाषा भी उसके पास होती है। वह अपने हम उम्र के कुछ परिचित-अपरिचित सहपाठियों और अपनी आयु से चार-आठ गुना आयु के शिक्षक की बात को आसानी से समझ भी लेता है। इतना सब होने के बावजूद हम उसे पहले ही दिन से लिखना-पढ़ना सिखाने लग जाते हैं। इससे अधिक हैरानी इस बात की है कि कमोबेश अधिकतर शिक्षक यह मान कर चलते हैं कि बच्चे कुछ नहीं जानते। कोरे हैं।
अमूमन अधिकतर शिक्षक यह तर्क देते हैं कि बच्चा छोटा है। अपनी कक्षा की किताब ही पढ़ ले, वही बहुत है। बाल साहित्य और पाठ्य पुस्तक के महत्व और भिन्नता से पहले हम यह भी चर्चा कर लें कि जिस बच्चे को हम छोटा समझ रहे हैं, वह अपनी आयु के स्तर से औसतन कितना आकलन स्वयं कर लेता है।
- छह माह की आयु का बच्चा औसतन रंग बिरंगे चित्रों वाली किताब देखता है। वह चित्र को देखने की कोशिश करता है। लाल रंग उसे आकर्षित करता है। वह कागज-किताब को छूने का प्रयास करता है।
- नौ माह की आयु का बच्चा सुनने की गतिविधि को गौर से देखता है। वह गौर से चेहरा देखता है। हर बात को सुनने की कोशिश करता है। यही वह समय है जब अभिभावक उसे यूं ही कुछ न कुछ पढ़ कर सुनाते रहें। वह सुनकर शब्दों को समझने की कोशिश करेगा। यह और बात है कि उससे प्रत्युत्तर की कोशिश नही की जानी चाहिए।
- एक साल की आयु का बच्चा किताब-अखबार को छीनने का सफल प्रयास करने लगता है। वह हर किताब-पन्ने-पत्रिकाएं अपनी मुट्ठी मंे कर लेना चाहता है। इस उम्र के बच्चे को छोटी-छोटी कहानियां पढ़ कर सुनाई जानी चाहिए। रंगीन चित्र दिखाने चाहिए। संभव है ऐसा करते समय पन्ने फट सकते हैं। वह फाड़ते समय आ रही ध्वनि से आनंद लेता है। आप पुराने अखबारों से भी यह गतिविधि उसके साथ कर सकते हैं।
- दो साल का बच्चा किताबें पसंद करने लगता है। यदि बड़े,स्पष्ट और रंगीन चित्र हैं तो वह इशारा करता है। टूटे-फूटे शब्दों में किताब मांगने की कोशिश करता है। उसे जोर-जोर से पढ़ कर कहानी-कविता सुनाई जानी चाहिए। बच्चे को किताबों से खेलने दीजिए। पुराने रंगीन अखबारों के चित्रों पर अंगुली से इशारा करते हुए बातचीत की जानी चाहिए।
- तीन वर्ष की आयु के बच्चे की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। इस उम्र तक आते-आते बच्चा हर चीज को स्वयं जानने की कोशिश करने लगता है। वह हर चीज को छूना चाहता है। वह सुनकर हर बात को अपनी समझ से समझने की कोशिश करने लगता है। यही समय है, जब हम उसे छोटी-छोटी कहानियां कह कर सुनायें। पढ़कर सुनाये। गीत सुनायें।
- चार साल की आयु का बच्चा तो बेहद तीव्रता से इस प्रकृति को, सूरज,चांद,तारों,जीव-जन्तुओं के प्रति जिज्ञासु हो जाता है। उसके पास इनसे संबंधित सैकड़ों प्रश्न होते हैं। उसे ऐसी किताबों से कुछ न कुछ पढ़ कर सुनायें, जिसमें रहस्य हो,रोमांच हो। उसकी कल्पना को और पंख लगें। अच्छे-अच्छे गीतों की ओर इशारा करें। सुनाये। गीतों की व्याख्या करें।
- पांच साल की आयु तक आते-आते बच्चा कहानियों को न सिर्फ सुनता है। बल्कि वह कहानियों पर अब प्रश्न करने लगता है। कहानी खत्म हो जाने के बाद उसके पास कहानी से जुड़े पात्रों से संबंधित ढेरों प्रश्न होते हैं। वह कभी खुश होता है तो कभी सोच में पड़ जाता है। उसकी उत्सुकता बढ़ने लगती है। वह बहुत कुछ सुनने,देखने ,जानने और सीखने की दिशा में आगे बढ़ने योग्य हो जाता है।
