प्रासंगिक / नामवर सिंह
प्रासंगिक क्या वही है जो हमारे विचारों का अनुमोदन करता है और आज के अनुकूल है? जो आज से भिन्न है और हमें चुनौती देता है, वह प्रासंगिक क्यों नहीं? आज यह सवाल उठाना इसलिए जरूरी है कि प्रासंगिकता की चिंता प्रमाद की सीमा तक बढ़ गई है। अतीत के हर बड़े लेखक को किसी-न-किसी तरह समकालीन बनाने की ऐसी कोशिश हो रही है कि अतीतता तो सुरक्षित रही ही नहीं, वर्तमान की अपनी विशिष्टता भी लुप्त हो रही है - यहाँ तक कि अतीत और वर्तमान का अंतर मिटता जा रहा है इस तरह आज की ज्वलंत समस्याओं से बच निकलने का एक बहाना मिल रहा है।
संयोग से हर साल कोई-न-कोई जन्मशती या निधन-शती पड़ती ही है और आज जागरूकता इतनी ही है कि जो महापुरुष जीते-जी अलक्षित रह गए थे वे भी अब बच निकलने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। उन्हें प्रासंगिक होना ही पड़ेगा और विडंबना तो यह है कि जो एक-दूसरे के विरुद्ध हैं उन दोनों पक्षों के समर्थन में प्रस्तुत होने के लिए भी वे अभिशप्त होंगे। परंपरा को हथिया लेने की इस कोशिश में आश्चर्य नहीं कि अनुकूल व्याख्या द्वारा प्रासंगिक बनाने का सारा प्रयास ही संदिग्ध हो उठे! आज परंपरा की प्रगतिशील धारा के लिए संघर्ष करनेवालों के सम्मुख सबसे बड़ी चुनौती यही है।
पुनर्जागरण के बाद से यह तो स्पष्ट हो गया है कि परंपरा विरासत में अपने आप सहज ही प्राप्त होनेवाली वस्तु नहीं है, बल्कि उसे आयास करके अर्जित करना पड़ता है। अर्जन के इस प्रयास में चयन अनिवार्य है। वस्तुतः यह चयन-वृत्ति स्वयं 'परंपरा' की अवधारणा में अंतर्निहित है। परंपरा यदि एक का दूसरे को और दूसरे को तीसरे को दिया जानेवाला पीढ़ी-दर-पीढ़ी क्रम है तो हस्तातंरण के इस क्रम में जरूरी नहीं कि अतीत की संपूर्ण निधि अविकल रूप में सारी की सारी सुलभ होती चली जाए। प्रायः हर मंजिल पर कुछ छूटता है, कुछ नया जुड़ता है और कुछ बदलता भी है। निश्चय ही इसमें व्याख्याओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है और कुछ बदलता भी है। निश्चय ही इसमें व्याख्याओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है और ये व्याख्याएँ भी क्रमशः मूल के साथ लगकर परंपरा का अभिन्न अंग बन जाती हैं - यहाँ तक कि कभी-कभी मूल और व्याख्या को अलगाना कठिन हो जाता है। प्रगतिशील विचारकों ने यदि आज की स्थिति में रूढ़िवादियों से अपने अतीत की रक्षा करके परंपरा की प्रगतिशील धारा को उजागर करने का प्रयास किया है तो इसे पुनर्जागरण काल की चेतना का ही विकास कहा जाएगा। इस दृष्टि से कबीर, जायसी, तुलसी, भारतेंदु, महावीरप्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद, निराला - जैसे महान साहित्यकारों की प्रगतिशील व्याख्याओं का ऐतिहासिक महत्व है। निश्चय ही इन साहित्यकारों के मूल्यांकन में उनके अंतर्विरोधों और असंगतियों को भी रेखांकित किया गया है और इसके लिए एक हद तक ऐतिहासिक परिस्थितियों को जिम्मेदार भी ठहराया गया है। किंतु जोर निश्चय ही विधेयात्मक प्रगतिशील तत्वों पर ही है। असुविधाजनक असंगतियों को या तो एकदम क्षेपक कहकर खारिज कर दिया जाता है अथवा उन्हें गौण मानकर उपेक्षणीय। यह विवशता संभवतः रूढ़िवादियों की प्रतिक्रिया के कारण है। यही नहीं, अतीत के लेखकों को प्रासंगिक सिद्ध करने की चिंता में या तो वर्तमान से उनके पार्थक्य को कम करके बताया जाता है या फिर इस अंतर को एकदम भुला ही दिया जाता है। इस प्रक्रिया में होता यह है कि प्रगतिशील परंपरा की एक अटूट अविछिन्न धारा तो बन जाती है, किंतु कुछ समान प्रगतिशील तत्वों के कारण अतीत के प्रायः सभी महान लेखक एकरूप-से दिखाई पड़ते हैं - यहाँ तक कि उनके चेहरे की निजी विशिष्टता भी खो जाती है। इस प्रकार फौरी तौर पर यह प्रगतिवादी रणनीति भले ही कारगर प्रतीत हो, किंतु अंततः यह आश्चर्यजनक एकरूपता ही उसे संदिग्ध बना देती है। बर्टोल्ट ब्रेष्ट ने संभवतः इसी बात से चिंतित होकर पुराने नाटकों की व्याख्या के लिए 'एलियनेशन इफेक्ट' नामक सुप्रसिद्ध प्रविधि को ईजाद किया था। यदि ब्रेष्ट के 'अलगाव-प्रभाव' को आलोचना के क्षेत्र में लागू करें तो अतीत की कृतियों को आज के लिए प्रासंगिक बनाने का सबसे वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ ढंग यह है कि अपने और उनके बीच की दूरी को सुरक्षित रखा जाए और इस प्रकार पाठकों में उस आलोचनात्मक विवेक को जागृत रखा जाए जिससे वे अतीत की महान से महान कृति के अपने अंतर्विरोधों के प्रति सजग रहें। दूरी अथवा अलगाव का विलोम पुराना 'तादात्म्य' सिद्धांत है, जिसमें भ्रम का खतरा है। अतीत की कृति के साथ पूर्णतः तादात्म्य स्थापित करने के लिए उसकी ऐतिहासिकता को तो मिटाया ही जाता है, अक्सर उसके अंतर्विरोधों को भी खत्म करना पड़ता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस प्रक्रिया में प्राचीन कृति थोड़ी देर के लिए नितांत समकालीन भले ही हो जाए किंतु अंततः उसकी अपनी अस्मिता तो नष्ट होती ही है, हम भी अपनी अस्मिता के लिए खतरा मोल लेते हैं। इस भ्रम से बचने का एक ही उपाय है और वह है पार्थक्य का सतत विवेक। क्या इस विवेक में प्रासंगिकता संभव नहीं है?