प्रारम्भ / राजा सिंह
सपने में सपना थी। उसकी काया स्थिर थी परन्तु मन चलायमान था। उसके चेहरे पर एक हल्की-सी मुस्कराहट विराजमान थी। ध्यान से देखें तो ऐसा लगता था कि उसकी पुतलियॉ चल रही थी। जिसके सामने थिरक रहा था, एक जाना पहचाना चलचित्र।
...वह स्कूल में प्रवेश कर रही है। एक बड़ा-सा विशालकाय लाखौरी ईटों से बना स्कूल। प्रवेशद्वार के ऊपर लिखा है, मार्डन पब्लिक स्कूल। जिसको एक नजर में पूरा का पूरा देखा नहीं जा सकता। स्कूल की बाउन्ड्री में जड़ा गेट और उसके गुजरते हुए ठिठक जाती है, झिझकती है और शान से बढ़ती चली जाती हैं। बच्चों का रेला लम्बे-लम्बे डग भरते हुए अपने-अपने नियत कमरों में जा रहे हैं। वह एक किनारे-वाले कमरे की तरफ बढ़ती है, वहाँ उसे बैठना हैं। उसे अपना कमरा और सीट याद हैं। उसके कमरे की खिड़की बाहर से भी दिखाई पड़ती है। सभी बच्चे एक ही तरह की ड्रेस में हैं। काले जूते, सफेद मोजे, चेकदार सफेद शर्ट या ब्लाउज और काली पैंट या स्कर्ट। सबके बस्ते भी एक जैसे हैं जिसमें स्कूल का नाम छपा है। वह मेज पर बस्ता रखती है और कुर्सी पर बैठती है। सामने ब्लैक-बोर्ड पर निगाह दौड़ती है, अभी टीचर नहीं हैं। ...अचानक वह हिलने लगती है। वह कम्पायमान है। कोई झकझोर रहा है। कुछ सुनाई पड़ने लगा है। गालियों की आवाजें। उसकी तृन्द्रा टूटती है। माँ की कर्कश गालियों की बौछारें, सुनाई पड़ने लगी हैं। " उठ, हरामजादी उठ। उठ जल्दी उठ कुतिया। कैसी सुअर जैसी सो रही है, काम पर चलना है। यह तो सारे घर छुटवॉ कर रहेगी। उठती है कि लगॉऊ दो-चार हाथ, राड़। वह उठ गई. आँख मलते उसने देखा कि वह वही मटमैली कुचैली अपनी फ्राक में थी। वह अब भी न उठती तो उसका मार खाना शर्तिया था। वह निःसहाय, बेबस वर्तमान के कठिन कठोर धरातल पर लौट आती है।
उसे बहुत जल्दी जाना होता है। घर का काम करने के लिए. माँ सुबह चार बजे ही उठ जाती है। वह सपना को भी खींच-खांच के पांच बजे तक उठा ही देती है। सुबह का खाना दोनों मिलकर छः बजे तक बना लेती हैं। फिर वह दोनों बर्तन चौका और झाड़ू-पौछा करने के लिए औरों के घरों को जाती हैं। सपना चार भाई बहिन है। सबसे बड़ी सपना 13 साल, फिर दो भाई जीतू सात साल का, रोशन 5 साल का और सबसे छोटी बमुश्किल एक साल की होगी। सपना एक घर ही कर पाती है, जब कि माँ तीन घर निपटा लेती है। सपना लौटकर आठ बजे तक आ जाती है। माँ को नौं बज जाता है। बापू रिक्शा चलाता है। वह सपना के आने के बाद रखा खाना खा-पीकर निकल जाता हैं वह देर तक सोता रहता है। माँ बेटी को अपने साथ ले जाती है। वह काम करते वक्त छोटी को पास में ही बिठा देती है। छोटी हरदम रोती रहती है। वह तब तक चुप रहती है, जब खा रही होती है या सो रही होती है। वह गोद में रहने पर भी नहीं रोती है। उसके रोने पर घरों से कुछ न कुछ बिस्कुट या नमकीन उसे मिल जाता