प्रायश्चित-रुप उपवास / सत्य के प्रयोग / महात्मा गांधी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रामाणिकता-पूर्वक बालको और बालिकाओ के पालन-पोषण और शिक्षण मे कितनी कठिनाइयो आती है , इसका अनुभव दिन-दिन बढता गया। शिक्षक और अभिभावक के नाते मुझे उनके हृदय मे प्रवेश करना था, उनके सुख-दुःख मे हाथ बँटाना था, उनके जीवन की गुत्थियाँ सुलझानी थी और उनकी उछलती जवानी की तरंगो को सीधे मार्ग पर ले जाना था।

कुछ जेलवासियो के रिहा होने पर टॉल्सटॉय आश्रम मे थोड़े ही लोग रह गये। इनमे मुख्यतः फीनिक्सवासी थे। इसलिए मै आश्रम को फीनिक्स ले गया। फीनिक्स मे मेरी कड़ी परीक्षा हुई। टॉल्सटॉय आश्रम मे बचे हुए आश्रमवासियो को फीनिक्स छोड़कर मै जोहानिस्बर्ग गया। वहाँ कुछ ही दिन रहा था कि मेरे पास दो व्यक्तियो के भयंकर पतन के समाचार पहुँचे। सत्याग्रह की महान लड़ाई मे कहीँ भी निष्फलता-जैसी दिखायी पड़ती , तो उससे मुझे कोई आघात न पहुँचता था। पर इस घटना मे मुझ पर वज्र-सा प्रहार किया। मै तिलमिला उठा। मैने उसी दिन फीनिक्स की गाड़ी पकड़ी। मि. केलनबैक ने मेरे साथ चलने का आग्रह किया। वे मेरी दयाजनक स्थिति को समझ चुके थे। मुझे अकेले जाने देने की उन्होंने साफ मनाही कर दी। पतन के समाचार मुझे उन्ही के द्वारा मिले थे।

रास्ते मे मैने अपना धर्म समझ लिया, अथवा यो कहिये कि समझ लिया ऐसा मानकर मैने अनुभव किया कि अपनी निगरानी मे रहने वालो के पतन के लिए अभिभावक अथवा शिक्षक न्यूनाधिक अंश मे जरूर जिम्मेदार है। इस घटना मे मुझे अपनी जिम्मेदारी स्पष्ट जान पड़ी। मेरी पत्नी ने मुझे सावधान तो कर ही दिया था, किन्तु स्वभाव से विश्वासी होने के कारण मैने पत्नी की चेतावनी पर ध्यान नही दिया था। साथ ही, मुझे यह भी लगा कि इस पतन के लिए मै प्रायश्चित करूँगा तो ही ये पतित मेरा दुःख समझ सकेंगे और उससे उन्हे अपने दोष का भान होगा तथा उसकी गंभीरता का कुछ अंदाज बैठेगा। अतएव मैने सात दिन के उपवास और साढे चार महीने के एकाशन का व्रत लिया। मि. केलनबैक ने मुझे रोकने का प्रयत्न किया , पर वह निष्फल रहा। आखिर उन्होने प्रायश्चित के औचित्य को माना और खुद ने भी मेरे साथ व्रत रखने का आग्रह किया। मै उनके निर्मल प्रेम को रोक न सका। इस निश्चय के बाद मै तुरन्त ही हलका हो गया , शान्त हुआ , दोषियो के प्रति मेरे मन मे क्रोध न रहा, उनके लिए मन मे दया ही रही।

यों ट्रेन मे ही मन को हलका करके मै फीनिक्स पहुँचा। पूछताछ करके जो अधिक जानकारी लेनी थी सो ले ली। यद्यपि मेरे उपवास से सबको कष्ट हुआ , लेकिन उसके कारण वातावरण शुद्ध बना। सबको पाप करने की भयंकरता का बोध हुआ तथा विद्यार्थियो तथा विद्यार्थिनियो के और मेरे बीच सम्बन्ध अधिक ढृढ और सरल बन गया।

इस घटना के फलस्वरूप ही कुछ समय बाद मुझे चौदह उपवास करने का अवसर मिला था। मेरा यह विश्वास है कि उसका परिणाम अपेक्षा से अधिक अच्छा निकला था।

इस घटना पर से मै यह सिद्ध नही करना चाहता कि शिष्यो के प्रत्येक दोष के लिए शिक्षको को सदा उपवासादि करने ही चाहिये। पर मै जानता हूँ कि कुछ परिस्थितियो मे इस प्रकार के प्रायश्चित-रूप उपवास की गुंजाइश जरूर है। किन्तु उसके लिए विवेक और अधिकार चाहिये। जहाँ शिक्षक और शिष्य के बीच शुद्ध प्रेम-बन्धन नही है , जहाँ शिक्षक को अपने शिष्य के दोष से सच्चा आघात नहीं पहुँचता, जहां शिष्यो के मन मे शिक्षक के प्रति आदर नही है , वहाँ उपवास निरर्थक है और कदाचित हानिकारक भी हो सकता है। ऐसे उपवास या एकाशन के विषय मे शंका चाहे हो , परन्तु इस विषय मे मुझे लेशमात्र भी शंका नही कि शिक्षक शिष्य के दोषो के लिए कुछ अंश मे जरूर जिम्मेदार है।

सात उपवास और एकाशन हम दोनो मे से किसी के लिए कष्टकर नहीं हुए। इस बीच मेरा कोई भी काम बन्द या मन्द नही रहा। इस समय मे मै केवल फलाहारी ही रहा था। चौदह उपवासो का अन्तिम भाग मुझे काफी कष्टकर प्रतीत हुआ था। उस समय मै रामनाम के चमत्कार को पूरी तरह समझा न था। इस कारण दुःख सहन करने की शक्ति मुझमे कम थी। उपवास के दिनो मे कैसा भी प्रयत्न करके पानी खूब पीना चाहिये, इस बाह्य कला क मुझे जानकारी न थी। इस कारण भी ये उपवास कष्टप्रद सिद्ध हुए। इसके अतिरिक्त, पहले उपवास सुख-शान्तिपूर्वक हो गये थे, अतएव चौदह दिन के उपवासो के समय मै असावधान बन गया था। पहले उपवासो के समय मै रोज कूने का कटिस्नान करता था। चौदह दिनो के उपवास मे दो या तीन दिन के बाद मैने कटिस्नान बन्द कर दिया। पानी का स्वाद अच्छा नही लगता था और पानी पीने पर जी मचलाता था , इससे पानी बहुत ही कम पीता था। फलतः मेरा गला सूखने लगा , मै क्षीण होने लगा और अंतिम दिनो मे तो मै बहुत धीमी आवाज मे बोल पाता था। इतना होने पर भी लिखने का आवश्यक काम मै अन्तिम दिन तक कर पाया था और रामायण इत्यादि अंत तक सुनता रहा था। कुछ प्रश्नो के विषय मे सम्मति देने का आवश्यक कार्य भी मै कर सकता था।