- आइए ज़रा सोचें कि क्या हम अभिभावक अथवा शिक्षक ऐसा करते हैं। क्या हम उपरोक्त वय वर्ग के बच्चों के साथ ऐसी गतिविधिया करते हैं? कमोबेश नहीं। दिलचस्प बात तो यह है कि अभिभावक भी और शिक्षक भी किसी भी आयु के बच्चे को कमतर ही समझते हैं। आखिर क्यों हम बच्चे को समाज का एक हिस्सा मानते हैं? उसे वही सम्मान क्यों नहीं देते, जिसका वह हकदार है। आखिर क्यों हम उसे ‘बच्चा है’ कहकर नजर अंदाज करते रहे हैं? यही कारण है कि बाल साहित्य तो दूर की बात है। हम वाचिक परंपरा का निबाह भी नहीं करते। हमें जो कहानियां-किस्से याद हैं। वह भी हम बच्चों से साझा नहीं करते।
हमें हर रोज उसे एक कहानी सुनानी चाहिए। कहानी में उसकी कल्पना बढ़ती है। वह कहानी सुनते-सुनते नये शब्दों से परिचित होगा। भाषा के निकट जाएगा। मौखिक कहानी सुनाने के बाद आप यह कह सकते है कि यह कहानी आपने किताब से पढ़ कर उसे सुनाई है। किताबों के प्रति बच्चे की रुचि स्वतः ही बढ़ेगी।
पाठ्य पुस्तकों में बाल साहित्य
बुनियादी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों की पाठ्य पुस्तकों में साहित्य नहीं होता। यह कहना ठीक नहीं होगा। लेकिन यह सही है कि बाल साहित्य की मात्रा न्यून है। भाषा की जिन पुस्तकों में साहित्य है भी वह आयु वर्ग के स्तर से व्यवस्थित नहीं है। आज भी गढ़े हुए खजाने, राजा-रानी और परियों-राक्षस की कहानियां भी प्रचलन में हैं। जबकि आज का बालक इक्कीसवीं सदी का है। उसके खेल, उसकी दुनिया में बहुत सारी नई चीज़ें शामिल हो गई हैं। कल्पना का समावेश बाल साहित्य में बेहद जरूरी है। लेकिन कल्पना बाल मन में अनगढ़ छाप न छोड़े। इसका ध्यान रखा जाना जरूरी है। बाल साहित्य के नाम पर सीख और जबरन ठूंसे गए और आदर्शवाद के पाठ अधिक पिरोये गये मिलते हैं।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 के आलोक में मुझे भी पाठ्य पुस्तक निर्माण में कार्य करने का मौका मिला। बुनियादी स्कूलों के बच्चों की आयु को देखते हुए बहुत कम पाठ्य पुस्तकें हैं, जिनमें बाल मनोविज्ञान और बाल अभिरुचियों का ध्यान रखा गया है। इसके कई कारण है। उन कारणों पर चर्चा अलग से की जा सकती है। यहाँ इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि भाषा सीखने-सिखाने के मामले में प्राथमिक कक्षाओं में बाल साहित्य की दशा बेहद कमजोर है। हमारे शिक्षक भी कोर्स पूरा कराने की फिक्र में दिखाई पढ़ते हैं। भाषा का शिक्षक प्राय बाल पत्रिकाओं के नाम तक नहीं जानता। जो जानते हैं, उनका कहना है कि हां बचपन में पढ़ी थी। आज बाल साहित्य की दिशा क्या है? क्या-क्या लिखा जा रहा है। इन सवालों के उत्तर अधिकतर शिक्षकों के पास नहीं है।
बच्चे और बाल साहित्य
अक्सर कहा जाता है कि बच्चे का साहित्य से क्या लेना-देना? सही बात तो यही है साहित्य की पहली सीढ़ी बाल जीवन ही है। लोरियाँ क्या हैं? माँ का आँचल साहित्य में झांकने वाला सबसे पहला झरोखा है। स्कूल जाने से पहले ही बच्चे कहानी-किस्सा सुनने और गढ़ने में माहिर होते हैं। काश! कितना अच्छा होता कि बच्चे की पहली पुस्तक उसके घर और उसके बाल जीवन से जुड़ी होती। आयु के आधार पर उसकी पाठ्य पुस्तकें बनी होती। कक्षा के स्तर पर बनी पाठ्य पुस्तकें नई चिंतनदृष्टि से दूर क्यों है? यह विचारणीय प्रश्न है।
बच्चा तो स्कूल में पहले ही दिन अजब-गजब के संसार में पहुंच कर हैरान हो जाता है। बाल साहित्य में आयु के अनुरूप रचना सामग्री होती है। बहरहाल उपरोक्त पांच साल तक बच्चों की खासियतों को ध्यान में रखते हुए हम बाल साहित्य पर विमर्श करते हैं।
- बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य ही बाल साहित्य है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उस साहित्य में बच्चों की दुनिया शामिल ही नहीं की जाए। सबसे पहली और अनिवार्य शर्त यही है कि वह जो कुछ भी सुने उसमें खुद को शामिल करने की कल्पना करे।
- बाल साहित्य कहीं न कहीं मनोरंजन करता हुआ उसे कल्पना की दुनिया की सैर कराता हुआ अप्रत्यक्ष रूप से उसे सामाजिक प्राणी के रूप में संस्कारित करने वाला तो अवश्य हो। हाँ! उपदेशात्मक और सीख सिखाने जैसी शैली कदापि न हो।
- बुनियादी कक्षा की पुस्तकों में चित्रात्मक कहानियां और कविताएं अधिक हों। पढ़ने के लिए सामग्री ज्यादा हो। यह कहानियां शिक्षक पढ़कर बच्चों को सुनाएं।
- लिखावट का काम सीखाने की जल्दी नहीं होनी चाहिए। बच्चे सुनना और बोलना दक्षताओं में पारंगत हों। पढ़ना और आखिर में लिखना पर काम हो। समस्या यह है कि भाषा की कक्षा ही सबसे ज्यादा उदासीन और बोझिल होती है। साहित्य तो दूर अधिकतर शिक्षक के चेहरे में तनाव और झुंझलाहट अधिक दिखाई देती है।
- भाषा के शिक्षक में यह दबाव नहीं होना चाहिए कि उसकी कक्षा में छात्र लिखना-पढ़ना नहीं सीख पा रहा है। पाठों के अभ्यासों में गतिविधियां अधिक हों। बुनियादी कक्षाओं में चित्राधारित,कविता और कहानी आधारित छोटे-छोटे पाठ हों। मौखिक सवाल-जवाब अधिक हों।
- देश-प्रेम जैसी अवधारणा बच्चे के लिए कठिन हैं बच्चे के लिए तो उसका घर-गांव, पड़ोस, दोस्ती ही उसका देश है। मस्ती,खेल,छोटी-छोटी गतिविधियां, रहस्य-रोमांच, फंतासी आधारित कहानियां सुना-सुना कर बच्चों में धैर्य,समझ,लगन और अपनी राय बनाने के योग्य बनाने की कसरत की जानी चाहिए।
- गेयबद्ध, तुकांत छोटी-छोटी कविताएं जिन्हें बच्चा सुनते-सुनते खुद भी बोलने लगे। अपनी कल्पनाओं में धीरे-धीरे वह खुद ही कविता में छिपे निहितार्थ समझ लेगा। रहस्यवादी और लंबी कविताएं बुनियादी कक्षाओं में होनी ही नहीं चाहिए।
- बाल साहित्य की सहायता से बच्चों के बीच हम उसके घर और परिवेश में जो बेहद भिन्नता नजर आती है, उसे कम कर सकते हैं। बाल साहित्य ही है जो पाठ्य पुस्तकों से इतर बच्चों को खेल-खेल में बहुत सारी अवधारणाओं के प्रति समझ बढ़ाने में सहायक होता है।
- बाल साहित्य ही वह सहायक सामग्री है जिसकी सहायता से बच्चे की मौखिक भाषा-शैली संवर सकती है। बच्चों में संवाद अदायगी का विस्तार हो सकता है। प्रश्न करने और खुद उत्तर देने की क्षमता विकसित की जा सकती है। बाल साहित्य के माध्यम से बच्चे कल्पना लोक में जाते हैं। वे निष्कर्ष और विश्लेषण करना सीखते हैं।
- यही नहीं कहानी सुनकर वह धीरे-धीरे पुस्तकों के प्रति प्रेम करने लगते हैं। पाठ्य पुस्तकों के पन्ने उलटने लगते हैं। पुस्तक के चित्रों और पाठों को देख-देख कर पढ़ने की ओर उन्मुख होने लगते हैं।
- बाल साहित्य विशेषकर कहानी और कविता बच्चों को अनौपचारिक रूप से मात्र मनोरंजन नहीं करती। वह बच्चों में सजगता, आत्मविश्वास, गतिशीलता,सृजनशीलता बढ़ाती है। कहानी के सशक्त पात्रों के माध्यम से वह मानवीय गुणों को आत्मसात् करते हैं और बगैर उपदेश और आज्ञा के बिना अच्छे-बुरे की समझ विकसित कर लेते हैं।
- बाल साहित्य के चलते बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण स्थापित किया जा सकता है। भाग्यवाद से उन्हें दूर रखा जा सकता है। बच्चों को नयेपन की अनुभूति होती है। साल भर कुछ पाठ्य पुस्तकों को उलट-पलट कर बच्चा उदासीन हो जाता है। पाठ्य पुस्तकों से हट कर बाल साहित्य उनमें कल्पना जगाने का धारदार हथियार है।