हैं। कभी-कभी ज़्यादा परेशान करने पर उसे कटोरी भर दूध भी मिल जाता है। दोनों भाई दिनभर लड़ते झगड़ते और खेलतें कूदतें रहते हैं। वह खाते-पीते, रोते-गाते, बापू को ठीक से सोने नहीं देते हैं। बापू रात में अक्सर ठर्रा लगाकर आता है और देर रात तक माँ से उलझता रहता है। नींद में खलल पड़ने पर वह बीच में उठकर दोनों को पीट देता हैं। जोर-जोर से चपतें खाने से उनका रोना और बढ़ जाता हैं। रोने की तीव्रता से त्रस्त होकर बापू उठ जाता है और दोनों मार के डर से रोना बंद कर देते हैं। जब सपना आ जाती है, तो वह सम्हाल लेती है। वह दोनों को दुलारती-फटकारती, डांटती उनका ध्यान रख लेती है। तब बापू अपने को तैयार करने लगता है। उसे नौ बजे तक मालिक के पास पहँुचना पड़ता है। वहाँ उसे किराए का रिक्शा चलाने के लिए मिलता है और उसकी मजदूरी चालू हो जाती है।
सपना अपने दोनों भाइयों को ठेल कर सरकारी स्कूल में भेजती है। इसके लिए उसे काफी मशक्कत करनी पड़ती है। वह दोनों स्कूल जाने से घबराते हैं और बचते रहते हैं उन्हें सारा दिन अपनी झोपड़ी के बाहर अन्य पास-पड़ोस के लड़कों के साथ गिल्ली-डंडा, कंचे और लुका-छिपी का खेल सुहाता है। इसमें वह आपस में झगड़ते और लड़ते भी रहते हैं। सपना को पढ़ने का बड़ा शौक है। परन्तु उसे पांच दर्जे के बाद पढ़ने नहीं दिया गया। उसे घर और बाहर के काम-काज में रेत दिया गया, जो उसे बहुत नागवार गुजरता है। उसका बहुत मन करता कि वह आगे पढ़े। परन्तु माँ और बापू उसकी आगे की पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकते। कहते हैं सब लोग काम करेंगे तभी घर सुचारू रूप से चल पायेगा। एक-दो जने से काम नहीं चलेगा। उसके माँ बापू को दोनों लड़को को पढ़ाने की कोई चिन्ता नहीं है। दो-चार दर्जा पढ़ ले तो ठीक है, नहीं तो कोई ज़रूरत नहीं है पढ़ने की। 'हमीं लोग कौन पढ़े लिखे हैं।' गरीबो के लड़कों को पढ़ने की क्या ज़रूरत? मेहनत मजदूरी करनी है। जितने हांथ होंगे, उतने काम मिलेंगे और उतनी ही आमदनी होगी। तभी घर ठीक से चल पायेगा। मगर सपना नहीं मानती। वह लड़-झगड़ कर दोनों को स्कूल भिजवाती ही रहती है। यह बात अच्छी है कि उसकी जबरदस्ती करने पर मां-बाप अडंगा नहीं लगाते।
बापू ठर्रा पीता है। कभी-कभी वह माँ को पिलाता है। उस दिन माँ उसके ठर्रा पीने पर लड़ती-झगड़ती और गरियाती नहीं है। मगर रोज तो ठर्रा पिया नहीं जा सकता। उसके लिए पैसे कहाँ से आयेंगे? आखिर में झुग्गी-झोपड़ी का भी किराया देना पड़ता है। राशन का खर्चा है, भाजी-तरकारी है, तेल और नमक है। किरोसिन तेल का खर्चा काफी है। स्टोव और लालटेन जलाने के लिए. बस्ती के बाहर एक जगह हैंण्डपम्प लगा है। पानी वहीं से भरकर लाना पड़ता है। यह काम भी माँ और सपना ही करती हैं। कभी-कभी दोनों भाई भी उछल-उछल कर हैण्डपम्प चलाकर पानी भर लाते हैं। बापू और दोनो भाई