प्रियंका चोपड़ा, दीपिका की फिल्में व इरफान का इनकार / जयप्रकाश चौकसे

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प्रियंका चोपड़ा, दीपिका की फिल्में व इरफान का इनकार
प्रकाशन तिथि :08 फरवरी 2016


आजकल प्रियंका चोपड़ा और दीपिका पादुकोण दोनों ही अभिनेत्रियां अमेरिका में अपनी अंग्रेजी भाषा में बनने वाली फिल्मों के काम में जुटी हैं। पहली बार दो भारतीय सितारे अमेरिका के सिनेमा की मुख्य धारा से जुड़े हैं। पूर्व में अभिनेता शशि कपूर ने अंग्रेजी भाषा में बनी अनेक फिल्मों में अभिनय किया परंतु आइवरी-मर्चेन्ट की वे फिल्में व्यावसायिक फिल्मों की मुख्यधारा का भाग नहीं थीं। कुछ समय पूर्व हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अमेरिका में थे परंतु सड़कों पर लगे होर्डिंग्स में प्रियंका चोपड़ा की 'क्वांटिको' ने सारा स्थान घेरा हुआ था, यह शोमैनशिप का द्वंद्व था और सितारा भारी पड़ रहा था। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और तब के अमेरिकी राष्ट्रपति जे.एफ.कैनेडी के दौर में उनकी अमेरिका में आयोजित सभाओं में भारी भीड़ होती थी। आज तो नेताओं को चुनावी सभा में भीड़ जुटाने के लिए सितारों का सहयोग लेना पड़ता है। नेता और अभिनेता दोनों ही सपने बेचते है परंतु अभिनेता के सपने ईस्टमैनकलर होते हैं और जनता को पसंद हैं। नेता कलर-युग में श्वेत-श्याम सपने बेचता है। प्रियंका चोपड़ा का शरीर सौष्टव मादक है और चेहरे पर छाई मासूमियत इस नशे को दोहरा कर देती है। दीपिका का जादू उसके विश्वसनीय अभिनय में है। एक का शरीर कलदार सिक्क‌ा है, दूसरी की प्रतिभा खनकदार है। सिनेमा की दुनिया में चलने वाले ये ही दो सिक्के हैं।

इन दोनों की सक्रियता के साथ इरफान खान भी अपने रफ-टफ लुक और अभिनय प्रतिभा के दम पर वहां टिके हैं। ताजा खबर है कि इरफान खान ने स्कारलेट जोहानसन के साथ स्टीवन स्पिलबर्ग की एक फिल्म में काम करने से इनकार कर दिया, क्योंकि उनकी भूमिका उन्हें दमदार नहीं लगी। मनोरंजन जगत में जब कोई सितारा किसी भव्य फिल्म में काम करने से इनकार करे तो समझ लो कि उसकी मांग है और इनकार करने का उसमें साहस है। भारतीय सिनेमा के कलाकार अपनी शर्तों पर विदेशी फिल्मों में काम कर रहे हैं। यह प्रतिभा की ताकत दिखाने के साथ यह भी दर्शाता है कि सफलता के बावजूद सितारे का विवेक साबूत है और वह अपने स्थान से वाकिफ है। वह हड़बड़ाहट में कोई फैसला नहीं लेतना चाहता। गौरतलब यह है कि क्या वहां प्रतिभा का अकाल है या इन सितारों का कोई विकल्प नहीं है। ठोस यथार्थ यह है कि एक करोड़ चौतीस लाख भारतीय विदेशों में बसे हैं और उनकी खरीदने की क्षमता बड़ी है। अत: इस विराट दर्शक समूह के कारण भारतीय सितारों की वहां मांग है परंतु यह एकमात्र कारण नहीं है। विगत कुछ वर्षों से नवरात्रि के पावन अवसर पर अमेरिका में बसे धनाढ्य गुजराती भारत से गरबा करने वालों की टीमों को आमंत्रित करते हैं। गुजराती भाषा की फिल्मों के लिए यह बाजार अभी तक खुला नहीं है, क्योंकि वहां के युवा वर्ग अमेरिकन फिल्मों पर फिदा है। यह अप्रवासी भारतीयों की डॉलर शक्ति का असर विगत भारतीय चुनाव में भी देखने को मिला। इस प्रकरण का एक पहलू यह भी है कि अमेरिकी सीेनेट में कुछ प्रभावशाली भारतीय चुनाव जीते हैं परंतु वे इस खुशफहमी में न रहें कि वे भारतीय चुनाव जीत सकते हैं। यहां के चुनावों में वे अपने जॉकी भेज सकते हैं परंतु थोड़ा भारतीय ही होना चाहिए। आज जो लोग अमेरिका की सीनेट या ब्रिटिश संसद में भारतीयों की मौजूदगी पर गर्व करते हैं, वे कभी भारत में अन्य देश में जन्मी महिला के 'विदेशी' होने का मिथ्या प्रचार करते थे। पूरी दुनिया को एक मानवीय कुटुम्ब मानने वाली उदात संस्कृति का ये चुनावी दंभ भी दिखाते है। अब तो पूर्व और पश्चिम टेक्नोलॉजी के सेतु पर मिलते हैं और किपलिंग की कहावत को झूठा साबित करते हैं कि 'ईस्ट इज ईस्ट एंड वेस्ट इज वेस्ट, द ट्वेन शेल नेव्हर मीट।' विकसित होते बाजारों और निजी स्वार्थी ने सब कुछ बदल दिया है।

भारतीय विवाह की रंगीन शैली ने भी अपने लिए विदेशों में एक बाजार बना लिया है और कुछ धनाढ्य विदेशियों ने भारत में शादियां की हैं। दरअसल, हमारा 'सॉफ्ट पावर' अर्थात संस्कृति एक मुनाफा कमाने वाली वस्तु बन गई है और इस क्षेत्र में भी खोटे सिक्के ने असल सिक्के को चलन के बाहर कर दिया है। आज हम अपनी उदात्त संस्कृति के छद्म स्वरूप को जमकर बेच रहे हैं। यह दुनिया अब एक बाजार ै और बहुत कम लोग यह कह सकते हैं कि बाजार से गुजरे हैं परंतु खरीददार नहीं है। आज तो इंसानों को ही नहीं मालूम कि वे इस बाजार में बेचे जा रहे हैं।