कैसा हो बाल साहित्य
प्राथमिक कक्षाओं के लिए विशेष बाल साहित्य की आवश्यकता है। यह आवश्यकता उसकी पाट्य पुस्तकें पूरी नहीं करतीं। किसी भी राज्य की पुस्तकें तेजी से बदल रही बच्चों की दुनिया के अनुरूप तैयार नहीं की जाती। वर्तमान समय के जीवन-मूल्य, संदर्भ, आदर्श, तोर-तरीके,विषमताएं पाठ्य पुस्तकों का हिस्सा नहीं हो पाती। यह सब बाल साहित्य के जरिए ही बच्चों के सामने आ सकता है। पाठ्य पुस्तकें आज भी पुरातन सोच और दिशा का त्याग नहीं कर पाई है। जबकि बच्चों की दुनिया का हर पहलू बहुत तेजी से बदल चुका है। यह सब बाल साहित्य के माध्यम से रेखांकित हो सकता है। बहुत ही कम पाठ्य पुस्तकें हैं, जो बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए तैयार की जाती हैं। चित्रों के पात्र और बिंब भी अत्याधुनिकता से पाठ्यपुस्तकों में नहीं होते। यह काम बाल साहित्य के पत्र-पत्रिकाएं बखूबी कर सकती हैं।
बच्चों की आयु को ध्यान में रखते हुए हमें बाल साहित्य का चुनाव करना होगा। जैसा कि पहले भी कहा गया है कि शुरूआती कक्षाओं के बच्चों के लिए कविताएं और छोटी-छोटी कहानियां ही शामिल की जानी चाहिए। वह भी अधिकतर मौखिक वाचन के रूप में ही। इसमें शिक्षक को बेहद सक्रिय होना होगा। उसे पढ़कर सुनाना होगा। बच्चे सिर्फ श्रोता के रूप में हिस्सेदारी निभाएंगे। धीरे-धीरे उनका लगाव बाल साहित्य को छूने,उलटने-पलटने से शुरू होकर पढ़ने की ओर भी उन्मुख होगा। शिक्षक के धैर्य की असली परीक्षा यही है कि वह कैसे बाल साहित्य की ओर बच्चों को लाये। यह हुआ तो बच्चे पाठ्य पुस्तकों से भी प्रेम करना सीख जाएंगे। फिर भी कहानी-कविता का चुनाव करते समय हम कुछ बातों का ध्यान अवश्य रखें। कुछ प्रमुख बातें निम्न हो सकती हैं।
- बाल साहित्य सामग्री रोचक हो।
- संभव हो तो उस पर चित्र बनाया जा सके। बच्चों को सुनाते समय भाषा शैली सरल हो।
- संवाद शैली का ही अधिकाधिक प्रयोग करें।
- रचना साम्रगी वैज्ञानिक दृष्टिकोण स्थापित करे न कि अंधविश्वास और भाग्यवाद पर आस्था जगाए।
- रचना सामग्री में बच्चों के परिवेश को समुचित स्थान मिले।
- लोक जीवन, मूल्यपरक, सामाजिक मूल्यों के साथ तार्किकता जगाने वाली सामग्री बच्चों को अवश्य भाती है।
- मनोरंजन बाल साहित्य की अनिवार्य शर्त है। अन्यथा बच्चे कुछ ही दिन में कहानी-कविता सुनने के प्रति उदासीन हो जाएंगे।
- बाल साहित्य प्रस्तुत करते समय यह भी जरूरी है कि बच्चों को बीच में बोलने-प्रतिभाग करने का अवसर भी दिया जाए। अंत में यह कदापि न पूछा जाए कि बच्चों इससे आपको क्या शिक्षा मिलती है। उपदेशात्मक अंत कदापि न हो। इससे अच्छा यह होगा कि हम कहानी-कविता कैसी लगी? यह पूछें। पात्रों-घटनाओं की चर्चा करें। यदि ऐसा होता तो कैसा होता? इन प्रश्नों से बच्चों की प्रतिक्रियाएं आने दें।
- रचना सामग्री बच्चों के मानसिक स्तर के अनुरूप हों। कहीं न कहीं बाल साहित्य बच्चों की पाठ्यपुस्तकों के संबोधों से जोड़े जाने की सामर्थ्य रखता हो।
यह कहना गलत नहीं होगा कि मानव एक सामाजिक प्राणी है। उसे सामाजिक संबंध,सुख-दुख,हंसी-खुशी और हर्ष-विषाद प्रभावित करते हैं। बच्चे भी भविष्य में संवेदनशील प्राणी बन सकें, इसमें स्वस्थ साहित्य महती भूमिका निभाता है। इसकी उपेक्षा देश के लिए ही नहीं विश्व के लिए घातक होती है।