बाहर हैण्ड पम्प में ही नहा लेते हैं। सिर्फ़ सपना और माँ घर के भीतर नहाते हैं। पीने के पानी के लिए घड़ा भरा जाता है और काम के लिए छोटा टीन का ड्रम है, उसमें पानी का स्टाक किया जाता है। उनके पास एक छोटी और बड़ी बाल्टी भी है। खाने के सारे बरतन अल्यूनियम के हैं, जो सपना को पसंद नहीं है। उसे तो मलकिन के यहाँ पर स्टील केे बर्तन देखे हैं, वह अच्छे लगते हैं। वह सोचती है कि काश ऐसे बर्तन उसके यहाँ भी होते।
पहले-पहल जब सपना को झॉड़ू-पोंछा और बरतन साफ करने का काम दिया गया तो उसे बहुत बुरा लगा था। उसने जमकर विरोध किया। फैल गयी थी। भूख-हड़ताल कर दी थी। परन्तु कब तक भूखी रहती? वह पढ़ना चाहती थी, परन्तु उसकी किसी ने भी नहीं सुनी। उसे मार-पीट कर इस काम में जुटा दिया गया। वह काम बेमन से मजबूरी में करने लगी थी। वह बहुत जल्दी थक जाती थी। उससे साफ करते हुए अक्सर कप-प्लेट और कांच की चीजें टूट जाती थीं। जिसके कारण मालकिन से मार खानी पड़ती थी। टूटे बर्तनों के वह पैसे भी काट लेतीं, तब उसे घर पर भी मार पड़ती थी। पहले वह काम को तीन घंटे में निपटा जाती थी। परन्तु अब वह इस काम में अभ्यस्त हो गई है। अब वह काम दो घंटे में पूरा कर लेती है। काम वह करती हैं परन्तु महीने पूरा होने पर पैसे माँ ले जाती है। उसे यह अच्छा नहीं लगता। उसे माँ से ज़्यादा मालकिन अच्छी लगती है, साफ, सुथरी और खूबसूरत। वह रोज काम समाप्त करने के बाद उसे चाय-बिस्कुट भी देती हैं। उन्होंने उसे यह फ्राक भी दी है। हाँलाकि पुरानी है, परन्तु तब दी थी तब फ्राक एकदम नयी जैसी लगती थी। उनकी लड़की के छोटी पड़ गई थी, जो उसे दे दी। खैर! अब धूल-पसीना और धूप खाकर बदरंग हो गई है, परन्तु अभी भी कहीं से फटी नहीं है। मैली-कुचैली होने पर गंदी तो लगेगी ही, परन्तु साबंुन से साफ करने पर वह फ्राक फिर से खिल उठती है। एक बात उसे मालकिन की और अच्छी लगती है कि वह अपने बच्चों राहुल और प्रीति को ज़रूर-ज़रूर स्कूल भेजती हैं। दोनों बच्चे मार्डन पब्लिक स्कूल की ड्रेस पहनकर उन्हें ले जाने आये रिक्शे में बैठकर टाटा करते स्कूल चले जाते हैं। वह हसरत भरी निगाहों से ताकती रह जाती है। वह खो-सी जाती है। स्कूल जाने का सपना और बलवती होकर उसे कचोटनंे लगता है। यह सपना उसके मन-मस्तिष्क में घर कर गया है।
आजकल उसके स्वप्न और दिवास्वप्न सब एक जैसे हो गये हैं। दोनों में कोई फर्क नहीं रहा है। उसकी कल्पना और परिकल्पना में भी स्कूल छाया रहता है और कुछ कर गुजरने का हौंसला देता रहता है। आज सपना का पढ़ाई का जोश समुद्र की हिलोरों की तरह उठ रहा है। उसकी लहरें उसे उद्वेलित, उत्तेजित और साहसी बना रही हैं। आज फैसला करके रहेगी। वह काम पर नहीं जायेगी। सुबह-शाम दो टाइम जाना पड़ता हैं न घूमना फिरना, ना पढ़ना-लिखना। क्या ज़िन्दगी है? हरदम खटते रहो। आज वह