प्रियंका चोपड़ा के 'क्वांटिको' का प्रदर्शन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :06 अक्तूबर 2015
अमेरिका में एक प्रसिद्ध कंपनी द्वारा बनाए गए टीवी सीरियल 'क्वांटिको' का प्रदर्शन शुरू हो गया और भारत में पहला एपिसोड विगत शनिवार को दिखाया गया और उसका पुन: प्रदर्शन भी लगभग प्रतिदिन हो रहा है। इस सीरियल में अनेक पात्र हैं परंतु प्रियंका चोपड़ा द्वारा अभिनीत पात्र केंद्रीय पात्र है। इस काल्पनिक कथा को क्वांटिको नामक जगह पर रचा गया है, जहां देश-विदेश के कुछ चुनिंदा लोगों को गुप्तचरी की कला में प्रशिक्षित किया जा रहा है और इस संस्था का काम सीआईए और फेडरल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टीगेशन से अलग इस मायने में है कि इसका एकमात्र उद्देश्य आतंकी गतिविधियों पर नज़र रखना और उनका प्रतिरोध करना है। अमेरिका में 9/11 को दो इमारतों के ध्वस्त होने के बाद पूरा अमेरिका आतंकित है और वे किसी भी कीमत पर इस तरह के हादसे को दोबारा घटित नहीं होने देना चाहते। अमेरिका अपनी सुरक्षा के प्रति जितना सजग है उतना ही लापरवाह दूसरे देशों की सुरक्षा के प्रति है। यह अपनी सुरक्षा की भावना की ग्रंथि से पीड़ित है और अपने को बचाए रखने के उद्देश्य से इसने कई देशों में अनावश्यक युद्ध रचे हैं। उसकी अर्थव्यवस्था और पूंजी तथा मुनाफे का एकतरफा दृष्टिकोण ही उसका भीतरी शत्रु है। अमेरिका को इतनी सरल बात समझ में नहीं आती कि वह सुरक्षित विश्व में ही सुरक्षित रह सकता है।
बहरहाल, इस सीरियल में एक दल को प्रशिक्षित करने के साथ ही हर चुने गए व्यक्ति की पृष्ठभूमि को दोबारा 'माइक्रोस्कोप' से जांचा जा रहा है। प्रियंका अभिनीत पात्र ने कमसिन उम्र में ही अपने पिता को उस समय मारा है जब वह उसकी मां के खिलाफ हिंसा कर रहा था। यह बात वह पहले ही जान गई थीं कि उसका पिता गुप्तचर है और अब उसने इस संस्था की सदस्यता भी इसी उद्देश्य से प्राप्त की है कि वह अपने पिता का पूरा सच जान ले। उसे विदेशी एजेंट समझकर गिरफ्तार किया जाता है और यातना शिविर की ओर रवाना किया जाता है तथा मार्ग में उसकी दक्षिण अफ्रीका से चुनी गई साथी उसे भागने का अवसर जुटाती है। अब प्रियंका अभिनीत पात्र की तलाश अमेरिका की सारी गुप्तचर व पुलिस संस्थाएं कर रही हैं। अब अलग-थलग पड़ी यह नायिका कैसे स्वयं को बचाकर अपना लक्ष्य करेगी। यह एक मनोरंजक एवं उत्तेजक कथा बन सकती है।
प्रियंका सुंदर और सक्षम दोनों ही लग रही हैं अौर खुशी की बात यह है कि उसकी भूमिका महत्वपूर्ण है। इसी तरह इरफान खान भी विदेशी फिल्मों में प्रमुख पात्र अभिनीत करके ओम पुरी द्वारा दिखाए पथ पर अग्रसर नवाजुद्दीन पर भी पश्चिम के फिल्मकारों की निगाह है। कई दशक पूर्व भारत के अत्यंत साधारण एक्टर साबू को 'एलीफेंट बॉय' के लिए लिया गया था। प्राय: भारतीय कलाकार को अपने कथानक में किसी भारतीय के पात्र को अभिनीत करने के लिए चुना जाता था परंतु ओम पुरी के विलक्षण अभिनय ने भारतीय कलाकार का महत्व स्थापित किया। हॉलीवुड लंबे समय तक अपने देश के नीग्रो कलाकारों के साथ भेदभाव करता रहा तो उनसे भारतीय कलाकार के लिए न्याय की उम्मीद ही व्यर्थ है। वे तो भारत के नेताओं को भी मसखरा ही मानते हैं और इसीलिए मसखरा भी स्वयं को अर्थशास्त्री व दार्शनिक मानने लगा है। जब हमारा अवाम ही आसानी से छवियों पर विश्वास करने लगा है तो अन्य से क्या अपेक्षा करें। बहरहाल, 'क्वांटिको' के प्रचार में नायिका को महत्व दिया गया है और प्रियंका के बड़े-बड़े होर्डिंग्स इतने अधिक लगे थे कि उस समय की भारतीय प्रधानमंत्री की अमेरिकी यात्रा का वह प्रचार ही नहीं हो पाया, जिसकी आशा थी और उसी दौर में पोप की अमेरिकी यात्रा ही लाइमलाइट में रही। विदेश की शूटिंग में सीरियल निर्माता ने प्रियंका चोपड़ा को सुपरस्टार की तरह रखा। इस सीरियल के लिए मिला मेहनताना अभी तक उजागर नहीं हुआ है परंतु यह तो तय है कि वह राशि भारत के बड़े सुपर सितारों को भी नहीं मिलती। अब मात्र नौ हजार एकल सिनेमाघरों के देश का फिल्म उद्योग हॉलीवुड से क्या मुकाबला करेगा, जिनकी फिल्में दुनिया के हर देश में दिखाई जाती है। हमारी तो सफलतम फिल्म भी बमुश्किल तीन करोड़ से कम दर्शक ही सिनेमाघर में देखते हैं। दरअसल, किसी भी उद्योग द्वारा पूरे देश की मेहनत से ही संभव है। भिखारी प्रवृत्ति से सवयं भिखारी का भला नहीं हो पाता, वह सारी उम्र भिखारी ही रहता है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में भिखारी प्रवृत्ति से लाभ नहीं हो सकता।