प्रायश्चित / भगवतीचरण वर्मा

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अगर कबरी बिल्‍ली घर-भर में किसी से प्रेम करती थी, तो रामू की बहू से, और अगर रामू की बहू घर-भर में किसी से घृणा करती थी, तो कबरी बिल्‍ली से। रामू की बहू, दो महीने हुए मायके से प्रथम बार ससुराल आई थी, पति की प्‍यारी और सास की दुलारी, चौदह वर्ष की बालिका। भंडार-घर की चाभी उसकी करधनी में लटकने लगी, नौकरों पर उसका हुक्‍म चलने लगा, और रामू की बहू घर में सब कुछ। सासजी ने माला ली और पूजा-पाठ में मन लगाया।

लेकिन ठहरी चौदह वर्ष की बालिका, कभी भंडार-घर खुला है, तो कभी भंडार-घर में बैठे-बैठे सो गई। कबरी बिल्‍ली को मौका मिला, घी-दूध पर अब वह जुट गई। रामू की बहू की जान आफत में और कबरी बिल्‍ली के छक्‍के पंजे। रामू की बहू हाँडी में घी रखते-रखते ऊँघ गई और बचा हुआ घी कबरी के पेट में। रामू की बहू दूध ढककर मिसरानी को जिंस देने गई और दूध नदारद। अगर बात यहीं तक रह जाती, तो भी बुरा न था, कबरी रामू की बहू से कुछ ऐसा परच गई थी कि रामू की बहू के लिए खाना-पीना दुश्‍वार। रामू की बहू के कमरे में रबड़ी से भरी कटोरी पहुँची और रामू जब आए तब तक कटोरी साफ चटी हुई। बाजार से बालाई आई और जब तक रामू की बहू ने पान लगाया बालाई गायब।

रामू की बहू ने तय कर लिया कि या तो वही घर में रहेगी या फिर कबरी बिल्‍ली ही। मोर्चाबंदी हो गई, और दोनों सतर्क। बिल्‍ली फँसाने का कठघरा आया, उसमें दूध मलाई, चूहे, और भी बिल्‍ली को स्‍वादिष्‍ट लगनेवाले विविध प्रकार के व्‍यंजन रखे गए, लेकिन बिल्‍ली ने उधर निगाह तक न डाली। इधर कबरी ने सरगर्मी दिखलाई। अभी तक तो वह रामू की बहू से डरती थी; पर अब वह साथ लग गई, लेकिन इतने फासिले पर कि रामू की बहू उस पर हाथ न लगा सके।

कबरी के हौसले बढ़ जाने से रामू की बहू को घर में रहना मुश्किल हो गया। उसे मिलती थीं सास की मीठी झिड़कियाँ और पतिदेव को मिलता था रूखा-सूखा भोजन।

एक दिन रामू की बहू ने रामू के लिए खीर बनाई। पिस्‍ता, बादाम, मखाने और तरह-तरह के मेवे दूध में औटाए गए, सोने का वर्क चिपकाया गया और खीर से भरकर कटोरा कमरे के एक ऐसे ऊँचे ताक पर रखा गया, जहाँ बिल्‍ली न पहुँच सके। रामू की बहू इसके बाद पान लगाने में लग गई।

उधर बिल्‍ली कमरे में आई, ताक के नीचे खड़े होकर उसने ऊपर कटोरे की ओर देखा, सूँघा, माल अच्‍छा है, ता‍क की ऊँचाई अंदाजी। उधर रामू की बहू पान लगा रही है। पान लगाकर रामू की बहू सासजी को पान देने चली गई और कबरी ने छलाँग मारी, पंजा कटोरे में लगा और कटोरा झनझनाहट की आवाज के साथ फर्श पर।

आवाज रामू की बहू के कान में पहुँची, सास के सामने पान फेंककर वह दौड़ी, क्‍या देखती है कि फूल का कटोरा टुकड़े-टुकड़े, खीर फर्श पर और बिल्‍ली डटकर खीर उड़ा ही है। रामू की बहू को देखते ही कबरी चंपत।