नहीं मानेगी। वह बिफर पड़ी। पसड़ गई. वह काम नहीं करेगी, उसने ऐलान कर दिया। वह पढ़ेगी। वह लिखेगी। उसे ऊँचा बनना है। वह चिल्ला-चिल्ला कर बोल रही थी। वह झोपड़ी से बाहर निकल कर मंुह फेर कर खड़ी हो गई. उसका गुस्सा माँ पर ज़्यादा था। माँ ही सब कारन की गठरी है। बापू मान भी जायें परन्तु यह काली भैंस नहीं मानती। शाम का खाना भी मुझे बनाना पड़ता है। अपना शाम को इधर-उधर मटकती रहती है। अपना तो खा-खा कर मुटा रही है और मुझे काम पर रेतती चली जा रही है। कहती है एक-दो घर और पकड़ लो। काम करेगा मेरा ठेंगा। वह बुदबुदा रही थी। बुदबुदाहट ऐसी कि सबको सुनाई पड़ रही थी। माँ के तन-बदन में आग लग गई थी। 'छटांक भर की लड़की और जबान हाथ भर की।' माँ तेजी से बाहर आई. वह रौद्र रूप में थी। उसकी तरफ लपकी। वह मार से बचने के लिए भागने को हुई पर उसकी चोटी माँ के हाथों में आ गई. पकड़ी गई और बुरी तरह पीट दी गई. ' स्साली...एक तो काम नहीं करेगी। ऊपर से जबान लड़ाती है। हरामजादी...नासपीटी आज इसका पढ़ाई का भूत भगाते हैं। सपना पिटती जा रही थी, पर जबान बंद नहीं थी।
'हाँ, नहीं करूंगी काम। मुझे पढ़ना है। सब बच्चे पढ़ते हैं। जल्लाद हो...बच्चों से काम करवाती हो और खुद मौज करती हो।' वह बड़ी ठिठाई से चिल्लाई. माँ उसे बुरी तरह पीटने लगी थी। उन्होने एक लकड़ी उठा ली थी और उससे मारने लगी। वह छूट नहीं पा रही थी क्योंकि उसकी चोटी माँ के कब्जे में थी। वह चीख-चीख कर रो रही थी।
'खाने को ढेर सारा और काम को ठेंगा। कामचोरी और सीनाजोरी।' माँ ने उसके पैरों और पीठ पर डंडे बरसा दिये। वह बिलबिला गई. बमुश्किल वह छूट पायी और भाग खड़ी हुई. भागते हुए वह माँ को गाली निकालती जा रही थी। सपना देर रात तक शिवमंदिर के चबूतरे पर गुड़ी-मुड़ी बनी सुबकती रही। मंदिर में आने जाने वाले उसके हांथों में प्रसाद रखते रहे। वह खाती रही और रोती रही। उसके पैर और पीठ पर डंडे के निसान उँभर आये थे। पूरा शरीर दर्द कर रहा था। वह महसूस कर रही थी कि वह कमजोर है। काश वह बड़ी होती तो माँ उसे मार नहीं सकती थी। वह उसका हांथ पकड़ लेती और घुमा देती।
म्ंादिर के कपाट बंद हो गये थे और वह वैसे ही सीढ़ियों पर अपने को बिसराये पड़ी थी। वह असहाय थी। वह अपमानित थी। वह प्रताणित थी। दुखी निराश थी धीरे-धीरे डर भी उसमें प्रवेश कर रहा था। सारा शहर सो गया था। सड़क पर चहल-पहल नदारत थी। ट्रैफिक इक्का-दुक्का था। डर उत्पात मचाने लगा था। कहीं कोई गंुंडा मवाली उसे देख न ले। फिर उसके साथ वे लोग क्या करेंगें? अकेले पाकर कोई अपहरण न कर ले। कहीं हाथ-पैर तोड़कर उससे भीख न मंगवाई जाये। वह वापस घर जाने को सोच रही थी परन्तु उसका अहं आड़े आ रहा था। वह खुद भाग कर आई है। वापस जाने पर तिरस्कार होगा? ऐसी जल्लाद माँ के पास फिर जाना पड़ेगा? कहीं उसने फिर मारना चालू कर दिया तो?
