प्रियंका चोपड़ा का बेदाग सफरनामा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :17 फरवरी 2015
भंसाली की'बाजीराव मस्तानी' में बाजीराव की पत्नी काशीबाई की भूमिका प्रियंका चोपड़ा कर रही है और मस्तानी की भूमिका दीपिका पादुकोण। यह इतिहास आधारित फिल्म भालजी पेंढारकर 1925 में बना चुके हैं। भंसाली के सिनेमा में भव्यता, रंगों और ध्वनि का अतिरेक होता है और शांताराम के 'नवरंग' तथा 'झनक झनक पायल बाजे' के प्रस्तुतीकरण का गहरा प्रभाव है परंतु प्रभाव स्वीकार करने में वे बहुत खुले स्वभाव के व्यक्ति हैं। मसलन 'ब्लैक' का मध्यांतर के पहले वाला भाग 'मिरेकल वर्कर' नामक हॉलीवुड फिल्म से लिया था। बाजीराव के हृदय में मस्तानी के बसने के बाद उनकी पत्नी काशीबाई का दिल टूट गया था। दरअसल पूरा पेशवा दरबार ही मस्तानी के खिलाफ था। बहरहाल, प्रियंका चोपड़ा का कहना है कि दीपिका की भूमिका का महत्व अधिक है परंतु काशीबाई के दु:ख की सीमा नहीं है और उन्हें पूरा अवसर भी है परंतु वे अपनी कठिनतम भूमिका 'बर्फी' और 'मैरी कॉम' को मानती हैं और वैसी ही चुनौती मिलने की आशा करती हैं।
उनके गाए गीत के सी.डी. भारत से अधिक विदेशों में लोकप्रिय है परंतु पार्श्वगायन को अपना प्रमुख काम नहीं बनाना चाहतीं। आजकल उनकी छुटि्टयां चल रही हैं, क्योंकि बाजीराव की शूटिंग में अभी महीनाभर उनकी जरूरत नहीं है, इसलिए उन्होंने अपने मनपसंद छोटे बाल कर लिए हैं। कलाकारों को एक भूमिका से दूसरी में जाने के कारण कभी अपने मनपसंद ढंग से जीने का अवसर ही नहीं मिलता और उनके अवचेतन में सारी भूमिकाओं के लिए बनाई गई छवियां कुछ यूं घूमती रहती हैं जैसे बच्चों के खेलने के कैलायडोस्कोप में रंगीन कांच के टुकड़े उसे घुमाने पर नया-नया आकार लेते रहते हैं और इसी आपाधापी में स्वयं की इच्छाएं और पसंद-नापसंद का लोप हो जाता है। कुछ सितारे तो लंबे अरसे बाद अपने को पहचान ही नहीं पाते परंतु इस खोए रहने के नाम और दाम उन्हें बहुत मिलते हैं। आम आदमी की भी बहुत छवियां होती हैं और कठोर तथा निर्मम जीवन की आपाधापी में वे भी खो से जाते हैं परंतु इस मशक्कत के उन्हें नाम दाम तो नहीं मिलते वरन वे स्वयं खर्च हो जाते हैं। सितारे और आम आदमी का जीवन कठिन होता है परंतु जीवन की शतरंज पर वे राजा-रानी हैं तथा आम आदमी प्यादा!
प्रियंका ने अब अपने आप को सितारों की दौड़ से अलग कर लिया है और इसी कारण वह बहुत प्रसन्न भी है। वह समझ गई है कि फिल्मी दड़बे में रोज नए-नए चूजे बाहर आते हैं और प्रतियोगिता का कोई फायदा नहीं है। श्रद्धा कपूर और आलिया भट्ट को अभी बहुत समय नहीं गुजरा है परंतु फिल्मी उफक (क्षिितज) पर खड़ी अक्षरा के आते ही वे बासी लगने लगेंगी। प्रियंका सत्रह की कच्ची वय में ही मनोरंजन व्यवसाय में फैशन के रैम्प से होती हुई धमकी। इस उद्योग में चंद वर्षों में ही अनेक भूमिकाओं और अपने स्वयं के घटनाक्रम का अनुभव हो जाता है। केवल उस अनुभव के अध्ययन, विवेचन और नतीजे पर पहुंचने में एक उम्र लग जाती है। याद आता है संतोष आनंद का लिखा 'शोर' का गीत 'मौजों की रवानी है, जिंदगी और कुछ नहीं तेरी-मेरी कहानी है। एक पल में उम्र चुरानी है।' प्रियंका अपने कॅरिअर के प्रारंभ में अपने नौकरों से ठगी गई परंतु उसके परिवार की ठोस सहायता से वह संभल गई। उसके कोई प्रेम प्रसंग सामने नहीं आए। केवल शाहरुख खान के साथ कुछ समय की गहरी दोस्ती सुर्खियों में रही। अत: अब उसके मन में एकाएक शादी और बच्चे का खयाल आया है। क्या इस खयाल के आने का कोई संबंध विगत समय उसके पिता की मृत्यु से जुड़ा है। माता-पिता का निधन बहुत बड़ी घटना है, यह जीवन बदल देती है। विचार प्रक्रिया को हिला देती है। प्रियजन की मृत्यु के बाद नया जन्म देने की चाह का उठना स्वाभाविक है।
यह बात केवल प्रियंका तक सीमित नहीं है परंतु सभी फिल्म और रंगमंच के कलाकार अपने काम के सिलसिले में अनेक बार प्रेम की भूमिकाएं निभाते हैं तो क्या इन भूमिकाओं के बाद यथार्थ जीवन में प्रेम और विवाह के क्षणों में अवचेतन की तलछट में जमा अनुभव ऊपरी सतह पर आते हैं? आम आदमी के जीवन में भी पुराने प्रेम प्रसंग, भले ही एक तरफा रहे हों, क्या यथार्थ में अपना साया डालते हैं?