रामू की बहू पर खून सवार हो गया, न रहे बाँस, न बजे बाँसुरी, रामू की बहू ने कबरी की हत्‍या पर कमर कस ली। रात-भर उसे नींद न आई, किस दाँव से कबरी पर वार किया जाए कि फिर जिंदा न बचे, यही पड़े-पड़े सोचती रही। सुबह हुई और वह देखती है कि क‍बरी देहरी पर बैठी बड़े प्रेम से उसे देख रही है।

रामू की बहू ने कुछ सोचा, इसके बाद मुस्‍कुराती हुई वह उठी। कबरी रामू की बहू के उठते ही खिसक गई। रामू की बहू एक कटोरा दूध कमरे के दवाजे की देहरी पर रखकर चली गई। हाथ में पाटा लेकर वह लौटी तो देखती है कि कबरी दूध पर जुटी हुई है। मौका हाथ में आ गया, सारा बल लगाकर पाटा उसने बिल्‍ली पर पटक दिया। कबरी न हिली, न डुली, न चीखी, न चिल्‍लाई, बस एकदम उलट गई।

आवाज जो हुई तो महरी झाड़ू छोड़कर, मिसरानी रसोई छोड़कर और सास पूजा छोड़कर घटनास्‍थल पर उपस्थित हो गईं। रामू की बहू सर झुकाए हुए अपराधिनी की भाँति बातें सुन रही है।

महरी बोली - "अरे राम! बिल्‍ली तो मर गई, माँजी, बिल्‍ली की हत्‍या बहू से हो गई, यह तो बुरा हुआ।"

मिसरानी बोली - "माँजी, बिल्‍ली की हत्‍या और आदमी की हत्‍या बराबर है, हम तो रसोई न बनावेंगी, जब तक बहू के सिर हत्‍या रहेगी।"

सासजी बोलीं - "हाँ, ठीक तो कहती हो, अब जब तक बहू के सर से हत्‍या न उतर जाए, तब तक न कोई पानी पी सकता है, न खाना खा सकता है। बहू, यह क्‍या कर डाला?"

महरी ने कहा - "फिर क्‍या हो, कहो तो पंडितजी को बुलाय लाई।"

सास की जान-में-जान आई - "अरे हाँ, जल्‍दी दौड़ के पंडितजी को बुला लो।"

बिल्‍ली की हत्‍या की खबर बिजली की तरह पड़ोस में फैल गई - पड़ोस की औरतों का रामू के घर ताँता बँध गया। चारों तरफ से प्रश्‍नों की बौछार और रामू की बहू सिर झुकाए बैठी।

पंडित परमसुख को जब यह खबर मिली, उस समय वे पूजा कर रहे थे। खबर पाते ही वे उठ पड़े - पंडिताइन से मुस्‍कुराते हुए बोले - "भोजन न बनाना, लाला घासीराम की पतोहू ने बिल्‍ली मार डाली, प्रायश्चित होगा, पकवानों पर हाथ लगेगा।"

पंडित परमसुख चौबे छोटे और मोटे से आदमी थे। लंबाई चार फीट दस इंच और तोंद का घेरा अट्ठावन इंच। चेहरा गोल-मटोल, मूँछ बड़ी-बड़ी, रंग गोरा, चोटी कमर तक पहुँचती हुई।

कहा जाता है कि मथुरा में जब पंसेरी खुराकवाले पंडितों को ढूँढ़ा जाता था, तो पंडित परमसुखजी को उस लिस्‍ट में प्रथम स्‍थान दिया जाता था।

पंडित परमसुख पहुँचे और कोरम पूरा हुआ। पंचायत बैठी - सासजी, मिसरानी, किसनू की माँ, छन्‍नू की दादी और पंडित परमसुख। बाकी स्त्रियाँ बहू से सहानुभूति प्रकट कर रही थीं।

किसनू की माँ ने कहा - "पंडितजी, बिल्‍ली की हत्‍या करने से कौन नरक मिलता है?" पंडित परमसुख ने पत्रा देखते हुए कहा - "बिल्‍ली की हत्‍या अकेले से तो नरक का नाम नहीं बतलाया जा सकता, वह महूरत भी मालूम हो, जब बिल्‍ली की हत्‍या हुई, तब नरक का पता लग सकता है।"