रात गहराती जा रही थी और भय दुगना-चौगुना होकर उसके मन मस्तिष्क में भरता जा रहा था। दिल कुशंका से धड़क रहा था। असमंजस में उसने आँखें मंूद लीं। शायद नींद आ जाये। परन्तु चोट, डर, भय से घिरी उसकी आंखें भी बंद नहीं हो पा रही थीं। अब उसे अपने आप पर भी गुस्सा आ रहा था। वह ऐसा क्यों कर सकी? सपना को सपना ही रहना चाहिए था। उसे पूरा करने को नहीं सोचना चाहिए. उसकी सोच में पश्चाताप का भाव उभर रहा था। उसे सपना नहीं देखना चाहिए था स्कूल की बात नहीं सोचती...और सिर्फ़ काम करती रहती तो यह नौबत नहीं आती। ...उसे माँ को गाली नहीं बकनी चाहिए थी। ...उसकी गलती है। ...सिर्फ उसी की गलती है। ...पता नहीं क्यों वह ऐसी बातें सोचती है जो गरीब लोंगो को नहीं सोचनी चाहिए. सपने देखती है। दिन में सपने देखती है। रात में सपने देखती है। वह पढ़-लिख कर अच्छा नहीं बन पायेगी? उस पर अवसाद की काली छाया छा गई थी। एकांत और अँधेरा उससे लिपट-लिपट कर रो रहे थे।
उसने महसूस किया कि कोई उसे सहला रहा था। वह चौंक उठी। आँखें फाड़कर देखा तो विस्मित रह गई. बापू उसके पास खड़े और वही उसके सर को सहला रहे थे। वह उसको स्नेह भरी नजरों से निहार रहे थे। उसका डर, गुस्सा चोट सभी काफूर हो गये। उसकी आँखें हर्षमिश्रित खुशी से गीली हो गईं। बापू ने उसे हांथ पकड़ कर उठाया और वह उसके पीछे-पीछे अबोध शिशु की तरह चल पड़ी थी, अपने घर की ओर। वह बापू से बहुत कुछ पूछॅना चाहती थी। हम लोग गरीब क्यों हैं? हम लोग क्यों पढ़-लिख नहीं सकते? पढ़-लिख कर ही तो गरीबी दूर होती है, तो फिर हम क्यों ऐसा नहीं करते? हम सब काम करते हैं फिर क्यों खाने-पीने, रहने सोने की दिक्कत बनी रहती है? हम दूसरे की उतरन ही क्यों पहनते हैं? हमारे लिए नये कपड़े दूसरों के मोहताज क्यों हैं? उसके कई प्रश्न ऐसे हैं, जिनका कोई उत्तर उसे नहीं मिलता। न उसे सुझाई पड़ता है। ऐसे प्रश्नों पर सिर्फ़ डांट मिलती है बहुत बकबक करने लगी है। चुप-प-चुप हो जा। ...उसका सपना स्कूल...कोई सपना नहीं ...कोई सपना नहीं देखेगी...उस सपने से क्या फायदा जो दुख और अपमान दे। ...
