प्रार्थना / पद्मजा शर्मा
रामनवमी की झाँकी निकल रही थी। सामने से किसी सिरफिरे ने पत्थर फेंका तो जवाब में गाली आई. बात बढऩे लगी। यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गई. अफरा-तफरी का माहौल हो गया। मैं दफ्तर में थी। घर से सूचना मिली कि जल्दी घर आ जाओ. शहर में दंगा भड़कने की आशंका है। दफ्तर से निकल, लौंड्री से कपड़े उठाए. टेलर मास्टर, खाँ चाचा के यहाँ कपड़े सिलने डाले। यह सब मेरे रास्ते में ही पड़ता था।
मैंने चौराहे से दाईं और टर्न ली थी कि दंगाइयों की भीड़ से सामना हो गया। मेरे माथे पर लगी बिन्दिया देख उन्होंने आव देखा न ताव, कार का कांच तोड़ डाला। एक ने भद्दी-सी गाली दी। कइयों ने हाथ में लोहे के सरिए, डंडे थाम रखे थे। वे मुझ पर आक्रमण करने को तैयार थे। वे मेरी ओर आ रहे थे। यह देख किसी अनहोनी की आशंका के चलते मैंने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा-'मैंने आपका क्या बिगाड़ा?'
'तुम काफिर हो। उस खलील ने किसी का कुछ बिगाड़ा था? उसे अस्पताल किसने पहुंचाया?' नफरत से भरी ये आवाजें मुझ तक तीर की तरह आ रही थीं। तभी उनके कानों में 'पिया हाजी अली...' के स्वर गए. मेरी कार में कैसेट बज रही थी। यह मेरी पसंदीदा प्रार्थना थी।
उन्होंने एकाएक मुझे अचरज से देखा। मारने के लिए बढ़े कदम और उठे हाथ रुक गए. डंडे हाथ से छूट गए. भीड़ बिखर गई. कुछ जो वहाँ बच गए थे वे खुदा की इबादत में वहीं झुक गए.
मैं हतप्रभ थी। निश्चित रूपसे ये युवक अपनी मर्जी से यहाँ नहीं आए हैं। खुदा की इबादत में उठने वाले हाथ हथियार नहीं उठा सकते। आखिर इनके पीछे कौन हैं जो ये सब करवाते हैं?