"यही कोई सात बजे सुबह" - मिसरानीजी ने कहा।

पंडित परमसुख ने पत्रे के पन्‍ने उलटे, अक्षरों पर उँगलियाँ चलाईं, माथे पर हाथ लगाया और कुछ सोचा। चेहरे पर धुँधलापन आया, माथे पर बल पड़े, नाक कुछ सिकुड़ी और स्‍वर गंभीर हो गया - "हरे कृष्‍ण! हे कृष्‍ण! बड़ा बुरा हुआ, प्रातःकाल ब्रह्म-मुहूर्त में बिल्‍ली की हत्‍या! घोर कुंभीपाक नरक का विधान है! रामू की माँ, यह तो बड़ा बुरा हुआ।"

रामू की माँ की आँखों में आँसू आ गए - "तो फिर पंडितजी, अब क्‍या होगा, आप ही बतलाएँ!"

पंडित परमसुख मुस्‍कुराए - "रामू की माँ, चिंता की कौन सी बात है, हम पुरोहित फिर कौन दिन के लिए हैं? शास्‍त्रों में प्रायश्चित का विधान है, सो प्रायश्चित से सब कुछ ठीक हो जाएगा।"

रामू की माँ ने कहा - पंडितजी, इसीलिए तो आपको बुलवाया था, अब आगे बतलाओ कि क्‍या किया जाए!"

"किया क्‍या जाए, यही एक सोने की बिल्‍ली बनवाकर बहू से दान करवा दी जाय। जब तक बिल्‍ली न दे दी जाएगी, तब तक तो घर अपवित्र रहेगा। बिल्‍ली दान देने के बाद इक्‍कीस दिन का पाठ हो जाए।"

छन्‍नू की दादी बोली - "हाँ और क्‍या, पंडितजी ठीक तो कहते हैं, बिल्‍ली अभी दान दे दी जाय और पाठ फिर हो जाय।"

रामू की माँ ने कहा - "तो पंडितजी, कितने तोले की बिल्‍ली बनवाई जाए?"

पंडित परमसुख मुस्‍कुराए, अपनी तोंद पर हाथ फेरते हुए उन्‍होंने कहा - "बिल्‍ली कितने तोले की बनवाई जाए? अरे रामू की माँ, शास्‍त्रों में तो लिखा है कि बिल्‍ली के वजन-भर सोने की बिल्‍ली बनवाई जाय; लेकिन अब कलियुग आ गया है, धर्म-कर्म का नाश हो गया है, श्रद्धा नहीं रही। सो रामू की माँ, बिल्‍ली के तौल-भर की बिल्‍ली तो क्‍या बनेगी, क्‍योंकि बिल्‍ली बीस-इक्‍कीस सेर से कम की क्‍या होगी। हाँ, कम-से-कम इक्‍कीस तोले की बिल्‍ली बनवा के दान करवा दो, और आगे तो अपनी-अपनी श्रद्धा!"

रामू की माँ ने आँखें फाड़कर पंडित परमसुख को देखा - "अरे बाप रे, इक्‍कीस तोला सोना! पंडितजी यह तो बहुत है, तोला-भर की बिल्‍ली से काम न निकलेगा?"

पंडित परमसुख हँस पड़े - "रामू की माँ! एक तोला सोने की बिल्‍ली! अरे रुपया का लोभ बहू से बढ़ गया? बहू के सिर बड़ा पाप है, इसमें इतना लोभ ठीक नहीं!"

मोल-तोल शुरू हुआ और मामला ग्‍यारह तोले की बिल्‍ली पर ठीक हो गया।

इसके बाद पूजा-पाठ की बात आई। पंडित परमसुख ने कहा - "उसमें क्‍या मुश्किल है, हम लोग किस दिन के लिए हैं, रामू की माँ, मैं पाठ कर दिया करुँगा, पूजा की सामग्री आप हमारे घर भिजवा देना।"

"पूजा का सामान कितना लगेगा?"