उसे भूख लग रही थी। उसने रसोई में खंगाला कुछ नहीं मिला। कहीं कुछ नहीं था। उसके लिए कुछ नहीं छोड़ा गया। यह सब माँ की कारस्तानी है। वह उसे ऐसे ही दण्ड देती है, उसका खाना बंद करके. वह देर रात तक जागती रही। उसकी भूख बढ़ रही थी और साथ में बढ़ रहा था पछतावा। साथ ही साथ अपने से किया वादा पक्का होता जा रहा था कि अब सपने नहीं देखना है।
अगले दिन से वह काम पर जाने लगी थी। उसने माँ से बोलना छांेड़ दिया था उसके सपनों की दुनिया की दुशमन। उसके आगे बढ़ने की राह का रोड़ा। माँ को उसकी एैंठ बुरी लग रही थी। वह उससे रूखे स्वर में कह कर घर बाहर का काम करवाती ही रहती थी। उसे उसके बोलने न बोलने से कोई फर्क नहीं पड़ता था। वह जबाब नहीं देती परन्तु मौन रहकर काम निपटा दिया करती। उसे माँ की कुढन पता थी। वह अपने काम के प्रति लापरवाह हो गई. उसे अपने प्रति भी विराग पैदा हो गया। पहले वह अपना और अपनें रूप सिंगार का बड़ा ध्यान रखती थी। वह काली थी, परन्तु वह अपने को सांवला मानती थी। उसने लोगों से सुन रखा था कि उसके फीचर्स अच्छे हैं और उस जैसा सुन्दर इस झोपड़ बस्ती में कोई नहीं है। यह जानकर वह गर्व से भर उठी थी। परन्तु वह मानती थी कि पढ़े लिखे लोग ज़्यादा सुन्दर होते हैं। घरों का काम करने वाले कहाँ सुन्दर रह पाते हैं? उसकी हथेली खुरदुरी और मैली हो गई थी। हथेली की लकीरों में हर समय काला मैल छिपा रहता था। उसे घिन आने लगी थी। उसे लगता है कि यदि उसे घरों को काम चौका-बरतन, झाड़ू-पोंछा न करना पड़े तो वह फिर सुंदर हो सकती है। उसे आगे पढ़ने को मिल जाये तो उसकी गरीबी दूर हो सकती है और वह और भी सुन्दर हो सकती है। ...काश! ऐसा हो सकता। उसे पढना लिखना और किताबें देखना अच्छा लगता था। उसका मन ललक उठता था। अच्छी-अच्छी किताबें देख वह हुलस उठती थी और प्रेम से उन पर हाथ फेरती। यदि हिन्दी की किताबें होती तो पढ़ने की कोशिश करती। परन्तु अंग्रेज़ी की किताबों को बड़ी हसरत की नजरों से देखती। अगर वह आगे पढ़ेगी तो उसे अंग्रेज़ी भी आ जायेगी। ए.बी.सी.डी. तो वह जानती ही हैं। जीतू और रोशन स्कूल जाने में काफी आनाकानी करते। स्कूल के नाम से परेशान रहते और दूसरों को परेशान करते। उन दोनों को स्कूल भेजना एक समस्या से कम नहीं था। मां-बापू ज़्यादा ध्यान नहीं देते। कहते हैं कि पढ़ते हैं तो साले पढ़े, नहीं ंतो कोई ज़रूरत नहीं है। थोड़े बड़े होने पर किसी होटल-ढाबे में लगा देंगे। वहीं खाना-पीना हो जायेगा और कुछ रुपया पैसा ही घर आयेगा। उसे यह सुनकर बहुत बुरा लगता। लड़के होकर नहीं पढ़ेंगे, बापू की तरह खटेंगे-मरेंगे, इस तरह से घर चलायेंगें। वह चीखती है, चिल्लाती है, माँ और बापू पर। कैसे नहीं पढ़ेंगे, जब मारपीट के काम करवा सकते हैं तो पढ़ाई काहे नहीं करवाई जा सकती है। बापू! तुम काहे नहीं दोनों को मारते पीटते हो। मार के आगे भूत नाचत है तो यह दोनों कौनन खेत की मूली हैं? उन्हें पढ़ेक पड़ी। वह लड़झगड़ कर दोनों को स्कूल जबरदस्ती भिजवाती ही रहती। उसे एक अजीब-सा सकून मिलता था।
