प्रायोजित आग दुर्घटना में भस्म सपने / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :30 दिसंबर 2017
मुंबई में कमला मिल परिसर में आग लगी और चौदह लोग जल गए। इस कपड़ा मिल में जितनी फिल्मों की शूटिंग हुई उतने धागे कभी नहीं बुने गए। कपड़ों की रीमों से अधिक फिल्मों की रीलें यहां शूट की गई हैं। एक तरह से एक और स्टूडियो बंद हो गया। ज्ञातव्य है कि कुछ माह पूर्व ही आरके स्टूडियो में आग लगी थी। कमला मिल परिसर में टेलीविजन सीरियल भी शूट किए जाते थे। मुकेश मिल्स परिसर भी स्टूडियो की तरह इस्तेमाल किया गया है।
मुंबई के स्टूडियो एक-एक करके बंद होते जा रहे हैं और बंगलों में शूटिंग अर्से से की जा रही है। दरअसल, स्टूडियो में सेट निर्माण अत्यंत महंगा हो चुका है। प्लायवुड, प्लास्टर और मजदूरी की दरें बढ़ गई हैं। महंगाई जीवन मूल्यों को प्रभावित करती है और नैतिक मानदंड भी इसके शिकार होते हैं।
किसी दौर में मुंबई सूनी मिलों की राजधानी रही है। बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश से आए लोगों को यहां रोजगार मिलता था। यह फाइबर रेयॉन के भारत पहुंचने के पहले का समय है। बाजार की ताकत ने अपना तांडव प्रारंभ ही किया था। टेक्नोलॉजी का रोड रोलर सब कुछ कुचल देता है। मिल मालिकों ने अपने पिता व दादा द्वारा लगाई गई मशीनों को बदला नहीं। उन्हें अपने बुजुर्गों द्वारा स्थापित संस्थाओं के वसूली काउंटर पर बैठने की आदत पड़ गई जैसे रेस्तरां में सेठ बैठता है और गल्ला गिनते-गिनते वह स्वयं एक सिक्का बन जाता है। उसे टेबल की जरूरत नहीं रहती, वह रकाबी अपनी तोंद पर रखकर खाना खाता है। जमीनों के दाम का बढ़ना और फाइबर का आगमन ऐसी घटनाएं थीं कि मिल मालिकों ने अपना एक लेबर लीडर खड़ा किया, जिसने मिलों में लंबी हड़ताल करा दी।
हड़ताल के प्रारंभिक दिनों में मजदूरों में जोश था और उफक (क्षितिज) पर खड़ी क्रांति उन्हें मेहबूबा की तरह हसीन लग रही थी परंतु पेट की आग और भूख से बिलखते अपने बच्चों के कारण उन्होंने अपने गांव वापस आना बेहतर समझा। परदेस प्रेम का स्वप्न भंग हुआ और उनकी 'घर वापसी' हो गई। नकली मजदूर नेताओं ने कम्युनिज्म को तबाह किया। मिल मालिकों ने पीछे के दरवाजे से मशीनें हटा दीं जिसे अन्य व्यापारी ने भट्टी में गलाकर उसे नया स्वरूप दिया। इस अंतरिम समय में मिल परिसरों में फिल्म की शूटिंग प्रारंभ हो गई। मिल मालिकों के परिवारों में धन के लिए द्वंद्व प्रारंभ हुआ और मामला अदालतों में चला गया। इसलिए शूटिंग जारी रही। 'खामोश अदालत जारी है' इस तरह भी दोहराया जाता है।
गौरतलब है कि कपड़ा मिलों की मशीनें गलाई गई हैं और वे सरिये के रूप में ढलीं तथा बहुमंजिला इमारतें बनाने में काम आईं। कपड़ा उद्योग सबसे अधिक महत्वपूर्ण रहा है। कपड़ा समाज की अच्छाइयों को उभारता है, कमजोरियों को ढंकता है। भारत कबीर की चदरिया की तरह रहा है, जो अब तार-तार की जा रही है। हुक्मरान इतने पैबंद लगा रहा है कि मूल का धागा खोजे नहीं मिलेगा। वह अनजान है इन रेशों की फितरत से कि ये कभी टूटे नहीं टूटते, मरकर भी नहीं मरते।
कपड़ा बनाना हमेशा ही महत्वपूर्ण रहा है। जब 1931 में चार्ली चैपलिन ने महात्मा गांधी से उनके मशीन विरोध को स्पष्ट करने की बात की, तब गांधीजी ने कहा था कि भारत की रुई सस्ते में खरीदकर इंग्लैंड भेजी जाती है। मैनचेस्टर के कारखाने उस रुई से कपड़ा बनाते हैं, जिसे भारत के बाजार में सौ गुना लाभ कमाकर बेचा जाता है। गांधीजी मशीन का विरोध इसलिए करते थे, क्योंकि मशीन शोषण का माध्यम बनाई जा रही थी। रुई के निर्यात और फिर कपड़े के रूप में आयात शोषण का माध्यम होते हुए भी उतना हिंसक नहीं था जितना कि कोयले का जापान को बेचा जाना जो अपना रूप बदलकर, बम बनकर बरसा। हिंसा और अहिंसा दोनों ही विविध रूपों में बार-बार लौटती हैं। इस बार हिंसा असहिष्णुता के रूप में लौटी है। यह उसका प्रखरतम रूप है, जिसे रक्तहीन हिंसा भी कह सकते हैं।
हमारे देश में कभी-कभी बीमा राशि प्राप्त करने के लिए भी आग लगाई जाती है। बीमा पाने के लिए जहाज को डूबा हुआ बताया जाता है, जबकि वह तस्कर को बेच दिया गया है। फसलें उगाना, परिश्रम करके धन कमाना इत्यादि सीधे रास्ते हमें सुहाते नहीं। हम तो आंकी-बांकी पगडंडियों पर चलना पसंद करते हैं। मंडी में दाम कम होने के कारण खड़ी फसलें जला दी जाती हैं। अनर्जित धन प्राप्त करने की कामना बड़ी बलवती होती है। लॉटरी का व्यवसाय, हर प्रकार का सट्टा ही खूब फलते-फूलते रे हैं।
विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी की भूमिका है। एक वैज्ञानिक ने ऐसा फाइबर खोजा कि उससे बने वस्त्र को झिड़क देने मात्र से या पल दो पल धूप दिखाने से वह दशकों तक चल सकता है। इस खोज को नष्ट कर दिया गया, क्योंकि यह गरीब को स्वतंत्रता देता है। शोध का फोकस मानव कल्याण से हटा दिया गया है। अब वह शोषण का साधन बना दी गई है।