"अरे, कम-से-कम में हम पूजा कर देंगे, दान के लिए करीब दस मन गेहूँ, एक मन चावल, एक मन दाल, मन-भर तिल, पाँच मन जौ और पाँच मन चना, चार पसेरी घी और मन-भर नमक भी लगेगा। बस, इतने से काम चल जाएगा।"

"अरे बाप रे, इतना सामान! पंडितजी इसमें तो सौ-डेढ़ सौ रुपया खर्च हो जाएगा" - रामू की माँ ने रुआँसी होकर कहा।

"फिर इससे कम में तो काम न चलेगा। बिल्‍ली की हत्‍या कितना बड़ा पाप है, रामू की माँ! खर्च को देखते वक्‍त पहले बहू के पाप को तो देख लो! यह तो प्रायश्चित है, कोई हँसी-खेल थोड़े ही है - और जैसी जिसकी मरजादा! प्रायश्चित में उसे वैसा खर्च भी करना पड़ता है। आप लोग कोई ऐसे-वैसे थोड़े हैं, अरे सौ-डेढ़ सौ रुपया आप लोगों के हाथ का मैल है।"

पंडि़त परमसुख की बात से पंच प्रभावित हुए, किसनू की माँ ने कहा - "पंडितजी ठीक तो कहते हैं, बिल्‍ली की हत्‍या कोई ऐसा-वैसा पाप तो है नहीं - बड़े पाप के लिए बड़ा खर्च भी चाहिए।"

छन्‍नू की दादी ने कहा - "और नहीं तो क्‍या, दान-पुन्‍न से ही पाप कटते हैं - दान-पुन्‍न में किफायत ठीक नहीं।"

मिसरानी ने कहा - "और फिर माँजी आप लोग बड़े आदमी ठहरे। इतना खर्च कौन आप लोगों को अखरेगा।"

रामू की माँ ने अपने चारों ओर देखा - सभी पंच पंडितजी के साथ। पंडित परमसुख मुस्‍कुरा रहे थे। उन्‍होंने कहा - "रामू की माँ! एक तरफ तो बहू के लिए कुंभीपाक नरक है और दूसरी तरफ तुम्‍हारे जिम्‍मे थोड़ा-सा खर्चा है। सो उससे मुँह न मोड़ो।"

एक ठंडी साँस लेते हुए रामू की माँ ने कहा - "अब तो जो नाच नचाओगे नाचना ही पड़ेगा।"

पंडित परमसुख जरा कुछ बिगड़कर बोले - "रामू की माँ! यह तो खुशी की बात है - अगर तुम्‍हें यह अखरता है तो न करो, मैं चला" - इतना कहकर पंडितजी ने पोथी-पत्रा बटोरा।

"अरे पंडितजी - रामू की माँ को कुछ नहीं अखरता - बेचारी को कितना दुख है -बिगड़ो न!" - मिसरानी, छन्‍नू की दादी और किसनू की माँ ने एक स्‍वर में कहा।

रामू की माँ ने पंडितजी के पैर पकड़े - और पंडितजी ने अब जमकर आसन जमाया।

"और क्‍या हो?"

"इक्‍कीस दिन के पाठ के इक्‍कीस रुपए और इक्‍कीस दिन तक दोनों बखत पाँच-पाँच ब्राह्मणों को भोजन करवाना पड़ेगा," कुछ रुककर पंडित परमसुख ने कहा - "सो इसकी चिंता न करो, मैं अकेले दोनों समय भोजन कर लूँगा और मेरे अकेले भोजन करने से पाँच ब्राह्मण के भोजन का फल मिल जाएगा।"

यह तो पंडितजी ठीक कहते हैं, पंडितजी की तोंद तो देखो!" मिसरानी ने मुस्‍कुराते हुए पंडितजी पर व्‍यंग्‍य किया।

"अच्‍छा तो फिर प्रायश्चित का प्रबंध करवाओ, रामू की माँ ग्‍यारह तोला सोना निकालो, मैं उसकी बिल्‍ली बनवा लाऊँ - दो घंटे में मैं बनवाकर लौटूँगा, तब तक सब पूजा का प्रबंध कर रखो - और देखो पूजा के लिए…"

पंडितजी की बात खतम भी न हुई थी कि महरी हाँफती हुई कमरे में घुस आई और सब लोग चौंक उठे। रामू की माँ ने घबराकर कहा - "अरी क्‍या हुआ री?"

महरी ने लड़खड़ाते स्‍वर में कहा - "माँजी, बिल्‍ली तो उठकर भाग गई!"