बहुत दिनों बाद आज सपना अन्दर ही अन्दर खुश हैं। शायद उसकी तमन्ना पूरी हो सकती है। उसे पता चला है कि सफेद कालोनी में एक दम्पति है। वे दोनों लोग काम करते हैं। इसलिए उनके यहाँ पर सिर्फ़ सुबह-सुबह ही काम करना पड़ेगा। शाम के काम की छुट्टी क्योंकि उस समय तक वह लौट कर नहीं आ पाते। शायद पैसा भी ज़्यादा मिल सकता है क्योंकि वे लोग यहाँ नये-नये आये हैं। उन्हें यहाँ का रेट पता नहीं है। उसको यह बात उसी की तरह काम करने वाली लड़की ने बतायी थी। उसके पास पहले से ही तीन-चार घर हैं, इसलिए वह नहीं कर सकती। सपना ने सोचा कि अगर उसे यह काम मिल जाये तो वह स्कूल जा सकेगी। स्कूल दस बजे लगता है। घर को पैसे का नुकसान नहीं होगा और वह पढ़ाई भी कर सकेगी। उसने घर में बिना बताये उस लड़की के साथ जाकर काम पक्का कर आई. उसने चालाकी दिखाई और दोनों कामों के बारह सौ बताये। उसे प्रसन्नता हुई जब वे लोग इतने रूपये में मान गये।
उसने घर में ज़्यादा पैसे पाने की और कम काम करने की पूरी बात विस्तार से माँ और बापू को बताई. वे दोनों खुश हुए अपनी बेटी की चालाकी से, कम काम के ज़्यादा पैसे। उन्होंने पुराना घर छोड़ने की इजाजत दे दी। ज़्यादा रूपये और सिर्फ़ एक टाइम का काम, बाकी समय सपना घर को भी देख सकेगी उन्होंने अनुमान लगाया। सपना दुनियादारी में निपुण होती जा रही है, यह सोच कर भी वह दोनों पुलकित थे। उन्होंने आगाह किया पुराने घर से महीने के पूरे पैसे मिलने के बाद ही नया घर पकड़ना। सपना ने उन्हें अपने सपने की भनक भी नहीं लगने दी।
सपना ने नये घर में काम करना शुरू कर दिया था। वे लोग काफी अच्छे थे। मालकिन टीचर थीं और मालिक अधिकारी थे। उस घर का काम छै बजे से आठ बजे तक पूर्णरूप से निपटा देती थी। उसे अब उठाना नहीं पड़ता था। वह जल्दी उठकर माँ का साथ देती थी और छै से पहले ही काम करने पहँुच जाती थी। अब उसके सम्बन्ध माँ से सुधर गये थे। वह माँ को गुस्सा होने का कोई मौका देना नहीं चाहती थी।
कुछेक दिनों बाद स्कूल का नया सत्र शुरू होने वाला है। एडमीशन शुरू हो गये हैं। अब बात करनी ही पड़ेगी। अब बात नहीं करेगी तो कब करेगी? डर और हिचक उसे हतोत्साहित कर रहे थे। प्रत्याशित विरोध की आशंका से वह ग्रस्त थी। वह माँ की मार सह सकती है, परन्तु बापू ने अगर कूटा तो क्या होगा? फिर भी अपनी बात तो कहनी ही हैं वह बात कैसे करे? अभी करना उचित रहेगा कि नहीं। वह असमंजस की स्थिति में थी। घर का माहौल गमगीन था। बापू को रिक्शा चलाते समय पैर में चोट लग गई थी। वह घरेलू उपचार करके अपने काम पर जाते रहे थे। पैर में घाव हो गया था, वह पककर रिसने लगा था। पैर पूरी तरह से सूज गया था। चलने में दिक्कत थी, पैर उठाया भी नहीं जाता था। इधर कई दिनों से काम पर नहीं गये थे। आज माँ उन्हें लेकर सरकारी अस्पताल गई थी। आज रिक्शे चलाने वाला खुद रिक्से की सवारी कर रहा था। सबको अजीब-सा लग रहा था। बापू झेंप रहे थें, परन्तु मजबूर थे। न जाते तो इलाज कैसे होता? माँ बापू के दिखाने के कारण काम पर नहीं गई थी। उसे भी छुट्टी करने को कहा गया था। घर में रूककर भाइयों को देखने के लिए. अजीब इत्तेफाक है, आज दिन में मां, बापू और वह एक साथ बैठे हैं। माँ की गोद में छोटी है। जीतू और रोशन झोपड़ी के बाहर खेल रहे हैं। वह कशमकश में है अपनी फरमाईश रखने के लिए. आज मौका अच्छा है। आज वह अपनी बात मनवा सकती है। उसे माहौल अनुकूल लगा। उसने चर्चा छेड़ दी। ...
" बापू ...मुझे पढ़ना है। हमारा एडमीशन करवां देव इतना कहते हुए उसके चेहरे पर सम्पूर्ण दीनता उतर आई थी। बापू भौचक रह गये थे, अचानक मृतप्राय प्रसंग को पुनः जीवित किये जाने से। वह वैसे ही अपनी हालत से दुखी और पस्त थे। माँ इस अप्रत्याशित प्रहार से क्रोध से जल उठी थी।
'अंधी है क्या? दीदा फूट गये हैं। बाप इस हालत में है। ओखर काम ध्ंाधा छूटा पड़ा है, दवाई दारू में पैइसा सब निकरत जात है। औरन साहबजादी को गुलछर्रे उड़ावन की पड़ी हैं।' माँ गुर्राइ ।
बिटिया पैसा कहॉं है हमरे पासे। '
'सरकारी स्कूल मा एडमीशन खातिर कौउनउ पैसा नहीं लागत है। कोई खर्चा न पड़त है।'
किताब-कापी, बस्ते और ड्रेस का पैसा कहॉं से जोड़ाई? माँ फट पड़ी।
' सबही स्कूल मा मिले और सरकारी स्कूलन में ड्रेस ना होवत हैं और दोपहरिया में खाना भी मिलत है।
'पढ़ाई के पीछे घरन का काम छोड़न का पड़ी। हजार-बारह सौ का नुकसान कैसे झेलब' बापू ने लाचारी प्रगट की।
'कामहूँ न छोड़व और स्कूल भी जइबे। सुबह आठ-साढ़े आठ बजे तक घरन का काम निपटावे के बाद, दस बजे तक स्कूल जाब। कौनव नुकसन न होई.'
'पगला गई है, यह रंडी. कुछ समझत नाहीं। अभी साल दो साल में शादी करेक पड़ी तो पैसा कहाँ से आवेगा? एक दो घर और पकड़ ले तो शादी लायक कुछ पैसा जुड़ जावे। मुला इसको पढ़ाई का भूत सवार है' माँ ने हार नहीं मानी थी। परन्तु सपना पढ़ाई के प्रति मोहाविष्ट थी। वह किसी बहाने से दबने को तैयार नहीं थी। माँ खिसिया गई थी। उसने गालिओं की बौछार के साथ उसे लतियाने का उपक्रम किया।
'निकल हमरी ठिइया से। बाहर जाके पढ़ो चाहें मरो।' माँ ने उसे झकझोरते हुये उठाया और उसे खींचकर झोपड़ी से बाहर करने लगी।
' अरे! रूक जा बद्जात... रूक स्साली। बापू गरजा। वह चोटिल पैर को सहारा देकर उठा और उसने औरत को रोका। अपनी हार से क्षुब्ध होकर माँ रोने लगी थी। परन्तु इतनी मार-पीट और गालियों के बाद भी सपना उसी तरह बे-आंसू अपने रूख पर कायम थी।
' चलो कर लेने दो इसे अपने मन की। थोड़े दिनन मा डबल मेहनत करेक पड़ी तो दिमाग ठिकाने आ जाइब और पढ़ाई लिखाई सब छूट जाई. बापू ने हताशा में उसॉस भरी और खाट पर निस्तेज पसर गये।
सपना के रूअॅासे चेहरे पर विजय की चमक धीरे-धीरे फैल रही थी। मानसिक और शारीरिक द्वन्द से उभरने के बाद आया संतोष का भाव उसे आने वाले दिनों के दिवास्वप्न में उलझा रहा था। सब कुछ गड्ड-मड्ड होने के बाद वह अप्रत्याशित सफलता से भावाविष्ट थी। उसे स्वप्नों-दिवास्वप्नों का सिरा पकड़ में आ गया था और उसका यथार्थ में परिवर्तन प्रारम्भ हो चुका था।